ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਅੰਧਕਾਰ ਸੁਖਿ ਕਬਹਿ ਨ ਸੋਈ ਹੈ ॥
अंधकार सुखि कबहि न सोई है ॥
भगवान को विस्मृत करके अज्ञानता रूपी अंधेरे में कभी सुखपूर्वक नहीं सोया जा सकता।
ਰਾਜਾ ਰੰਕੁ ਦੋਊ ਮਿਲਿ ਰੋਈ ਹੈ ॥੧॥
राजा रंकु दोऊ मिलि रोई है ॥१॥
राजा हो अथवा रंक हो, दोनों ही दुखी होकर रोते हैं।॥ १॥
ਜਉ ਪੈ ਰਸਨਾ ਰਾਮੁ ਨ ਕਹਿਬੋ ॥
जउ पै रसना रामु न कहिबो ॥
“(हे जिज्ञासु !) जब तक मनुष्य की जिव्हा राम नाम को उच्चरित नहीं करती,
ਉਪਜਤ ਬਿਨਸਤ ਰੋਵਤ ਰਹਿਬੋ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
उपजत बिनसत रोवत रहिबो ॥१॥ रहाउ ॥
तब तक वे जन्मते-मरते तथा रोते रहेंगे ॥ १॥ रहाउ ॥
ਜਸ ਦੇਖੀਐ ਤਰਵਰ ਕੀ ਛਾਇਆ ॥
जस देखीऐ तरवर की छाइआ ॥
जैसे पेड़ की छाया देखी जाती है,
ਪ੍ਰਾਨ ਗਏ ਕਹੁ ਕਾ ਕੀ ਮਾਇਆ ॥੨॥
प्रान गए कहु का की माइआ ॥२॥
“(वैसे ही इस माया का हाल है) जब मनुष्य के प्राण निकल जाते हैं तो कहो, यह माया किसकी होगी ? ॥ २ ॥
ਜਸ ਜੰਤੀ ਮਹਿ ਜੀਉ ਸਮਾਨਾ ॥
जस जंती महि जीउ समाना ॥
जैसे राग की ध्वनि वाद्ययन्त्र के बीच में समा जाती है, वैसे ही प्राण हैं।
ਮੂਏ ਮਰਮੁ ਕੋ ਕਾ ਕਰ ਜਾਨਾ ॥੩॥
मूए मरमु को का कर जाना ॥३॥
इसलिए मृतक इन्सान का रहस्य कोई प्राणी कैसे जान सकता है ? ॥ ३॥
ਹੰਸਾ ਸਰਵਰੁ ਕਾਲੁ ਸਰੀਰ ॥
हंसा सरवरु कालु सरीर ॥
जैसे राज हंस सरोवर के आसपास घूमता है, वैसे ही मृत्यु मनुष्य के शरीर पर मंडराती है।
ਰਾਮ ਰਸਾਇਨ ਪੀਉ ਰੇ ਕਬੀਰ ॥੪॥੮॥
राम रसाइन पीउ रे कबीर ॥४॥८॥
इसलिए हे कबीर ! समस्त रसों में उत्तम राम रसायन का पान करो ॥ ४ ॥ ८ ॥
ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਜੋਤਿ ਕੀ ਜਾਤਿ ਜਾਤਿ ਕੀ ਜੋਤੀ ॥
जोति की जाति जाति की जोती ॥
भगवान द्वारा रचित सारी दुनिया के लोगों की बुद्धि में
ਤਿਤੁ ਲਾਗੇ ਕੰਚੂਆ ਫਲ ਮੋਤੀ ॥੧॥
तितु लागे कंचूआ फल मोती ॥१॥
कांच मोतियों के फल लगे हुए हैं।॥ १॥
ਕਵਨੁ ਸੁ ਘਰੁ ਜੋ ਨਿਰਭਉ ਕਹੀਐ ॥
कवनु सु घरु जो निरभउ कहीऐ ॥
वह कौन-सा घर है, जिसे भय से मुक्त कहा जा सकता है।
ਭਉ ਭਜਿ ਜਾਇ ਅਭੈ ਹੋਇ ਰਹੀਐ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
