ਥਿਰੁ ਭਈ ਤੰਤੀ ਤੂਟਸਿ ਨਾਹੀ ਅਨਹਦ ਕਿੰਗੁਰੀ ਬਾਜੀ ॥੩॥
थिरु भई तंती तूटसि नाही अनहद किंगुरी बाजी ॥३॥
तार स्थिर हो गई है और टूटती नहीं तथा (मेरे भीतर) सहज ही अनहद किंगुरी बज रही है॥ ३॥
ਸੁਨਿ ਮਨ ਮਗਨ ਭਏ ਹੈ ਪੂਰੇ ਮਾਇਆ ਡੋਲ ਨ ਲਾਗੀ ॥
सुनि मन मगन भए है पूरे माइआ डोल न लागी ॥
इसको सुनने से मेरा मन मग्न हो जाता है और उसे मोहिनी का धक्का नहीं लगता।
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਤਾ ਕਉ ਪੁਨਰਪਿ ਜਨਮੁ ਨਹੀ ਖੇਲਿ ਗਇਓ ਬੈਰਾਗੀ ॥੪॥੨॥੫੩॥
कहु कबीर ता कउ पुनरपि जनमु नही खेलि गइओ बैरागी ॥४॥२॥५३॥
हे कबीर ! जो प्रभु प्रीति वाला योगी ऐसा खेल-खेलकर जाता है, वह दोबारा जन्म नहीं लेता ॥ ४॥ २ ॥ ५३ ॥
ਗਉੜੀ ॥
गउड़ी ॥
गउड़ी ॥
ਗਜ ਨਵ ਗਜ ਦਸ ਗਜ ਇਕੀਸ ਪੁਰੀਆ ਏਕ ਤਨਾਈ ॥
गज नव गज दस गज इकीस पुरीआ एक तनाई ॥
नौ गज (गोलक), दस गज (नाड़ियों) और इक्कीस गजों का एक पूरा थान (ताना) बुन दे।
ਸਾਠ ਸੂਤ ਨਵ ਖੰਡ ਬਹਤਰਿ ਪਾਟੁ ਲਗੋ ਅਧਿਕਾਈ ॥੧॥
साठ सूत नव खंड बहतरि पाटु लगो अधिकाई ॥१॥
साठ धागों (नाड़ियों के ताने) एवं बहतर पेटे (छोटी नाड़ियों) साथ नौ जोड़ (भाग) और मिला दे ॥ १॥
ਗਈ ਬੁਨਾਵਨ ਮਾਹੋ ॥ ਘਰ ਛੋਡਿਐ ਜਾਇ ਜੁਲਾਹੋ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गई बुनावन माहो ॥ घर छोडिऐ जाइ जुलाहो ॥१॥ रहाउ ॥
सूत बुनाने के लिए गई हुई आत्मा ने कहा। अपने पुराने घर (शरीर) को छोड़कर आत्मा जुलाहे के चुने हुए में चली जाती है॥ १॥ रहाउ॥
ਗਜੀ ਨ ਮਿਨੀਐ ਤੋਲਿ ਨ ਤੁਲੀਐ ਪਾਚਨੁ ਸੇਰ ਅਢਾਈ ॥
गजी न मिनीऐ तोलि न तुलीऐ पाचनु सेर अढाई ॥
शरीर गजों से मापा अथवा बाट से तोला नहीं जाता। इसकी खुराक ढाई सेर है।
ਜੌ ਕਰਿ ਪਾਚਨੁ ਬੇਗਿ ਨ ਪਾਵੈ ਝਗਰੁ ਕਰੈ ਘਰਹਾਈ ॥੨॥
जौ करि पाचनु बेगि न पावै झगरु करै घरहाई ॥२॥
यदि शरीर को खुराक शीघ्र न मिले तो आत्मा झगड़ा करती है और शरीर का घर नष्ट हो जाता है।॥ २॥
ਦਿਨ ਕੀ ਬੈਠ ਖਸਮ ਕੀ ਬਰਕਸ ਇਹ ਬੇਲਾ ਕਤ ਆਈ ॥
दिन की बैठ खसम की बरकस इह बेला कत आई ॥
हे प्रभु के प्रतिकूल आत्मा ! तूने कितने दिन यहाँ बैठे रहना है ? यह अवसर तुझे दोबारा कब मिलेगा ?
