ਕਹਿ ਕਬੀਰ ਗੁਰ ਭੇਟਿ ਮਹਾ ਸੁਖ ਭ੍ਰਮਤ ਰਹੇ ਮਨੁ ਮਾਨਾਨਾਂ ॥੪॥੨੩॥੭੪॥
कहि कबीर गुर भेटि महा सुख भ्रमत रहे मनु मानानां ॥४॥२३॥७४॥
कबीर जी कहते हैं-गुरु को मिलकर मुझे महासुख प्राप्त हो गया है। मेरा मन दुविधा में भटकने से हटकर प्रसन्न हो गया है॥ ४॥ २३॥ ७४॥
ਰਾਗੁ ਗਉੜੀ ਪੂਰਬੀ ਬਾਵਨ ਅਖਰੀ ਕਬੀਰ ਜੀਉ ਕੀ
रागु गउड़ी पूरबी बावन अखरी कबीर जीउ की
रागु गउड़ी पूरबी बावन अखरी कबीर जीउ की
ੴ ਸਤਿਨਾਮੁ ਕਰਤਾ ਪੁਰਖੁ ਗੁਰਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिनामु करता पुरखु गुरप्रसादि ॥
ੴ सतिनामु करता पुरखु गुरप्रसादि ॥
ਬਾਵਨ ਅਛਰ ਲੋਕ ਤ੍ਰੈ ਸਭੁ ਕਛੁ ਇਨ ਹੀ ਮਾਹਿ ॥
बावन अछर लोक त्रै सभु कछु इन ही माहि ॥
तीनों लोकों (आकाश, पाताल एवं पृथ्वी) से लेकर सब कुछ जो पदार्थ हैं, वह इन बावन अक्षरों में ही हैं।
ਏ ਅਖਰ ਖਿਰਿ ਜਾਹਿਗੇ ਓਇ ਅਖਰ ਇਨ ਮਹਿ ਨਾਹਿ ॥੧॥
ए अखर खिरि जाहिगे ओइ अखर इन महि नाहि ॥१॥
ये अक्षर नाश हो जाएँगे लेकिन वह अनश्वर परमात्मा इन अक्षरों द्वारा वर्णन नहीं किया जा सकता ॥१॥
ਜਹਾ ਬੋਲ ਤਹ ਅਛਰ ਆਵਾ ॥
जहा बोल तह अछर आवा ॥
जहाँ बोल हैं, वहाँ अक्षर हैं।
ਜਹ ਅਬੋਲ ਤਹ ਮਨੁ ਨ ਰਹਾਵਾ ॥
जह अबोल तह मनु न रहावा ॥
जहाँ वचन (बोल) नहीं, वहाँ मन स्थिर नहीं रहता।
ਬੋਲ ਅਬੋਲ ਮਧਿ ਹੈ ਸੋਈ ॥
बोल अबोल मधि है सोई ॥
वचन एवं चुप (मौन) दोनों में वह प्रभु बसता है।
ਜਸ ਓਹੁ ਹੈ ਤਸ ਲਖੈ ਨ ਕੋਈ ॥੨॥
जस ओहु है तस लखै न कोई ॥२॥
जैसा प्रभु है, वैसा उसे कोई समझ नहीं सकता ॥ २॥
ਅਲਹ ਲਹਉ ਤਉ ਕਿਆ ਕਹਉ ਕਹਉ ਤ ਕੋ ਉਪਕਾਰ ॥
अलह लहउ तउ किआ कहउ कहउ त को उपकार ॥
अ-यदि मैं अल्लाह को प्राप्त कर भी लूं तो मैं उसका सही वर्णन नहीं कर सकता। उसका यशोगान करने से मैं दूसरों का क्या भला कर सकता हूँ?
