ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥
सूही महला ५ ॥
सूही महला ५ ॥
ਦੀਨੁ ਛਡਾਇ ਦੁਨੀ ਜੋ ਲਾਏ ॥
दीनु छडाइ दुनी जो लाए ॥
जो धर्म को छोड़कर दुनियादारी में लग जाता है
ਦੁਹੀ ਸਰਾਈ ਖੁਨਾਮੀ ਕਹਾਏ ॥੧॥
दुही सराई खुनामी कहाए ॥१॥
वह लोक परलोक दोनों में गुनहगार कहलाता है॥ १॥
ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਸੋ ਪਰਵਾਣੁ ॥
जो तिसु भावै सो परवाणु ॥
जो ईश्वर को उपयुक्त लगता है, मुझे वह खुशी-खुशी मंजूर है।
ਆਪਣੀ ਕੁਦਰਤਿ ਆਪੇ ਜਾਣੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
आपणी कुदरति आपे जाणु ॥१॥ रहाउ ॥
अपनी कुदरत को वह स्वयं ही जानता है॥ १॥ रहाउ॥
ਸਚਾ ਧਰਮੁ ਪੁੰਨੁ ਭਲਾ ਕਰਾਏ ॥
सचा धरमु पुंनु भला कराए ॥
वह जिस आदमी से सच्चा धर्म, पुण्य एवं भलाई का कार्य करवाता है,
ਦੀਨ ਕੈ ਤੋਸੈ ਦੁਨੀ ਨ ਜਾਏ ॥੨॥
दीन कै तोसै दुनी न जाए ॥२॥
उसे इकट्टे किए धर्म के भण्डार के कारण उसकी दुनिया नहीं बिगड़ती॥ २॥
ਸਰਬ ਨਿਰੰਤਰਿ ਏਕੋ ਜਾਗੈ ॥
सरब निरंतरि एको जागै ॥
सब जीवों के हृदय में एक परमात्मा ही जाग्रत रहता है।
ਜਿਤੁ ਜਿਤੁ ਲਾਇਆ ਤਿਤੁ ਤਿਤੁ ਕੋ ਲਾਗੈ ॥੩॥
जितु जितु लाइआ तितु तितु को लागै ॥३॥
उसने जीवों को जिस कार्य में भी लगाया है, वे वहाँ ही लग गए हैं।॥ ३॥
ਅਗਮ ਅਗੋਚਰੁ ਸਚੁ ਸਾਹਿਬੁ ਮੇਰਾ ॥
अगम अगोचरु सचु साहिबु मेरा ॥
मेरा मालिक अगम्य, अगोचर एवं शाश्वत है।
ਨਾਨਕੁ ਬੋਲੈ ਬੋਲਾਇਆ ਤੇਰਾ ॥੪॥੨੩॥੨੯॥
नानकु बोलै बोलाइआ तेरा ॥४॥२३॥२९॥
हे प्रभु ! नानक तेरा बुलाया हुआ ही बोलता है॥ ४॥ २३॥ २६॥
ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥
सूही महला ५ ॥
सूही महला ५ ॥
ਪ੍ਰਾਤਹਕਾਲਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਉਚਾਰੀ ॥
प्रातहकालि हरि नामु उचारी ॥
मैं प्रात:काल प्रभु का नाम उच्चारित करता रहता हूँ,
ਈਤ ਊਤ ਕੀ ਓਟ ਸਵਾਰੀ ॥੧॥
ईत ऊत की ओट सवारी ॥१॥
जिससे लोक-परलोक की ओट संवार ली है॥ १॥
ਸਦਾ ਸਦਾ ਜਪੀਐ ਹਰਿ ਨਾਮ ॥
सदा सदा जपीऐ हरि नाम ॥
हे जिज्ञासु ! सदा परमात्मा का नाम जपते रहना चाहिए,
ਪੂਰਨ ਹੋਵਹਿ ਮਨ ਕੇ ਕਾਮ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
पूरन होवहि मन के काम ॥१॥ रहाउ ॥
इससे सारी मनोकामनाएँ पूरी हो जाती हैं। १॥ रहाउ॥
ਪ੍ਰਭੁ ਅਬਿਨਾਸੀ ਰੈਣਿ ਦਿਨੁ ਗਾਉ ॥
प्रभु अबिनासी रैणि दिनु गाउ ॥
उस अविनाशी प्रभु का दिन-रात गुणगान करो।
ਜੀਵਤ ਮਰਤ ਨਿਹਚਲੁ ਪਾਵਹਿ ਥਾਉ ॥੨॥
जीवत मरत निहचलु पावहि थाउ ॥२॥
जीवित ही मोह-अभिमान को मार कर निश्चल स्थान पा लो॥ २॥
ਸੋ ਸਾਹੁ ਸੇਵਿ ਜਿਤੁ ਤੋਟਿ ਨ ਆਵੈ ॥
