ਸੀਤਾ ਲਖਮਣੁ ਵਿਛੁੜਿ ਗਇਆ ॥
सीता लखमणु विछुड़ि गइआ ॥
तदन्तर वन में सीता एवं लक्ष्मण से बिछुड़ गया था।
ਰੋਵੈ ਦਹਸਿਰੁ ਲੰਕ ਗਵਾਇ ॥
रोवै दहसिरु लंक गवाइ ॥
अपनी सोने की लंका को गंवाकर रावण बहुत दुखी हुआ,
ਜਿਨਿ ਸੀਤਾ ਆਦੀ ਡਉਰੂ ਵਾਇ ॥
जिनि सीता आदी डउरू वाइ ॥
जिसने छल से साधु का वेष धारण करके सीता का हरण कर लिया था।
ਰੋਵਹਿ ਪਾਂਡਵ ਭਏ ਮਜੂਰ ॥
रोवहि पांडव भए मजूर ॥
एक वर्ष के अज्ञातवास के दौरान जब पाँचों पांडव राजा वैराट के नौकर बनकर रह गए तो वे बड़े पछताए,
ਜਿਨ ਕੈ ਸੁਆਮੀ ਰਹਤ ਹਦੂਰਿ ॥
जिन कै सुआमी रहत हदूरि ॥
जिनका स्वामी कृष्ण उनके साथ रहता था।
ਰੋਵੈ ਜਨਮੇਜਾ ਖੁਇ ਗਇਆ ॥
रोवै जनमेजा खुइ गइआ ॥
पांडवों का पड़पौत्र राजा जनमेजय प्रायश्चित का मौका गवाकर बड़ा पछताया और
ਏਕੀ ਕਾਰਣਿ ਪਾਪੀ ਭਇਆ ॥
एकी कारणि पापी भइआ ॥
वह एक ही भूल के कारण पापी बन गया था।
ਰੋਵਹਿ ਸੇਖ ਮਸਾਇਕ ਪੀਰ ॥
रोवहि सेख मसाइक पीर ॥
शेख, पीर भी चिंता में रोते हैं कि
ਅੰਤਿ ਕਾਲਿ ਮਤੁ ਲਾਗੈ ਭੀੜ ॥
अंति कालि मतु लागै भीड़ ॥
कहीं अंत में उन्हें भी कोई विपति न आ पड़े।
ਰੋਵਹਿ ਰਾਜੇ ਕੰਨ ਪੜਾਇ ॥
रोवहि राजे कंन पड़ाइ ॥
राजा भरथरी एवं राजा गोपी चंद सरीखे राजे कान छिदवा कर रोते रहे और
ਘਰਿ ਘਰਿ ਮਾਗਹਿ ਭੀਖਿਆ ਜਾਇ ॥
घरि घरि मागहि भीखिआ जाइ ॥
वे घर-घर जाकर भिक्षा भाँगते रहे।
ਰੋਵਹਿ ਕਿਰਪਨ ਸੰਚਹਿ ਧਨੁ ਜਾਇ ॥
रोवहि किरपन संचहि धनु जाइ ॥
कंजूस आदमी अपना संचित किया हुआ धन गंवाकर बहुत रोता है और
ਪੰਡਿਤ ਰੋਵਹਿ ਗਿਆਨੁ ਗਵਾਇ ॥
पंडित रोवहि गिआनु गवाइ ॥
पण्डित अपना ज्ञान गंवाकर पछताते हैं।
ਬਾਲੀ ਰੋਵੈ ਨਾਹਿ ਭਤਾਰੁ ॥
बाली रोवै नाहि भतारु ॥
अपने जीवन साथी के बिना कुंवारी कन्या भी रोती है।
ਨਾਨਕ ਦੁਖੀਆ ਸਭੁ ਸੰਸਾਰੁ ॥
नानक दुखीआ सभु संसारु ॥
हे नानक ! सारा संसार ही दुखी है।
ਮੰਨੇ ਨਾਉ ਸੋਈ ਜਿਣਿ ਜਾਇ ॥
मंने नाउ सोई जिणि जाइ ॥
जो नाम का मनन करता है,
ਅਉਰੀ ਕਰਮ ਨ ਲੇਖੈ ਲਾਇ ॥੧॥
अउरी करम न लेखै लाइ ॥१॥
वह अपनी जीवन-बाजी जीत कर जाता है, अन्य कोई भी कर्म साकार नहीं होता॥ १॥
ਮਃ ੨ ॥