भउ भजि जाइ अभै होइ रहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥
जहाँ भय दूर हो जाता है और मनुष्य निडर होकर रहता है॥ १॥ रहाउ॥
ਤਟਿ ਤੀਰਥਿ ਨਹੀ ਮਨੁ ਪਤੀਆਇ ॥
तटि तीरथि नही मनु पतीआइ ॥
किसी पवित्र नदी के तट अथवा तीर्थ पर जाकर मन संतुष्ट नहीं होता,
ਚਾਰ ਅਚਾਰ ਰਹੇ ਉਰਝਾਇ ॥੨॥
चार अचार रहे उरझाइ ॥२॥
वहाँ भी कुछ व्यक्ति पाप-पुण्य में अग्रसर हैं॥ २॥
ਪਾਪ ਪੁੰਨ ਦੁਇ ਏਕ ਸਮਾਨ ॥
पाप पुंन दुइ एक समान ॥
लेकिन पाप एवं पुण्य दोनों ही एक समान हैं।
ਨਿਜ ਘਰਿ ਪਾਰਸੁ ਤਜਹੁ ਗੁਨ ਆਨ ॥੩॥
निज घरि पारसु तजहु गुन आन ॥३॥
“(हे मन !) तेरे हृदय घर के भीतर ही (काया-पलट देने वाला) पारस प्रभु है,इसलिए किसी दूसरे से गुण प्राप्त करने का ख्याल त्याग दे ॥ ३॥
ਕਬੀਰ ਨਿਰਗੁਣ ਨਾਮ ਨ ਰੋਸੁ ॥
कबीर निरगुण नाम न रोसु ॥
हे कबीर ! मोह-माया से सर्वोपरि प्रभु के नाम को विस्मृत मत कर एवं
ਇਸੁ ਪਰਚਾਇ ਪਰਚਿ ਰਹੁ ਏਸੁ ॥੪॥੯॥
इसु परचाइ परचि रहु एसु ॥४॥९॥
अपने मन को (बहलाने में मत बहला और) नाम सिमरन में लगाकर नाम में मग्न रह॥४॥९॥
ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਜੋ ਜਨ ਪਰਮਿਤਿ ਪਰਮਨੁ ਜਾਨਾ ॥
जो जन परमिति परमनु जाना ॥
जो मनुष्य बेअंदाज एवं अगम्य प्रभु को नहीं जानता,
ਬਾਤਨ ਹੀ ਬੈਕੁੰਠ ਸਮਾਨਾ ॥੧॥
बातन ही बैकुंठ समाना ॥१॥
वह कोरी (व्यर्थ) बातों से ही स्वर्ग में प्रवेश करना चाहता है॥ १ ॥
ਨਾ ਜਾਨਾ ਬੈਕੁੰਠ ਕਹਾ ਹੀ ॥
ना जाना बैकुंठ कहा ही ॥
मैं नहीं जानता कि स्वर्ग कहाँ है।
ਜਾਨੁ ਜਾਨੁ ਸਭਿ ਕਹਹਿ ਤਹਾ ਹੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जानु जानु सभि कहहि तहा ही ॥१॥ रहाउ ॥
हरेक मनुष्य कहता है कि वह वहाँ जाना एवं पहुँचना चाहता है॥ १॥ रहाउ॥
ਕਹਨ ਕਹਾਵਨ ਨਹ ਪਤੀਅਈ ਹੈ ॥
कहन कहावन नह पतीअई है ॥
व्यर्थ बातचीत से मनुष्य के मन की संतुष्टि नहीं होती।
ਤਉ ਮਨੁ ਮਾਨੈ ਜਾ ਤੇ ਹਉਮੈ ਜਈ ਹੈ ॥੨॥
तउ मनु मानै जा ते हउमै जई है ॥२॥
मन को संतुष्टि तभी होती है, जब अहंकार नष्ट हो जाता है॥ २॥
ਜਬ ਲਗੁ ਮਨਿ ਬੈਕੁੰਠ ਕੀ ਆਸ ॥
जब लगु मनि बैकुंठ की आस ॥
जब तक मनुष्य क हृदय में स्वर्ग की लालसा है,”
ਤਬ ਲਗੁ ਹੋਇ ਨਹੀ ਚਰਨ ਨਿਵਾਸੁ ॥੩॥
तब लगु होइ नही चरन निवासु ॥३॥