सो साहु सेवि जितु तोटि न आवै ॥
उस साहूकार प्रभु की भक्ति करो, जिससे किसी प्रकार की कमी नहीं आती ।
ਖਾਤ ਖਰਚਤ ਸੁਖਿ ਅਨਦਿ ਵਿਹਾਵੈ ॥੩॥
खात खरचत सुखि अनदि विहावै ॥३॥
नाम-धन का उपयोग करने एवं दूसरों से इस्तेमाल करवाने से जिंदगी सुख एवं आनंद में व्यतीत होती है॥ ३॥
ਜਗਜੀਵਨ ਪੁਰਖੁ ਸਾਧਸੰਗਿ ਪਾਇਆ ॥
जगजीवन पुरखु साधसंगि पाइआ ॥
परमपुरुष परमेश्वर जग का जीवन है और उसे साधसंगति द्वारा ही पाया जा सकता है।
ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇਆ ॥੪॥੨੪॥੩੦॥
गुर प्रसादि नानक नामु धिआइआ ॥४॥२४॥३०॥
हे नानक ! गुरु के आशीर्वाद से मैंने परमात्मा के नाम का ही ध्यान किया है॥ ४॥ २४ ॥ ३० ॥
ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥
सूही महला ५ ॥
सूही महला ५ ॥
ਗੁਰ ਪੂਰੇ ਜਬ ਭਏ ਦਇਆਲ ॥
गुर पूरे जब भए दइआल ॥
जब पूर्ण गुरु दयालु हो गया तो
ਦੁਖ ਬਿਨਸੇ ਪੂਰਨ ਭਈ ਘਾਲ ॥੧॥
दुख बिनसे पूरन भई घाल ॥१॥
मेरे सब दुख नाश हो गए और नाम-सिमरन की साधना साकार हो गई॥ १॥
ਪੇਖਿ ਪੇਖਿ ਜੀਵਾ ਦਰਸੁ ਤੁਮ੍ਹ੍ਹਾਰਾ ॥
पेखि पेखि जीवा दरसु तुम्हारा ॥
हे मालिक ! तुम्हारा दर्शन देख-देखकर ही जीता हूँ और
ਚਰਣ ਕਮਲ ਜਾਈ ਬਲਿਹਾਰਾ ॥
चरण कमल जाई बलिहारा ॥
मैं तेरे चरण-कमल पर बलिहारी जाता हूँ।
ਤੁਝ ਬਿਨੁ ਠਾਕੁਰ ਕਵਨੁ ਹਮਾਰਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
तुझ बिनु ठाकुर कवनु हमारा ॥१॥ रहाउ ॥
हे ठाकुर जी ! तेरे बिना हमारा कौन है ?॥ १॥ रहाउ॥
ਸਾਧਸੰਗਤਿ ਸਿਉ ਪ੍ਰੀਤਿ ਬਣਿ ਆਈ ॥
साधसंगति सिउ प्रीति बणि आई ॥
साधु-संगति से मेरी प्रीति बन गई है और
ਪੂਰਬ ਕਰਮਿ ਲਿਖਤ ਧੁਰਿ ਪਾਈ ॥੨॥
पूरब करमि लिखत धुरि पाई ॥२॥
पूर्व जन्म के कर्मानुसार साधसंगति पाई है॥ २॥
ਜਪਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਅਚਰਜੁ ਪਰਤਾਪ ॥
जपि हरि हरि नामु अचरजु परताप ॥
परमात्मा का नाम जपने से अद्भुत प्रताप हो गया है।
ਜਾਲਿ ਨ ਸਾਕਹਿ ਤੀਨੇ ਤਾਪ ॥੩॥
जालि न साकहि तीने ताप ॥३॥
अब आधि, व्याधि एवं उपाधि-तीनों ही ताप जला नहीं सकते॥ ३॥
ਨਿਮਖ ਨ ਬਿਸਰਹਿ ਹਰਿ ਚਰਣ ਤੁਮ੍ਹ੍ਹਾਰੇ ॥
निमख न बिसरहि हरि चरण तुम्हारे ॥
तुम्हारे सुन्दर चरण एक क्षण भर के लिए भी न भूले,”
ਨਾਨਕੁ ਮਾਗੈ ਦਾਨੁ ਪਿਆਰੇ ॥੪॥੨੫॥੩੧॥
नानकु मागै दानु पिआरे ॥४॥२५॥३१॥
हे हरि ! नानक तुझसे यही दान चाहता है ॥ ४। २५ ॥ ३१ ॥
ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥
सूही महला ५ ॥
सूही महला ५ ॥
ਸੇ ਸੰਜੋਗ ਕਰਹੁ ਮੇਰੇ ਪਿਆਰੇ ॥
से संजोग करहु मेरे पिआरे ॥
हे मेरे प्यारे ! ऐसा संयोग बनाओ,
