ਤਾਰਣ ਤਰਣ ਸਮ੍ਰਥੁ ਕਲਿਜੁਗਿ ਸੁਨਤ ਸਮਾਧਿ ਸਬਦ ਜਿਸੁ ਕੇਰੇ ॥
तारण तरण सम्रथु कलिजुगि सुनत समाधि सबद जिसु केरे ॥
कलियुग में एकमात्र वही संसार के बन्धनों से मुक्त करने वाला एवं सर्वकला समर्थ है, उसका पावन उपदेश सुनने से जीव प्रभु ध्यान में लीन हो जाता है।
ਫੁਨਿ ਦੁਖਨਿ ਨਾਸੁ ਸੁਖਦਾਯਕੁ ਸੂਰਉ ਜੋ ਧਰਤ ਧਿਆਨੁ ਬਸਤ ਤਿਹ ਨੇਰੇ ॥
फुनि दुखनि नासु सुखदायकु सूरउ जो धरत धिआनु बसत तिह नेरे ॥
वह सुख देने वाला सूर्य है, जो उसका ध्यान धारण करता है, गुरु (रामदास) उसके निकट ही रहता है और फिर दुखों का नाश हो जाता है।
ਪੂਰਉ ਪੁਰਖੁ ਰਿਦੈ ਹਰਿ ਸਿਮਰਤ ਮੁਖੁ ਦੇਖਤ ਅਘ ਜਾਹਿ ਪਰੇਰੇ ॥
पूरउ पुरखु रिदै हरि सिमरत मुखु देखत अघ जाहि परेरे ॥
वह पूर्ण पुरुष है, वह अपने मन में ईश्वर का स्मरण करता है, उसके दर्शनों से पाप-दोष निवृत्त हो जाते हैं।
ਜਉ ਹਰਿ ਬੁਧਿ ਰਿਧਿ ਸਿਧਿ ਚਾਹਤ ਗੁਰੂ ਗੁਰੂ ਗੁਰੁ ਕਰੁ ਮਨ ਮੇਰੇ ॥੫॥੯॥
जउ हरि बुधि रिधि सिधि चाहत गुरू गुरू गुरु करु मन मेरे ॥५॥९॥
यदि बुद्धि, ऋद्धि-सिद्धि व ईश्वर को पाना चाहते हो तो हे मन ! गुरु का स्तुतिगान करो, गुरु-गुरु जपते रहो ॥ ५ ॥६॥
ਗੁਰੂ ਮੁਖੁ ਦੇਖਿ ਗਰੂ ਸੁਖੁ ਪਾਯਉ ॥
गुरू मुखु देखि गरू सुखु पायउ ॥
जब गुरु अमरदास जी के भाई जेठा अर्थात् गुरु रामदास जी ने दर्शन किए तो उनको परम सुख प्राप्त हुआ।
ਹੁਤੀ ਜੁ ਪਿਆਸ ਪਿਊਸ ਪਿਵੰਨ ਕੀ ਬੰਛਤ ਸਿਧਿ ਕਉ ਬਿਧਿ ਮਿਲਾਯਉ ॥
हुती जु पिआस पिऊस पिवंन की बंछत सिधि कउ बिधि मिलायउ ॥
उनके मन में बरसों से अमृतपान की जो प्यास थी, उस अभिलाषा की सिद्धि हेतु ईश्वर ने भाई जेठा अर्थात् गुरु रामदास जी का शांति के पुंज गुरु अमरदास से मिलाप करवा दिया।
ਪੂਰਨ ਭੋ ਮਨ ਠਉਰ ਬਸੋ ਰਸ ਬਾਸਨ ਸਿਉ ਜੁ ਦਹੰ ਦਿਸਿ ਧਾਯਉ ॥
पूरन भो मन ठउर बसो रस बासन सिउ जु दहं दिसि धायउ ॥
जो मन रसों-वासनाओं के पीछे दसों दिशाओं में दौड़ता था, वह गुरु के मिलाप से तृप्त होकर टिक गया।
ਗੋਬਿੰਦ ਵਾਲੁ ਗੋਬਿੰਦ ਪੁਰੀ ਸਮ ਜਲੵਨ ਤੀਰਿ ਬਿਪਾਸ ਬਨਾਯਉ ॥
गोबिंद वालु गोबिंद पुरी सम जल्यन तीरि बिपास बनायउ ॥
व्यास नदी के किनारे पर जिस नम्रता एवं प्रेम की मूर्ति गुरु अमरदास जी ने वैकुण्ठ समान गोइंदवाल नगर बसाया,
