ਪੂਰਾ ਗੁਰੁ ਪੂਰੀ ਬਣਤ ਬਣਾਈ ॥
पूरा गुरु पूरी बणत बणाई ॥
पूर्ण गुरु-परमेश्वर ने जो कुछ भी रचा है वह पूर्ण है।
ਨਾਨਕ ਭਗਤ ਮਿਲੀ ਵਡਿਆਈ ॥੪॥੨੪॥
नानक भगत मिली वडिआई ॥४॥२४॥
हे नानक ! प्रभु-भक्तों को ही प्रशंसा मिली है॥ ४॥ २४ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥
आसा महला ५ ॥
आसा महला ५ ॥
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਬਨਾਵਹੁ ਇਹੁ ਮਨੁ ॥
गुर कै सबदि बनावहु इहु मनु ॥
हे बन्धु ! गुरु के शब्द में अपने मन को नेक बनाओ।
ਗੁਰ ਕਾ ਦਰਸਨੁ ਸੰਚਹੁ ਹਰਿ ਧਨੁ ॥੧॥
गुर का दरसनु संचहु हरि धनु ॥१॥
गुरु का दर्शन करो और हरि-नाम रूपी धन संचित करो ॥ १॥
ਊਤਮ ਮਤਿ ਮੇਰੈ ਰਿਦੈ ਤੂੰ ਆਉ ॥
ऊतम मति मेरै रिदै तूं आउ ॥
हे उत्तम बुद्धि ! तू मेरे मन में प्रवेश कर
ਧਿਆਵਉ ਗਾਵਉ ਗੁਣ ਗੋਵਿੰਦਾ ਅਤਿ ਪ੍ਰੀਤਮ ਮੋਹਿ ਲਾਗੈ ਨਾਉ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
धिआवउ गावउ गुण गोविंदा अति प्रीतम मोहि लागै नाउ ॥१॥ रहाउ ॥
जिससे मैं गोविन्द का गुणगान एवं ध्यान करूँ और मुझे उसका नाम अत्यन्त प्रिय लगे ॥ १॥ रहाउ॥
ਤ੍ਰਿਪਤਿ ਅਘਾਵਨੁ ਸਾਚੈ ਨਾਇ ॥
त्रिपति अघावनु साचै नाइ ॥
सत्यनाम द्वारा मैं तृप्त एवं संतुष्ट हो गया हूँ।
ਅਠਸਠਿ ਮਜਨੁ ਸੰਤ ਧੂਰਾਇ ॥੨॥
अठसठि मजनु संत धूराइ ॥२॥
संतों की चरण-धूलि मेरा अड़सठ तीर्थों का स्नान है॥ २ ॥
ਸਭ ਮਹਿ ਜਾਨਉ ਕਰਤਾ ਏਕ ॥
सभ महि जानउ करता एक ॥
मैं एक ईश्वर को सबमें व्यापक हुआ अनुभव करता हूँ।
ਸਾਧਸੰਗਤਿ ਮਿਲਿ ਬੁਧਿ ਬਿਬੇਕ ॥੩॥
साधसंगति मिलि बुधि बिबेक ॥३॥
साध-संगति में मुझे विवेक बुद्धि मिली है॥ ३॥
ਦਾਸੁ ਸਗਲ ਕਾ ਛੋਡਿ ਅਭਿਮਾਨੁ ॥
दासु सगल का छोडि अभिमानु ॥
अभिमान को छोड़कर मैं सबका सेवक हो गया हूँ।
ਨਾਨਕ ਕਉ ਗੁਰਿ ਦੀਨੋ ਦਾਨੁ ॥੪॥੨੫॥
नानक कउ गुरि दीनो दानु ॥४॥२५॥
नानक को गुरु ने सुमति का दान दिया है।॥ ४॥ २५ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥
आसा महला ५ ॥
आसा महला ५ ॥
ਬੁਧਿ ਪ੍ਰਗਾਸ ਭਈ ਮਤਿ ਪੂਰੀ ॥
बुधि प्रगास भई मति पूरी ॥
गुरु की मति से मेरी बुद्धि में ज्ञान का प्रकाश हो गया है।
ਤਾ ਤੇ ਬਿਨਸੀ ਦੁਰਮਤਿ ਦੂਰੀ ॥੧॥
ता ते बिनसी दुरमति दूरी ॥१॥
इससे मेरी दुर्मति नाश हो गई है, जो मुझे मेरे मालिक से दूर रखती थी।॥ १॥
ਐਸੀ ਗੁਰਮਤਿ ਪਾਈਅਲੇ ॥
ऐसी गुरमति पाईअले ॥
हे मेरे भाई ! गुरु की मति से मुझे ऐसी सूझ प्राप्त हुई है कि
ਬੂਡਤ ਘੋਰ ਅੰਧ ਕੂਪ ਮਹਿ ਨਿਕਸਿਓ ਮੇਰੇ ਭਾਈ ਰੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
बूडत घोर अंध कूप महि निकसिओ मेरे भाई रे ॥१॥ रहाउ ॥