ਜਿਤੁ ਰਸਨਾ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਉਚਾਰੇ ॥੧॥
जितु रसना हरि नामु उचारे ॥१॥
जिससे मेरी जीभ तेरा नाम उच्चारित करती रहे ॥ १॥
ਸੁਣਿ ਬੇਨਤੀ ਪ੍ਰਭ ਦੀਨ ਦਇਆਲਾ ॥
सुणि बेनती प्रभ दीन दइआला ॥
हे दीनदयाल प्रभु ! मेरी एक विनती सुनो;
ਸਾਧ ਗਾਵਹਿ ਗੁਣ ਸਦਾ ਰਸਾਲਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
साध गावहि गुण सदा रसाला ॥१॥ रहाउ ॥
साधु हमेशा ही तेरा रसीला गुणगान करते रहते हैं।॥ १॥ रहाउ॥
ਜੀਵਨ ਰੂਪੁ ਸਿਮਰਣੁ ਪ੍ਰਭ ਤੇਰਾ ॥
जीवन रूपु सिमरणु प्रभ तेरा ॥
हे प्रभु ! तेरा सिमरन जीवन रूप है।
ਜਿਸੁ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰਹਿ ਬਸਹਿ ਤਿਸੁ ਨੇਰਾ ॥੨॥
जिसु क्रिपा करहि बसहि तिसु नेरा ॥२॥
जिस पर तू अपनी कृपा करता है, उसके निकट आ बसता है॥ २ ॥
ਜਨ ਕੀ ਭੂਖ ਤੇਰਾ ਨਾਮੁ ਅਹਾਰੁ ॥
जन की भूख तेरा नामु अहारु ॥
तेरा नाम ऐसा भोजन है, जिससे भक्त की सारी भूख दूर हो जाती है।
ਤੂੰ ਦਾਤਾ ਪ੍ਰਭ ਦੇਵਣਹਾਰੁ ॥੩॥
तूं दाता प्रभ देवणहारु ॥३॥
हे प्रभु ! तू दाता है और सब कुछ देने वाला है॥ ३॥
ਰਾਮ ਰਮਤ ਸੰਤਨ ਸੁਖੁ ਮਾਨਾ ॥
राम रमत संतन सुखु माना ॥
प्रेमपूर्वक राम नाम जपकर संतजनों ने सुख ही माना है।
ਨਾਨਕ ਦੇਵਨਹਾਰ ਸੁਜਾਨਾ ॥੪॥੨੬॥੩੨॥
नानक देवनहार सुजाना ॥४॥२६॥३२॥
हे नानक ! वह देने वाला परमात्मा बड़ा चतुर है॥ ४॥ २६॥ ३२॥
ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥
सूही महला ५ ॥
सूही महला ५ ॥
ਬਹਤੀ ਜਾਤ ਕਦੇ ਦ੍ਰਿਸਟਿ ਨ ਧਾਰਤ ॥
बहती जात कदे द्रिसटि न धारत ॥
हे जीव ! तेरी जीवन रूपी नदिया बहती जा रही है, पर तू कभी इस तरफ दृष्टि भी नहीं करता।
ਮਿਥਿਆ ਮੋਹ ਬੰਧਹਿ ਨਿਤ ਪਾਰਚ ॥੧॥
मिथिआ मोह बंधहि नित पारच ॥१॥
तू नित्य ही मिथ्या मोह के झगड़े में फंसा रहता है॥ १॥
ਮਾਧਵੇ ਭਜੁ ਦਿਨ ਨਿਤ ਰੈਣੀ ॥
माधवे भजु दिन नित रैणी ॥
इसलिए नित्य ही माधव का भजन करते रहो और
ਜਨਮੁ ਪਦਾਰਥੁ ਜੀਤਿ ਹਰਿ ਸਰਣੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जनमु पदारथु जीति हरि सरणी ॥१॥ रहाउ ॥
हरि की शरण में पड़कर अपना अमूल्य जन्म जीत लो ॥ १॥ रहाउ ॥
ਕਰਤ ਬਿਕਾਰ ਦੋਊ ਕਰ ਝਾਰਤ ॥
करत बिकार दोऊ कर झारत ॥
तू अपने दोनों हाथों के जोर से पाप करता है,
ਰਾਮ ਰਤਨੁ ਰਿਦ ਤਿਲੁ ਨਹੀ ਧਾਰਤ ॥੨॥
राम रतनु रिद तिलु नही धारत ॥२॥
किन्तु रत्न जैसे अमूल्य राम नाम को अपने हृदय में तिल मात्र भी धारण नहीं करता ॥ २ ॥
ਭਰਣ ਪੋਖਣ ਸੰਗਿ ਅਉਧ ਬਿਹਾਣੀ ॥
भरण पोखण संगि अउध बिहाणी ॥
तूने भरण-पोषण में सारी जिंदगी व्यतीत कर ली है,