ਜਬ ਲਗੁ ਦੁਨੀਆ ਰਹੀਐ ਨਾਨਕ ਕਿਛੁ ਸੁਣੀਐ ਕਿਛੁ ਕਹੀਐ ॥
जब लगु दुनीआ रहीऐ नानक किछु सुणीऐ किछु कहीऐ ॥
हे नानक ! जब तक हमने दुनिया में रहना है, हमें प्रभु के बारे में कुछ कहना एवं कुछ सुनना चाहिए।
ਭਾਲਿ ਰਹੇ ਹਮ ਰਹਣੁ ਨ ਪਾਇਆ ਜੀਵਤਿਆ ਮਰਿ ਰਹੀਐ ॥੫॥੨॥
भालि रहे हम रहणु न पाइआ जीवतिआ मरि रहीऐ ॥५॥२॥
हमने बड़ी खोज-तलाश की है, किन्तु सदैव रहने का कोई मार्ग नहीं मिला। इसलिए जब तक जीना है, अहंकार को मारकर जीवन बिताना चाहिए।५।।२।।
ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੧ ਘਰੁ ਦੂਜਾ
धनासरी महला १ घरु दूजा
धनासरी महला १ घरु दूजा
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਕਿਉ ਸਿਮਰੀ ਸਿਵਰਿਆ ਨਹੀ ਜਾਇ ॥
किउ सिमरी सिवरिआ नही जाइ ॥
मैं कैसे सिमरन करूं ? मुझ से तो परमात्मा का भजन-सिमरन नहीं किया जाता।
ਤਪੈ ਹਿਆਉ ਜੀਅੜਾ ਬਿਲਲਾਇ ॥
तपै हिआउ जीअड़ा बिललाइ ॥
सिमरन के बिना मेरा हृदय अग्नि की भांति जल रहा है और मेरी आत्मा भी दु:ख में विलाप कर रही है।
ਸਿਰਜਿ ਸਵਾਰੇ ਸਾਚਾ ਸੋਇ ॥
सिरजि सवारे साचा सोइ ॥
जब परम-सत्य परमात्मा सब जीवों को पैदा करके स्वयं ही उन्हें गुणवान बनाता है तो
ਤਿਸੁ ਵਿਸਰਿਐ ਚੰਗਾ ਕਿਉ ਹੋਇ ॥੧॥
तिसु विसरिऐ चंगा किउ होइ ॥१॥
फिर उस प्रभु को विस्मृत करने से भला कैसे हो सकता है ॥१॥
ਹਿਕਮਤਿ ਹੁਕਮਿ ਨ ਪਾਇਆ ਜਾਇ ॥
हिकमति हुकमि न पाइआ जाइ ॥
किसी चतुराई एवं हुक्म द्वारा प्रभु प्राप्त नहीं किया जा सकता।
ਕਿਉ ਕਰਿ ਸਾਚਿ ਮਿਲਉ ਮੇਰੀ ਮਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
किउ करि साचि मिलउ मेरी माइ ॥१॥ रहाउ ॥
हे मेरी माता ! उस परम-सत्य ईश्वर को मैं कैसे मिल सकता हूँ? ॥१॥ रहाउ ॥
ਵਖਰੁ ਨਾਮੁ ਦੇਖਣ ਕੋਈ ਜਾਇ ॥
वखरु नामु देखण कोई जाइ ॥
कोई विरला मनुष्य ही नाम रूपी सौदा देखने के लिए जाता है।
ਨਾ ਕੋ ਚਾਖੈ ਨਾ ਕੋ ਖਾਇ ॥
ना को चाखै ना को खाइ ॥
इस नामामृत को न कोई चखता है और न ही कोई खाता है।
ਲੋਕਿ ਪਤੀਣੈ ਨਾ ਪਤਿ ਹੋਇ ॥
लोकि पतीणै ना पति होइ ॥
लोगों की खुशामद करने से मनुष्य को मान-सम्मान प्राप्त नही होता।
ਤਾ ਪਤਿ ਰਹੈ ਰਾਖੈ ਜਾ ਸੋਇ ॥੨॥
ता पति रहै राखै जा सोइ ॥२॥
मनुष्य का मान-सम्मान तभी रहता है, यदि वह सच्चा परमेश्वर स्वयं ही लाज रखे ॥२॥
ਜਹ ਦੇਖਾ ਤਹ ਰਹਿਆ ਸਮਾਇ ॥
जह देखा तह रहिआ समाइ ॥
हे ईश्वर ! मैं जिधर भी देखता हूँ, तू उधर ही विद्यमान है।
ਤੁਧੁ ਬਿਨੁ ਦੂਜੀ ਨਾਹੀ ਜਾਇ ॥
तुधु बिनु दूजी नाही जाइ ॥
तेरे सिवाय मेरा अन्य कोई सुख का स्थान नहीं।
ਜੇ ਕੋ ਕਰੇ ਕੀਤੈ ਕਿਆ ਹੋਇ ॥
जे को करे कीतै किआ होइ ॥
यदि कोई मनुष्य कुछ करने का प्रयास भी करे तो भी उसका किया कुछ नहीं होता।
ਜਿਸ ਨੋ ਬਖਸੇ ਸਾਚਾ ਸੋਇ ॥੩॥
जिस नो बखसे साचा सोइ ॥३॥
वह सच्चा परमेश्वर जिस पर करुणा करता है, वही कुछ कर सकता है॥३॥
ਹੁਣਿ ਉਠਿ ਚਲਣਾ ਮੁਹਤਿ ਕਿ ਤਾਲਿ ॥
हुणि उठि चलणा मुहति कि तालि ॥
अब एक मुहूर्त अथवा हाथ की ताली बजाने जितने समय में ही उठकर मैंने यहाँ से चले जाना है।
ਕਿਆ ਮੁਹੁ ਦੇਸਾ ਗੁਣ ਨਹੀ ਨਾਲਿ ॥
किआ मुहु देसा गुण नही नालि ॥
मुझ में तो कोई भी गुण विद्यमान नहीं, फिर मैं उस प्रभु को अपना कौन-सा मुँह दिखाऊँगा ?
