ਜਿਨ ਕਉ ਤਖਤਿ ਮਿਲੈ ਵਡਿਆਈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸੇ ਪਰਧਾਨ ਕੀਏ ॥
जिन कउ तखति मिलै वडिआई गुरमुखि से परधान कीए ॥
जिनको राजसिंहासन पर विराजमान होने की बड़ाई मिलती है, उन्हें वही प्रमुख बनाता है।
ਪਾਰਸੁ ਭੇਟਿ ਭਏ ਸੇ ਪਾਰਸ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਗੁਰ ਸੰਗਿ ਥੀਏ ॥੪॥੪॥੧੨॥
पारसु भेटि भए से पारस नानक हरि गुर संगि थीए ॥४॥४॥१२॥
गुरु नानक का फुरमान है कि गुरु-पारस से मुलाकात कर वे भी गुणवान् बन जाते हैं और गुरु के सम्पर्क में ही रहते हैं।॥४॥४॥ १२॥
ਬਸੰਤੁ ਮਹਲਾ ੩ ਘਰੁ ੧ ਦੁਤੁਕੇ
बसंतु महला ३ घरु १ दुतुके
बसंतु महला ३ घरु १ दुतुके
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि॥
ਮਾਹਾ ਰੁਤੀ ਮਹਿ ਸਦ ਬਸੰਤੁ ॥
माहा रुती महि सद बसंतु ॥
महीनों, ऋतुओं में वसंत ऋतु सदावहार है।
ਜਿਤੁ ਹਰਿਆ ਸਭੁ ਜੀਅ ਜੰਤੁ ॥
जितु हरिआ सभु जीअ जंतु ॥
इस मौसम में सभी जीव-जन्तु खिल जाते हैं।
ਕਿਆ ਹਉ ਆਖਾ ਕਿਰਮ ਜੰਤੁ ॥
किआ हउ आखा किरम जंतु ॥
हे सृष्टिकर्ता ! मैं किंचन जीव क्या बता सकता हूँ,
ਤੇਰਾ ਕਿਨੈ ਨ ਪਾਇਆ ਆਦਿ ਅੰਤੁ ॥੧॥
तेरा किनै न पाइआ आदि अंतु ॥१॥
तेरे आदि एवं अन्त का किसी ने रहस्य नहीं पाया॥१॥
ਤੈ ਸਾਹਿਬ ਕੀ ਕਰਹਿ ਸੇਵ ॥
तै साहिब की करहि सेव ॥
हे मालिक ! जो भी तेरी सेवा करता है,
ਪਰਮ ਸੁਖ ਪਾਵਹਿ ਆਤਮ ਦੇਵ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
परम सुख पावहि आतम देव ॥१॥ रहाउ ॥
वह परमसुख पाता है॥१॥ रहाउ॥
ਕਰਮੁ ਹੋਵੈ ਤਾਂ ਸੇਵਾ ਕਰੈ ॥
करमु होवै तां सेवा करै ॥
जिसका उत्तम भाग्य होता है, वही प्रभु की सेवा करता है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਜੀਵਤ ਮਰੈ ॥
गुर परसादी जीवत मरै ॥
गुरु की कृपा से वह संसार में रहकर विकारों को मारकर आध्यात्मिक तौर पर जीता है।
ਅਨਦਿਨੁ ਸਾਚੁ ਨਾਮੁ ਉਚਰੈ ॥
अनदिनु साचु नामु उचरै ॥
वह हर पल प्रभु नाम का उच्चारण करता है,
ਇਨ ਬਿਧਿ ਪ੍ਰਾਣੀ ਦੁਤਰੁ ਤਰੈ ॥੨॥
इन बिधि प्राणी दुतरु तरै ॥२॥
इस तरीके से प्राणी दुस्तर संसार सागर से पार हो जाता है।॥२॥
ਬਿਖੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਕਰਤਾਰਿ ਉਪਾਏ ॥
बिखु अम्रितु करतारि उपाए ॥
(बुराई रूपी) विष एवं (अच्छाई रूपी) अमृत परमात्मा ने उत्पन्न किए हैं और
ਸੰਸਾਰ ਬਿਰਖ ਕਉ ਦੁਇ ਫਲ ਲਾਏ ॥
संसार बिरख कउ दुइ फल लाए ॥
संसार रूपी वृक्ष को दो फल लगा दिए हैं।
ਆਪੇ ਕਰਤਾ ਕਰੇ ਕਰਾਏ ॥
आपे करता करे कराए ॥
करने-करवाने वाला स्वयं ईश्वर ही है,
ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਤਿਸੈ ਖਵਾਏ ॥੩॥
जो तिसु भावै तिसै खवाए ॥३॥
जैसे उसकी मर्जी होती है, वैसा ही फल खिलाता है॥३॥
