ਘਟਿ ਘਟਿ ਵਸਿ ਰਹਿਆ ਜਗਜੀਵਨੁ ਦਾਤਾ ॥
घटि घटि वसि रहिआ जगजीवनु दाता ॥
जीवन देने वाला घट-घट सब में बसा रहा है।
ਇਕ ਥੈ ਗੁਪਤੁ ਪਰਗਟੁ ਹੈ ਆਪੇ ਗੁਰਮੁਖਿ ਭ੍ਰਮੁ ਭਉ ਜਾਈ ਹੇ ॥੧੫॥
इक थै गुपतु परगटु है आपे गुरमुखि भ्रमु भउ जाई हे ॥१५॥
किसी स्थान पर वह गुप्त है और कहीं वह साक्षात् रूप में है, गुरुमुख का भ्रम-भय दूर हो जाता है॥ १५॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਜੀਉ ਏਕੋ ਜਾਤਾ ॥
गुरमुखि हरि जीउ एको जाता ॥
गुरुमुख एक परमेश्वर को ही जानता है,”
ਅੰਤਰਿ ਨਾਮੁ ਸਬਦਿ ਪਛਾਤਾ ॥
अंतरि नामु सबदि पछाता ॥
मन में नाम और शब्द को पहचान लेता है।
ਜਿਸੁ ਤੂ ਦੇਹਿ ਸੋਈ ਜਨੁ ਪਾਏ ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਵਡਾਈ ਹੇ ॥੧੬॥੪॥
जिसु तू देहि सोई जनु पाए नानक नामि वडाई हे ॥१६॥४॥
नानक का कथन है कि हे ईश्वर ! जिसे तू देता है, वही नाम प्राप्त करता है और नाम द्वारा ही बड़ाई मिलती है। १६॥ ४॥
ਮਾਰੂ ਮਹਲਾ ੩ ॥
मारू महला ३ ॥
मारू महला ३॥
ਸਚੁ ਸਾਲਾਹੀ ਗਹਿਰ ਗੰਭੀਰੈ ॥
सचु सालाही गहिर ग्मभीरै ॥
गहन-गंभीर सच्चे परमेश्वर की प्रशंसा करो,”
ਸਭੁ ਜਗੁ ਹੈ ਤਿਸ ਹੀ ਕੈ ਚੀਰੈ ॥
सभु जगु है तिस ही कै चीरै ॥
समूचा जगत् उसी के वश में है।
ਸਭਿ ਘਟ ਭੋਗਵੈ ਸਦਾ ਦਿਨੁ ਰਾਤੀ ਆਪੇ ਸੂਖ ਨਿਵਾਸੀ ਹੇ ॥੧॥
सभि घट भोगवै सदा दिनु राती आपे सूख निवासी हे ॥१॥
वह दिन-रात सदैव सब शरीरों को भोगता है और स्वयं ही सुखपूर्वक रहता है॥ १॥
ਸਚਾ ਸਾਹਿਬੁ ਸਚੀ ਨਾਈ ॥
सचा साहिबु सची नाई ॥
उस सच्चे मालिक का नाम सदैव सत्य है और
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਮੰਨਿ ਵਸਾਈ ॥
गुर परसादी मंनि वसाई ॥
गुरु की कृपा से ही वह मन में बसता है।
ਆਪੇ ਆਇ ਵਸਿਆ ਘਟ ਅੰਤਰਿ ਤੂਟੀ ਜਮ ਕੀ ਫਾਸੀ ਹੇ ॥੨॥
आपे आइ वसिआ घट अंतरि तूटी जम की फासी हे ॥२॥
वह स्वयं ही मन में आ बसा है, जिससे यम की फाँसी टूट गई है।॥ २॥
ਕਿਸੁ ਸੇਵੀ ਤੈ ਕਿਸੁ ਸਾਲਾਹੀ ॥
किसु सेवी तै किसु सालाही ॥
किसकी सेवा एवं किसकी प्रशंसा की जाए ?
