ਗਣਤ ਗਣਾਵਣਿ ਆਈਆ ਸੂਹਾ ਵੇਸੁ ਵਿਕਾਰੁ ॥
गणत गणावणि आईआ सूहा वेसु विकारु ॥
जो अपने प्राणपति से अनुकंपा करने की जगह उससे हिसाब-किताब मोल करने आई हैं, उनका दुल्हन-वेष लाल पहरावा भी बेकार है, अर्थात् आडम्बर है l
ਪਾਖੰਡਿ ਪ੍ਰੇਮੁ ਨ ਪਾਈਐ ਖੋਟਾ ਪਾਜੁ ਖੁਆਰੁ ॥੧॥
पाखंडि प्रेमु न पाईऐ खोटा पाजु खुआरु ॥१॥
हे जीवात्मा ! आडम्बर से उसकी प्रीति प्राप्त नहीं होती। खोटा आडम्बर विनाशकारी होता है, इससे प्रभु-पति की प्रसन्नता प्राप्त नहीं होती॥१॥
ਹਰਿ ਜੀਉ ਇਉ ਪਿਰੁ ਰਾਵੈ ਨਾਰਿ ॥
हरि जीउ इउ पिरु रावै नारि ॥
हे प्रभु जी ! प्रियवर अपनी स्त्री से ऐसे रमण करता है
ਤੁਧੁ ਭਾਵਨਿ ਸੋਹਾਗਣੀ ਅਪਣੀ ਕਿਰਪਾ ਲੈਹਿ ਸਵਾਰਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
तुधु भावनि सोहागणी अपणी किरपा लैहि सवारि ॥१॥ रहाउ ॥
हे ईश्वर ! वही सुहागिन है जो तुझे अच्छी लगती है और अपनी दया-दृष्टि से तुम उसे संवार लेते हो॥१॥ रहाउ॥
ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਸੀਗਾਰੀਆ ਤਨੁ ਮਨੁ ਪਿਰ ਕੈ ਪਾਸਿ ॥
गुर सबदी सीगारीआ तनु मनु पिर कै पासि ॥
गुर-शब्द से वह सुशोभित हुई हैं और उसका तन एवं मन उसके प्रीतम के समक्ष समर्पित है।
ਦੁਇ ਕਰ ਜੋੜਿ ਖੜੀ ਤਕੈ ਸਚੁ ਕਹੈ ਅਰਦਾਸਿ ॥
दुइ कर जोड़ि खड़ी तकै सचु कहै अरदासि ॥
अपने दोनों हाथ जोड़कर वे प्रभु-परमेश्वर की प्रतीक्षा करती हैं और सच्चे हृदय से उसके समक्ष वंदना करके सत्य प्राप्ति की लालसा बनाए रखती हैं।
ਲਾਲਿ ਰਤੀ ਸਚ ਭੈ ਵਸੀ ਭਾਇ ਰਤੀ ਰੰਗਿ ਰਾਸਿ ॥੨॥
लालि रती सच भै वसी भाइ रती रंगि रासि ॥२॥
वह अंपने प्रीतम के प्रेम में लिवलीन हो गई हैं और सत्यपुरुष के भय में रहती हैं। उसकी प्रीत में रंग जाने से उसकी सत्य की रंगत में लिवलीन हो जाती हैं।॥२॥
ਪ੍ਰਿਅ ਕੀ ਚੇਰੀ ਕਾਂਢੀਐ ਲਾਲੀ ਮਾਨੈ ਨਾਉ ॥
प्रिअ की चेरी कांढीऐ लाली मानै नाउ ॥
वह अपने प्रियतम की अनुचर कही जाती है, जो अपने नाम को समर्पण होती है।
ਸਾਚੀ ਪ੍ਰੀਤਿ ਨ ਤੁਟਈ ਸਾਚੇ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਉ ॥
साची प्रीति न तुटई साचे मेलि मिलाउ ॥
प्रीतम का सच्चा प्रेम कभी टूटता नहीं और वह सच्चे स्वामी के मिलाप अंदर मिल जाती है।
ਸਬਦਿ ਰਤੀ ਮਨੁ ਵੇਧਿਆ ਹਉ ਸਦ ਬਲਿਹਾਰੈ ਜਾਉ ॥੩॥
सबदि रती मनु वेधिआ हउ सद बलिहारै जाउ ॥३॥
