ਗੁਰਮਤੀ ਘਟਿ ਚਾਨਣਾ ਆਨੇਰੁ ਬਿਨਾਸਣਿ ॥
गुरमती घटि चानणा आनेरु बिनासणि ॥
गुरु मतानुसार ही हृदय में ज्ञान का प्रकाश होता है और अज्ञान रूपी अंधेरे का बिनाश हो जाता है।
ਹੁਕਮੇ ਹੀ ਸਭ ਸਾਜੀਅਨੁ ਰਵਿਆ ਸਭ ਵਣਿ ਤ੍ਰਿਣਿ ॥
हुकमे ही सभ साजीअनु रविआ सभ वणि त्रिणि ॥
ईश्वर ने अपने हुक्म से समूचे विश्व की रचना की है और वह कण-कण में विद्यमान है।
ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਆਪੇ ਆਪਿ ਹੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਦਾ ਹਰਿ ਭਣਿ ॥
सभु किछु आपे आपि है गुरमुखि सदा हरि भणि ॥
वह सर्वशक्तिमान है और गुरुमुख बनकर सदा भगवान का नाम जपते रहना चाहिए।
ਸਬਦੇ ਹੀ ਸੋਝੀ ਪਈ ਸਚੈ ਆਪਿ ਬੁਝਾਈ ॥੫॥
सबदे ही सोझी पई सचै आपि बुझाई ॥५॥
शब्द द्वारा ही सूझ प्राप्त हुई है और सत्यस्वरूप परमेश्वर ने स्वयं ही ज्ञान प्रदान किया है ॥५॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥
सलोक मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥
ਅਭਿਆਗਤ ਏਹਿ ਨ ਆਖੀਅਨਿ ਜਿਨ ਕੇ ਚਿਤ ਮਹਿ ਭਰਮੁ ॥
अभिआगत एहि न आखीअनि जिन के चित महि भरमु ॥
जिसके हृदय में भ्रम है, घर में आए ऐसे साधु या फकीर को अभ्यागत नहीं कहा जाता।
ਤਿਸ ਦੈ ਦਿਤੈ ਨਾਨਕਾ ਤੇਹੋ ਜੇਹਾ ਧਰਮੁ ॥
तिस दै दितै नानका तेहो जेहा धरमु ॥
हे नानक ! दरअसल ऐसे व्यक्ति को दिए दान का पुण्य फल भी वैसा ही होता है।
ਅਭੈ ਨਿਰੰਜਨੁ ਪਰਮ ਪਦੁ ਤਾ ਕਾ ਭੂਖਾ ਹੋਇ ॥
अभै निरंजनु परम पदु ता का भूखा होइ ॥
हे नानक ! जो निर्भय निरंजन प्रभु के परमपद को पाने का भूखा होता है,
ਤਿਸ ਕਾ ਭੋਜਨੁ ਨਾਨਕਾ ਵਿਰਲਾ ਪਾਏ ਕੋਇ ॥੧॥
तिस का भोजनु नानका विरला पाए कोइ ॥१॥
कोई विरला ही ऐसा भोजन पाता है॥ १ ॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥
ਅਭਿਆਗਤ ਏਹਿ ਨ ਆਖੀਅਨਿ ਜਿ ਪਰ ਘਰਿ ਭੋਜਨੁ ਕਰੇਨਿ ॥
अभिआगत एहि न आखीअनि जि पर घरि भोजनु करेनि ॥
उन्हें अतिथि नहीं कहा जा सकता, जो पराये घर में भोजन करते हैं और
ਉਦਰੈ ਕਾਰਣਿ ਆਪਣੇ ਬਹਲੇ ਭੇਖ ਕਰੇਨਿ ॥
उदरै कारणि आपणे बहले भेख करेनि ॥
वे केवल अपना पेट भरने के लिए बहुत भेष धारण करते हैं।
ਅਭਿਆਗਤ ਸੇਈ ਨਾਨਕਾ ਜਿ ਆਤਮ ਗਉਣੁ ਕਰੇਨਿ ॥
अभिआगत सेई नानका जि आतम गउणु करेनि ॥
हे नानक ! वास्तव में अभ्यागत वही है, जो अपने आत्म-तीर्थ की यात्रा करते रहते हैं।
ਭਾਲਿ ਲਹਨਿ ਸਹੁ ਆਪਣਾ ਨਿਜ ਘਰਿ ਰਹਣੁ ਕਰੇਨਿ ॥੨॥
भालि लहनि सहु आपणा निज घरि रहणु करेनि ॥२॥
वे परमात्मा को खोज लेते हैं और अपने सच्चे घर में निवास कर लेते हैं॥ २ ॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥
ਅੰਬਰੁ ਧਰਤਿ ਵਿਛੋੜਿਅਨੁ ਵਿਚਿ ਸਚਾ ਅਸਰਾਉ ॥
अ्मबरु धरति विछोड़िअनु विचि सचा असराउ ॥
परमेश्वर ने अम्बर और धरती को एक दूसरे से अलग करके दोनों के बीच अपनी शक्ति का आधार दे रखा है।
ਘਰੁ ਦਰੁ ਸਭੋ ਸਚੁ ਹੈ ਜਿਸੁ ਵਿਚਿ ਸਚਾ ਨਾਉ ॥
