ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਉਬਰੇ ਸਾਚਾ ਨਾਮੁ ਸਮਾਲਿ ॥੧॥
नानक गुरमुखि उबरे साचा नामु समालि ॥१॥
हे नानक ! सत्य नाम की आराधना करने से गुरमुख प्राणियों को मोक्ष प्राप्त हुआ है ॥ १ ॥
ਮਃ ੧ ॥
मः १ ॥
महला १ II
ਗਲੀ ਅਸੀ ਚੰਗੀਆ ਆਚਾਰੀ ਬੁਰੀਆਹ ॥
गलीं असी चंगीआ आचारी बुरीआह ॥
बातों में हम उत्तम विचार व्यक्त करते हैं परन्तु आचरण से अपवित्र हैं।
ਮਨਹੁ ਕੁਸੁਧਾ ਕਾਲੀਆ ਬਾਹਰਿ ਚਿਟਵੀਆਹ ॥
मनहु कुसुधा कालीआ बाहरि चिटवीआह ॥
मन में हम अशुद्ध और मलिन हैं परन्तु बाहरी वेशभूषा से सफेद दिखते हैं
ਰੀਸਾ ਕਰਿਹ ਤਿਨਾੜੀਆ ਜੋ ਸੇਵਹਿ ਦਰੁ ਖੜੀਆਹ ॥
रीसा करिह तिनाड़ीआ जो सेवहि दरु खड़ीआह ॥
हम उनकी समानता करते हैं जो प्रभु के द्वार पर उसकी सेवा में मग्न हैं।
ਨਾਲਿ ਖਸਮੈ ਰਤੀਆ ਮਾਣਹਿ ਸੁਖਿ ਰਲੀਆਹ ॥
नालि खसमै रतीआ माणहि सुखि रलीआह ॥
किन्तु वे अपने पति-परमेश्वर के रंग में लीन हैं और सुख एवं आनंद भोगती हैं।
ਹੋਦੈ ਤਾਣਿ ਨਿਤਾਣੀਆ ਰਹਹਿ ਨਿਮਾਨਣੀਆਹ ॥
होदै ताणि निताणीआ रहहि निमानणीआह ॥
वे सशक्त होने पर भी विनीत होती हुई सदैव दीन एवं नम्र हैं।
ਨਾਨਕ ਜਨਮੁ ਸਕਾਰਥਾ ਜੇ ਤਿਨ ਕੈ ਸੰਗਿ ਮਿਲਾਹ ॥੨॥
नानक जनमु सकारथा जे तिन कै संगि मिलाह ॥२॥
हे नानक ! हमारा जीवन तभी सफल हो सकता है, यदि हम उन मुक्तात्माओं के साथ संगति करें ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी ॥
ਤੂੰ ਆਪੇ ਜਲੁ ਮੀਨਾ ਹੈ ਆਪੇ ਆਪੇ ਹੀ ਆਪਿ ਜਾਲੁ ॥
तूं आपे जलु मीना है आपे आपे ही आपि जालु ॥
हे जगत् के स्वामी ! तू स्वयं ही जल है और स्वयं ही जल में रहने वाली मछली है। हे प्रभु ! तू स्वयं ही मछली को फँसाने वाला जाल है।
ਤੂੰ ਆਪੇ ਜਾਲੁ ਵਤਾਇਦਾ ਆਪੇ ਵਿਚਿ ਸੇਬਾਲੁ ॥
तूं आपे जालु वताइदा आपे विचि सेबालु ॥
तुम स्वयं ही मछेरा बनकर मछली को पकड़ने हेतु जाल फैंकते हो और स्वयं ही जल में रखा हुआ टुकड़ा हो।
ਤੂੰ ਆਪੇ ਕਮਲੁ ਅਲਿਪਤੁ ਹੈ ਸੈ ਹਥਾ ਵਿਚਿ ਗੁਲਾਲੁ ॥
तूं आपे कमलु अलिपतु है सै हथा विचि गुलालु ॥
हे ईश्वर ! तुम स्वयं ही सैंकड़ों हाथ गहरे जल में गहरे लाल रंग का निर्लिप्त कमल हो।
ਤੂੰ ਆਪੇ ਮੁਕਤਿ ਕਰਾਇਦਾ ਇਕ ਨਿਮਖ ਘੜੀ ਕਰਿ ਖਿਆਲੁ ॥