गुरुवाणी में रंग जाने से उसका मन बिंध गया है। मैं सदैव उस पर बलिहारी जाता हूँ॥३॥
ਸਾ ਧਨ ਰੰਡ ਨ ਬੈਸਈ ਜੇ ਸਤਿਗੁਰ ਮਾਹਿ ਸਮਾਇ ॥
सा धन रंड न बैसई जे सतिगुर माहि समाइ ॥
वह नारी जो अपने सतिगुर के (उपदेशों-शिक्षाओं) भीतर लीन हुई है, वह कदापि विधवा नहीं होती।
ਪਿਰੁ ਰੀਸਾਲੂ ਨਉਤਨੋ ਸਾਚਉ ਮਰੈ ਨ ਜਾਇ ॥
पिरु रीसालू नउतनो साचउ मरै न जाइ ॥
उसका प्रीतम रसों का घर हमेशा नवीन देह वाला एवं सत्यवादी है। वह जीवन-मृत्यु के चक्कर से विमुक्त है।
ਨਿਤ ਰਵੈ ਸੋਹਾਗਣੀ ਸਾਚੀ ਨਦਰਿ ਰਜਾਇ ॥੪॥
नित रवै सोहागणी साची नदरि रजाइ ॥४॥
वह हमेशा अपनी पवित्र-पाक नारी को हर्षित करता है और उस पर अपनी सत्य-दृष्टि रखता है, क्योंकि वह उसकी आज्ञानुसार विचरण करती है॥४॥
ਸਾਚੁ ਧੜੀ ਧਨ ਮਾਡੀਐ ਕਾਪੜੁ ਪ੍ਰੇਮ ਸੀਗਾਰੁ ॥
साचु धड़ी धन माडीऐ कापड़ु प्रेम सीगारु ॥
ऐसी जीवात्माएँ सत्य की माँग संवारती हैं और प्रभु प्रीत को अपनी पोशाक तथा हार-श्रृंगार बनाती हैं।
ਚੰਦਨੁ ਚੀਤਿ ਵਸਾਇਆ ਮੰਦਰੁ ਦਸਵਾ ਦੁਆਰੁ ॥
दनु चीति वसाइआ मंदरु दसवा दुआरु ॥
स्वामी को हृदय में धारण करने का चन्दन लगाती हैं और दसवें द्वार को अपना महल बनाती हैं।
ਦੀਪਕੁ ਸਬਦਿ ਵਿਗਾਸਿਆ ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਉਰ ਹਾਰੁ ॥੫॥
दीपकु सबदि विगासिआ राम नामु उर हारु ॥५॥
वह गुर-शब्द का दीपक प्रज्वलित करती हैं और राम-नाम ही उनकी माला है॥ ५॥
ਨਾਰੀ ਅੰਦਰਿ ਸੋਹਣੀ ਮਸਤਕਿ ਮਣੀ ਪਿਆਰੁ ॥
नारी अंदरि सोहणी मसतकि मणी पिआरु ॥
नारियों में वह अति रूपवान सुन्दर है और अपने मस्तक पर उसने स्वामी के स्नेह का माणिक्य शोभायमान है।
ਸੋਭਾ ਸੁਰਤਿ ਸੁਹਾਵਣੀ ਸਾਚੈ ਪ੍ਰੇਮਿ ਅਪਾਰ ॥
सोभा सुरति सुहावणी साचै प्रेमि अपार ॥
उसकी महिमा तथा विवेक अति मनोहर है तथा उसकी प्रीति अनंत प्रभु के लिए सच्ची है।
ਬਿਨੁ ਪਿਰ ਪੁਰਖੁ ਨ ਜਾਣਈ ਸਾਚੇ ਗੁਰ ਕੈ ਹੇਤਿ ਪਿਆਰਿ ॥੬॥
बिनु पिर पुरखु न जाणई साचे गुर कै हेति पिआरि ॥६॥
वह अपने प्रियतम के अतिरिक्त किसी को भी परम-पुरुष नहीं समझती। केवल सतिगुरु हेतु ही वह प्रेम तथा अनुराग रखती है॥ ६ ॥
ਨਿਸਿ ਅੰਧਿਆਰੀ ਸੁਤੀਏ ਕਿਉ ਪਿਰ ਬਿਨੁ ਰੈਣਿ ਵਿਹਾਇ ॥
निसि अंधिआरी सुतीए किउ पिर बिनु रैणि विहाइ ॥
परन्तु जो अंधेरी निशा में सोई हुई है, वह अपने प्रियतम के अलावा अपनी रात्रि किस तरह व्यतीत करेगी?”