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵੀ ਸਬਦਿ ਸਾਲਾਹੀ ॥
सतिगुरु सेवी सबदि सालाही ॥
सतगुरु की सेवा करो और ब्रह्म की प्रशंसा करो।
ਸਚੈ ਸਬਦਿ ਸਦਾ ਮਤਿ ਊਤਮ ਅੰਤਰਿ ਕਮਲੁ ਪ੍ਰਗਾਸੀ ਹੇ ॥੩॥
सचै सबदि सदा मति ऊतम अंतरि कमलु प्रगासी हे ॥३॥
सच्चे शब्द द्वारा बुद्धि सदैव उत्तम बनी रहती है और हृदय-कमल विकसित हो जाता है।॥ ३॥
ਦੇਹੀ ਕਾਚੀ ਕਾਗਦ ਮਿਕਦਾਰਾ ॥
देही काची कागद मिकदारा ॥
यह शरीर कागज की तरह नाशवान् है।
ਬੂੰਦ ਪਵੈ ਬਿਨਸੈ ਢਹਤ ਨ ਲਾਗੈ ਬਾਰਾ ॥
बूंद पवै बिनसै ढहत न लागै बारा ॥
जैसे पानी की बूंद पड़ने से कागज खराब हो जाता है, वैसे ही शरीर का नाश होते विलंब नहीं होता।
ਕੰਚਨ ਕਾਇਆ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੂਝੈ ਜਿਸੁ ਅੰਤਰਿ ਨਾਮੁ ਨਿਵਾਸੀ ਹੇ ॥੪॥
कंचन काइआ गुरमुखि बूझै जिसु अंतरि नामु निवासी हे ॥४॥
जिसके मन में नाम बस जाता है, वह गुरुमुख सत्य को बूझ लेता है और उसका शरीर कंचन जैसा शुद्ध हो जाता है॥ ४॥
ਸਚਾ ਚਉਕਾ ਸੁਰਤਿ ਕੀ ਕਾਰਾ ॥
सचा चउका सुरति की कारा ॥
पावन हृदय ही सच्चा चौका है, जिसके इर्द निकली हुई रेखा सुरति है, जो हृदय को विकारग्रस्त नहीं होने देती।
ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਭੋਜਨੁ ਸਚੁ ਆਧਾਰਾ ॥
हरि नामु भोजनु सचु आधारा ॥
परमात्मा का नाम ही मन का भोजन है और सत्य ही इसका आधार है।
ਸਦਾ ਤ੍ਰਿਪਤਿ ਪਵਿਤ੍ਰੁ ਹੈ ਪਾਵਨੁ ਜਿਤੁ ਘਟਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਨਿਵਾਸੀ ਹੇ ॥੫॥
सदा त्रिपति पवित्रु है पावनु जितु घटि हरि नामु निवासी हे ॥५॥
जिस हृदय में परमात्मा का नाम अवस्थित है, वह पवित्र-पावन और सदा तृप्त रहता है।॥ ५॥
ਹਉ ਤਿਨ ਬਲਿਹਾਰੀ ਜੋ ਸਾਚੈ ਲਾਗੇ ॥
हउ तिन बलिहारी जो साचै लागे ॥
मैं उन पर बलिहारी जाता हूँ. जो परमात्मा की भक्ति में तल्लीन हो गए हैं।
ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵਹਿ ਅਨਦਿਨੁ ਜਾਗੇ ॥
हरि गुण गावहि अनदिनु जागे ॥
वे परमात्मा का गुणगान करके निशदिन जाग्रत रहते हैं।
