ਗੋਵਿਦੁ ਗੋਵਿਦੁ ਗੋਵਿਦੁ ਜਪਿ ਮੁਖੁ ਊਜਲਾ ਪਰਧਾਨੁ ॥
गोविदु गोविदु गोविदु जपि मुखु ऊजला परधानु ॥
ईश्वर का जाप करने से मुख उज्ज्वल होता है और वही प्रमुख माना जाता है।
ਨਾਨਕ ਗੁਰੁ ਗੋਵਿੰਦੁ ਹਰਿ ਜਿਤੁ ਮਿਲਿ ਹਰਿ ਪਾਇਆ ਨਾਮੁ ॥੨॥
नानक गुरु गोविंदु हरि जितु मिलि हरि पाइआ नामु ॥२॥
हे नानक ! गुरु परमेश्वर का रूप है, जिसे मिलकर हरिनाम प्राप्त होता है।२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥
ਤੂੰ ਆਪੇ ਹੀ ਸਿਧ ਸਾਧਿਕੋ ਤੂ ਆਪੇ ਹੀ ਜੁਗ ਜੋਗੀਆ ॥
तूं आपे ही सिध साधिको तू आपे ही जुग जोगीआ ॥
हे परमेश्वर ! तू स्वयं ही सिद्ध एवं साधक है और तू स्वयं ही योग-साधना करने वाला योगी है।
ਤੂ ਆਪੇ ਹੀ ਰਸ ਰਸੀਅੜਾ ਤੂ ਆਪੇ ਹੀ ਭੋਗ ਭੋਗੀਆ ॥
तू आपे ही रस रसीअड़ा तू आपे ही भोग भोगीआ ॥
तू स्वयं ही रस लेने वाला रसिया है और स्वयं ही भोग करने वाला भोगी है।
ਤੂ ਆਪੇ ਆਪਿ ਵਰਤਦਾ ਤੂ ਆਪੇ ਕਰਹਿ ਸੁ ਹੋਗੀਆ ॥
तू आपे आपि वरतदा तू आपे करहि सु होगीआ ॥
तू स्वयं ही कार्यशील है और जो तू करता है, वही होता है।
ਸਤਸੰਗਤਿ ਸਤਿਗੁਰ ਧੰਨੁ ਧਨੋੁ ਧੰਨ ਧੰਨ ਧਨੋ ਜਿਤੁ ਮਿਲਿ ਹਰਿ ਬੁਲਗ ਬੁਲੋਗੀਆ ॥
सतसंगति सतिगुर धंनु धनो धंन धंन धनो जितु मिलि हरि बुलग बुलोगीआ ॥
सतिगुरु की सच्ची संगत धन्य है, जहाँ मिलकर जिज्ञासु जन परमात्मा का संकीर्तन करते हैं।
ਸਭਿ ਕਹਹੁ ਮੁਖਹੁ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰੇ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰੇ ਹਰਿ ਬੋਲਤ ਸਭਿ ਪਾਪ ਲਹੋਗੀਆ ॥੧॥
सभि कहहु मुखहु हरि हरि हरे हरि हरि हरे हरि बोलत सभि पाप लहोगीआ ॥१॥
सभी अपने मुख से हरि-हरि बोलो, हरि की प्रशंसा करो, इससे सब पाप दूर हो जाते हैं।॥ १॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੪ ॥
सलोक मः ४ ॥
श्लोक महला ४॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਹੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਵੈ ਕੋਇ ॥
हरि हरि हरि हरि नामु है गुरमुखि पावै कोइ ॥
परमात्मा का नाम कोई विरला गुरुमुख ही पाता है।
ਹਉਮੈ ਮਮਤਾ ਨਾਸੁ ਹੋਇ ਦੁਰਮਤਿ ਕਢੈ ਧੋਇ ॥
हउमै ममता नासु होइ दुरमति कढै धोइ ॥
इससे अहम् एवं ममत्व नाश होता है और दुर्मति साफ हो जाती है।
ਨਾਨਕ ਅਨਦਿਨੁ ਗੁਣ ਉਚਰੈ ਜਿਨ ਕਉ ਧੁਰਿ ਲਿਖਿਆ ਹੋਇ ॥੧॥
नानक अनदिनु गुण उचरै जिन कउ धुरि लिखिआ होइ ॥१॥
हे नानक ! जिनके भाग्य में लिखा होता है, वे दिन-रात ईश्वर के गुणों का उच्चारण करते हैं।॥ १॥