ਅੰਕੁ ਜਲਉ ਤਨੁ ਜਾਲੀਅਉ ਮਨੁ ਧਨੁ ਜਲਿ ਬਲਿ ਜਾਇ ॥
अंकु जलउ तनु जालीअउ मनु धनु जलि बलि जाइ ॥
तेरे अंग जल जाएँगे, तेरी देहि जल जाएगी और तेरा हृदय एवं धन सभी जल जाएँगे।
ਜਾ ਧਨ ਕੰਤਿ ਨ ਰਾਵੀਆ ਤਾ ਬਿਰਥਾ ਜੋਬਨੁ ਜਾਇ ॥੭॥
जा धन कंति न रावीआ ता बिरथा जोबनु जाइ ॥७॥
यदि जीव रूपी नारी को प्राणपति सम्मान प्रदान नहीं करता, तब उसका यौवन व्यर्थ जाता है॥ ७ ॥
ਸੇਜੈ ਕੰਤ ਮਹੇਲੜੀ ਸੂਤੀ ਬੂਝ ਨ ਪਾਇ ॥
सेजै कंत महेलड़ी सूती बूझ न पाइ ॥
जीव रूपी स्त्री एवं मालिया प्रभु दोनों का एक ही हृदय रुपी सेज पर निवास है। लेकिन जीव-स्त्री माया के मोह की निद्रा में मग्न है परन्तु सोई हुई पत्नी को उस बारे ज्ञान ही नहीं।
ਹਉ ਸੁਤੀ ਪਿਰੁ ਜਾਗਣਾ ਕਿਸ ਕਉ ਪੂਛਉ ਜਾਇ ॥
हउ सुती पिरु जागणा किस कउ पूछउ जाइ ॥
मैं निद्रा-मग्न हूँ, मेरा पति प्रभु जाग रहा है। मैं किसके पास जाकर पूछू?”
ਸਤਿਗੁਰਿ ਮੇਲੀ ਭੈ ਵਸੀ ਨਾਨਕ ਪ੍ਰੇਮੁ ਸਖਾਇ ॥੮॥੨॥
सतिगुरि मेली भै वसी नानक प्रेमु सखाइ ॥८॥२॥
हे नानक ! जिस जीव-स्त्री को सतिगुरु उसके पति-प्रभु से मिला देते हैं, वह सदैव पति-प्रभु के भय में रहती है। प्रभु का प्रेम उस जीव-स्त्री का साथी बन जाता है।l८ ॥२॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੧ ॥
सिरीरागु महला १ ॥
श्रीरागु महला १ ॥
ਆਪੇ ਗੁਣ ਆਪੇ ਕਥੈ ਆਪੇ ਸੁਣਿ ਵੀਚਾਰੁ ॥
आपे गुण आपे कथै आपे सुणि वीचारु ॥
हे स्वामी ! तू स्वयं ही रत्न में गुण है। तू जौहरी बन कर स्वयं ही रत्न के गुणों को कथन करता है। तुम स्वयं ही ग्राहक बनकर उसके गुणों को सुनते एवं विचार करते हो।
ਆਪੇ ਰਤਨੁ ਪਰਖਿ ਤੂੰ ਆਪੇ ਮੋਲੁ ਅਪਾਰੁ ॥
आपे रतनु परखि तूं आपे मोलु अपारु ॥
तुम स्वयं ही नाम रूपी रतन हो तुम स्वयं ही इसकी परख करने वाले हो और तुम अनन्त मूल्यवान हो।
ਸਾਚਉ ਮਾਨੁ ਮਹਤੁ ਤੂੰ ਆਪੇ ਦੇਵਣਹਾਰੁ ॥੧॥
साचउ मानु महतु तूं आपे देवणहारु ॥१॥
हे ईश्वर ! तुम ही मान-प्रतिष्ठा और महत्ता हो और स्वयं ही दानशील प्रभु उनको मान-सम्मान देने वाले हो॥१॥
ਹਰਿ ਜੀਉ ਤੂੰ ਕਰਤਾ ਕਰਤਾਰੁ ॥
हरि जीउ तूं करता करतारु ॥
हे हरि ! तुम ही जगत् के रचयिता एवं सृजनहार हो।
ਜਿਉ ਭਾਵੈ ਤਿਉ ਰਾਖੁ ਤੂੰ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਮਿਲੈ ਆਚਾਰੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जिउ भावै तिउ राखु तूं हरि नामु मिलै आचारु ॥१॥ रहाउ ॥