ਗਯਉ ਦੁਖੁ ਦੂਰਿ ਬਰਖਨ ਕੋ ਸੁ ਗੁਰੂ ਮੁਖੁ ਦੇਖਿ ਗਰੂ ਸੁਖੁ ਪਾਯਉ ॥੬॥੧੦॥
गयउ दुखु दूरि बरखन को सु गुरू मुखु देखि गरू सुखु पायउ ॥६॥१०॥
उस गुरु के दर्शनों से गुरु रामदास जी को बहुत सुख प्राप्त हुआ और उनके वर्षों के दुख दूर हो गए॥६॥१०॥
ਸਮਰਥ ਗੁਰੂ ਸਿਰਿ ਹਥੁ ਧਰੵਉ ॥
समरथ गुरू सिरि हथु धर्यउ ॥
समर्थ गुरु अमरदास ने गुरु रामदास के सिर पर हाथ रखा (अर्थात् आशीष देकर उन्हें शिष्य बना लिया),
ਗੁਰਿ ਕੀਨੀ ਕ੍ਰਿਪਾ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਦੀਅਉ ਜਿਸੁ ਦੇਖਿ ਚਰੰਨ ਅਘੰਨ ਹਰੵਉ ॥
गुरि कीनी क्रिपा हरि नामु दीअउ जिसु देखि चरंन अघंन हर्यउ ॥
उस गुरु ने कृपा करके उनको हरिनाम प्रदान किया, जिस दया की मूर्ति सतिगुरु अमरदास के चरण दर्शन से पाप दूर हो जाते हैं।
ਨਿਸਿ ਬਾਸੁਰ ਏਕ ਸਮਾਨ ਧਿਆਨ ਸੁ ਨਾਮ ਸੁਨੇ ਸੁਤੁ ਭਾਨ ਡਰੵਉ ॥
निसि बासुर एक समान धिआन सु नाम सुने सुतु भान डर्यउ ॥
फिर वे दिन-रात हरि के ध्यान में लीन रहने लगे, उस हरिनाम को सुनकर तो सूर्य-पुत्र यमराज भी डरता हुआ पास नहीं फटकता।
ਭਨਿ ਦਾਸ ਸੁ ਆਸ ਜਗਤ੍ਰ ਗੁਰੂ ਕੀ ਪਾਰਸੁ ਭੇਟਿ ਪਰਸੁ ਕਰੵਉ ॥
भनि दास सु आस जगत्र गुरू की पारसु भेटि परसु कर्यउ ॥
दास नल्ह का कथन है कि उनको जगद्गुरु की ही आशा थी, पारस समान महान् पुरुष गुरु अमरदास को मिलकर वे भी पारस की तरह महान् हो गए।
ਰਾਮਦਾਸੁ ਗੁਰੂ ਹਰਿ ਸਤਿ ਕੀਯਉ ਸਮਰਥ ਗੁਰੂ ਸਿਰਿ ਹਥੁ ਧਰੵਉ ॥੭॥੧੧॥
रामदासु गुरू हरि सति कीयउ समरथ गुरू सिरि हथु धर्यउ ॥७॥११॥
गुरु रामदास जी को ईश्वर ने अटल बना दिया, समर्थ गुरु अमरदास ने उनके सिर पर हाथ धर दिया था ॥७ ॥११॥
ਅਬ ਰਾਖਹੁ ਦਾਸ ਭਾਟ ਕੀ ਲਾਜ ॥
अब राखहु दास भाट की लाज ॥
हे पूर्णगुरु ! अब दास नल्ह भाट की इसी तरह लाज बचा लो,
ਜੈਸੀ ਰਾਖੀ ਲਾਜ ਭਗਤ ਪ੍ਰਹਿਲਾਦ ਕੀ ਹਰਨਾਖਸ ਫਾਰੇ ਕਰ ਆਜ ॥
जैसी राखी लाज भगत प्रहिलाद की हरनाखस फारे कर आज ॥
जैसे भक्त प्रहलाद की लाज बचाई थी और दुष्ट हिरण्यकशिपु को नाखुनों से फाड़ दिया था।
ਫੁਨਿ ਦ੍ਰੋਪਤੀ ਲਾਜ ਰਖੀ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭ ਜੀ ਛੀਨਤ ਬਸਤ੍ਰ ਦੀਨ ਬਹੁ ਸਾਜ ॥