मैं घोर अंधकूप रूपी संसार में से डूबता हुआ बच गया हूँ॥ १॥ रहाउ॥
ਮਹਾ ਅਗਾਹ ਅਗਨਿ ਕਾ ਸਾਗਰੁ ॥
महा अगाह अगनि का सागरु ॥
यह जगत तृष्णा रूपी अग्नि का बहुत गहरा अथाह सागर है पर
ਗੁਰੁ ਬੋਹਿਥੁ ਤਾਰੇ ਰਤਨਾਗਰੁ ॥੨॥
गुरु बोहिथु तारे रतनागरु ॥२॥
रत्नागर गुरु रूपी जहाज मनुष्य को भवसागर से पार कर देता है॥ २॥
ਦੁਤਰ ਅੰਧ ਬਿਖਮ ਇਹ ਮਾਇਆ ॥
दुतर अंध बिखम इह माइआ ॥
यह माया का सागर बड़ा अन्धा एवं विषम है।
ਗੁਰਿ ਪੂਰੈ ਪਰਗਟੁ ਮਾਰਗੁ ਦਿਖਾਇਆ ॥੩॥
गुरि पूरै परगटु मारगु दिखाइआ ॥३॥
इसे पार करने हेतु पूर्ण गुरु ने मार्ग प्रत्यक्ष तौर पर दिखा दिया है॥ ३॥
ਜਾਪ ਤਾਪ ਕਛੁ ਉਕਤਿ ਨ ਮੋਰੀ ॥
जाप ताप कछु उकति न मोरी ॥
मेरे पास न कोई जाप है, न कोई तपस्या और न ही कोई उक्ति है।
ਗੁਰ ਨਾਨਕ ਸਰਣਾਗਤਿ ਤੋਰੀ ॥੪॥੨੬॥
गुर नानक सरणागति तोरी ॥४॥२६॥
हे गुरु ! नानक तेरी ही शरण में आया है॥ ४॥ २६ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ਤਿਪਦੇ ੨ ॥
आसा महला ५ तिपदे २ ॥
आसा महला ५ तिपदे २ ॥
ਹਰਿ ਰਸੁ ਪੀਵਤ ਸਦ ਹੀ ਰਾਤਾ ॥
हरि रसु पीवत सद ही राता ॥
हरि-रस पीने से इन्सान सदैव ही रंगा रहता है।
ਆਨ ਰਸਾ ਖਿਨ ਮਹਿ ਲਹਿ ਜਾਤਾ ॥
आन रसा खिन महि लहि जाता ॥
दूसरे तमाम स्वाद एक क्षण में मिट जाते हैं।
ਹਰਿ ਰਸ ਕੇ ਮਾਤੇ ਮਨਿ ਸਦਾ ਅਨੰਦ ॥
हरि रस के माते मनि सदा अनंद ॥
हरि रस से मतवाला होकर वह अन्तर्मन से सदैव प्रसन्न रहता है
ਆਨ ਰਸਾ ਮਹਿ ਵਿਆਪੈ ਚਿੰਦ ॥੧॥
आन रसा महि विआपै चिंद ॥१॥
लेकिन लौकिक पदार्थों के आस्वादन में पड़ने से चिन्ता बनी रहती है॥ १॥
ਹਰਿ ਰਸੁ ਪੀਵੈ ਅਲਮਸਤੁ ਮਤਵਾਰਾ ॥
हरि रसु पीवै अलमसतु मतवारा ॥
जो हरि रस पीता है वह अलमस्त एवं मतवाला हो जाता है।
ਆਨ ਰਸਾ ਸਭਿ ਹੋਛੇ ਰੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
आन रसा सभि होछे रे ॥१॥ रहाउ ॥
हे इन्सान ! संसार के दूसरे सभी रस तुच्छ हैं।॥ १॥ रहाउ॥
ਹਰਿ ਰਸ ਕੀ ਕੀਮਤਿ ਕਹੀ ਨ ਜਾਇ ॥
हरि रस की कीमति कही न जाइ ॥
हरि रस का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।
ਹਰਿ ਰਸੁ ਸਾਧੂ ਹਾਟਿ ਸਮਾਇ ॥
हरि रसु साधू हाटि समाइ ॥
हरि रस साधु-संतों की दुकान (सत्संग) में लीन रहता है।
ਲਾਖ ਕਰੋਰੀ ਮਿਲੈ ਨ ਕੇਹ ॥
लाख करोरी मिलै न केह ॥
लाखों-करोड़ खर्च करने पर भी यह किसी को प्राप्त नहीं हो सकता।
ਜਿਸਹਿ ਪਰਾਪਤਿ ਤਿਸ ਹੀ ਦੇਹਿ ॥੨॥
जिसहि परापति तिस ही देहि ॥२॥
जिस मनुष्य के भाग्य में इसे प्राप्त करना लिखा होता है परमात्मा उसे ही देता है॥ २॥
ਨਾਨਕ ਚਾਖਿ ਭਏ ਬਿਸਮਾਦੁ ॥
नानक चाखि भए बिसमादु ॥
नानक इस हरि रस को चख कर चकित हो गया है।