ਮਃ ੪ ॥
मः ४ ॥
महला ४॥
ਹਰਿ ਆਪੇ ਆਪਿ ਦਇਆਲੁ ਹਰਿ ਆਪੇ ਕਰੇ ਸੁ ਹੋਇ ॥
हरि आपे आपि दइआलु हरि आपे करे सु होइ ॥
ईश्वर स्वयं दया का घर है, संसार में वही होता है, जो वह अपनी मर्जी से करता है।
ਹਰਿ ਆਪੇ ਆਪਿ ਵਰਤਦਾ ਹਰਿ ਜੇਵਡੁ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਇ ॥
हरि आपे आपि वरतदा हरि जेवडु अवरु न कोइ ॥
वह स्वयं ही सबमें कार्यशील है और उस जैसा अन्य कोई नहीं।
ਜੋ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭ ਭਾਵੈ ਸੋ ਥੀਐ ਜੋ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਕਰੇ ਸੁ ਹੋਇ ॥
जो हरि प्रभ भावै सो थीऐ जो हरि प्रभु करे सु होइ ॥
जो प्रभु चाहता है, वही होता है और जो प्रभु करता है, वही संसार में होता है।
ਕੀਮਤਿ ਕਿਨੈ ਨ ਪਾਈਆ ਬੇਅੰਤੁ ਪ੍ਰਭੂ ਹਰਿ ਸੋਇ ॥
कीमति किनै न पाईआ बेअंतु प्रभू हरि सोइ ॥
प्रभु बेअन्त है, उसका मूल्यांकन कोई नहीं पा सका।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਸਾਲਾਹਿਆ ਤਨੁ ਮਨੁ ਸੀਤਲੁ ਹੋਇ ॥੨॥
नानक गुरमुखि हरि सालाहिआ तनु मनु सीतलु होइ ॥२॥
हे नानक ! गुरु के द्वारा परमात्मा की प्रशंसा करो, इससे तन मन शीतल हो जाता है॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी।॥
ਸਭ ਜੋਤਿ ਤੇਰੀ ਜਗਜੀਵਨਾ ਤੂ ਘਟਿ ਘਟਿ ਹਰਿ ਰੰਗ ਰੰਗਨਾ ॥
सभ जोति तेरी जगजीवना तू घटि घटि हरि रंग रंगना ॥
हे संसार के जीवन ! सब में तेरी ज्योति विद्यमान है। तू घट घट में व्याप्त है, रंग में रंगने वाला है।
ਸਭਿ ਧਿਆਵਹਿ ਤੁਧੁ ਮੇਰੇ ਪ੍ਰੀਤਮਾ ਤੂ ਸਤਿ ਸਤਿ ਪੁਰਖ ਨਿਰੰਜਨਾ ॥
सभि धिआवहि तुधु मेरे प्रीतमा तू सति सति पुरख निरंजना ॥
हे मेरे प्रियतम ! सभी तेरा ध्यान करते हैं, तू शाश्वत-स्वरूप है, माया की कालिमा से रहित है।
ਇਕੁ ਦਾਤਾ ਸਭੁ ਜਗਤੁ ਭਿਖਾਰੀਆ ਹਰਿ ਜਾਚਹਿ ਸਭ ਮੰਗ ਮੰਗਨਾ ॥
इकु दाता सभु जगतु भिखारीआ हरि जाचहि सभ मंग मंगना ॥
एकमात्र तू ही दाता है, समूचा जगत भिखारी है, सब तुझसे मांगते रहते हैं।
ਸੇਵਕੁ ਠਾਕੁਰੁ ਸਭੁ ਤੂਹੈ ਤੂਹੈ ਗੁਰਮਤੀ ਹਰਿ ਚੰਗ ਚੰਗਨਾ ॥
सेवकु ठाकुरु सभु तूहै तूहै गुरमती हरि चंग चंगना ॥
मालिक एवं सेवक भी तू ही है और गुरु की शिक्षा से तू ही अच्छा लगता है।
ਸਭਿ ਕਹਹੁ ਮੁਖਹੁ ਰਿਖੀਕੇਸੁ ਹਰੇ ਰਿਖੀਕੇਸੁ ਹਰੇ ਜਿਤੁ ਪਾਵਹਿ ਸਭ ਫਲ ਫਲਨਾ ॥੨॥
सभि कहहु मुखहु रिखीकेसु हरे रिखीकेसु हरे जितु पावहि सभ फल फलना ॥२॥