ਨਾਨਕ ਜਿਸ ਨੋ ਨਦਰਿ ਕਰੇਇ ॥
नानक जिस नो नदरि करेइ ॥
हे नानक ! जिस पर कृपा-दृष्टि करता है,
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਮੁ ਆਪੇ ਦੇਇ ॥
अम्रित नामु आपे देइ ॥
उसे स्वयं ही नाम अमृत प्रदान कर देता है।
ਬਿਖਿਆ ਕੀ ਬਾਸਨਾ ਮਨਹਿ ਕਰੇਇ ॥
बिखिआ की बासना मनहि करेइ ॥
वह उसके विकारों की वासना को निवृत्त करता है और
ਅਪਣਾ ਭਾਣਾ ਆਪਿ ਕਰੇਇ ॥੪॥੧॥
अपणा भाणा आपि करेइ ॥४॥१॥
अपनी इच्छा से स्वयं ही ऐसा करता है।॥४॥१॥
ਬਸੰਤੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥
बसंतु महला ३ ॥
बसंतु महला ३॥
ਰਾਤੇ ਸਾਚਿ ਹਰਿ ਨਾਮਿ ਨਿਹਾਲਾ ॥
राते साचि हरि नामि निहाला ॥
जो शाश्वत हरिनाम में निमग्न हो जाते हैं, वे सर्वदा आनंदित रहते हैं।
ਦਇਆ ਕਰਹੁ ਪ੍ਰਭ ਦੀਨ ਦਇਆਲਾ ॥
दइआ करहु प्रभ दीन दइआला ॥
हे प्रभु ! तू दीनदयाल है, हम पर दया करो।
ਤਿਸੁ ਬਿਨੁ ਅਵਰੁ ਨਹੀ ਮੈ ਕੋਇ ॥
तिसु बिनु अवरु नही मै कोइ ॥
तेरे सिवा मेरा अन्य कोई सहायक नहीं,
ਜਿਉ ਭਾਵੈ ਤਿਉ ਰਾਖੈ ਸੋਇ ॥੧॥
जिउ भावै तिउ राखै सोइ ॥१॥
जैसे तेरी मर्जीं है, वैसे ही तू रखता है॥१॥
ਗੁਰ ਗੋਪਾਲ ਮੇਰੈ ਮਨਿ ਭਾਏ ॥
गुर गोपाल मेरै मनि भाए ॥
गुरु-परमेश्वर ही मेरे मन को अच्छा लगता है,
ਰਹਿ ਨ ਸਕਉ ਦਰਸਨ ਦੇਖੇ ਬਿਨੁ ਸਹਜਿ ਮਿਲਉ ਗੁਰੁ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਏ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
रहि न सकउ दरसन देखे बिनु सहजि मिलउ गुरु मेलि मिलाए ॥१॥ रहाउ ॥
उसके दर्शन किए बिना बिल्कुल रह नहीं सकता।वह सहज स्वभाव ही मिलता है और गुरु स्वयं ही संयोग बनाकर मिलाता है॥१॥ रहाउ॥
ਇਹੁ ਮਨੁ ਲੋਭੀ ਲੋਭਿ ਲੁਭਾਨਾ ॥
इहु मनु लोभी लोभि लुभाना ॥
यह लोभी मन लोभ में ही फँसा रहता है,
ਰਾਮ ਬਿਸਾਰਿ ਬਹੁਰਿ ਪਛੁਤਾਨਾ ॥
राम बिसारि बहुरि पछुताना ॥
तदन्तर ईश्वर का विस्मरण कर बहुत पछताता है।
ਬਿਛੁਰਤ ਮਿਲਾਇ ਗੁਰ ਸੇਵ ਰਾਂਗੇ ॥
बिछुरत मिलाइ गुर सेव रांगे ॥
जो गुरु की सेवा में रत हो जाता है, परमात्मा से बिछुड़े हुए प्राणी का गुरु पुनः मिलन करवा देता है।
ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਦੀਓ ਮਸਤਕਿ ਵਡਭਾਗੇ ॥੨॥
हरि नामु दीओ मसतकि वडभागे ॥२॥
जिसका आहोभाग्य होता है, उसे हरिनाम प्रदान करता है॥२॥
ਪਉਣ ਪਾਣੀ ਕੀ ਇਹ ਦੇਹ ਸਰੀਰਾ ॥
पउण पाणी की इह देह सरीरा ॥
यह शरीर पवन-पानी इत्यादि पंच तत्वों की रचना है और
ਹਉਮੈ ਰੋਗੁ ਕਠਿਨ ਤਨਿ ਪੀਰਾ ॥
हउमै रोगु कठिन तनि पीरा ॥
अहम् रोग इस तल को बहुत पीड़ा पहुँचाता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਰਾਮ ਨਾਮ ਦਾਰੂ ਗੁਣ ਗਾਇਆ ॥
गुरमुखि राम नाम दारू गुण गाइआ ॥