ਸਾਚਾ ਸੂਖੁ ਸਦਾ ਤਿਨ ਅੰਤਰਿ ਰਸਨਾ ਹਰਿ ਰਸਿ ਰਾਸੀ ਹੇ ॥੬॥
साचा सूखु सदा तिन अंतरि रसना हरि रसि रासी हे ॥६॥
उनके मन में सदा सच्चा सुख बना रहता है और रसना हरि-रस में लीन रहती है।॥६॥
ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਚੇਤਾ ਅਵਰੁ ਨ ਪੂਜਾ ॥
हरि नामु चेता अवरु न पूजा ॥
मैं तो परमात्मा का नाम हो याद करता हूँ और किसी अन्य की पूजा-अर्चना नहीं करता।
ਏਕੋ ਸੇਵੀ ਅਵਰੁ ਨ ਦੂਜਾ ॥
एको सेवी अवरु न दूजा ॥
उस एक की ही उपासना करता हूँ और किसी दूसरे की नहीं करता।
ਪੂਰੈ ਗੁਰਿ ਸਭੁ ਸਚੁ ਦਿਖਾਇਆ ਸਚੈ ਨਾਮਿ ਨਿਵਾਸੀ ਹੇ ॥੭॥
पूरै गुरि सभु सचु दिखाइआ सचै नामि निवासी हे ॥७॥
पूर्ण गुरु ने मुझे सर्वत्र सत्य दिखा दिया है और सत्य नाम में ही लीन रहता हूँ॥ ७॥
ਭ੍ਰਮਿ ਭ੍ਰਮਿ ਜੋਨੀ ਫਿਰਿ ਫਿਰਿ ਆਇਆ ॥
भ्रमि भ्रमि जोनी फिरि फिरि आइआ ॥
जीव पुनः पुनः योनियों में भटक कर अब मानव-जन्म में आया है।
ਆਪਿ ਭੂਲਾ ਜਾ ਖਸਮਿ ਭੁਲਾਇਆ ॥
आपि भूला जा खसमि भुलाइआ ॥
जब मालिक ने उसे भुला दिया तो यह स्वयं ही भटक गया।
ਹਰਿ ਜੀਉ ਮਿਲੈ ਤਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੂਝੈ ਚੀਨੈ ਸਬਦੁ ਅਬਿਨਾਸੀ ਹੇ ॥੮॥
हरि जीउ मिलै ता गुरमुखि बूझै चीनै सबदु अबिनासी हे ॥८॥
जब ईश्वर मिलता है, गुरुमुख उसे बूझ लेता है और फिर अविनाशी शब्द के रहस्य को पहचान लेता है॥ ८॥
ਕਾਮਿ ਕ੍ਰੋਧਿ ਭਰੇ ਹਮ ਅਪਰਾਧੀ ॥
कामि क्रोधि भरे हम अपराधी ॥
हे दीनदयाल ! हम अपराधी तो काम-क्रोध से भरे हुए हैं।
ਕਿਆ ਮੁਹੁ ਲੈ ਬੋਲਹ ਨਾ ਹਮ ਗੁਣ ਨ ਸੇਵਾ ਸਾਧੀ ॥
किआ मुहु लै बोलह ना हम गुण न सेवा साधी ॥
क्या मुंह लेकर बोलें, हम में न कोई अच्छाई है, न ही तेरी उपासना की है।
ਡੁਬਦੇ ਪਾਥਰ ਮੇਲਿ ਲੈਹੁ ਤੁਮ ਆਪੇ ਸਾਚੁ ਨਾਮੁ ਅਬਿਨਾਸੀ ਹੇ ॥੯॥
डुबदे पाथर मेलि लैहु तुम आपे साचु नामु अबिनासी हे ॥९॥
तुम स्वयं ही हम डूबते पत्थरों को साथ मिला लो, तेरा सत्य-नाम सदा अनश्वर है॥ ९॥
ਨਾ ਕੋਈ ਕਰੇ ਨ ਕਰਣੈ ਜੋਗਾ ॥
ना कोई करे न करणै जोगा ॥
न कोई कुछ करता है और न ही करने योग्य है।
ਆਪੇ ਕਰਹਿ ਕਰਾਵਹਿ ਸੁ ਹੋਇਗਾ ॥
