ਮੇਰੇ ਮਨ ਹਰਿ ਰਾਮ ਨਾਮਿ ਕਰਿ ਰੰਙੁ ॥
मेरे मन हरि राम नामि करि रंङु ॥
हे मेरे मन ! राम-नाम का रंग कर ।
ਗੁਰਿ ਤੁਠੈ ਹਰਿ ਉਪਦੇਸਿਆ ਹਰਿ ਭੇਟਿਆ ਰਾਉ ਨਿਸੰਙੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गुरि तुठै हरि उपदेसिआ हरि भेटिआ राउ निसंङु ॥१॥ रहाउ ॥
गुरु ने प्रसन्न होकर जिसे भी उपदेश दिया है, उसे हरि-बादशाह अवश्य ही मिल गया है॥ १॥ रहाउ॥
ਮੁੰਧ ਇਆਣੀ ਮਨਮੁਖੀ ਫਿਰਿ ਆਵਣ ਜਾਣਾ ਅੰਙੁ ॥
मुंध इआणी मनमुखी फिरि आवण जाणा अंङु ॥
ज्ञानहीन मनमुखी जीव-स्त्री का बार-बार जन्म-मरण से संबंध बना रहता है।
ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਚਿਤਿ ਨ ਆਇਓ ਮਨਿ ਦੂਜਾ ਭਾਉ ਸਹਲੰਙੁ ॥੨॥
हरि प्रभु चिति न आइओ मनि दूजा भाउ सहलंङु ॥२॥
उसे प्रभु कभी याद ही नहीं आया और द्वैतभाव ही उसके मन में बसा रहा ॥ २ ॥
ਹਮ ਮੈਲੁ ਭਰੇ ਦੁਹਚਾਰੀਆ ਹਰਿ ਰਾਖਹੁ ਅੰਗੀ ਅੰਙੁ ॥
हम मैलु भरे दुहचारीआ हरि राखहु अंगी अंङु ॥
मैं पापों की मैल से भरा हुआ दुष्कर्मी हूँ। हे भक्तों का पक्ष करने वाले हरि ! मेरी रक्षा करो।
ਗੁਰਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਸਰਿ ਨਵਲਾਇਆ ਸਭਿ ਲਾਥੇ ਕਿਲਵਿਖ ਪੰਙੁ ॥੩॥
गुरि अम्रित सरि नवलाइआ सभि लाथे किलविख पंङु ॥३॥
जब गुरु ने मुझे नाम रूपी अमृत-सरोवर में स्नान करवाया तो मेरे पापों की मैल मन से उतर गई॥ ३॥
ਹਰਿ ਦੀਨਾ ਦੀਨ ਦਇਆਲ ਪ੍ਰਭੁ ਸਤਸੰਗਤਿ ਮੇਲਹੁ ਸੰਙੁ ॥
हरि दीना दीन दइआल प्रभु सतसंगति मेलहु संङु ॥
हे दीनानाथ ! हे दीनदयालु प्रभु ! मुझे सत्संगति में मिला दो।
ਮਿਲਿ ਸੰਗਤਿ ਹਰਿ ਰੰਗੁ ਪਾਇਆ ਜਨ ਨਾਨਕ ਮਨਿ ਤਨਿ ਰੰਙੁ ॥੪॥੩॥
मिलि संगति हरि रंगु पाइआ जन नानक मनि तनि रंङु ॥४॥३॥
मैंने सत्संग में मिलकर प्रेम-रंग पा लिया है, हे नानक ! हरि का प्रेम-रंग मेरे मन-तन में बस गया है॥ ४॥ ३ ॥
ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੪ ॥
सूही महला ४ ॥
सूही महला ४ ॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਕਰਹਿ ਨਿਤ ਕਪਟੁ ਕਮਾਵਹਿ ਹਿਰਦਾ ਸੁਧੁ ਨ ਹੋਈ ॥
हरि हरि करहि नित कपटु कमावहि हिरदा सुधु न होई ॥
जो आदमी हरि-हरि नाम तो जपता है लेकिन नित्य ही दूसरों से छल-कपट करता है, उसका हृदय शुद्ध नहीं होता।
ਅਨਦਿਨੁ ਕਰਮ ਕਰਹਿ ਬਹੁਤੇਰੇ ਸੁਪਨੈ ਸੁਖੁ ਨ ਹੋਈ ॥੧॥
अनदिनु करम करहि बहुतेरे सुपनै सुखु न होई ॥१॥
चाहे वह रोज ही बहुत सारे धर्म-कर्म करता रहता है, पर उसे स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता॥ १॥
ਗਿਆਨੀ ਗੁਰ ਬਿਨੁ ਭਗਤਿ ਨ ਹੋਈ ॥ ਕੋਰੈ ਰੰਗੁ ਕਦੇ ਨ ਚੜੈ ਜੇ ਲੋਚੈ ਸਭੁ ਕੋਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गिआनी गुर बिनु भगति न होई ॥ कोरै रंगु कदे न चड़ै जे लोचै सभु कोई ॥१॥ रहाउ ॥