तूं आपे मुकति कराइदा इक निमख घड़ी करि खिआलु ॥
हे भगवान ! जो प्राणी क्षण भर के लिए भी तुम्हारा चिन्तन करते हैं। उन्हें तुम स्वयं ही जन्म-मरण के चक्र से मुक्त कर देते हो।
ਹਰਿ ਤੁਧਹੁ ਬਾਹਰਿ ਕਿਛੁ ਨਹੀ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਵੇਖਿ ਨਿਹਾਲੁ ॥੭॥
हरि तुधहु बाहरि किछु नही गुर सबदी वेखि निहालु ॥७॥
हे परमेश्वर ! तेरे हुक्म से परे कुछ भी नहीं, गुरु के शब्द द्वारा तेरे दर्शन करके प्राणी कृतार्थ हो जाता है॥ ७॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥
सलोक मः ३ ॥
श्लोक महला ३॥
ਹੁਕਮੁ ਨ ਜਾਣੈ ਬਹੁਤਾ ਰੋਵੈ ॥
हुकमु न जाणै बहुता रोवै ॥
जो जीव-स्त्री परमेश्वर के आवेश को नहीं जानती, वह बहुत विलाप करती है।
ਅੰਦਰਿ ਧੋਖਾ ਨੀਦ ਨ ਸੋਵੈ ॥
अंदरि धोखा नीद न सोवै ॥
उसके मन में छल-कपट विद्यमान होता है, सो वह सुख की गहरी नींद नहीं सोती।
ਜੇ ਧਨ ਖਸਮੈ ਚਲੈ ਰਜਾਈ ॥
जे धन खसमै चलै रजाई ॥
यदि जीव-स्त्री अपने पति-प्रभु की इच्छानुसार चले,
ਦਰਿ ਘਰਿ ਸੋਭਾ ਮਹਲਿ ਬੁਲਾਈ ॥
दरि घरि सोभा महलि बुलाई ॥
तो वह अपने प्रभु के दरबार एवं घर में ही सम्मान पा लेती है और पति-प्रभु उसे अपने आत्म-स्वरूप में बुला लेता है।
ਨਾਨਕ ਕਰਮੀ ਇਹ ਮਤਿ ਪਾਈ ॥
नानक करमी इह मति पाई ॥
हे नानक ! उसे यह ज्ञान भगवान की कृपा द्वारा ही होता है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਸਚਿ ਸਮਾਈ ॥੧॥
गुर परसादी सचि समाई ॥१॥
गुरु की कृपा से वह सत्य में ही समा जाती है।॥१॥
ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥
ਮਨਮੁਖ ਨਾਮ ਵਿਹੂਣਿਆ ਰੰਗੁ ਕਸੁੰਭਾ ਦੇਖਿ ਨ ਭੁਲੁ ॥
मनमुख नाम विहूणिआ रंगु कसु्मभा देखि न भुलु ॥
हे नामविहीन मनमुख ! माया का रंग कुसुंभे के फूल जैसा सुन्दर होता है। तू इसे देखकर भूल मत जाना।
ਇਸ ਕਾ ਰੰਗੁ ਦਿਨ ਥੋੜਿਆ ਛੋਛਾ ਇਸ ਦਾ ਮੁਲੁ ॥
इस का रंगु दिन थोड़िआ छोछा इस दा मुलु ॥
इसका रंग थोड़े दिन ही रहता है। इसका मूल्य भी बहुत न्यून है।
ਦੂਜੈ ਲਗੇ ਪਚਿ ਮੁਏ ਮੂਰਖ ਅੰਧ ਗਵਾਰ ॥
दूजै लगे पचि मुए मूरख अंध गवार ॥
जो व्यक्ति माया से प्रेम करते हैं, वे मूर्ख ज्ञानहीन एवं गंवार हैं।