जिस तरह तुझे अच्छा लगता है, मेरी रक्षा करो। हे परमात्मा ! मुझे अपना नाम-सुमिरन एवं जीवन आचरण प्रदान करो॥१॥ रहाउ ॥
ਆਪੇ ਹੀਰਾ ਨਿਰਮਲਾ ਆਪੇ ਰੰਗੁ ਮਜੀਠ ॥
आपे हीरा निरमला आपे रंगु मजीठ ॥
तुम स्वयं ही शुद्ध-निर्मल रत्न हो और स्वयं ही भक्ति का मजीठ रंग भी हो।
ਆਪੇ ਮੋਤੀ ਊਜਲੋ ਆਪੇ ਭਗਤ ਬਸੀਠੁ ॥
आपे मोती ऊजलो आपे भगत बसीठु ॥
तुम ही निर्मल मोती हो और स्वयं ही भक्तों में मध्यस्थ भी हो।
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਸਲਾਹਣਾ ਘਟਿ ਘਟਿ ਡੀਠੁ ਅਡੀਠੁ ॥੨॥
गुर कै सबदि सलाहणा घटि घटि डीठु अडीठु ॥२॥
गुरु के शब्द द्वारा अदृश्य प्रभु को प्रशंसित किया जाता है और प्रत्येक हृदय में उसके दर्शन किए जाते हैं।॥ २॥
ਆਪੇ ਸਾਗਰੁ ਬੋਹਿਥਾ ਆਪੇ ਪਾਰੁ ਅਪਾਰੁ ॥
आपे सागरु बोहिथा आपे पारु अपारु ॥
हे प्रभु! तुम स्वयं ही सागर तथा पार होने का जहाज हो। तथा स्वयं ही इस पार का किनारा और उस पार का किनारा हो।
ਸਾਚੀ ਵਾਟ ਸੁਜਾਣੁ ਤੂੰ ਸਬਦਿ ਲਘਾਵਣਹਾਰੁ ॥
साची वाट सुजाणु तूं सबदि लघावणहारु ॥
हे सर्वज्ञ स्वामी ! तू ही सत्य मार्ग है। और तेरा नाम पार करने के लिए मल्लाह है।
ਨਿਡਰਿਆ ਡਰੁ ਜਾਣੀਐ ਬਾਝੁ ਗੁਰੂ ਗੁਬਾਰੁ ॥੩॥
निडरिआ डरु जाणीऐ बाझु गुरू गुबारु ॥३॥
जो प्रभु के नाम से भय नहीं रखते, वही भवसागर में भयभीत होते हैं। गुरदेव के अतिरिक्त घनघोर अंधकार है॥३॥
ਅਸਥਿਰੁ ਕਰਤਾ ਦੇਖੀਐ ਹੋਰੁ ਕੇਤੀ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥
असथिरु करता देखीऐ होरु केती आवै जाइ ॥
केवल सृष्टि का कर्ता ही सदैव स्थिर देखा जाता है। अन्य सभी आवागमन के चक्कर में रहते हैं।
ਆਪੇ ਨਿਰਮਲੁ ਏਕੁ ਤੂੰ ਹੋਰ ਬੰਧੀ ਧੰਧੈ ਪਾਇ ॥
आपे निरमलु एकु तूं होर बंधी धंधै पाइ ॥
हे पारब्रह्म ! केवल एक तू ही अपने आप शुद्ध है। शेष सांसारिक कर्मों के भीतर अपने-अपने धंधों में बंधे हुए हैं।
ਗੁਰਿ ਰਾਖੇ ਸੇ ਉਬਰੇ ਸਾਚੇ ਸਿਉ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥੪॥
गुरि राखे से उबरे साचे सिउ लिव लाइ ॥४॥
जिन प्राणियों की गुरु जी रक्षा करते हैं, वे प्रभु की भक्ति में लिवलीन सांसारिक बंधनों से मुक्ति प्राप्त करते हैं।॥ ४॥