ਬਟਕ ਬੀਜ ਮਹਿ ਰਵਿ ਰਹਿਓ ਜਾ ਕੋ ਤੀਨਿ ਲੋਕ ਬਿਸਥਾਰ ॥੩॥
बटक बीज महि रवि रहिओ जा को तीनि लोक बिसथार ॥३॥
जिस परमेश्वर का प्रसार तीन लोकों में मौजूद है, वह (ऐसे व्याप्त है जैसे) बरगद के वृक्ष के बीज में व्यापक हो रहा है॥ ३॥
ਅਲਹ ਲਹੰਤਾ ਭੇਦ ਛੈ ਕਛੁ ਕਛੁ ਪਾਇਓ ਭੇਦ ॥
अलह लहंता भेद छै कछु कछु पाइओ भेद ॥
अ-जो अल्लाह को समझता है और उसके रहस्य को अल्पमात्र भी समझता है, उसके लिए जुदाई लुप्त हो जाती है।
ਉਲਟਿ ਭੇਦ ਮਨੁ ਬੇਧਿਓ ਪਾਇਓ ਅਭੰਗ ਅਛੇਦ ॥੪॥
उलटि भेद मनु बेधिओ पाइओ अभंग अछेद ॥४॥
जब प्राणी दुनिया की ओर से पलट जाता है, उसका ह्रदय प्रभु के रहस्य से बिंध जाता है और वह अमर एवं अबोध प्रभु को पा लेता है॥ ४॥
ਤੁਰਕ ਤਰੀਕਤਿ ਜਾਨੀਐ ਹਿੰਦੂ ਬੇਦ ਪੁਰਾਨ ॥
तुरक तरीकति जानीऐ हिंदू बेद पुरान ॥
मुसलमान तरीकत द्वारा अल्लाह को समझता है और हिन्दु वेदों एवं पुराणों द्वारा भगवान को समझता है।
ਮਨ ਸਮਝਾਵਨ ਕਾਰਨੇ ਕਛੂਅਕ ਪੜੀਐ ਗਿਆਨ ॥੫॥
मन समझावन कारने कछूअक पड़ीऐ गिआन ॥५॥
अपने मन को सन्मार्ग पर लगाने के लिए मनुष्य को कुछ ज्ञान एवं विद्या का अध्ययन करना चाहिए॥ ५॥
ਓਅੰਕਾਰ ਆਦਿ ਮੈ ਜਾਨਾ ॥
ओअंकार आदि मै जाना ॥
ओ-जो ऑकार सबकी रचना करने वाला है, मैं केवल उस प्रभु को जानता हूँ।
ਲਿਖਿ ਅਰੁ ਮੇਟੈ ਤਾਹਿ ਨ ਮਾਨਾ ॥
लिखि अरु मेटै ताहि न माना ॥
मैं उस पर भरोसा नहीं रखता, जिसे प्रभु लिखता (रचना करता) और मिटा देता है।
ਓਅੰਕਾਰ ਲਖੈ ਜਉ ਕੋਈ ॥
ओअंकार लखै जउ कोई ॥
यदि कोई एक ईश्वर के दर्शन कर ले तो
ਸੋਈ ਲਖਿ ਮੇਟਣਾ ਨ ਹੋਈ ॥੬॥
सोई लखि मेटणा न होई ॥६॥
दर्शन करने से उसका नाश नहीं होता। ६॥
ਕਕਾ ਕਿਰਣਿ ਕਮਲ ਮਹਿ ਪਾਵਾ ॥
कका किरणि कमल महि पावा ॥
क-जब ज्ञान की किरणे ह्रदय-कमल में प्रवेश कर जाती हैं
ਸਸਿ ਬਿਗਾਸ ਸੰਪਟ ਨਹੀ ਆਵਾ ॥
ससि बिगास स्मपट नही आवा ॥
तो (माया रूपी) चन्द्रमा की चांदनी हृदय कमल में प्रवेश नहीं करती
ਅਰੁ ਜੇ ਤਹਾ ਕੁਸਮ ਰਸੁ ਪਾਵਾ ॥
अरु जे तहा कुसम रसु पावा ॥