ਜੈਸੀ ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਤੈਸਾ ਹੋਇ ॥
जैसी नदरि करे तैसा होइ ॥
जैसी दृष्टि परमात्मा करता है, वैसा ही मनुष्य हो जाता है।
ਵਿਣੁ ਨਦਰੀ ਨਾਨਕ ਨਹੀ ਕੋਇ ॥੪॥੧॥੩॥
विणु नदरी नानक नही कोइ ॥४॥१॥३॥
हे नानक ! उसकी (कृपा) दृष्टि के बिना कोई भी जीव नहीं है॥ ॥४॥१॥३॥
ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥
धनासरी महला १ ॥
धनासरी महला १ ॥
ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਤਾ ਸਿਮਰਿਆ ਜਾਇ ॥
नदरि करे ता सिमरिआ जाइ ॥
यदि परमात्मा अपनी कृपा-दृष्टि करे तो ही उसका भजन-सिमरन किया जाता है।
ਆਤਮਾ ਦ੍ਰਵੈ ਰਹੈ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥
आतमा द्रवै रहै लिव लाइ ॥
जब मनुष्य की आत्मा द्रवित हो जाती है तो वह अपना ध्यान सत्य में ही लगाता है।
ਆਤਮਾ ਪਰਾਤਮਾ ਏਕੋ ਕਰੈ ॥
आतमा परातमा एको करै ॥
जब वह आत्मा-परमात्मा को एक रूप समझ लेता है तो
ਅੰਤਰ ਕੀ ਦੁਬਿਧਾ ਅੰਤਰਿ ਮਰੈ ॥੧॥
अंतर की दुबिधा अंतरि मरै ॥१॥
उसके मन की दुविधा उसके मन में ही मर जाती है ॥१॥
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਪਾਇਆ ਜਾਇ ॥
गुर परसादी पाइआ जाइ ॥
भगवान की प्राप्ति तो गुरु की अपार कृपा से ही होती है।
ਹਰਿ ਸਿਉ ਚਿਤੁ ਲਾਗੈ ਫਿਰਿ ਕਾਲੁ ਨ ਖਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हरि सिउ चितु लागै फिरि कालु न खाइ ॥१॥ रहाउ ॥
यदि मनुष्य का चित्त भगवान के साथ लग जाए तो फिर काल उसे नहीं निगलता ॥१॥ रहाउ॥
ਸਚਿ ਸਿਮਰਿਐ ਹੋਵੈ ਪਰਗਾਸੁ ॥
सचि सिमरिऐ होवै परगासु ॥
उस सच्चे प्रभु का सिमरन करने से मन में ही सत्य का आलोक हो जाता है और
ਤਾ ਤੇ ਬਿਖਿਆ ਮਹਿ ਰਹੈ ਉਦਾਸੁ ॥
ता ते बिखिआ महि रहै उदासु ॥
वह विष रूपी माया में ही निर्लिप्त रहता है।
ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਐਸੀ ਵਡਿਆਈ ॥
सतिगुर की ऐसी वडिआई ॥
सतगुरु की ऐसी बड़ाई है कि
ਪੁਤ੍ਰ ਕਲਤ੍ਰ ਵਿਚੇ ਗਤਿ ਪਾਈ ॥੨॥
पुत्र कलत्र विचे गति पाई ॥२॥
मनुष्य अपने पुत्रों एवं अपनी पत्नी के बीच रहता हुआ मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥२॥
ਐਸੀ ਸੇਵਕੁ ਸੇਵਾ ਕਰੈ ॥
ऐसी सेवकु सेवा करै ॥
प्रभु का सेवक उसकी ऐसी सेवा करता है कि
ਜਿਸ ਕਾ ਜੀਉ ਤਿਸੁ ਆਗੈ ਧਰੈ ॥
जिस का जीउ तिसु आगै धरै ॥
जिस प्रभु ने यह प्राण उसे दिए हुए हैं, वह उसके समक्ष अर्पित कर देता है।
