ਨਾਨਕ ਜਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਕਰਹਿ ਸੋ ਪਰਵਾਣੁ ਹੈ ਜੋ ਨਾਮਿ ਰਹੇ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥੨॥
नानक जि गुरमुखि करहि सो परवाणु है जो नामि रहे लिव लाइ ॥२॥
हे नानक ! गुरुमुख जो कुछ भी करते हैं वह स्वीकृत हैं, चूंकि उनकी सुरति भगवान के नाम में ही लगी रहती है ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी।
ਹਉ ਬਲਿਹਾਰੀ ਤਿੰਨ ਕੰਉ ਜੋ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਿਖਾ ॥
हउ बलिहारी तिंन कंउ जो गुरमुखि सिखा ॥
मैं उन पर तन मन से बलिहारी जाता हूँ, जो गुरुमुख शिष्य हैं।
ਜੋ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇਦੇ ਤਿਨ ਦਰਸਨੁ ਪਿਖਾ ॥
जो हरि नामु धिआइदे तिन दरसनु पिखा ॥
मैं तो केवल उनके ही दर्शन करता हूँ, जो हरि-नाम का सिमरण करते हैं।
ਸੁਣਿ ਕੀਰਤਨੁ ਹਰਿ ਗੁਣ ਰਵਾ ਹਰਿ ਜਸੁ ਮਨਿ ਲਿਖਾ ॥
सुणि कीरतनु हरि गुण रवा हरि जसु मनि लिखा ॥
मैं हरि का कीर्तन सुनकर उसका ही गुणगान करता हूँ, और अपने हृदय में हरि का ही यश लिखता हूँ।
ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਸਲਾਹੀ ਰੰਗ ਸਿਉ ਸਭਿ ਕਿਲਵਿਖ ਕ੍ਰਿਖਾ ॥
हरि नामु सलाही रंग सिउ सभि किलविख क्रिखा ॥
मैं प्रेमपूर्वक हरि-नाम की ही स्तुति करता हूँ और अपने समस्त पापों का मूल रूप से नाश करता हूँ।
ਧਨੁ ਧੰਨੁ ਸੁਹਾਵਾ ਸੋ ਸਰੀਰੁ ਥਾਨੁ ਹੈ ਜਿਥੈ ਮੇਰਾ ਗੁਰੁ ਧਰੇ ਵਿਖਾ ॥੧੯॥
धनु धंनु सुहावा सो सरीरु थानु है जिथै मेरा गुरु धरे विखा ॥१९॥
वह शरीर एवं स्थान धन्य धन्य एवं बड़ा सुहावना है, जहाँ मेरा गुरु अपने सुन्दर चरण रखता है॥१६॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥
ਗੁਰ ਬਿਨੁ ਗਿਆਨੁ ਨ ਹੋਵਈ ਨਾ ਸੁਖੁ ਵਸੈ ਮਨਿ ਆਇ ॥
गुर बिनु गिआनु न होवई ना सुखु वसै मनि आइ ॥
गुरु के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं होता और न ही मन में आकर सुख का निवास होता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮ ਵਿਹੂਣੇ ਮਨਮੁਖੀ ਜਾਸਨਿ ਜਨਮੁ ਗਵਾਇ ॥੧॥
नानक नाम विहूणे मनमुखी जासनि जनमु गवाइ ॥१॥
हे नानक ! नाम से विहीन मनमुखी जीव अपना अमूल्य जीवन व्यर्थ ही गंवा कर दुनिया से चले जाएँगे॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥
ਸਿਧ ਸਾਧਿਕ ਨਾਵੈ ਨੋ ਸਭਿ ਖੋਜਦੇ ਥਕਿ ਰਹੇ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥
सिध साधिक नावै नो सभि खोजदे थकि रहे लिव लाइ ॥
समस्त सिद्ध एवं साधक पुरुष नाम की खोज करते हुए अपनी सुरति लगाकर थक गए हैं।
ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਕਿਨੈ ਨ ਪਾਇਓ ਗੁਰਮੁਖਿ ਮਿਲੈ ਮਿਲਾਇ ॥
बिनु सतिगुर किनै न पाइओ गुरमुखि मिलै मिलाइ ॥
गुरु के बिना किसी को भी नाम की प्राप्ति नहीं हुई और गुरु के सान्निध्य में रहकर ही परम-सत्य से मिलन होता है।
ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਪੈਨਣੁ ਖਾਣੁ ਸਭੁ ਬਾਦਿ ਹੈ ਧਿਗੁ ਸਿਧੀ ਧਿਗੁ ਕਰਮਾਤਿ ॥
बिनु नावै पैनणु खाणु सभु बादि है धिगु सिधी धिगु करमाति ॥