और यदि मनुष्य वहाँ आत्मिक पुष्प के रस को प्राप्त कर ले तो वह उस अकथनीय स्वाद का कथन नहीं कर सकेगा।
ਅਕਹ ਕਹਾ ਕਹਿ ਕਾ ਸਮਝਾਵਾ ॥੭॥
अकह कहा कहि का समझावा ॥७॥
वर्णन करने से वह किसे इसका बोध करवा सकता है? ॥ ७ ॥
ਖਖਾ ਇਹੈ ਖੋੜਿ ਮਨ ਆਵਾ ॥
खखा इहै खोड़ि मन आवा ॥
ख-यह आत्मा प्रभु की गुफा में प्रवेश कर गई है।
ਖੋੜੇ ਛਾਡਿ ਨ ਦਹ ਦਿਸ ਧਾਵਾ ॥
खोड़े छाडि न दह दिस धावा ॥
गुफा को त्याग कर यह आत्मा अब दसों दिशाओं में नहीं भटकती।
ਖਸਮਹਿ ਜਾਣਿ ਖਿਮਾ ਕਰਿ ਰਹੈ ॥
खसमहि जाणि खिमा करि रहै ॥
जब मालिक प्रभु को अनुभव करके मनुष्य दया में विचरता है तो
ਤਉ ਹੋਇ ਨਿਖਿਅਉ ਅਖੈ ਪਦੁ ਲਹੈ ॥੮॥
तउ होइ निखिअउ अखै पदु लहै ॥८॥
वह अमर हो जाता है और अमर पदवी प्राप्त कर लेता है ॥ ८ ॥
ਗਗਾ ਗੁਰ ਕੇ ਬਚਨ ਪਛਾਨਾ ॥
गगा गुर के बचन पछाना ॥
ग-जो मनुष्य गुरु के वचन को पहचानता है,
ਦੂਜੀ ਬਾਤ ਨ ਧਰਈ ਕਾਨਾ ॥
दूजी बात न धरई काना ॥
वह दूसरी बातों की तरफ अपने कान ही नहीं करता।
ਰਹੈ ਬਿਹੰਗਮ ਕਤਹਿ ਨ ਜਾਈ ॥
रहै बिहंगम कतहि न जाई ॥
वह पक्षी की भाँति सदैव निर्लिप्त रहता है, कभी भी नहीं भटकता।
ਅਗਹ ਗਹੈ ਗਹਿ ਗਗਨ ਰਹਾਈ ॥੯॥
अगह गहै गहि गगन रहाई ॥९॥
जिस ईश्वर को संसार की मोहिनी प्रभावित नहीं कर सकती, उसे वह अपने हृदय में बसा लेता है, हृदय में बसाकर अपनी वृति को प्रभु-चरणों में टिकाए रखता है ॥९॥
ਘਘਾ ਘਟਿ ਘਟਿ ਨਿਮਸੈ ਸੋਈ ॥
घघा घटि घटि निमसै सोई ॥
घ-वह प्रभु कण-कण (हरेक हृदय) में वास करता है।
ਘਟ ਫੂਟੇ ਘਟਿ ਕਬਹਿ ਨ ਹੋਈ ॥
घट फूटे घटि कबहि न होई ॥
जब शरीर रूपी घड़ा टूट जाता है तो वह कभी कम नहीं होता।
ਤਾ ਘਟ ਮਾਹਿ ਘਾਟ ਜਉ ਪਾਵਾ ॥
ता घट माहि घाट जउ पावा ॥
जब उस ह्रदय में मनुष्य प्रभु-मार्ग प्राप्त कर लेता है तो
ਸੋ ਘਟੁ ਛਾਡਿ ਅਵਘਟ ਕਤ ਧਾਵਾ ॥੧੦॥
सो घटु छाडि अवघट कत धावा ॥१०॥
उस मार्ग को त्याग कर वह दूसरे विषम मार्ग की तरफ क्यों जाए ? ॥ १० ॥
ਙੰਙਾ ਨਿਗ੍ਰਹਿ ਸਨੇਹੁ ਕਰਿ ਨਿਰਵਾਰੋ ਸੰਦੇਹ ॥
ङंङा निग्रहि सनेहु करि निरवारो संदेह ॥