ज्ञानी गुरु के बिना भक्ति नहीं होती। जिस तरह कोरे कपड़े पर कभी रंग नहीं चढ़ता, चाहे हर कोई अभिलाषा करता रहे। १॥ रहाउ॥
ਜਪੁ ਤਪ ਸੰਜਮ ਵਰਤ ਕਰੇ ਪੂਜਾ ਮਨਮੁਖ ਰੋਗੁ ਨ ਜਾਈ ॥
जपु तप संजम वरत करे पूजा मनमुख रोगु न जाई ॥
स्वेच्छाचारी इन्सान का अभिमान रूपी रोग कभी दूर नहीं होता चाहे वह जाप, तपस्या, संयम, व्रत एवं पूजा ही करता रहे।
ਅੰਤਰਿ ਰੋਗੁ ਮਹਾ ਅਭਿਮਾਨਾ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਖੁਆਈ ॥੨॥
अंतरि रोगु महा अभिमाना दूजै भाइ खुआई ॥२॥
उसके अन्तर्मन में अभिमान का बड़ा रोग होता है और द्वैतभाव में फंसकर वह बर्बाद हो जाता है॥ २ ॥
ਬਾਹਰਿ ਭੇਖ ਬਹੁਤੁ ਚਤੁਰਾਈ ਮਨੂਆ ਦਹ ਦਿਸਿ ਧਾਵੈ ॥
बाहरि भेख बहुतु चतुराई मनूआ दह दिसि धावै ॥
बाहरी दिखावे के लिए वह धार्मिक वेष धारण करता है और बहुत चतुराई करता है। लेकिन उसका मन दसों दिशाओं में भटकता रहता है।
ਹਉਮੈ ਬਿਆਪਿਆ ਸਬਦੁ ਨ ਚੀਨੑੈ ਫਿਰਿ ਫਿਰਿ ਜੂਨੀ ਆਵੈ ॥੩॥
हउमै बिआपिआ सबदु न चीन्है फिरि फिरि जूनी आवै ॥३॥
अहंत्व में फंसकर वह शब्द की पहचान नहीं करता और बार-बार योनियों के चक्र में आता है॥ ३॥
ਨਾਨਕ ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਸੋ ਬੂਝੈ ਸੋ ਜਨੁ ਨਾਮੁ ਧਿਆਏ ॥
नानक नदरि करे सो बूझै सो जनु नामु धिआए ॥
हे नानक ! जिस पर प्रभु अपनी कृपा-दृष्टि करता है, उसे सूझ हो जाती है और ऐसा व्यक्ति नाम का ध्यान करता रहता है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਏਕੋ ਬੂਝੈ ਏਕਸੁ ਮਾਹਿ ਸਮਾਏ ॥੪॥੪॥
गुर परसादी एको बूझै एकसु माहि समाए ॥४॥४॥
गुरु की कृपा से वह एक परमात्मा को बूझकर उस में ही समा जाता है। ४॥ ४॥
ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੪ ਘਰੁ ੨
सूही महला ४ घरु २
सूही महला ४ घरु २
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ਗੁਰਮਤਿ ਨਗਰੀ ਖੋਜਿ ਖੋਜਾਈ ॥ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਪਦਾਰਥੁ ਪਾਈ ॥੧॥
गुरमति नगरी खोजि खोजाई ॥ हरि हरि नामु पदारथु पाई ॥१॥
गुरु-उपदेश द्वारा मैंने अपनी शरीर रूपी नगरी की भलीभांति खोज की है, जिसमें हरि नाम रूपी पदार्थ पा लिया है ॥ १॥
ਮੇਰੈ ਮਨਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਸਾਂਤਿ ਵਸਾਈ ॥
मेरै मनि हरि हरि सांति वसाई ॥
मेरे मन में हरि-नाम ने शांति बसा दी है।
ਤਿਸਨਾ ਅਗਨਿ ਬੁਝੀ ਖਿਨ ਅੰਤਰਿ ਗੁਰਿ ਮਿਲਿਐ ਸਭ ਭੁਖ ਗਵਾਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