घरु दरु सभो सचु है जिसु विचि सचा नाउ ॥
वे घर एवं द्वार सभी सत्य हैं, जिसमें परमेश्वर का नाम-सिमरन किया जाता है।
ਸਭੁ ਸਚਾ ਹੁਕਮੁ ਵਰਤਦਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਚਿ ਸਮਾਉ ॥
सभु सचा हुकमु वरतदा गुरमुखि सचि समाउ ॥
सारी दुनिया में परमेश्वर का हुक्म ही सर्वोपरि है और गुरुमुख सत्य में ही विलीन हो जाता है।
ਸਚਾ ਆਪਿ ਤਖਤੁ ਸਚਾ ਬਹਿ ਸਚਾ ਕਰੇ ਨਿਆਉ ॥
सचा आपि तखतु सचा बहि सचा करे निआउ ॥
सत्य के साक्षात् रूप परमेश्वर का सिंहासन भी सत्य है, जहाँ वह बैठकर सच्चा न्याय करता है।
ਸਭੁ ਸਚੋ ਸਚੁ ਵਰਤਦਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਅਲਖੁ ਲਖਾਈ ॥੬॥
सभु सचो सचु वरतदा गुरमुखि अलखु लखाई ॥६॥
विश्व में हर तरफ परमसत्य का ही प्रसार हो रहा है और गुरु ही उस अलख प्रभु के दर्शन करवाता है।६ ॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੩ ॥
सलोकु मः ३ ॥
श्लोक महला ३।
ਰੈਣਾਇਰ ਮਾਹਿ ਅਨੰਤੁ ਹੈ ਕੂੜੀ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥
रैणाइर माहि अनंतु है कूड़ी आवै जाइ ॥
इस जगत्-सागर में एक परमात्मा ही अनंत है, शेष सारी झूठी दुनिया जन्म-मरण के चक्र में पड़ी रहती है।
ਭਾਣੈ ਚਲੈ ਆਪਣੈ ਬਹੁਤੀ ਲਹੈ ਸਜਾਇ ॥
भाणै चलै आपणै बहुती लहै सजाइ ॥
जो व्यक्ति जीवन में मनमर्जी करता है, उसे बहुत दण्ड भोगना पड़ता है।
ਰੈਣਾਇਰ ਮਹਿ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਹੈ ਕਰਮੀ ਪਲੈ ਪਾਇ ॥
रैणाइर महि सभु किछु है करमी पलै पाइ ॥
इस जगत्-सागर में सबकुछ उपलब्ध है परन्तु भाग्य से ही प्राप्ति होती है।
ਨਾਨਕ ਨਉ ਨਿਧਿ ਪਾਈਐ ਜੇ ਚਲੈ ਤਿਸੈ ਰਜਾਇ ॥੧॥
नानक नउ निधि पाईऐ जे चलै तिसै रजाइ ॥१॥
हे नानक ! यदि जीव परमात्मा की इच्छानुसार चले तो उसे नौ निधियाँ प्राप्त हो जाती हैं॥ १॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥
ਸਹਜੇ ਸਤਿਗੁਰੁ ਨ ਸੇਵਿਓ ਵਿਚਿ ਹਉਮੈ ਜਨਮਿ ਬਿਨਾਸੁ ॥
सहजे सतिगुरु न सेविओ विचि हउमै जनमि बिनासु ॥
जिसने सहज स्वभाव श्रद्धा से सतगुरु की सेवा नहीं की, अहंकार में ही उसके जन्म का अंत हो गया है।
ਰਸਨਾ ਹਰਿ ਰਸੁ ਨ ਚਖਿਓ ਕਮਲੁ ਨ ਹੋਇਓ ਪਰਗਾਸੁ ॥
रसना हरि रसु न चखिओ कमलु न होइओ परगासु ॥
जिसकी रसना ने हरि-नाम रूपी रस का स्वाद नहीं चखा, उसके हृदय-कमल में प्रकाश नहीं हुआ।
ਬਿਖੁ ਖਾਧੀ ਮਨਮੁਖੁ ਮੁਆ ਮਾਇਆ ਮੋਹਿ ਵਿਣਾਸੁ ॥
बिखु खाधी मनमुखु मुआ माइआ मोहि विणासु ॥
वह मनमुखी माया रूपी विष खाकर ही मर गया है और माया के मोह ने उसका बिनाश कर दिया है।
ਇਕਸੁ ਹਰਿ ਕੇ ਨਾਮ ਵਿਣੁ ਧ੍ਰਿਗੁ ਜੀਵਣੁ ਧ੍ਰਿਗੁ ਵਾਸੁ ॥
इकसु हरि के नाम विणु ध्रिगु जीवणु ध्रिगु वासु ॥
एक परमात्मा के नाम बिना उसका जीना एवं रहना धिक्कार योग्य है।