ड-हे भाई ! अपनी इन्दियों पर अंकुश लगा, अपने प्रभु से प्रेम कर और अपनी दुविधा दूर कर दे।
ਨਾਹੀ ਦੇਖਿ ਨ ਭਾਜੀਐ ਪਰਮ ਸਿਆਨਪ ਏਹ ॥੧੧॥
नाही देखि न भाजीऐ परम सिआनप एह ॥११॥
चाहे तुझे अपने प्रभु का मार्ग दिखाई नहीं देता तो (इस काम से) भागना नहीं चाहिए। यही बड़ी बुद्धिमानी है॥ ११॥
ਚਚਾ ਰਚਿਤ ਚਿਤ੍ਰ ਹੈ ਭਾਰੀ ॥
चचा रचित चित्र है भारी ॥
च-ईश्वर द्वारा रचित यह दुनिया एक बहुत बड़ा चित्र है।
ਤਜਿ ਚਿਤ੍ਰੈ ਚੇਤਹੁ ਚਿਤਕਾਰੀ ॥
तजि चित्रै चेतहु चितकारी ॥
हे प्राणी ! चित्रकारी (दुनिया) को त्याग कर चित्रकार (प्रभु) को स्मरण कर।
ਚਿਤ੍ਰ ਬਚਿਤ੍ਰ ਇਹੈ ਅਵਝੇਰਾ ॥
चित्र बचित्र इहै अवझेरा ॥
यह विचित्र चित्र (दुनिया) ही विवादों का मूल है।
ਤਜਿ ਚਿਤ੍ਰੈ ਚਿਤੁ ਰਾਖਿ ਚਿਤੇਰਾ ॥੧੨॥
तजि चित्रै चितु राखि चितेरा ॥१२॥
चित्र छोड़कर चित्रकार (प्रभु) में अपने हृदय को पिरोकर रख॥ १२॥
ਛਛਾ ਇਹੈ ਛਤ੍ਰਪਤਿ ਪਾਸਾ ॥
छछा इहै छत्रपति पासा ॥
छ-छत्रपति प्रभु यहाँ तेरे साथ ही है।
ਛਕਿ ਕਿ ਨ ਰਹਹੁ ਛਾਡਿ ਕਿ ਨ ਆਸਾ ॥
छकि कि न रहहु छाडि कि न आसा ॥
हे मन! तू क्यों और किसके लिए तृष्णाएँ त्यागकर प्रसन्न नहीं रहता ?
ਰੇ ਮਨ ਮੈ ਤਉ ਛਿਨ ਛਿਨ ਸਮਝਾਵਾ ॥
रे मन मै तउ छिन छिन समझावा ॥
हे मन ! क्षण-क्षण मैं तुझे उपदेश देता हूँ।
ਤਾਹਿ ਛਾਡਿ ਕਤ ਆਪੁ ਬਧਾਵਾ ॥੧੩॥
ताहि छाडि कत आपु बधावा ॥१३॥
उसे (प्रभु को) त्याग कर तू क्यों अपने आपको माया के विकारों में फँसाते हो ? ॥ १३ ॥
ਜਜਾ ਜਉ ਤਨ ਜੀਵਤ ਜਰਾਵੈ ॥
जजा जउ तन जीवत जरावै ॥
ज-जब (कोई प्राणी) माया में रहता हुआ ही शरीर (की लालसाएँ) जला लेता है,
ਜੋਬਨ ਜਾਰਿ ਜੁਗਤਿ ਸੋ ਪਾਵੈ ॥
जोबन जारि जुगति सो पावै ॥
वह मनुष्य यौवन जलाकर सन्मार्ग पा लेता है।
ਅਸ ਜਰਿ ਪਰ ਜਰਿ ਜਰਿ ਜਬ ਰਹੈ ॥
अस जरि पर जरि जरि जब रहै ॥
जब मनुष्य अपने धन के अहंकार को एवं पराई दौलत को जलाकर संयम में रहता है,
ਤਬ ਜਾਇ ਜੋਤਿ ਉਜਾਰਉ ਲਹੈ ॥੧੪॥
तब जाइ जोति उजारउ लहै ॥१४॥
तो सर्वोच्च अवस्था में पहुँचकर ईश्वर की ज्योति का उजाला प्राप्त करता है॥ १४॥