Hindi Page 1056

ਬਿਖਿਆ ਕਾਰਣਿ ਲਬੁ ਲੋਭੁ ਕਮਾਵਹਿ ਦੁਰਮਤਿ ਕਾ ਦੋਰਾਹਾ ਹੇ ॥੯॥
बिखिआ कारणि लबु लोभु कमावहि दुरमति का दोराहा हे ॥९॥
विषय-विकारों के कारण वह लालच-लोभ का आचरण अपनाता है, जिससे दुर्मति के दोराहे पर पड़ा रहता है॥ ९॥

ਪੂਰਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਭਗਤਿ ਦ੍ਰਿੜਾਏ ॥
पूरा सतिगुरु भगति द्रिड़ाए ॥
पूर्ण सतिगुरु ही भक्ति दृढ़ करवाता है।

ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਹਰਿ ਨਾਮਿ ਚਿਤੁ ਲਾਏ ॥
गुर कै सबदि हरि नामि चितु लाए ॥
जो गुरु के उपदेश से हरि-नाम में चित लगाता है,”

ਮਨਿ ਤਨਿ ਹਰਿ ਰਵਿਆ ਘਟ ਅੰਤਰਿ ਮਨਿ ਭੀਨੈ ਭਗਤਿ ਸਲਾਹਾ ਹੇ ॥੧੦॥
मनि तनि हरि रविआ घट अंतरि मनि भीनै भगति सलाहा हे ॥१०॥
उसके ही मन-तन में प्रभु रमण करता है और प्रभु की भक्ति एवं स्तुतिगान से जीव का मन भीगता है॥ १०॥

ਮੇਰਾ ਪ੍ਰਭੁ ਸਾਚਾ ਅਸੁਰ ਸੰਘਾਰਣੁ ॥
मेरा प्रभु साचा असुर संघारणु ॥
मेरा सच्चा प्रभु (विकार रूपी) असुरों का संहार करने वाला है।

ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਭਗਤਿ ਨਿਸਤਾਰਣੁ ॥
गुर कै सबदि भगति निसतारणु ॥
गुरु के शब्द द्वारा भक्ति करने से ही संसार-सागर से मुक्ति मिलती है।

ਮੇਰਾ ਪ੍ਰਭੁ ਸਾਚਾ ਸਦ ਹੀ ਸਾਚਾ ਸਿਰਿ ਸਾਹਾ ਪਾਤਿਸਾਹਾ ਹੇ ॥੧੧॥
मेरा प्रभु साचा सद ही साचा सिरि साहा पातिसाहा हे ॥११॥
मेरा प्रभु सत्य है, सदैव ही परम सत्यहै और संसार के शाह-बादशाहों पर भी उसका ही हुक्म चलता है॥ ११॥

ਸੇ ਭਗਤ ਸਚੇ ਤੇਰੈ ਮਨਿ ਭਾਏ ॥
से भगत सचे तेरै मनि भाए ॥
हे भगवान् ! वही भक्तजन सच्चे हैं, जो तेरे मन को भा गए हैं,”

ਦਰਿ ਕੀਰਤਨੁ ਕਰਹਿ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਸੁਹਾਏ ॥
दरि कीरतनु करहि गुर सबदि सुहाए ॥
वे तेरे दर पर कीर्तिगान करते हैं और गुरु शब्द से ही सुन्दर लगते हैं।

ਸਾਚੀ ਬਾਣੀ ਅਨਦਿਨੁ ਗਾਵਹਿ ਨਿਰਧਨ ਕਾ ਨਾਮੁ ਵੇਸਾਹਾ ਹੇ ॥੧੨॥
साची बाणी अनदिनु गावहि निरधन का नामु वेसाहा हे ॥१२॥
वे प्रतिदिन तेरी सच्ची वाणी गाते हैं और तेरा नाम ही उन निर्धनों की पूंजी है॥ १२॥

ਜਿਨ ਆਪੇ ਮੇਲਿ ਵਿਛੋੜਹਿ ਨਾਹੀ ॥
जिन आपे मेलि विछोड़हि नाही ॥
जिन्हें तू स्वयं ही मिला लेता है, फिर खुद से जुदा नहीं करता।

ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਸਦਾ ਸਾਲਾਹੀ ॥
गुर कै सबदि सदा सालाही ॥
वे गुरु के उपदेश सदा तेरी प्रशंसा करते रहते हैं।

ਸਭਨਾ ਸਿਰਿ ਤੂ ਏਕੋ ਸਾਹਿਬੁ ਸਬਦੇ ਨਾਮੁ ਸਲਾਹਾ ਹੇ ॥੧੩॥
सभना सिरि तू एको साहिबु सबदे नामु सलाहा हे ॥१३॥
समूचे विश्व में एक तू ही सबका मालिक है और वे शब्द-गुरु द्वारा तेरे नाम का ही स्तुतिगान करते हैं।॥ १३॥

ਬਿਨੁ ਸਬਦੈ ਤੁਧੁਨੋ ਕੋਈ ਨ ਜਾਣੀ ॥
बिनु सबदै तुधुनो कोई न जाणी ॥
शब्द-गुरु के बेिना तुझे कोई भी जान नहीं सकता।