नाम के बिना खाना-पहनना सब व्यर्थ है और नाम के बिना समस्त सिद्धियाँ एवं करामातें भी धिक्कार योग्य हैं।
ਸਾ ਸਿਧਿ ਸਾ ਕਰਮਾਤਿ ਹੈ ਅਚਿੰਤੁ ਕਰੇ ਜਿਸੁ ਦਾਤਿ ॥
सा सिधि सा करमाति है अचिंतु करे जिसु दाति ॥
वही सिद्धि एवं वही करामात है, जिसे परमात्मा अपने दान के रूप में देता है।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਮਨਿ ਵਸੈ ਏਹਾ ਸਿਧਿ ਏਹਾ ਕਰਮਾਤਿ ॥੨॥
नानक गुरमुखि हरि नामु मनि वसै एहा सिधि एहा करमाति ॥२॥
हे नानक ! हरि-नाम मन में स्थित हो जाए, यही सिद्धि एवं यही वास्तव में करामात है ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी।
ਹਮ ਢਾਢੀ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭ ਖਸਮ ਕੇ ਨਿਤ ਗਾਵਹ ਹਰਿ ਗੁਣ ਛੰਤਾ ॥
हम ढाढी हरि प्रभ खसम के नित गावह हरि गुण छंता ॥
हम उस मालिक हरि-प्रभु के गवैया हैं और नित्य ही उसके गुण गाते रहते हैं।
ਹਰਿ ਕੀਰਤਨੁ ਕਰਹ ਹਰਿ ਜਸੁ ਸੁਣਹ ਤਿਸੁ ਕਵਲਾ ਕੰਤਾ ॥
हरि कीरतनु करह हरि जसु सुणह तिसु कवला कंता ॥
हम तो हरि का ही कीर्तन करते हैं और उस कमलापति हरि का ही यश सुनते रहते हैं।
ਹਰਿ ਦਾਤਾ ਸਭੁ ਜਗਤੁ ਭਿਖਾਰੀਆ ਮੰਗਤ ਜਨ ਜੰਤਾ ॥
हरि दाता सभु जगतु भिखारीआ मंगत जन जंता ॥
एक हरि ही सबका दाता है, यह समूचा विश्व मात्र भिखारी है और सभी जीव एवं लोग उसके याचक ही हैं।
ਹਰਿ ਦੇਵਹੁ ਦਾਨੁ ਦਇਆਲ ਹੋਇ ਵਿਚਿ ਪਾਥਰ ਕ੍ਰਿਮ ਜੰਤਾ ॥
हरि देवहु दानु दइआल होइ विचि पाथर क्रिम जंता ॥
हे दीनदयाल श्रीहरि ! दयालु होकर हमें भी दान दीजिए, चूंकि तुम तो पत्थरों में कीड़ों एवं जन्तुओं को दान प्रदान करते रहते हो।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇਆ ਗੁਰਮੁਖਿ ਧਨਵੰਤਾ ॥੨੦॥
जन नानक नामु धिआइआ गुरमुखि धनवंता ॥२०॥
हे नानक ! गुरु के सान्निध्य में जिन्होंने नाम का ध्यान-मनन किया है, दरअसल वही धनवान हैं॥ २० ॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥
ਪੜਣਾ ਗੁੜਣਾ ਸੰਸਾਰ ਕੀ ਕਾਰ ਹੈ ਅੰਦਰਿ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਵਿਕਾਰੁ ॥
पड़णा गुड़णा संसार की कार है अंदरि त्रिसना विकारु ॥
अगर मन में तृष्णा एवं विकार विद्यमान हैं तो पढ़ना एवं विचारना जगत का एक धन्धा ही बन जाता है।
ਹਉਮੈ ਵਿਚਿ ਸਭਿ ਪੜਿ ਥਕੇ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਖੁਆਰੁ ॥
हउमै विचि सभि पड़ि थके दूजै भाइ खुआरु ॥
अहंकार में पढ़ने से सभी थक चुके हैं और द्वैतभाव के कारण वे नष्ट हो जाते हैं।
ਸੋ ਪੜਿਆ ਸੋ ਪੰਡਿਤੁ ਬੀਨਾ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਕਰੇ ਵੀਚਾਰੁ ॥
सो पड़िआ सो पंडितु बीना गुर सबदि करे वीचारु ॥
जो गुरु के शब्द का चिन्तन करता है, वास्तव में वही विद्वान एवं चतुर पण्डित है।
ਅੰਦਰੁ ਖੋਜੈ ਤਤੁ ਲਹੈ ਪਾਏ ਮੋਖ ਦੁਆਰੁ ॥
अंदरु खोजै ततु लहै पाए मोख दुआरु ॥
वह अपने अन्तर्मन में ही तलाश करते हुए परम तत्व को पा लेता है और उसे मोक्ष का द्वार प्राप्त हो जाता है।
ਗੁਣ ਨਿਧਾਨੁ ਹਰਿ ਪਾਇਆ ਸਹਜਿ ਕਰੇ ਵੀਚਾਰੁ ॥
गुण निधानु हरि पाइआ सहजि करे वीचारु ॥