ਛੂਟੇ ਕੂੰਡੇ ਭੀਗੈ ਪੁਰੀਆ ਚਲਿਓ ਜੁਲਾਹੋ ਰੀਸਾਈ ॥੩॥
छूटे कूंडे भीगै पुरीआ चलिओ जुलाहो रीसाई ॥३॥
बर्तन एवं गीली नलियों को छोड़कर जुलाही आत्मा क्रोध में चली जाती है॥ ३॥
ਛੋਛੀ ਨਲੀ ਤੰਤੁ ਨਹੀ ਨਿਕਸੈ ਨਤਰ ਰਹੀ ਉਰਝਾਈ ॥
छोछी नली तंतु नही निकसै नतर रही उरझाई ॥
श्वास का धागा खाली हवा की नाली में से नहीं निकलता। उलझ कर श्वास का धागा टूट गया है।
ਛੋਡਿ ਪਸਾਰੁ ਈਹਾ ਰਹੁ ਬਪੁਰੀ ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਸਮਝਾਈ ॥੪॥੩॥੫੪॥
छोडि पसारु ईहा रहु बपुरी कहु कबीर समझाई ॥४॥३॥५४॥
हे भाग्यहीन आत्मा ! यहाँ (इहलोक में) रहती हुई तू संसार को त्याग दे। तुझे यह ज्ञान देने के लिए कबीर यह कहता है॥ ४॥ ३॥ ५४॥
ਗਉੜੀ ॥
गउड़ी ॥
गउड़ी ॥
ਏਕ ਜੋਤਿ ਏਕਾ ਮਿਲੀ ਕਿੰਬਾ ਹੋਇ ਮਹੋਇ ॥
एक जोति एका मिली कि्मबा होइ महोइ ॥
एक ज्योति परम ज्योति से मिल जाती है। क्या यह दोबारा अलग हो सकती है अथवा नहीं ?
ਜਿਤੁ ਘਟਿ ਨਾਮੁ ਨ ਊਪਜੈ ਫੂਟਿ ਮਰੈ ਜਨੁ ਸੋਇ ॥੧॥
जितु घटि नामु न ऊपजै फूटि मरै जनु सोइ ॥१॥
जिस व्यक्ति के हृदय में ईश्वर का नाम अंकुरित नहीं होता, वह फूट-फूट कर दुखी होकर मरता है॥ १॥
ਸਾਵਲ ਸੁੰਦਰ ਰਾਮਈਆ ॥
सावल सुंदर रामईआ ॥
हे मेरे सांवले एवं सुन्दर राम !
ਮੇਰਾ ਮਨੁ ਲਾਗਾ ਤੋਹਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
मेरा मनु लागा तोहि ॥१॥ रहाउ ॥
मेरा मन तो तेरे चरणों से लगा हुआ है॥ १॥ रहाउ॥
ਸਾਧੁ ਮਿਲੈ ਸਿਧਿ ਪਾਈਐ ਕਿ ਏਹੁ ਜੋਗੁ ਕਿ ਭੋਗੁ ॥
साधु मिलै सिधि पाईऐ कि एहु जोगु कि भोगु ॥
संतों को मिलने से सिद्धि प्राप्त होती है। क्या लाभ है इस योग-मार्ग का और क्या भोग का ?