मः २ ॥
महला २॥
ਜਪੁ ਤਪੁ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਮੰਨਿਐ ਅਵਰਿ ਕਾਰਾ ਸਭਿ ਬਾਦਿ ॥
जपु तपु सभु किछु मंनिऐ अवरि कारा सभि बादि ॥
ईश्वर का नाम सिमरन करने एवं उसमें अटूट आस्था रखने से ही जप-तप इत्यादि कर्मो का फल मिल जाता है तथा अन्य सभी कार्य व्यर्थ हैं।
ਨਾਨਕ ਮੰਨਿਆ ਮੰਨੀਐ ਬੁਝੀਐ ਗੁਰ ਪਰਸਾਦਿ ॥੨॥
नानक मंनिआ मंनीऐ बुझीऐ गुर परसादि ॥२॥
हे नानक ! ईश्वर में आस्था रखने वाला ही दरगाह में शोभा का पात्र बनता है, लेकिन गुरु की कृपा से ही इस तथ्य की सूझ होती है॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥
ਕਾਇਆ ਹੰਸ ਧੁਰਿ ਮੇਲੁ ਕਰਤੈ ਲਿਖਿ ਪਾਇਆ ॥
काइआ हंस धुरि मेलु करतै लिखि पाइआ ॥
परमेश्वर ने आरम्भ से ही शरीर एवं आत्मा का मिलन लिखा हुआ है।
ਸਭ ਮਹਿ ਗੁਪਤੁ ਵਰਤਦਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪ੍ਰਗਟਾਇਆ ॥
सभ महि गुपतु वरतदा गुरमुखि प्रगटाइआ ॥
वह सब जीवों में गुप्त ही विद्यमान है लेकिन गुरु ने ही उसे प्रगट किया है।
ਗੁਣ ਗਾਵੈ ਗੁਣ ਉਚਰੈ ਗੁਣ ਮਾਹਿ ਸਮਾਇਆ ॥
गुण गावै गुण उचरै गुण माहि समाइआ ॥
जो परमात्मा का गुणगान करता है, गुणों को जपता रहता है, वह उसके गुणों में ही समाया रहता है।
ਸਚੀ ਬਾਣੀ ਸਚੁ ਹੈ ਸਚੁ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਇਆ ॥
सची बाणी सचु है सचु मेलि मिलाइआ ॥
वह सत्यस्वरूप स्वयं ही सच्ची वाणी है और उस सत्य के सागर ने स्वयं ही साथ मिलाया है।
ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਆਪੇ ਆਪਿ ਹੈ ਆਪੇ ਦੇਇ ਵਡਿਆਈ ॥੧੪॥
सभु किछु आपे आपि है आपे देइ वडिआई ॥१४॥
परमेश्वर स्वयं ही सबकुछ है और वह स्वयं ही जीवों को बड़ाई देता है।॥१४॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੨ ॥
सलोक मः २ ॥
श्लोक महला २॥
ਨਾਨਕ ਅੰਧਾ ਹੋਇ ਕੈ ਰਤਨਾ ਪਰਖਣ ਜਾਇ ॥
नानक अंधा होइ कै रतना परखण जाइ ॥
हे नानक ! यदि ज्ञानहीन आदमी रत्नों की परख करने के लिए जाए तो
ਰਤਨਾ ਸਾਰ ਨ ਜਾਣਈ ਆਵੈ ਆਪੁ ਲਖਾਇ ॥੧॥
रतना सार न जाणई आवै आपु लखाइ ॥१॥