ਸਾਹਿਬ ਭਾਵੈ ਸੋ ਪਰਵਾਣੁ ॥
साहिब भावै सो परवाणु ॥
जो मनुष्य प्रभु को अच्छा लगता है, वह परवान हो जाता है।
ਸੋ ਸੇਵਕੁ ਦਰਗਹ ਪਾਵੈ ਮਾਣੁ ॥੩॥
सो सेवकु दरगह पावै माणु ॥३॥
ऐसा सेवक प्रभु के दरबार में बड़ी शोभा प्राप्त करता है ॥३॥
ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਮੂਰਤਿ ਹਿਰਦੈ ਵਸਾਏ ॥
सतिगुर की मूरति हिरदै वसाए ॥
सतगुरु की मूर्त को वह अपने हृदय में बसाता है, और
ਜੋ ਇਛੈ ਸੋਈ ਫਲੁ ਪਾਏ ॥
जो इछै सोई फलु पाए ॥
जो उसकी इच्छा होती है, वही फल प्राप्त कर लेता है।
ਸਾਚਾ ਸਾਹਿਬੁ ਕਿਰਪਾ ਕਰੈ ॥
साचा साहिबु किरपा करै ॥
सच्चा परमेश्वर स्वयं उस पर अपनी कृपा करता है तो
ਸੋ ਸੇਵਕੁ ਜਮ ਤੇ ਕੈਸਾ ਡਰੈ ॥੪॥
सो सेवकु जम ते कैसा डरै ॥४॥
ऐसा सेवक फिर मृत्यु से कैसे डर सकता है ॥४॥
ਭਨਤਿ ਨਾਨਕੁ ਕਰੇ ਵੀਚਾਰੁ ॥
भनति नानकु करे वीचारु ॥
हे नानक ! जो मनुष्य शब्द पर विचार करता है और
ਸਾਚੀ ਬਾਣੀ ਸਿਉ ਧਰੇ ਪਿਆਰੁ ॥
साची बाणी सिउ धरे पिआरु ॥
सच्ची वाणी से प्रेम करता है,
ਤਾ ਕੋ ਪਾਵੈ ਮੋਖ ਦੁਆਰੁ ॥
ता को पावै मोख दुआरु ॥
उसे मोक्ष के द्वार की प्राप्ति हो जाती है।
ਜਪੁ ਤਪੁ ਸਭੁ ਇਹੁ ਸਬਦੁ ਹੈ ਸਾਰੁ ॥੫॥੨॥੪॥
जपु तपु सभु इहु सबदु है सारु ॥५॥२॥४॥
यह शब्द ही समस्त जप एवं तप का सार है ॥५॥२॥४॥
ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥
धनासरी महला १ ॥
धनासरी महला १ ॥
ਜੀਉ ਤਪਤੁ ਹੈ ਬਾਰੋ ਬਾਰ ॥
जीउ तपतु है बारो बार ॥
मेरी आत्मा बार-बार अग्नि की तरह जलती है।
ਤਪਿ ਤਪਿ ਖਪੈ ਬਹੁਤੁ ਬੇਕਾਰ ॥
तपि तपि खपै बहुतु बेकार ॥
यह जल-जल कर दुखी होती रहती है और अनेक विकारों में फंस जाती है।
ਜੈ ਤਨਿ ਬਾਣੀ ਵਿਸਰਿ ਜਾਇ ॥
जै तनि बाणी विसरि जाइ ॥
जिस शरीर को वाणी विस्मृत हो जाती है,
ਜਿਉ ਪਕਾ ਰੋਗੀ ਵਿਲਲਾਇ ॥੧॥
जिउ पका रोगी विललाइ ॥१॥
वह पक्के रोगी की तरह विलाप करता रहता है ॥१॥
ਬਹੁਤਾ ਬੋਲਣੁ ਝਖਣੁ ਹੋਇ ॥
बहुता बोलणु झखणु होइ ॥
अधिकतर बोलना व्यर्थ बकवास हो जाता है क्योंकि
ਵਿਣੁ ਬੋਲੇ ਜਾਣੈ ਸਭੁ ਸੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
विणु बोले जाणै सभु सोइ ॥१॥ रहाउ ॥
वह प्रभु तो हमारे बोले बिना ही हमारे बारे में सब कुछ जानता है ॥१॥ रहाउ ॥
ਜਿਨਿ ਕਨ ਕੀਤੇ ਅਖੀ ਨਾਕੁ ॥
जिनि कन कीते अखी नाकु ॥
जिसने हमारे कान, नेत्र एवं नाक बनाया है,
ਜਿਨਿ ਜਿਹਵਾ ਦਿਤੀ ਬੋਲੇ ਤਾਤੁ ॥
जिनि जिहवा दिती बोले तातु ॥
जिसने हमें जिव्हा दी है, जो शीघ्र बोलती है,