ਬਿਨੁ ਸਬਦੈ ਰਸੁ ਨ ਆਵੈ ਅਉਧੂ ਹਉਮੈ ਪਿਆਸ ਨ ਜਾਈ ॥
बिनु सबदै रसु न आवै अउधू हउमै पिआस न जाई ॥
(गुरु जी उत्तर देते हैं कि) हे अवधूत ! शब्द के बिना रस प्राप्त नहीं होता और अभिमान के कारण लालसा दूर नहीं होती।
ਸਬਦਿ ਰਤੇ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਰਸੁ ਪਾਇਆ ਸਾਚੇ ਰਹੇ ਅਘਾਈ ॥
सबदि रते अम्रित रसु पाइआ साचे रहे अघाई ॥
शब्द में लीन हुए जीव को ही हरि-नामामृत रस प्राप्त होता है और सत्य से तृप्त हो जाता है।
ਕਵਨ ਬੁਧਿ ਜਿਤੁ ਅਸਥਿਰੁ ਰਹੀਐ ਕਿਤੁ ਭੋਜਨਿ ਤ੍ਰਿਪਤਾਸੈ ॥
कवन बुधि जितु असथिरु रहीऐ कितु भोजनि त्रिपतासै ॥
“(सिद्धों ने प्रश्न किया-) वह कौन-सी बुद्धि है, जिससे मन स्थिर रहता है और यह किस भोजन से तृप्त हो जाता है।
ਨਾਨਕ ਦੁਖੁ ਸੁਖੁ ਸਮ ਕਰਿ ਜਾਪੈ ਸਤਿਗੁਰ ਤੇ ਕਾਲੁ ਨ ਗ੍ਰਾਸੈ ॥੬੧॥
नानक दुखु सुखु सम करि जापै सतिगुर ते कालु न ग्रासै ॥६१॥
गुरु नानक कहते हैं कि सतगुरु से दीक्षा लेने से ही जीव को दुख-सुख एक समान मालूम होता है और फिर उसे काल भी ग्रास नहीं बनाता ॥ ६१॥
ਰੰਗਿ ਨ ਰਾਤਾ ਰਸਿ ਨਹੀ ਮਾਤਾ ॥
रंगि न राता रसि नही माता ॥
जो व्यक्ति प्रभु के रंग में लीन नहीं हुआ, वह इस रस में कभी मस्त नहीं हुआ।
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਸਬਦੈ ਜਲਿ ਬਲਿ ਤਾਤਾ ॥
बिनु गुर सबदै जलि बलि ताता ॥
शब्द-गुरु के बिना वह क्रोध की अग्नि में ही जलता रहता है।
ਬਿੰਦੁ ਨ ਰਾਖਿਆ ਸਬਦੁ ਨ ਭਾਖਿਆ ॥
बिंदु न राखिआ सबदु न भाखिआ ॥
जिसने अपना वीर्य संभाल कर नहीं रखा, उसने कभी अपने मुख से शब्द का जाप नहीं किया,
ਪਵਨੁ ਨ ਸਾਧਿਆ ਸਚੁ ਨ ਅਰਾਧਿਆ ॥
पवनु न साधिआ सचु न अराधिआ ॥
उसने प्राणायाम द्वारा प्राणों को वश में नहीं किया और न ही भगवान की आराधना की है।
ਅਕਥ ਕਥਾ ਲੇ ਸਮ ਕਰਿ ਰਹੈ ॥
अकथ कथा ले सम करि रहै ॥
नानक कहते हैं कि यदि मनुष्य अकथनीय प्रभु की कथा करके दुख-सुख को एक समान समझ कर जीवन व्यतीत करे
ਤਉ ਨਾਨਕ ਆਤਮ ਰਾਮ ਕਉ ਲਹੈ ॥੬੨॥
तउ नानक आतम राम कउ लहै ॥६२॥
तो वह आत्मा में ही परमात्मा को प्राप्त कर लेता है ॥६२॥
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਰੰਗੇ ਰਾਤਾ ॥
गुर परसादी रंगे राता ॥
गुरु की कृपा से ही मनुष्य प्रभु के रंग में रंगा रहता है।
ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਆ ਸਾਚੇ ਮਾਤਾ ॥
अम्रितु पीआ साचे माता ॥
जिसने नामामृत का पान कर लिया है, वह सत्य में ही मग्न रहता है।
ਗੁਰ ਵੀਚਾਰੀ ਅਗਨਿ ਨਿਵਾਰੀ ॥
गुर वीचारी अगनि निवारी ॥
गुरु की वाणी का विचार करने वाले मनुष्य ने अपनी तृष्णाग्नि बुझा ली है।
ਅਪਿਉ ਪੀਓ ਆਤਮ ਸੁਖੁ ਧਾਰੀ ॥
अपिउ पीओ आतम सुखु धारी ॥
जिसने नामामृत का पान किया है, उसे ही सच्चा सुख उपलव्ध हुआ है।
ਸਚੁ ਅਰਾਧਿਆ ਗੁਰਮੁਖਿ ਤਰੁ ਤਾਰੀ ॥
सचु अराधिआ गुरमुखि तरु तारी ॥
गुरु के माध्यम से भगवान की आराधना करने से जीव भवसागर से तैर जाता है।
ਨਾਨਕ ਬੂਝੈ ਕੋ ਵੀਚਾਰੀ ॥੬੩॥
नानक बूझै को वीचारी ॥६३॥
हे नानक ! इस रहस्य को कोई विचारवान् ही समझता है। ॥६३॥
ਇਹੁ ਮਨੁ ਮੈਗਲੁ ਕਹਾ ਬਸੀਅਲੇ ਕਹਾ ਬਸੈ ਇਹੁ ਪਵਨਾ ॥
इहु मनु मैगलु कहा बसीअले कहा बसै इहु पवना ॥
“(सिद्धों ने पुनः प्रश्न किया-) मस्त हाथी सरीखा यह मन कहाँ रहता है, और यह पवन रूपी प्राण कहाँ निवास करते हैं?”
ਕਹਾ ਬਸੈ ਸੁ ਸਬਦੁ ਅਉਧੂ ਤਾ ਕਉ ਚੂਕੈ ਮਨ ਕਾ ਭਵਨਾ ॥
कहा बसै सु सबदु अउधू ता कउ चूकै मन का भवना ॥
हे अवधूत ! यह शब्द कहाँ वास करता है, जिसका जाप करने से मन की भटकन मिट जाती है।
ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਤਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮੇਲੇ ਤਾ ਨਿਜ ਘਰਿ ਵਾਸਾ ਇਹੁ ਮਨੁ ਪਾਏ ॥
नदरि करे ता सतिगुरु मेले ता निज घरि वासा इहु मनु पाए ॥
गुरु नानक उत्तर देते हैं केि जब प्रभु कृपा करता है तो वह जीव को सतगुरु से मिला देता है और फिर उसका यह मन अपने सच्चे घर में निवास प्राप्त कर लेता है।
ਆਪੈ ਆਪੁ ਖਾਇ ਤਾ ਨਿਰਮਲੁ ਹੋਵੈ ਧਾਵਤੁ ਵਰਜਿ ਰਹਾਏ ॥
आपै आपु खाइ ता निरमलु होवै धावतु वरजि रहाए ॥
जब यह अपने अहम् को समाप्त कर देता है तो यह निर्मल हो जाता है और फिर वह अपनी भटकन पर अंकुश लगा देता है।
ਕਿਉ ਮੂਲੁ ਪਛਾਣੈ ਆਤਮੁ ਜਾਣੈ ਕਿਉ ਸਸਿ ਘਰਿ ਸੂਰੁ ਸਮਾਵੈ ॥
किउ मूलु पछाणै आतमु जाणै किउ ससि घरि सूरु समावै ॥
(सिद्धों ने फिर पूछा-) यह मन अपने मूल (परमात्मा) को कैसे पहचाने और आत्मा को कैसे जाने ? (गुरु रूपी) चन्द्रमा के घर में (शक्ति रूपी) सूर्य कैसे समा सकता है ?