वह रत्नों का महत्व तो जानता ही नहीं अपितु अपनी अज्ञानता ही सिद्ध करके आएगा॥ १॥
ਮਃ ੨ ॥
मः २ ॥
महला २॥
ਰਤਨਾ ਕੇਰੀ ਗੁਥਲੀ ਰਤਨੀ ਖੋਲੀ ਆਇ ॥
रतना केरी गुथली रतनी खोली आइ ॥
जौहरी ने आकर अपने रत्नों की पोटली खोल दी है और
ਵਖਰ ਤੈ ਵਣਜਾਰਿਆ ਦੁਹਾ ਰਹੀ ਸਮਾਇ ॥
वखर तै वणजारिआ दुहा रही समाइ ॥
वह रत्न रूपी वस्तु जौहरी और व्यापारियों दोनों के मन को बहुत अच्छी लग रही है।
ਜਿਨ ਗੁਣੁ ਪਲੈ ਨਾਨਕਾ ਮਾਣਕ ਵਣਜਹਿ ਸੇਇ ॥
जिन गुणु पलै नानका माणक वणजहि सेइ ॥
हे नानक ! जिन व्यापारियों के पास परखने का गुण है, वही रत्नों का व्यापार करते हैं।
ਰਤਨਾ ਸਾਰ ਨ ਜਾਣਨੀ ਅੰਧੇ ਵਤਹਿ ਲੋਇ ॥੨॥
रतना सार न जाणनी अंधे वतहि लोइ ॥२॥
जो व्यापारी रत्नों के महत्व को नहीं जानते, वे जगत् में अन्धों की तरह भटकते रहते हैं।॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥
ਨਉ ਦਰਵਾਜੇ ਕਾਇਆ ਕੋਟੁ ਹੈ ਦਸਵੈ ਗੁਪਤੁ ਰਖੀਜੈ ॥
नउ दरवाजे काइआ कोटु है दसवै गुपतु रखीजै ॥
यह मानव शरीर एक किला है जिसे दो आंखें, दो कान, मुँह, दो नासिका, गुदा एवं लिंग रूपी नौ दरवाजे लगे हुए हैं, जो प्रत्यक्ष है लेकिन दसम द्वार गुप्त रखा हुआ है।
ਬਜਰ ਕਪਾਟ ਨ ਖੁਲਨੀ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਖੁਲੀਜੈ ॥
बजर कपाट न खुलनी गुर सबदि खुलीजै ॥
यह वज कपाट गुरु के शब्द द्वारा ही खुल सकता है।
ਅਨਹਦ ਵਾਜੇ ਧੁਨਿ ਵਜਦੇ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਸੁਣੀਜੈ ॥
अनहद वाजे धुनि वजदे गुर सबदि सुणीजै ॥
इसके भीतर अनहद ध्वनि के बाजे बजते रहते हैं, जिन्हें गुरु के शब्द द्वारा ही सुना जा सकता है।
ਤਿਤੁ ਘਟ ਅੰਤਰਿ ਚਾਨਣਾ ਕਰਿ ਭਗਤਿ ਮਿਲੀਜੈ ॥
तितु घट अंतरि चानणा करि भगति मिलीजै ॥
इसके हृदय में प्रभु ज्योति का आलोक है पर प्रभु को भक्ति से ही मिला जा सकता है।
ਸਭ ਮਹਿ ਏਕੁ ਵਰਤਦਾ ਜਿਨਿ ਆਪੇ ਰਚਨ ਰਚਾਈ ॥੧੫॥
सभ महि एकु वरतदा जिनि आपे रचन रचाई ॥१५॥
सब जीवों में एक परमेश्वर ही मौजूद है, जिसने स्वयं ही यह सृष्टि-रचना की है॥ १५॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੨ ॥