आपे करहि करावहि सु होइगा ॥
वही कुछ होगा, जो तू करता और जीवों से करवाता है।
ਆਪੇ ਬਖਸਿ ਲੈਹਿ ਸੁਖੁ ਪਾਏ ਸਦ ਹੀ ਨਾਮਿ ਨਿਵਾਸੀ ਹੇ ॥੧੦॥
आपे बखसि लैहि सुखु पाए सद ही नामि निवासी हे ॥१०॥
जिसे तू क्षमा कर देता है, वही सुख प्राप्त करता है और वह सदैव ही नाम-स्मरण में लीन रहता है।॥१०॥
ਇਹੁ ਤਨੁ ਧਰਤੀ ਸਬਦੁ ਬੀਜਿ ਅਪਾਰਾ ॥
इहु तनु धरती सबदु बीजि अपारा ॥
यह तन धरती है, इसमें ब्रह्म-शब्द का बीज डालो।
ਹਰਿ ਸਾਚੇ ਸੇਤੀ ਵਣਜੁ ਵਾਪਾਰਾ ॥
हरि साचे सेती वणजु वापारा ॥
सच्चे प्रभु-नाम के साथ वाणिज्य-व्यापार करो।
ਸਚੁ ਧਨੁ ਜੰਮਿਆ ਤੋਟਿ ਨ ਆਵੈ ਅੰਤਰਿ ਨਾਮੁ ਨਿਵਾਸੀ ਹੇ ॥੧੧॥
सचु धनु जमिआ तोटि न आवै अंतरि नामु निवासी हे ॥११॥
सच्चे नाम-धन से कभी कमी नहीं आती और मन में नाम ही स्थित रहता है॥ ११॥
ਹਰਿ ਜੀਉ ਅਵਗਣਿਆਰੇ ਨੋ ਗੁਣੁ ਕੀਜੈ ॥
हरि जीउ अवगणिआरे नो गुणु कीजै ॥
हे परमेश्वर ! मुझ गुणविहीन को गुण प्रदान करो और
ਆਪੇ ਬਖਸਿ ਲੈਹਿ ਨਾਮੁ ਦੀਜੈ ॥
आपे बखसि लैहि नामु दीजै ॥
स्वयं ही क्षमा करके नाम-दान दे दो।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਵੈ ਸੋ ਪਤਿ ਪਾਏ ਇਕਤੁ ਨਾਮਿ ਨਿਵਾਸੀ ਹੇ ॥੧੨॥
गुरमुखि होवै सो पति पाए इकतु नामि निवासी हे ॥१२॥
जो गुरुमुख होता है, उसे ही सम्मान प्राप्त होता है और एक नाम में ही लीन रहता है।१२॥
ਅੰਤਰਿ ਹਰਿ ਧਨੁ ਸਮਝ ਨ ਹੋਈ ॥
अंतरि हरि धनु समझ न होई ॥
हरि-नाम रूपी धन जीव के अन्तर्मन में ही है परन्तु उसे ज्ञान नहीं होता।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਬੂਝੈ ਕੋਈ ॥
गुर परसादी बूझै कोई ॥
गुरु की कृपा से कोई विरला ही इस भेद को समझता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਵੈ ਸੋ ਧਨੁ ਪਾਏ ਸਦ ਹੀ ਨਾਮਿ ਨਿਵਾਸੀ ਹੇ ॥੧੩॥
गुरमुखि होवै सो धनु पाए सद ही नामि निवासी हे ॥१३॥
जो गुरुमुख होता है, उसे यह धन प्राप्त हो जाता है और वह सदैव ही नाम-स्मरण में लीन रहता है॥ १३॥
ਅਨਲ ਵਾਉ ਭਰਮਿ ਭੁਲਾਈ ॥
अनल वाउ भरमि भुलाई ॥
तृष्णा रूपी अग्नि एवं वासना रूपी वायु जीव को भ्रम में भटकाती रहती है और