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਉਮੈ ਵਿਚਹੁ ਖੋਵੈ ਤਉ ਨਾਨਕ ਸਹਜਿ ਸਮਾਵੈ ॥੬੪॥
गुरमुखि हउमै विचहु खोवै तउ नानक सहजि समावै ॥६४॥
गुरु नानक देव जी उत्तर देते हैं कि जब गुरु के निर्देशानुसार अपने अन्तर्मन में से अहंकार को नष्ट कर देता है तो वह सहज ही विलीन हो जाता है। ॥६४॥
ਇਹੁ ਮਨੁ ਨਿਹਚਲੁ ਹਿਰਦੈ ਵਸੀਅਲੇ ਗੁਰਮੁਖਿ ਮੂਲੁ ਪਛਾਣਿ ਰਹੈ ॥
इहु मनु निहचलु हिरदै वसीअले गुरमुखि मूलु पछाणि रहै ॥
यह मन निश्चल हृदय में निवास करता है और गुरुमुख बनकर अपने मूल को पहचान लेता है।
ਨਾਭਿ ਪਵਨੁ ਘਰਿ ਆਸਣਿ ਬੈਸੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਖੋਜਤ ਤਤੁ ਲਹੈ ॥
नाभि पवनु घरि आसणि बैसै गुरमुखि खोजत ततु लहै ॥
पवन रूपी प्राण अपने नाभि रूपी घर में आसन पर विराजमान होता है तथा गुरु की अनुकंपा से खोज करके परम तत्व को प्राप्त कर लेता है।
ਸੁ ਸਬਦੁ ਨਿਰੰਤਰਿ ਨਿਜ ਘਰਿ ਆਛੈ ਤ੍ਰਿਭਵਣ ਜੋਤਿ ਸੁ ਸਬਦਿ ਲਹੈ ॥
सु सबदु निरंतरि निज घरि आछै त्रिभवण जोति सु सबदि लहै ॥
वह शब्द अपने दसम द्वार रूपी सच्चे घर में ही निरंतर निवास करता है और शब्द द्वारा परमात्मा को ढूंढ लेता है, जिसकी ज्योति तीनों लोकों में फैली हुई है।
ਖਾਵੈ ਦੂਖ ਭੂਖ ਸਾਚੇ ਕੀ ਸਾਚੇ ਹੀ ਤ੍ਰਿਪਤਾਸਿ ਰਹੈ ॥
खावै दूख भूख साचे की साचे ही त्रिपतासि रहै ॥
जब मन को सत्य की भूख लगती है तो वह भूख उसके दुखों को निगल जाती है और फिर यह मन सत्य से ही तृप्त रहता है।
ਅਨਹਦ ਬਾਣੀ ਗੁਰਮੁਖਿ ਜਾਣੀ ਬਿਰਲੋ ਕੋ ਅਰਥਾਵੈ ॥
अनहद बाणी गुरमुखि जाणी बिरलो को अरथावै ॥
गुरुमुख ने ही अनाहत वाणी को जान लिया है और विरले ने ही अर्थ को समझा है।
ਨਾਨਕੁ ਆਖੈ ਸਚੁ ਸੁਭਾਖੈ ਸਚਿ ਰਪੈ ਰੰਗੁ ਕਬਹੂ ਨ ਜਾਵੈ ॥੬੫॥
नानकु आखै सचु सुभाखै सचि रपै रंगु कबहू न जावै ॥६५॥
गुरु नानक कहते हैं कि जो व्यक्ति सत्य का उच्चारण करता है, वह सत्य में ही रंग जाता है और फिर यह रंग कभी नहीं उतरता ॥ ६५ ॥
ਜਾ ਇਹੁ ਹਿਰਦਾ ਦੇਹ ਨ ਹੋਤੀ ਤਉ ਮਨੁ ਕੈਠੈ ਰਹਤਾ ॥
जा इहु हिरदा देह न होती तउ मनु कैठै रहता ॥
(सिद्धों ने फिर पूछा-) जब यह हृदय एवं शरीर नहीं होता था तो यह मन कहीं रहता था ?
ਨਾਭਿ ਕਮਲ ਅਸਥੰਭੁ ਨ ਹੋਤੋ ਤਾ ਪਵਨੁ ਕਵਨ ਘਰਿ ਸਹਤਾ ॥
नाभि कमल असथ्मभु न होतो ता पवनु कवन घरि सहता ॥
जब यह नाभि कमल रूपी स्तंभ नहीं होता था तो पवन रूपी प्राण केिस घर में सहारा लेता था ?