सलोक मः २ ॥
श्लोक महला २॥
ਅੰਧੇ ਕੈ ਰਾਹਿ ਦਸਿਐ ਅੰਧਾ ਹੋਇ ਸੁ ਜਾਇ ॥
अंधे कै राहि दसिऐ अंधा होइ सु जाइ ॥
अन्धे आदमी के बताए हुए राह पर वही जाता है, जो स्वयं अंधा होता है, अर्थात् मूर्ख ही मूर्ख के मार्ग पर जाता है।
ਹੋਇ ਸੁਜਾਖਾ ਨਾਨਕਾ ਸੋ ਕਿਉ ਉਝੜਿ ਪਾਇ ॥
होइ सुजाखा नानका सो किउ उझड़ि पाइ ॥
हे नानक ! नेत्रों वाला अर्थात् ज्ञानी आदमी कभी भी नहीं भटकता।
ਅੰਧੇ ਏਹਿ ਨ ਆਖੀਅਨਿ ਜਿਨ ਮੁਖਿ ਲੋਇਣ ਨਾਹਿ ॥
अंधे एहि न आखीअनि जिन मुखि लोइण नाहि ॥
जिनके चेहरे पर आँखें नहीं हैं, उन्हें अन्धा नहीं कहा जाता।
ਅੰਧੇ ਸੇਈ ਨਾਨਕਾ ਖਸਮਹੁ ਘੁਥੇ ਜਾਹਿ ॥੧॥
अंधे सेई नानका खसमहु घुथे जाहि ॥१॥
हे नानक ! अंधे तो वही हैं, जिन्हें भगवान ने कुमार्गगामी किया हुआ है॥ १॥
ਮਃ ੨ ॥
मः २ ॥
महला २॥
ਸਾਹਿਬਿ ਅੰਧਾ ਜੋ ਕੀਆ ਕਰੇ ਸੁਜਾਖਾ ਹੋਇ ॥
साहिबि अंधा जो कीआ करे सुजाखा होइ ॥
ईश्वर ने जिस आदमी को स्वयं अन्धा बना दिया है, वह तभी नेत्रों वाला हो सकता है, यदि वह स्वयं दृष्टिवान बना दे।
ਜੇਹਾ ਜਾਣੈ ਤੇਹੋ ਵਰਤੈ ਜੇ ਸਉ ਆਖੈ ਕੋਇ ॥
जेहा जाणै तेहो वरतै जे सउ आखै कोइ ॥
अन्धा आदमी जैसे जानता है, वैसे ही करता रहता है, चाहे सौ बार उसे समझाने का ही प्रयास किया जाए।
ਜਿਥੈ ਸੁ ਵਸਤੁ ਨ ਜਾਪਈ ਆਪੇ ਵਰਤਉ ਜਾਣਿ ॥
जिथै सु वसतु न जापई आपे वरतउ जाणि ॥
जिसे अपने हृदय में पड़ी वस्तु का ज्ञान नहीं होता समझ लो वह स्वयं ही अज्ञानता पर चल रहा है।
ਨਾਨਕ ਗਾਹਕੁ ਕਿਉ ਲਏ ਸਕੈ ਨ ਵਸਤੁ ਪਛਾਣਿ ॥੨॥
नानक गाहकु किउ लए सकै न वसतु पछाणि ॥२॥
हे नानक ! कोई ग्राहक उस वस्तु को कैसे ले सकेगा जब वह उसे पहचान ही नहीं सकता॥ २॥
ਮਃ ੨ ॥
मः २ ॥
महला २॥
ਸੋ ਕਿਉ ਅੰਧਾ ਆਖੀਐ ਜਿ ਹੁਕਮਹੁ ਅੰਧਾ ਹੋਇ ॥
सो किउ अंधा आखीऐ जि हुकमहु अंधा होइ ॥
उस आदमी को अन्धा क्यों कहा जाए जो ईश्वरेच्छा से अन्धा हुआ है?
ਨਾਨਕ ਹੁਕਮੁ ਨ ਬੁਝਈ ਅੰਧਾ ਕਹੀਐ ਸੋਇ ॥੩॥
नानक हुकमु न बुझई अंधा कहीऐ सोइ ॥३॥
हे नानक ! जो परमात्मा के हुक्म को नहीं समझता, उसे ही अन्धा कहा जाता है॥ ३॥