ਤੁਧੁ ਆਪੇ ਕਥੀ ਅਕਥ ਕਹਾਣੀ ॥
तुधु आपे कथी अकथ कहाणी ॥
तूने अपनी अकथनीय कथा स्वयं ही कही है।

ਆਪੇ ਸਬਦੁ ਸਦਾ ਗੁਰੁ ਦਾਤਾ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਜਪਿ ਸੰਬਾਹਾ ਹੇ ॥੧੪॥
आपे सबदु सदा गुरु दाता हरि नामु जपि स्मबाहा हे ॥१४॥
तू स्वयं ही शब्द है, सदा ही नाम देने वाला गुरु है और स्वयं ही हरि नाम जप कर वितरित करता है॥ १४॥

ਤੂ ਆਪੇ ਕਰਤਾ ਸਿਰਜਣਹਾਰਾ ॥
तू आपे करता सिरजणहारा ॥
तू स्वयं ही सृजनहार कर्ता है,”

ਤੇਰਾ ਲਿਖਿਆ ਕੋਇ ਨ ਮੇਟਣਹਾਰਾ ॥
तेरा लिखिआ कोइ न मेटणहारा ॥
तेरा लिखा कोई मिटाने वाला नहीं है।

ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਦੇਵਹਿ ਤੂ ਆਪੇ ਸਹਸਾ ਗਣਤ ਨ ਤਾਹਾ ਹੇ ॥੧੫॥
गुरमुखि नामु देवहि तू आपे सहसा गणत न ताहा हे ॥१५॥
तू स्वयं ही गुरुमुख जीवों को नाम देता है और फिर उनके लिए कर्मालेख देने का भय नहीं रहता।॥ १५॥

ਭਗਤ ਸਚੇ ਤੇਰੈ ਦਰਵਾਰੇ ॥
भगत सचे तेरै दरवारे ॥
सच्चे भक्त तेरे दरबार पर

ਸਬਦੇ ਸੇਵਨਿ ਭਾਇ ਪਿਆਰੇ ॥
सबदे सेवनि भाइ पिआरे ॥
श्रद्धा-प्रेम से शब्द की वंदना करते हैं।

ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਬੈਰਾਗੀ ਨਾਮੇ ਕਾਰਜੁ ਸੋਹਾ ਹੇ ॥੧੬॥੩॥੧੨॥
नानक नामि रते बैरागी नामे कारजु सोहा हे ॥१६॥३॥१२॥
हे नानक ! वे वैरागी हुए तेरे नाम में लीन रहते हैं और नाम द्वारा उनका प्रत्येक कार्य सुन्दर हो जाता है॥ १६॥ ३॥ १२॥

ਮਾਰੂ ਮਹਲਾ ੩ ॥
मारू महला ३ ॥
मारू महला ३॥

ਮੇਰੈ ਪ੍ਰਭਿ ਸਾਚੈ ਇਕੁ ਖੇਲੁ ਰਚਾਇਆ ॥
मेरै प्रभि साचै इकु खेलु रचाइआ ॥
मेरे सच्चे प्रभु ने एक अद्भुत खेल रचाया है और

ਕੋਇ ਨ ਕਿਸ ਹੀ ਜੇਹਾ ਉਪਾਇਆ ॥
कोइ न किस ही जेहा उपाइआ ॥
कोई भी जीव किसी दूसरे जैसा उत्पन्न नहीं किया।

ਆਪੇ ਫਰਕੁ ਕਰੇ ਵੇਖਿ ਵਿਗਸੈ ਸਭਿ ਰਸ ਦੇਹੀ ਮਾਹਾ ਹੇ ॥੧॥
आपे फरकु करे वेखि विगसै सभि रस देही माहा हे ॥१॥
वह स्वयं ही जीवों के रंग, रूप, चेहरे में अन्तर डालकर उन्हें देखकर प्रसन्न होता है और सभी रस मानव-शरीर में ही हैं।॥ १॥

ਵਾਜੈ ਪਉਣੁ ਤੈ ਆਪਿ ਵਜਾਏ ॥
वाजै पउणु तै आपि वजाए ॥
हे परमात्मा ! तूने स्वयं ही शरीर में प्राणों का संचार किया है।

ਸਿਵ ਸਕਤੀ ਦੇਹੀ ਮਹਿ ਪਾਏ ॥
सिव सकती देही महि पाए ॥
शिव (जीव) शक्ति (माया) को शरीर में तूने ही डाला है।

ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਉਲਟੀ ਹੋਵੈ ਗਿਆਨ ਰਤਨੁ ਸਬਦੁ ਤਾਹਾ ਹੇ ॥੨॥
गुर परसादी उलटी होवै गिआन रतनु सबदु ताहा हे ॥२॥
गुरु की कृपा से यदि जीव का मन माया की ओर से विरक्त हो जाए तो अमूल्य रत्न रूपी शब्द का ज्ञान प्राप्त हो जाता है॥ २॥