ਰੂਪੁ ਨ ਹੋਤੋ ਰੇਖ ਨ ਕਾਈ ਤਾ ਸਬਦਿ ਕਹਾ ਲਿਵ ਲਾਈ ॥
रूपु न होतो रेख न काई ता सबदि कहा लिव लाई ॥
जब इस सृष्टि का कोई रूप-रंग एवं आकार नहीं था तो शब्द द्वारा कहाँ ध्यान लगाया जाता था ?
ਰਕਤੁ ਬਿੰਦੁ ਕੀ ਮੜੀ ਨ ਹੋਤੀ ਮਿਤਿ ਕੀਮਤਿ ਨਹੀ ਪਾਈ ॥
रकतु बिंदु की मड़ी न होती मिति कीमति नही पाई ॥
जब माता के रक्त एवं पिता के वीर्य से बना हुआ यह शरीर नहीं था तो ईश्वर की गति की कीमत कैसे प्राप्त होती थी ?
ਵਰਨੁ ਭੇਖੁ ਅਸਰੂਪੁ ਨ ਜਾਪੀ ਕਿਉ ਕਰਿ ਜਾਪਸਿ ਸਾਚਾ ॥
वरनु भेखु असरूपु न जापी किउ करि जापसि साचा ॥
जब कोई रंग, वेष एवं रूप ही नहीं मालूम होता था तो सत्य का बोध क्योंकर होता था ?”
ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਬੈਰਾਗੀ ਇਬ ਤਬ ਸਾਚੋ ਸਾਚਾ ॥੬੬॥
नानक नामि रते बैरागी इब तब साचो साचा ॥६६॥
नानक कहते हैं कि प्रभु नाम में लीन रहने वाले ही सच्चे वैरागी हैं और उन्हें भूतकाल, वर्तमान काल एवं भविष्य में परम सत्य ही दिखाई देता है॥ ६६ ॥
ਹਿਰਦਾ ਦੇਹ ਨ ਹੋਤੀ ਅਉਧੂ ਤਉ ਮਨੁ ਸੁੰਨਿ ਰਹੈ ਬੈਰਾਗੀ ॥
हिरदा देह न होती अउधू तउ मनु सुंनि रहै बैरागी ॥
(गुरु जी ने उत्तर देते हुए समझाया कि) हे अवधूत ! जब यह हृदय एवं शरीर नहीं था तो यह वैरागी मन शब्द में ही लीन रहता था।
ਨਾਭਿ ਕਮਲੁ ਅਸਥੰਭੁ ਨ ਹੋਤੋ ਤਾ ਨਿਜ ਘਰਿ ਬਸਤਉ ਪਵਨੁ ਅਨਰਾਗੀ ॥
नाभि कमलु असथ्मभु न होतो ता निज घरि बसतउ पवनु अनरागी ॥
जब नाभि कमल रूपी स्तंभ नहीं होता था तो यह सत्य का प्रेमी पवन रूपी प्राण अपने सच्चे घर में निवास करता था।
ਰੂਪੁ ਨ ਰੇਖਿਆ ਜਾਤਿ ਨ ਹੋਤੀ ਤਉ ਅਕੁਲੀਣਿ ਰਹਤਉ ਸਬਦੁ ਸੁ ਸਾਰੁ ॥
रूपु न रेखिआ जाति न होती तउ अकुलीणि रहतउ सबदु सु सारु ॥
जब सृष्टि का कोई रूप-रंग एवं आकार नहीं था तो वह शब्द परमात्मा में लीन रहता था।
ਗਉਨੁ ਗਗਨੁ ਜਬ ਤਬਹਿ ਨ ਹੋਤਉ ਤ੍ਰਿਭਵਣ ਜੋਤਿ ਆਪੇ ਨਿਰੰਕਾਰੁ ॥
गउनु गगनु जब तबहि न होतउ त्रिभवण जोति आपे निरंकारु ॥
जब आवागमन एवं गगन भी नहीं था तो निरंकार की ज्योति तीनों लोकों में मौजूद थी।