ਦੁਹੁ ਮਿਲਿ ਕਾਰਜੁ ਊਪਜੈ ਰਾਮ ਨਾਮ ਸੰਜੋਗੁ ॥੨॥
दुहु मिलि कारजु ऊपजै राम नाम संजोगु ॥२॥
जब गुरु (की वाणी) एवं सिक्ख (की वृति) दोनों आपस में मिल जाते हैं तो कार्य सफल हो जाता है और राम के नाम से संयोग कायम हो जाता है।॥ २॥
ਲੋਗੁ ਜਾਨੈ ਇਹੁ ਗੀਤੁ ਹੈ ਇਹੁ ਤਉ ਬ੍ਰਹਮ ਬੀਚਾਰ ॥
लोगु जानै इहु गीतु है इहु तउ ब्रहम बीचार ॥
लोग समझते हैं केि यह (गुरु का शब्द) एक गीत है परन्तु यह तो ब्रहा का चिन्तन है।
ਜਿਉ ਕਾਸੀ ਉਪਦੇਸੁ ਹੋਇ ਮਾਨਸ ਮਰਤੀ ਬਾਰ ॥੩॥
जिउ कासी उपदेसु होइ मानस मरती बार ॥३॥
यह उस उपदेश की भाँति है जो बनारस में मनुष्य को मरते समय दिया जाता है।॥ ३॥
ਕੋਈ ਗਾਵੈ ਕੋ ਸੁਣੈ ਹਰਿ ਨਾਮਾ ਚਿਤੁ ਲਾਇ ॥
कोई गावै को सुणै हरि नामा चितु लाइ ॥
जो भी व्यक्ति चित्त लगाकर भगवान के नाम को गायन करता अथवा सुनता है,
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਸੰਸਾ ਨਹੀ ਅੰਤਿ ਪਰਮ ਗਤਿ ਪਾਇ ॥੪॥੧॥੪॥੫੫॥
कहु कबीर संसा नही अंति परम गति पाइ ॥४॥१॥४॥५५॥
हे कबीर ! इसमें कोई सन्देह नहीं है केि वह अवश्य ही परमगति प्राप्त कर लेता है॥ ४॥ १॥ ४॥ ५५ ॥
ਗਉੜੀ ॥
गउड़ी ॥
गउड़ी ॥
ਜੇਤੇ ਜਤਨ ਕਰਤ ਤੇ ਡੂਬੇ ਭਵ ਸਾਗਰੁ ਨਹੀ ਤਾਰਿਓ ਰੇ ॥
जेते जतन करत ते डूबे भव सागरु नही तारिओ रे ॥
भगवान के सिमरन के बिना मनुष्य जितने भी यत्न करते हैं, वे भवसागर में डूब जाते हैं और पार नहीं होते हैं।
ਕਰਮ ਧਰਮ ਕਰਤੇ ਬਹੁ ਸੰਜਮ ਅਹੰਬੁਧਿ ਮਨੁ ਜਾਰਿਓ ਰੇ ॥੧॥
करम धरम करते बहु संजम अह्मबुधि मनु जारिओ रे ॥१॥
जो व्यक्ति धर्म, कर्म एवं बहुत संयम करते हैं, अहंबुद्धि उनके मन को जला देती है॥ १॥
ਸਾਸ ਗ੍ਰਾਸ ਕੋ ਦਾਤੋ ਠਾਕੁਰੁ ਸੋ ਕਿਉ ਮਨਹੁ ਬਿਸਾਰਿਓ ਰੇ ॥
सास ग्रास को दातो ठाकुरु सो किउ मनहु बिसारिओ रे ॥
हे नश्वर प्राणी ! तूने उस ठाकुर को अपने हृदय में से क्यों भुला दिया है, जिसने तुझे जीवन एवं भोजन प्रदान किए हैं ?