ਬਿਸਟਾ ਅੰਦਰਿ ਕੀਟ ਸੇ ਪਇ ਪਚਹਿ ਵਾਰੋ ਵਾਰ ॥
बिसटा अंदरि कीट से पइ पचहि वारो वार ॥
वे माया के मोह में जल कर मरते हैं। मरणोपरांत वे विष्टा के कीड़े बनते हैं, जो पुनः पुनः जन्म लेकर विष्टा में जलते रहते हैं।
ਨਾਨਕ ਨਾਮ ਰਤੇ ਸੇ ਰੰਗੁਲੇ ਗੁਰ ਕੈ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ॥
नानक नाम रते से रंगुले गुर कै सहजि सुभाइ ॥
हे नानक ! जो व्यक्ति सहज अवस्था में गुरु के प्रेम द्वारा प्रभु-नाम में मग्न रहते हैं, वे सदैव ही सुख भोगते हैं।
ਭਗਤੀ ਰੰਗੁ ਨ ਉਤਰੈ ਸਹਜੇ ਰਹੈ ਸਮਾਇ ॥੨॥
भगती रंगु न उतरै सहजे रहै समाइ ॥२॥
उनका भक्ति का प्रेम कभी नाश नहीं होता और वे सहज अक्स्था में समाए रहते हैं ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी ॥
ਸਿਸਟਿ ਉਪਾਈ ਸਭ ਤੁਧੁ ਆਪੇ ਰਿਜਕੁ ਸੰਬਾਹਿਆ ॥
सिसटि उपाई सभ तुधु आपे रिजकु स्मबाहिआ ॥
हे ईश्वर ! तुमने समूची सृष्टि की रचना की है और स्वयं ही भोजन देकर सबका पालन करते हो।
ਇਕਿ ਵਲੁ ਛਲੁ ਕਰਿ ਕੈ ਖਾਵਦੇ ਮੁਹਹੁ ਕੂੜੁ ਕੁਸਤੁ ਤਿਨੀ ਢਾਹਿਆ ॥
इकि वलु छलु करि कै खावदे मुहहु कूड़ु कुसतु तिनी ढाहिआ ॥
कई प्राणी छल-कपट करके भोजन खाते हैं और अपने मुख से वह झूठ एवं असत्यता व्यक्त करते हैं।
ਤੁਧੁ ਆਪੇ ਭਾਵੈ ਸੋ ਕਰਹਿ ਤੁਧੁ ਓਤੈ ਕੰਮਿ ਓਇ ਲਾਇਆ ॥
तुधु आपे भावै सो करहि तुधु ओतै कमि ओइ लाइआ ॥
हे प्रभु ! जो तुम्हें भला प्रतीत होता है, तुम वहीं करते हो और प्राणियों को अलग-अलग कार्यों में लगाते हो और वह वही कुछ करते हैं।
ਇਕਨਾ ਸਚੁ ਬੁਝਾਇਓਨੁ ਤਿਨਾ ਅਤੁਟ ਭੰਡਾਰ ਦੇਵਾਇਆ ॥
इकना सचु बुझाइओनु तिना अतुट भंडार देवाइआ ॥
कई प्राणियों को तुमने सत्य नाम की सूझ प्रदान की है और उनको गुरु द्वारा नाम के अमूल्य भण्डार दिलवाए हैं।
ਹਰਿ ਚੇਤਿ ਖਾਹਿ ਤਿਨਾ ਸਫਲੁ ਹੈ ਅਚੇਤਾ ਹਥ ਤਡਾਇਆ ॥੮॥
हरि चेति खाहि तिना सफलु है अचेता हथ तडाइआ ॥८॥
जो प्राणी ईश्वर का स्मरण करके खाते हैं उनका खाना फलदायक है। जो प्राणी ईश्वर को स्मरण नहीं करते, वह दूसरे से माँगने के लिए हाथ फैलाते हैं ॥८॥
ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥
सलोक मः ३ ॥
श्लोक महला ३ II
ਪੜਿ ਪੜਿ ਪੰਡਿਤ ਬੇਦ ਵਖਾਣਹਿ ਮਾਇਆ ਮੋਹ ਸੁਆਇ ॥
पड़ि पड़ि पंडित बेद वखाणहि माइआ मोह सुआइ ॥
माया-मोह के स्वाद कारण पण्डित वेदों को पढ़-पढ़कर उनकी कथा करते हैं।
ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਵਿਸਾਰਿਆ ਮਨ ਮੂਰਖ ਮਿਲੈ ਸਜਾਇ ॥
दूजै भाइ हरि नामु विसारिआ मन मूरख मिलै सजाइ ॥
माया के प्रेम में मूर्ख मन ने भगवान के नाम को विस्मृत कर दिया है। अतः उसे प्रभु के दरबार में अवश्य दण्ड मिलेगा।
ਜਿਨਿ ਜੀਉ ਪਿੰਡੁ ਦਿਤਾ ਤਿਸੁ ਕਬਹੂੰ ਨ ਚੇਤੈ ਜੋ ਦੇਂਦਾ ਰਿਜਕੁ ਸੰਬਾਹਿ ॥
जिनि जीउ पिंडु दिता तिसु कबहूं न चेतै जो देंदा रिजकु स्मबाहि ॥
जिस परमेश्वर ने मनुष्य को प्राण और शरीर दिया है, उसे वह कदाचित स्मरण नहीं करता, जो सबका भोजन देकर पालन कर रहा है।
ਜਮ ਕਾ ਫਾਹਾ ਗਲਹੁ ਨ ਕਟੀਐ ਫਿਰਿ ਫਿਰਿ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥
जम का फाहा गलहु न कटीऐ फिरि फिरि आवै जाइ ॥
मनमुख प्राणियों के गले यम-पाश प्रतिदिन बना रहता है और वे सदैव जन्म-मरण के बंधन में कष्ट सहन करते हैं।
ਮਨਮੁਖਿ ਕਿਛੂ ਨ ਸੂਝੈ ਅੰਧੁਲੇ ਪੂਰਬਿ ਲਿਖਿਆ ਕਮਾਇ ॥
मनमुखि किछू न सूझै अंधुले पूरबि लिखिआ कमाइ ॥
ज्ञानहीन मनमुख इन्सान कुछ भी नहीं समझता और वही कुछ करता है जो पूर्व-जन्म के कर्मो अनुसार लिखा है।
ਪੂਰੈ ਭਾਗਿ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲੈ ਸੁਖਦਾਤਾ ਨਾਮੁ ਵਸੈ ਮਨਿ ਆਇ ॥
पूरै भागि सतिगुरु मिलै सुखदाता नामु वसै मनि आइ ॥
सौभाग्यवश जब सुखदाता सतिगुरु जी मिलते हैं तो हरि-नाम मनुष्य के हृदय में निवास करने लगता है
ਸੁਖੁ ਮਾਣਹਿ ਸੁਖੁ ਪੈਨਣਾ ਸੁਖੇ ਸੁਖਿ ਵਿਹਾਇ ॥
सुखु माणहि सुखु पैनणा सुखे सुखि विहाइ ॥
ऐसा व्यक्ति सुख ही भोगता है। उसके लिए सुख ही वस्त्रों का पहनावा है और उसका समूचा जीवन सुख में ही व्यतीत होता है।
ਨਾਨਕ ਸੋ ਨਾਉ ਮਨਹੁ ਨ ਵਿਸਾਰੀਐ ਜਿਤੁ ਦਰਿ ਸਚੈ ਸੋਭਾ ਪਾਇ ॥੧॥
नानक सो नाउ मनहु न विसारीऐ जितु दरि सचै सोभा पाइ ॥१॥
हे नानक ! अपने हृदय में से उस नाम को विस्मृत मत करो, जिसकी बदौलत सत्य के दरबार में शोभा प्राप्त होती है ॥१॥