सभी मुख से परमात्मा का भजन करो, जिससे सभी फल प्राप्त होते हैं।॥ २॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੪ ॥
सलोक मः ४ ॥
श्लोक महला ४॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇ ਮਨ ਹਰਿ ਦਰਗਹ ਪਾਵਹਿ ਮਾਨੁ ॥
हरि हरि नामु धिआइ मन हरि दरगह पावहि मानु ॥
हे मन ! परमात्मा का ध्यान करो, इसी से प्रभु दरबार में सम्मान प्राप्त होता है।
ਜੋ ਇਛਹਿ ਸੋ ਫਲੁ ਪਾਇਸੀ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਲਗੈ ਧਿਆਨੁ ॥
जो इछहि सो फलु पाइसी गुर सबदी लगै धिआनु ॥
जब गुरु के शब्द से ध्यान लगता है तो जो कामना होती है, वही फल प्राप्त होता है।
ਕਿਲਵਿਖ ਪਾਪ ਸਭਿ ਕਟੀਅਹਿ ਹਉਮੈ ਚੁਕੈ ਗੁਮਾਨੁ ॥
किलविख पाप सभि कटीअहि हउमै चुकै गुमानु ॥
सभी किल्विष पाप कट जाते हैं और अहम्-अभिमान दूर हो जाता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਕਮਲੁ ਵਿਗਸਿਆ ਸਭੁ ਆਤਮ ਬ੍ਰਹਮੁ ਪਛਾਨੁ ॥
गुरमुखि कमलु विगसिआ सभु आतम ब्रहमु पछानु ॥
गुरु द्वारा हृदय कमल खिल उठता है और अन्तर्मन में ब्रहा की पहचान होती है।
ਹਰਿ ਹਰਿ ਕਿਰਪਾ ਧਾਰਿ ਪ੍ਰਭ ਜਨ ਨਾਨਕ ਜਪਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ॥੧॥
हरि हरि किरपा धारि प्रभ जन नानक जपि हरि नामु ॥१॥
नानक की विनती है कि हे प्रभु ! भक्तजनों पर कृपा करो, ताकि वे तेरा नाम जपते रहें॥ १॥
ਮਃ ੪ ॥
मः ४ ॥
महला ४॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਪਵਿਤੁ ਹੈ ਨਾਮੁ ਜਪਤ ਦੁਖੁ ਜਾਇ ॥
हरि हरि नामु पवितु है नामु जपत दुखु जाइ ॥
परमात्मा का नाम पवित्र है और नाम जपने से हर दुख दूर हो जाता है।
ਜਿਨ ਕਉ ਪੂਰਬਿ ਲਿਖਿਆ ਤਿਨ ਮਨਿ ਵਸਿਆ ਆਇ ॥
जिन कउ पूरबि लिखिआ तिन मनि वसिआ आइ ॥
जिनके भाग्य में लिखा है, उनके मन में आ बसा है।
ਸਤਿਗੁਰ ਕੈ ਭਾਣੈ ਜੋ ਚਲੈ ਤਿਨ ਦਾਲਦੁ ਦੁਖੁ ਲਹਿ ਜਾਇ ॥
सतिगुर कै भाणै जो चलै तिन दालदु दुखु लहि जाइ ॥
जो व्यक्ति सतिगुरु की रज़ानुसार चलते हैं, उनका दुख-दारिद्रय निवृत्त हो जाता है।
ਆਪਣੈ ਭਾਣੈ ਕਿਨੈ ਨ ਪਾਇਓ ਜਨ ਵੇਖਹੁ ਮਨਿ ਪਤੀਆਇ ॥
आपणै भाणै किनै न पाइओ जन वेखहु मनि पतीआइ ॥
हे दुनिया वालो ! मन में सोच-विचार कर लो, अपनी मर्जी से कोई ईश्वर को नहीं पा सका।
ਜਨੁ ਨਾਨਕੁ ਦਾਸਨ ਦਾਸੁ ਹੈ ਜੋ ਸਤਿਗੁਰ ਲਾਗੇ ਪਾਇ ॥੨॥
जनु नानकु दासन दासु है जो सतिगुर लागे पाइ ॥२॥
नानक दासों का भी दास है, जो सतिगुरु के चरणों में तल्लीन है॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी ॥