ਹੀਰਾ ਲਾਲੁ ਅਮੋਲੁ ਜਨਮੁ ਹੈ ਕਉਡੀ ਬਦਲੈ ਹਾਰਿਓ ਰੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हीरा लालु अमोलु जनमु है कउडी बदलै हारिओ रे ॥१॥ रहाउ ॥
यह मनुष्य-जन्म (मानो) हीरा एवं अमूल्य लाल है, लेकिन तूने इसे कौड़ी के लिए गंवा दिया है॥ १॥ रहाउ॥
ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਤ੍ਰਿਖਾ ਭੂਖ ਭ੍ਰਮਿ ਲਾਗੀ ਹਿਰਦੈ ਨਾਹਿ ਬੀਚਾਰਿਓ ਰੇ ॥
त्रिसना त्रिखा भूख भ्रमि लागी हिरदै नाहि बीचारिओ रे ॥
हे भाई ! तुझे तृष्णा की प्यास एवं दुविधा की भूख का दु:ख लगा हुआ है, क्योंकि अपने हृदय में तुम ईश्वर के नाम का चिंतन नहीं करते।
ਉਨਮਤ ਮਾਨ ਹਿਰਿਓ ਮਨ ਮਾਹੀ ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਨ ਧਾਰਿਓ ਰੇ ॥੨॥
उनमत मान हिरिओ मन माही गुर का सबदु न धारिओ रे ॥२॥
धर्म-कर्म का नशा उनको ठग लेता है, जो गुरु का शब्द अपने हृदय में नहीं बसाते॥ २॥
ਸੁਆਦ ਲੁਭਤ ਇੰਦ੍ਰੀ ਰਸ ਪ੍ਰੇਰਿਓ ਮਦ ਰਸ ਲੈਤ ਬਿਕਾਰਿਓ ਰੇ ॥
सुआद लुभत इंद्री रस प्रेरिओ मद रस लैत बिकारिओ रे ॥
ऐसे व्यक्ति पापी हैं जो दुनिया के स्वादों में आकर्षित हैं, जो विषय-भोग के रसों में लीन हैं और मदिरा का स्वाद लेते हैं।
ਕਰਮ ਭਾਗ ਸੰਤਨ ਸੰਗਾਨੇ ਕਾਸਟ ਲੋਹ ਉਧਾਰਿਓ ਰੇ ॥੩॥
करम भाग संतन संगाने कासट लोह उधारिओ रे ॥३॥
जो उत्तम भाग्य एवं किस्मत द्वारा संतों की संगति से जुड़ते हैं, वह लकड़ी से लगे लोहे की भाँति (भवसागर से) पार हो जाते हैं।॥ ३॥
ਧਾਵਤ ਜੋਨਿ ਜਨਮ ਭ੍ਰਮਿ ਥਾਕੇ ਅਬ ਦੁਖ ਕਰਿ ਹਮ ਹਾਰਿਓ ਰੇ ॥
धावत जोनि जनम भ्रमि थाके अब दुख करि हम हारिओ रे ॥
भ्रम में फँसकर मैं अनेक योनियों के जन्मों में दौड़-दौड़कर भटकता हार गया हूँ। अब मैं इस दुःख से थक गया हूँ।
ਕਹਿ ਕਬੀਰ ਗੁਰ ਮਿਲਤ ਮਹਾ ਰਸੁ ਪ੍ਰੇਮ ਭਗਤਿ ਨਿਸਤਾਰਿਓ ਰੇ ॥੪॥੧॥੫॥੫੬॥
कहि कबीर गुर मिलत महा रसु प्रेम भगति निसतारिओ रे ॥४॥१॥५॥५६॥
हे कबीर ! गुरु को मिलने से मुझे महा रस प्राप्त हुआ है और प्रेम-भक्ति ने मुझे (विकारों से) बचा लिया है॥ ४॥ १॥ ५॥ ५६ ॥
ਗਉੜੀ ॥
गउड़ी ॥
गउड़ी ॥
ਕਾਲਬੂਤ ਕੀ ਹਸਤਨੀ ਮਨ ਬਉਰਾ ਰੇ ਚਲਤੁ ਰਚਿਓ ਜਗਦੀਸ ॥
कालबूत की हसतनी मन बउरा रे चलतु रचिओ जगदीस ॥
हे मूर्ख मन ! भगवान ने यह दुनिया एक लीला रची है, जैसे हाथी को पकड़ने हेतु लोग कालबूत की हथिनी बनाते हैं।
ਕਾਮ ਸੁਆਇ ਗਜ ਬਸਿ ਪਰੇ ਮਨ ਬਉਰਾ ਰੇ ਅੰਕਸੁ ਸਹਿਓ ਸੀਸ ॥੧॥
काम सुआइ गज बसि परे मन बउरा रे अंकसु सहिओ सीस ॥१॥
हे मूर्ख मन ! कामवासना के वशीभूत हाथी पकड़ में आ जाता है और अपने सिर पर महावत का अंकुश सहता है॥ १॥