वह गुणों के भण्डार परमात्मा को प्राप्त कर लेता है और सहजता से उसका ही चिन्तन करता है।
ਧੰਨੁ ਵਾਪਾਰੀ ਨਾਨਕਾ ਜਿਸੁ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਅਧਾਰੁ ॥੧॥
धंनु वापारी नानका जिसु गुरमुखि नामु अधारु ॥१॥
हे नानक ! वह व्यापारी धन्य है, जिसे गुरु के सान्निध्य में नाम का ही आधार मिल जाता है ॥१॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥
ਵਿਣੁ ਮਨੁ ਮਾਰੇ ਕੋਇ ਨ ਸਿਝਈ ਵੇਖਹੁ ਕੋ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥
विणु मनु मारे कोइ न सिझई वेखहु को लिव लाइ ॥
अपने मन को वशीभूत किए बिना किसी भी मनुष्य को सफलता प्राप्त नहीं होती, चाहे कोई वृत्ति लगाकर देख ले।
ਭੇਖਧਾਰੀ ਤੀਰਥੀ ਭਵਿ ਥਕੇ ਨਾ ਏਹੁ ਮਨੁ ਮਾਰਿਆ ਜਾਇ ॥
भेखधारी तीरथी भवि थके ना एहु मनु मारिआ जाइ ॥
अनेक वेश धारण करने वाले तीर्थ-यात्रा पर भ्रमण करते हुए भी थक चुके हैं परन्तु फिर भी उनका यह मन नियंत्रण में नहीं आता।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਏਹੁ ਮਨੁ ਜੀਵਤੁ ਮਰੈ ਸਚਿ ਰਹੈ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥
गुरमुखि एहु मनु जीवतु मरै सचि रहै लिव लाइ ॥
गुरुमुख व्यक्ति का तो यह मन जीवित ही वशीभूत को जाता है और वह अपनी सुरति सत्य में ही लगाकर रखता है।
ਨਾਨਕ ਇਸੁ ਮਨ ਕੀ ਮਲੁ ਇਉ ਉਤਰੈ ਹਉਮੈ ਸਬਦਿ ਜਲਾਇ ॥੨॥
नानक इसु मन की मलु इउ उतरै हउमै सबदि जलाइ ॥२॥
हे नानक ! गुरु के शब्द द्वारा अहंत्व को जला देने से ही इस मन की मैल दूर हो जाती है ॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਸੰਤ ਮਿਲਹੁ ਮੇਰੇ ਭਾਈ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਦ੍ਰਿੜਾਵਹੁ ਇਕ ਕਿਨਕਾ ॥
हरि हरि संत मिलहु मेरे भाई हरि नामु द्रिड़ावहु इक किनका ॥
हे मेरे भाई ! हे हरि के संतो! मुझे आकर मिलो और मेरे भीतर थोड़ा-सा हरि का नाम दृढ़ कर दो।
ਹਰਿ ਹਰਿ ਸੀਗਾਰੁ ਬਨਾਵਹੁ ਹਰਿ ਜਨ ਹਰਿ ਕਾਪੜੁ ਪਹਿਰਹੁ ਖਿਮ ਕਾ ॥
हरि हरि सीगारु बनावहु हरि जन हरि कापड़ु पहिरहु खिम का ॥
हे भक्तजनों ! मुझे हरि-नाम से श्रृंगार दो और मुझे क्षमा का हरि वस्त्र पहना दो।
ਐਸਾ ਸੀਗਾਰੁ ਮੇਰੇ ਪ੍ਰਭ ਭਾਵੈ ਹਰਿ ਲਾਗੈ ਪਿਆਰਾ ਪ੍ਰਿਮ ਕਾ ॥
ऐसा सीगारु मेरे प्रभ भावै हरि लागै पिआरा प्रिम का ॥
ऐसा श्रृंगार मेरे प्रभु को बहुत अच्छा लगता है ऐसी प्रेम की सजावट मेरे प्रभु को बड़ी प्यारी लगती है।
ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਬੋਲਹੁ ਦਿਨੁ ਰਾਤੀ ਸਭਿ ਕਿਲਬਿਖ ਕਾਟੈ ਇਕ ਪਲਕਾ ॥
हरि हरि नामु बोलहु दिनु राती सभि किलबिख काटै इक पलका ॥
दिन-रात परमेश्वर का जाप करो, चूंकि वह तो एक पल में ही सारे किल्विष-पाप मिटा देता है।
ਹਰਿ ਹਰਿ ਦਇਆਲੁ ਹੋਵੈ ਜਿਸੁ ਉਪਰਿ ਸੋ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਜਪਿ ਜਿਣਕਾ ॥੨੧॥
हरि हरि दइआलु होवै जिसु उपरि सो गुरमुखि हरि जपि जिणका ॥२१॥
जिस पर हरि-परमेश्वर दयालु हो जाता है, वह गुरुमुख बन कर हरि-नाम का जाप करके अपने जीवन की बाजी को जीत लेता है ॥२१॥