ਅੰਧੇਰਾ ਚਾਨਣੁ ਆਪੇ ਕੀਆ ॥
अंधेरा चानणु आपे कीआ ॥
अँधेरा एवं उजाला तूने स्वयं ही उत्पन्न किया है,”

ਏਕੋ ਵਰਤੈ ਅਵਰੁ ਨ ਬੀਆ ॥
एको वरतै अवरु न बीआ ॥
उनमें एक तू ही व्याप्त है और तेरे अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है।

ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਆਪੁ ਪਛਾਣੈ ਕਮਲੁ ਬਿਗਸੈ ਬੁਧਿ ਤਾਹਾ ਹੇ ॥੩॥
गुर परसादी आपु पछाणै कमलु बिगसै बुधि ताहा हे ॥३॥
गुरु की कृपा से जो मनुष्य अपने आपको पहचान लेता है, उसका हृदय-कमल खिल जाता है और उसे उत्तम बुद्धि प्राप्त हो जाती है॥ ३॥

ਅਪਣੀ ਗਹਣ ਗਤਿ ਆਪੇ ਜਾਣੈ ॥
अपणी गहण गति आपे जाणै ॥
अपनी गहरी गति सीमा को तू स्वयं ही जानता है।

ਹੋਰੁ ਲੋਕੁ ਸੁਣਿ ਸੁਣਿ ਆਖਿ ਵਖਾਣੈ ॥
होरु लोकु सुणि सुणि आखि वखाणै ॥
अन्य लोग सुन-सुनकर व्याख्या करते हैं।

ਗਿਆਨੀ ਹੋਵੈ ਸੁ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੂਝੈ ਸਾਚੀ ਸਿਫਤਿ ਸਲਾਹਾ ਹੇ ॥੪॥
गिआनी होवै सु गुरमुखि बूझै साची सिफति सलाहा हे ॥४॥
जो ज्ञानवान होता है, वह गुरुमुख बनकर इस रहस्य को बूझ लेता है और परमात्मा की सच्ची स्तुति करता रहता है॥ ४॥

ਦੇਹੀ ਅੰਦਰਿ ਵਸਤੁ ਅਪਾਰਾ ॥
देही अंदरि वसतु अपारा ॥
मानव-शरीर में ही बेअंत वस्तुएं हैं और

ਆਪੇ ਕਪਟ ਖੁਲਾਵਣਹਾਰਾ ॥
आपे कपट खुलावणहारा ॥
ईश्वर स्वयं ही कपाट खोलने वाला है।

ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਹਜੇ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਵੈ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਅਗਨਿ ਬੁਝਾਹਾ ਹੇ ॥੫॥
गुरमुखि सहजे अम्रितु पीवै त्रिसना अगनि बुझाहा हे ॥५॥
गुरुमुख सहजावस्था में नामामृत का पान करता है और उसकी तृष्णाग्नि बुझ जाती है॥ ५॥

ਸਭਿ ਰਸ ਦੇਹੀ ਅੰਦਰਿ ਪਾਏ ॥
सभि रस देही अंदरि पाए ॥
परमात्मा ने सभी रस शरीर में ही डाले हैं और

ਵਿਰਲੇ ਕਉ ਗੁਰੁ ਸਬਦੁ ਬੁਝਾਏ ॥
विरले कउ गुरु सबदु बुझाए ॥
शब्द-गुरु द्वारा वह किसी विरले पुरुष को ही यह तथ्य समझाता है।

ਅੰਦਰੁ ਖੋਜੇ ਸਬਦੁ ਸਾਲਾਹੇ ਬਾਹਰਿ ਕਾਹੇ ਜਾਹਾ ਹੇ ॥੬॥
अंदरु खोजे सबदु सालाहे बाहरि काहे जाहा हे ॥६॥
जब मनुष्य अपने अन्तर्मन को खोजता है तो वह शब्द की ही स्तुति करता है, फिर वह बाहर क्यों जाएगा॥ ६॥

ਵਿਣੁ ਚਾਖੇ ਸਾਦੁ ਕਿਸੈ ਨ ਆਇਆ ॥
विणु चाखे सादु किसै न आइआ ॥
नामामृत को चखे बिना किसी को भी उसका स्वाद नहीं आया।

ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਆਇਆ ॥
गुर कै सबदि अम्रितु पीआइआ ॥
ईश्वर ने गुरु के शब्द द्वारा ही नामामृत का पान करवाया है।

ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀ ਅਮਰਾ ਪਦੁ ਹੋਏ ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਰਸੁ ਤਾਹਾ ਹੇ ॥੭॥
अम्रितु पी अमरा पदु होए गुर कै सबदि रसु ताहा हे ॥७॥
नामामृत का पान करके वे अमर हो गए हैं और गुरु के शब्द द्वारा ही उन्हें रस प्राप्त हुआ है॥ ७॥

ਆਪੁ ਪਛਾਣੈ ਸੋ ਸਭਿ ਗੁਣ ਜਾਣੈ ॥
आपु पछाणै सो सभि गुण जाणै ॥
जो अपने आप को पहचान लेता है, वह सभी गुणों को जान लेता है।

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