(गुरु ने) राम नाम का गुणगान ही इसकी दवा (बताया) है और
ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਗੁਰਿ ਰੋਗੁ ਗਵਾਇਆ ॥੩॥
करि किरपा गुरि रोगु गवाइआ ॥३॥
गुरु कृपा करके अहम् रोग समाप्त कर देता है॥३॥
ਚਾਰਿ ਨਦੀਆ ਅਗਨੀ ਤਨਿ ਚਾਰੇ ॥
चारि नदीआ अगनी तनि चारे ॥
तन में क्रोध, लालच, अहंकार एवं हिंसा रूपी चार नदियाँ बहती रहती हैं और
ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਜਲਤ ਜਲੇ ਅਹੰਕਾਰੇ ॥
त्रिसना जलत जले अहंकारे ॥
मनुष्य तृष्णा एवं अहंकार में जलता रहता है।
ਗੁਰਿ ਰਾਖੇ ਵਡਭਾਗੀ ਤਾਰੇ ॥
गुरि राखे वडभागी तारे ॥
गुरु जिसकी रक्षा करता है, ऐसा भाग्यशाली संसार-सागर से तर जाता है।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਉਰਿ ਹਰਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਧਾਰੇ ॥੪॥੨॥
जन नानक उरि हरि अम्रितु धारे ॥४॥२॥
हे नानक ! भक्त अपने हृदय में हरिनाम रूपी अमृत ही धारण करके रखता है॥४॥२॥
ਬਸੰਤੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥
बसंतु महला ३ ॥
बसंतु महला ३॥
ਹਰਿ ਸੇਵੇ ਸੋ ਹਰਿ ਕਾ ਲੋਗੁ ॥
हरि सेवे सो हरि का लोगु ॥
जो ईश्वर की उपासना करता है, वास्तव में वही ईश्वर का उपासक है।
ਸਾਚੁ ਸਹਜੁ ਕਦੇ ਨ ਹੋਵੈ ਸੋਗੁ ॥
साचु सहजु कदे न होवै सोगु ॥
वह सहजावस्था में सुख पाता है और उसे कभी दुख-शोक नहीं होता।
ਮਨਮੁਖ ਮੁਏ ਨਾਹੀ ਹਰਿ ਮਨ ਮਾਹਿ ॥
मनमुख मुए नाही हरि मन माहि ॥
अभागे मनमुख मन में ईश्वर का स्मरण नहीं करते,
ਮਰਿ ਮਰਿ ਜੰਮਹਿ ਭੀ ਮਰਿ ਜਾਹਿ ॥੧॥
मरि मरि जमहि भी मरि जाहि ॥१॥
अतः बार-बार मरते-जन्मते हैं और आवागमन में पड़े रहते हैं।॥१॥
ਸੇ ਜਨ ਜੀਵੇ ਜਿਨ ਹਰਿ ਮਨ ਮਾਹਿ ॥
से जन जीवे जिन हरि मन माहि ॥
वही व्यक्ति जीते हैं, जो मन में प्रभु को बसा लेते हैं।
ਸਾਚੁ ਸਮ੍ਹ੍ਹਾਲਹਿ ਸਾਚਿ ਸਮਾਹਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
साचु सम्हालहि साचि समाहि ॥१॥ रहाउ ॥
वे प्रभु का भजनगान करते हैं और परम सत्य में ही समाहित हो जाते हैं।॥१॥ रहाउ॥
ਹਰਿ ਨ ਸੇਵਹਿ ਤੇ ਹਰਿ ਤੇ ਦੂਰਿ ॥
हरि न सेवहि ते हरि ते दूरि ॥
जो ईश्वर की उपासना नहीं करते, उनसे ईश्वर दूर ही रहता है।
ਦਿਸੰਤਰੁ ਭਵਹਿ ਸਿਰਿ ਪਾਵਹਿ ਧੂਰਿ ॥
दिसंतरु भवहि सिरि पावहि धूरि ॥
वे देश-दिशांतर भटकते हैं, परन्तु सिर पर धूल ही पड़ती है।
ਹਰਿ ਆਪੇ ਜਨ ਲੀਏ ਲਾਇ ॥
हरि आपे जन लीए लाइ ॥
ईश्वर इतना कृपालु है कि वह स्वयं ही जीवों को अपनी लगन में लगा लेता है,
ਤਿਨ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਹੈ ਤਿਲੁ ਨ ਤਮਾਇ ॥੨॥
तिन सदा सुखु है तिलु न तमाइ ॥२॥
वह सदा सुख प्रदान करता रहता है और उसे तिल भर कोई लोभ नहीं॥२॥