ਜਾ ਆਪੇ ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਪ੍ਰਭੁ ਸਚਾ ਤਾ ਹੋਵੈ ਦਾਸਨਿ ਦਾਸੁ ॥
जा आपे नदरि करे प्रभु सचा ता होवै दासनि दासु ॥
जब सच्चा प्रभु अपनी कृपा-दृष्टि करता है तो वह दासों का दास बन जाता है।
ਤਾ ਅਨਦਿਨੁ ਸੇਵਾ ਕਰੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਕੀ ਕਬਹਿ ਨ ਛੋਡੈ ਪਾਸੁ ॥
ता अनदिनु सेवा करे सतिगुरू की कबहि न छोडै पासु ॥
तब वह रात-दिन सतगुरु की सेवा करता रहता है और कभी भी उसका साथ नहीं छोड़ता।
ਜਿਉ ਜਲ ਮਹਿ ਕਮਲੁ ਅਲਿਪਤੋ ਵਰਤੈ ਤਿਉ ਵਿਚੇ ਗਿਰਹ ਉਦਾਸੁ ॥
जिउ जल महि कमलु अलिपतो वरतै तिउ विचे गिरह उदासु ॥
जैसे कमल का फूल जल में निर्लिप्त रहता है, वैसे ही गृहस्थ में रहकर त्यागी बना रहता है।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਕਰੇ ਕਰਾਇਆ ਸਭੁ ਕੋ ਜਿਉ ਭਾਵੈ ਤਿਵ ਹਰਿ ਗੁਣਤਾਸੁ ॥੨॥
जन नानक करे कराइआ सभु को जिउ भावै तिव हरि गुणतासु ॥२॥
हे नानक ! जैसे गुणों के भण्डार परमात्मा को उपयुक्त लगता है, हर कोई जीव उसकी मर्जी से वैसे ही करता है॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी ॥
ਛਤੀਹ ਜੁਗ ਗੁਬਾਰੁ ਸਾ ਆਪੇ ਗਣਤ ਕੀਨੀ ॥
छतीह जुग गुबारु सा आपे गणत कीनी ॥
३६ युग घोर अन्धेरा बना रहा था, फिर आप ही उसने स्वयं को प्रगट किया।
ਆਪੇ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਸਭ ਸਾਜੀਅਨੁ ਆਪਿ ਮਤਿ ਦੀਨੀ ॥
आपे स्रिसटि सभ साजीअनु आपि मति दीनी ॥
परमात्मा ने स्वयं ही सृष्टि-रचना करके जीवों को सुमति प्रदान की।
ਸਿਮ੍ਰਿਤਿ ਸਾਸਤ ਸਾਜਿਅਨੁ ਪਾਪ ਪੁੰਨ ਗਣਤ ਗਣੀਨੀ ॥
सिम्रिति सासत साजिअनु पाप पुंन गणत गणीनी ॥
उसने स्मृतियों एवं शास्त्रों की रचना की तथा पाप-पुण्य के कर्मों का लेखा लिखा है।
ਜਿਸੁ ਬੁਝਾਏ ਸੋ ਬੁਝਸੀ ਸਚੈ ਸਬਦਿ ਪਤੀਨੀ ॥
जिसु बुझाए सो बुझसी सचै सबदि पतीनी ॥
जिसे वह ज्ञान देता है, वही इस भेद को समझता है और फिर उसका मन सत्य नाम में विश्वस्त हो जाता है।
ਸਭੁ ਆਪੇ ਆਪਿ ਵਰਤਦਾ ਆਪੇ ਬਖਸਿ ਮਿਲਾਈ ॥੭॥
सभु आपे आपि वरतदा आपे बखसि मिलाई ॥७॥
परमात्मा सर्वव्यापक है और स्वयं ही कृपा करके जीव को साथ मिला लेता है॥ ७॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥
सलोक मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥
ਇਹੁ ਤਨੁ ਸਭੋ ਰਤੁ ਹੈ ਰਤੁ ਬਿਨੁ ਤੰਨੁ ਨ ਹੋਇ ॥
इहु तनु सभो रतु है रतु बिनु तंनु न होइ ॥
यह सारा तन रक्त से भरपूर है और रक्त के बिना तन का संचार नहीं होता।
ਜੋ ਸਹਿ ਰਤੇ ਆਪਣੈ ਤਿਨ ਤਨਿ ਲੋਭ ਰਤੁ ਨ ਹੋਇ ॥
जो सहि रते आपणै तिन तनि लोभ रतु न होइ ॥
जो व्यक्ति प्रभु के रंग में तल्लीन हो जाते हैं, उनके मन में लोभ रूपी रक्त नहीं होता।
ਭੈ ਪਇਐ ਤਨੁ ਖੀਣੁ ਹੋਇ ਲੋਭ ਰਤੁ ਵਿਚਹੁ ਜਾਇ ॥
भै पइऐ तनु खीणु होइ लोभ रतु विचहु जाइ ॥
मन में भय पैदा होने से तन क्षीण हो जाता है और उस में से लोभ रूपी रक्त निकल जाता है।