तब तक उसका प्रभु के चरणों में निवास नहीं होता।॥ ३॥
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਇਹ ਕਹੀਐ ਕਾਹਿ ॥
कहु कबीर इह कहीऐ काहि ॥
हे कबीर ! यह बात मैं किस तरह बताऊँ कि
ਸਾਧਸੰਗਤਿ ਬੈਕੁੰਠੈ ਆਹਿ ॥੪॥੧੦॥
साधसंगति बैकुंठै आहि ॥४॥१०॥
साधु-संतों की संगति ही स्वर्ग है॥ ४॥ १०॥
ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਉਪਜੈ ਨਿਪਜੈ ਨਿਪਜਿ ਸਮਾਈ ॥
उपजै निपजै निपजि समाई ॥
जीव जन्म लेता है, वह बड़ा होता है और बड़ा होने के पश्चात् प्राण त्याग कर मर जाता है।
ਨੈਨਹ ਦੇਖਤ ਇਹੁ ਜਗੁ ਜਾਈ ॥੧॥
नैनह देखत इहु जगु जाई ॥१॥
हमारे नेत्रों के समक्ष ही यह जगत् आता-जाता (जन्मता-मरता) दिखता है॥ १॥
ਲਾਜ ਨ ਮਰਹੁ ਕਹਹੁ ਘਰੁ ਮੇਰਾ ॥
लाज न मरहु कहहु घरु मेरा ॥
(हे जीव !) तू घर को अपना कहता हुआ लज्जा से नहीं मरता।
ਅੰਤ ਕੀ ਬਾਰ ਨਹੀ ਕਛੁ ਤੇਰਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
अंत की बार नही कछु तेरा ॥१॥ रहाउ ॥
अंतिम समय तेरा कुछ भी नहीं (अर्थात् जिस समय मृत्यु आएगी तब कोई भी वस्तु तेरी नहीं रहेगी) ॥ १॥ रहाउ॥
ਅਨਿਕ ਜਤਨ ਕਰਿ ਕਾਇਆ ਪਾਲੀ ॥
अनिक जतन करि काइआ पाली ॥
अनेक प्रयासों द्वारा इस शरीर का पालन पोषण किया जाता है
ਮਰਤੀ ਬਾਰ ਅਗਨਿ ਸੰਗਿ ਜਾਲੀ ॥੨॥
मरती बार अगनि संगि जाली ॥२॥
लेकिन जब मृत्यु आती है, इसे अग्नि से जला दिया जाता है।॥ २॥
ਚੋਆ ਚੰਦਨੁ ਮਰਦਨ ਅੰਗਾ ॥
चोआ चंदनु मरदन अंगा ॥
वह शरीर जिसके अंगों को इत्र एवं चन्दन लगाया जाता था।
ਸੋ ਤਨੁ ਜਲੈ ਕਾਠ ਕੈ ਸੰਗਾ ॥੩॥
सो तनु जलै काठ कै संगा ॥३॥
वह शरीर आखिरकार लकड़ियों से जला दिया जाता है॥ ३ ॥
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਸੁਨਹੁ ਰੇ ਗੁਨੀਆ ॥
कहु कबीर सुनहु रे गुनीआ ॥
कबीर का कथन है कि हे गुणवान पुरुष ! मेरी बात ध्यानपूर्वक सुन,
ਬਿਨਸੈਗੋ ਰੂਪੁ ਦੇਖੈ ਸਭ ਦੁਨੀਆ ॥੪॥੧੧॥
बिनसैगो रूपु देखै सभ दुनीआ ॥४॥११॥
तेरी यह सुन्दरता नाश हो जाएगी, यह सारी दुनिया देखेगी॥ ४॥ ११॥
ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਅਵਰ ਮੂਏ ਕਿਆ ਸੋਗੁ ਕਰੀਜੈ ॥
अवर मूए किआ सोगु करीजै ॥
जब कोई व्यक्ति मरता है तो उसकी मृत्यु पर शोक करने का क्या अभिप्राय ?