तिसना अगनि बुझी खिन अंतरि गुरि मिलिऐ सभ भुख गवाई ॥१॥ रहाउ ॥
इससे क्षण में ही तृष्णा की अग्नि बुझ गई है और गुरु को मिलकर मेरी सारी भूख समाप्त हो गई है॥ १॥ रहाउ ॥
ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵਾ ਜੀਵਾ ਮੇਰੀ ਮਾਈ ॥
हरि गुण गावा जीवा मेरी माई ॥
हे मेरी माई ! मैं हरि का गुणगान करके ही जी रहा हूँ।
ਸਤਿਗੁਰਿ ਦਇਆਲਿ ਗੁਣ ਨਾਮੁ ਦ੍ਰਿੜਾਈ ॥੨॥
सतिगुरि दइआलि गुण नामु द्रिड़ाई ॥२॥
दयालु सतगुरु ने परमात्मा के गुण एवं उसका नाम मेरे मन में बसा दिया है। २॥
ਹਉ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਪਿਆਰਾ ਢੂਢਿ ਢੂਢਾਈ ॥
हउ हरि प्रभु पिआरा ढूढि ढूढाई ॥
मैंने अपना प्यारा प्रभु ढूंढ लिया है और
ਸਤਸੰਗਤਿ ਮਿਲਿ ਹਰਿ ਰਸੁ ਪਾਈ ॥੩॥
सतसंगति मिलि हरि रसु पाई ॥३॥
सत्संगति में मिलकर हरि-रस पा लिया है॥ ३॥
ਧੁਰਿ ਮਸਤਕਿ ਲੇਖ ਲਿਖੇ ਹਰਿ ਪਾਈ ॥
धुरि मसतकि लेख लिखे हरि पाई ॥
आरम्भ से मस्तक पर लिखे भाग्य के कारण ही मैंने हरि को पाया है।
ਗੁਰੁ ਨਾਨਕੁ ਤੁਠਾ ਮੇਲੈ ਹਰਿ ਭਾਈ ॥੪॥੧॥੫॥
गुरु नानकु तुठा मेलै हरि भाई ॥४॥१॥५॥
हे भाई ! गुरु नानक ने प्रसन्न होकर मुझे हरि से मिला दिया है। ४॥ १॥ ५ ॥
ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੪ ॥
सूही महला ४ ॥
सूही महला ४ ॥
ਹਰਿ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰੇ ਮਨਿ ਹਰਿ ਰੰਗੁ ਲਾਏ ॥
हरि क्रिपा करे मनि हरि रंगु लाए ॥
हे जीव ! हरि अपनी कृपा करके मन में अपना प्रेम उत्पन्न कर देता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮਿ ਸਮਾਏ ॥੧॥
गुरमुखि हरि हरि नामि समाए ॥१॥
ऐसा इन्सान गुरु के सान्निध्य में रहकर हरि नाम में ही समा जाता है॥ १॥
ਹਰਿ ਰੰਗਿ ਰਾਤਾ ਮਨੁ ਰੰਗ ਮਾਣੇ ॥
हरि रंगि राता मनु रंग माणे ॥
हरि के प्रेम-रंग में मग्न हुआ मन सुख की अनुभूति करता है।
ਸਦਾ ਅਨੰਦਿ ਰਹੈ ਦਿਨ ਰਾਤੀ ਪੂਰੇ ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਸਮਾਣੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
सदा अनंदि रहै दिन राती पूरे गुर कै सबदि समाणे ॥१॥ रहाउ ॥
वह सदैव ही दिन-रात आनंद में रहता है और पूर्ण गुरु के शब्द में समा जाता है॥ १ ॥ रहाउ ॥
ਹਰਿ ਰੰਗ ਕਉ ਲੋਚੈ ਸਭੁ ਕੋਈ ॥
हरि रंग कउ लोचै सभु कोई ॥
जीवन में हर कोई इस प्रेम-रंग की कामना करता रहता है,
ਗੁਰਮੁਖਿ ਰੰਗੁ ਚਲੂਲਾ ਹੋਈ ॥੨॥
गुरमुखि रंगु चलूला होई ॥२॥
मगर यह प्रेम रूपी गहरा लाल रंग गुरु के माध्यम से ही मन को चढ़ता है॥ २॥
ਮਨਮੁਖਿ ਮੁਗਧੁ ਨਰੁ ਕੋਰਾ ਹੋਇ ॥
मनमुखि मुगधु नरु कोरा होइ ॥
मूर्ख स्वेच्छाचारी इन्सान कोरे कपड़े की तरह होता है।