ਨਾਨਕ ਗੁਰ ਤੇ ਆਇਆ ਸਾਦੁ ॥
नानक गुर ते आइआ सादु ॥
हे नानक ! गुरु के माध्यम से इसका स्वाद प्राप्त हुआ है।
ਈਤ ਊਤ ਕਤ ਛੋਡਿ ਨ ਜਾਇ ॥
ईत ऊत कत छोडि न जाइ ॥
इधर-उधर (लोक-परलोक में) इसे त्याग कर वह अन्य कहीं नहीं जाता।
ਨਾਨਕ ਗੀਧਾ ਹਰਿ ਰਸ ਮਾਹਿ ॥੩॥੨੭॥
नानक गीधा हरि रस माहि ॥३॥२७॥
नानक तो हरि रस पीने में ही मस्त रहता है॥ ३॥ २७ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੫ ॥
आसा महला ५ ॥
आसा महला ५ ॥
ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਲੋਭੁ ਮੋਹੁ ਮਿਟਾਵੈ ਛੁਟਕੈ ਦੁਰਮਤਿ ਅਪੁਨੀ ਧਾਰੀ ॥
कामु क्रोधु लोभु मोहु मिटावै छुटकै दुरमति अपुनी धारी ॥
यदि जीव-स्त्री अपने काम, क्रोध, लोभ, मोह को मिटा दे, तो वह अपनी पदा की हुई मंदबुद्धि से छूट जाती है।
ਹੋਇ ਨਿਮਾਣੀ ਸੇਵ ਕਮਾਵਹਿ ਤਾ ਪ੍ਰੀਤਮ ਹੋਵਹਿ ਮਨਿ ਪਿਆਰੀ ॥੧॥
होइ निमाणी सेव कमावहि ता प्रीतम होवहि मनि पिआरी ॥१॥
यदि वह विनीत होकर अपने प्रभु की सेवा करे तो वह अपने प्रियतम के मन की प्रियतमा हो जाती है॥ १॥
ਸੁਣਿ ਸੁੰਦਰਿ ਸਾਧੂ ਬਚਨ ਉਧਾਰੀ ॥
सुणि सुंदरि साधू बचन उधारी ॥
हे सुन्दरी ! सुन, साधु के वचनों द्वारा तेरा उद्धारं हो जाएगा।
ਦੂਖ ਭੂਖ ਮਿਟੈ ਤੇਰੋ ਸਹਸਾ ਸੁਖ ਪਾਵਹਿ ਤੂੰ ਸੁਖਮਨਿ ਨਾਰੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
दूख भूख मिटै तेरो सहसा सुख पावहि तूं सुखमनि नारी ॥१॥ रहाउ ॥
तेरा दुःख, भूख एवं भय सब मिट जाएंगे, हे नारी ! तू जो सुख पाना चाहती है, तुझे वह सुख प्राप्त हो जाएंगे॥ १॥ रहाउ॥
ਚਰਣ ਪਖਾਰਿ ਕਰਉ ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਆਤਮ ਸੁਧੁ ਬਿਖੁ ਤਿਆਸ ਨਿਵਾਰੀ ॥
चरण पखारि करउ गुर सेवा आतम सुधु बिखु तिआस निवारी ॥
हे सुन्दरी ! गुरु के चरण धोने एवं उनकी सेवा करने से आत्मा शुद्ध हो जाती है और विषय-विकारों की प्यास बुझ जाती है।
ਦਾਸਨ ਕੀ ਹੋਇ ਦਾਸਿ ਦਾਸਰੀ ਤਾ ਪਾਵਹਿ ਸੋਭਾ ਹਰਿ ਦੁਆਰੀ ॥੨॥
दासन की होइ दासि दासरी ता पावहि सोभा हरि दुआरी ॥२॥
यदि तू प्रभु के सेवकों की दासी बन जाए तो तुझे प्रभु के द्वार में शोभा मिल जाएगी॥ २॥
ਇਹੀ ਅਚਾਰ ਇਹੀ ਬਿਉਹਾਰਾ ਆਗਿਆ ਮਾਨਿ ਭਗਤਿ ਹੋਇ ਤੁਮ੍ਹ੍ਹਾਰੀ ॥
इही अचार इही बिउहारा आगिआ मानि भगति होइ तुम्हारी ॥
यही तेरा पुण्य-कर्म है, यही तेरा नित्य का आचरण-व्यवहार है कि तू प्रभु की आज्ञा का पालन करे। यही तेरी पूजा-भक्ति है।
ਜੋ ਇਹੁ ਮੰਤ੍ਰੁ ਕਮਾਵੈ ਨਾਨਕ ਸੋ ਭਉਜਲੁ ਪਾਰਿ ਉਤਾਰੀ ॥੩॥੨੮॥
जो इहु मंत्रु कमावै नानक सो भउजलु पारि उतारी ॥३॥२८॥
जो इस मंत्र की कमाई करता है, हे नानक ! वह भवसागर से पार हो जाता है॥ ३ ॥ २८ ॥