ਤਉ ਕੀਜੈ ਜਉ ਆਪਨ ਜੀਜੈ ॥੧॥
तउ कीजै जउ आपन जीजै ॥१॥
वियोग तब करना चाहिए, यदि आप सदैव जीवित रहना हो ॥ १॥
ਮੈ ਨ ਮਰਉ ਮਰਿਬੋ ਸੰਸਾਰਾ ॥
मै न मरउ मरिबो संसारा ॥
मैं वैसे नहीं मरूंगा, जैसे जगत् मरता है,
ਅਬ ਮੋਹਿ ਮਿਲਿਓ ਹੈ ਜੀਆਵਨਹਾਰਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
अब मोहि मिलिओ है जीआवनहारा ॥१॥ रहाउ ॥
क्योंकि अब मुझे जीवन देने वाला प्रभु मिल गया है॥ १॥ रहाउ ॥
ਇਆ ਦੇਹੀ ਪਰਮਲ ਮਹਕੰਦਾ ॥
इआ देही परमल महकंदा ॥
प्राणी इस शरीर को कई सुगन्धियाँ लगाकर महकाता है
ਤਾ ਸੁਖ ਬਿਸਰੇ ਪਰਮਾਨੰਦਾ ॥੨॥
ता सुख बिसरे परमानंदा ॥२॥
और इन सुखों में इसे परमानन्द प्रभु ही भूल जाता है।॥ २॥
ਕੂਅਟਾ ਏਕੁ ਪੰਚ ਪਨਿਹਾਰੀ ॥
कूअटा एकु पंच पनिहारी ॥
“(यह शरीर, मानो) एक छोटा-सा कुओं है (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, मानो) पाँच वर्खियाँ हैं।
ਟੂਟੀ ਲਾਜੁ ਭਰੈ ਮਤਿ ਹਾਰੀ ॥੩॥
टूटी लाजु भरै मति हारी ॥३॥
मृत बुद्धि रस्सी के बिना जल भर रही है॥ ३॥
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਇਕ ਬੁਧਿ ਬੀਚਾਰੀ ॥
कहु कबीर इक बुधि बीचारी ॥
हे कबीर ! जब विचारों वाली बुद्धि भीतर जाग पड़ी तो
ਨਾ ਓਹੁ ਕੂਅਟਾ ਨਾ ਪਨਿਹਾਰੀ ॥੪॥੧੨॥
ना ओहु कूअटा ना पनिहारी ॥४॥१२॥
यह शारीरिक मोह नहीं रहा और न ही विकारों की ओर मुग्ध करने वाली इन्द्रियाँ रहीं ॥ ४॥ १२॥
ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਅਸਥਾਵਰ ਜੰਗਮ ਕੀਟ ਪਤੰਗਾ ॥
असथावर जंगम कीट पतंगा ॥
हमने स्थावर, जंगम, कीट-पतंगे
ਅਨਿਕ ਜਨਮ ਕੀਏ ਬਹੁ ਰੰਗਾ ॥੧॥
अनिक जनम कीए बहु रंगा ॥१॥
यूं कई प्रकार के जन्म धारण किए हैं॥ १॥