फुनि द्रोपती लाज रखी हरि प्रभ जी छीनत बसत्र दीन बहु साज ॥
हे प्रभु ! पुनः तुमने द्रोपदी की लाज बचाई, उसके वस्त्र छीने जा रहे थे तो उसे बहुत सारे वस्त्र प्रदान कर दिए।
ਸੋਦਾਮਾ ਅਪਦਾ ਤੇ ਰਾਖਿਆ ਗਨਿਕਾ ਪੜ੍ਹਤ ਪੂਰੇ ਤਿਹ ਕਾਜ ॥
सोदामा अपदा ते राखिआ गनिका पड़्हत पूरे तिह काज ॥
सुदामा को मुश्किलों से बचाया और राम-नाम पढ़ते गणिका का भी जीवन सफल हो गया।
ਸ੍ਰੀ ਸਤਿਗੁਰ ਸੁਪ੍ਰਸੰਨ ਕਲਜੁਗ ਹੋਇ ਰਾਖਹੁ ਦਾਸ ਭਾਟ ਕੀ ਲਾਜ ॥੮॥੧੨॥
स्री सतिगुर सुप्रसंन कलजुग होइ राखहु दास भाट की लाज ॥८॥१२॥
हे श्री सतिगुरु ! अब इस कलियुग में सुप्रसन्न होकर दास नल्ह भाट की भी लाज बचा लो॥८॥१२॥
ਝੋਲਨਾ ॥
झोलना ॥
झोलना ॥
ਗੁਰੂ ਗੁਰੁ ਗੁਰੂ ਗੁਰੁ ਗੁਰੂ ਜਪੁ ਪ੍ਰਾਨੀਅਹੁ ॥
गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु प्रानीअहु ॥
हे प्राणियो, सर्वदा ‘गुरु-गुरु-गुरु’ जपते रहो,
ਸਬਦੁ ਹਰਿ ਹਰਿ ਜਪੈ ਨਾਮੁ ਨਵ ਨਿਧਿ ਅਪੈ ਰਸਨਿ ਅਹਿਨਿਸਿ ਰਸੈ ਸਤਿ ਕਰਿ ਜਾਨੀਅਹੁ ॥
सबदु हरि हरि जपै नामु नव निधि अपै रसनि अहिनिसि रसै सति करि जानीअहु ॥
वह भी हरिनाम ही जपता है, वह अपने शिष्यों-जिज्ञासुओं को सुखों का भण्डार नाम ही देता है और अपनी जिव्हा से दिन-रात हरिनाम कीर्तन करता है, इस सत्य को मान लो।
ਫੁਨਿ ਪ੍ਰੇਮ ਰੰਗ ਪਾਈਐ ਗੁਰਮੁਖਹਿ ਧਿਆਈਐ ਅੰਨ ਮਾਰਗ ਤਜਹੁ ਭਜਹੁ ਹਰਿ ਗੵਾਨੀਅਹੁ ॥
फुनि प्रेम रंग पाईऐ गुरमुखहि धिआईऐ अंन मारग तजहु भजहु हरि ग्यानीअहु ॥
जो गुरु से उपदेश पाकर ध्यान करता है, वही प्रेम-रंग प्राप्त करता है। हे ज्ञानियो ! कोई अन्य रास्ता छोड़कर परमात्मा का भजन करते रहो।
ਬਚਨ ਗੁਰ ਰਿਦਿ ਧਰਹੁ ਪੰਚ ਭੂ ਬਸਿ ਕਰਹੁ ਜਨਮੁ ਕੁਲ ਉਧਰਹੁ ਦ੍ਵਾਰਿ ਹਰਿ ਮਾਨੀਅਹੁ ॥
बचन गुर रिदि धरहु पंच भू बसि करहु जनमु कुल उधरहु द्वारि हरि मानीअहु ॥
गुरु का वचन हृदय में धारण करने से पाँच विकार वश में आ जाते हैं, जन्म सफल हो जाता है एवं पूरी कुल का उद्धार हो जाता है और प्रभु के द्वार पर सम्मान प्राप्त होता है।
ਜਉ ਤ ਸਭ ਸੁਖ ਇਤ ਉਤ ਤੁਮ ਬੰਛਵਹੁ ਗੁਰੂ ਗੁਰੁ ਗੁਰੂ ਗੁਰੁ ਗੁਰੂ ਜਪੁ ਪ੍ਰਾਨੀਅਹੁ ॥੧॥੧੩॥
जउ त सभ सुख इत उत तुम बंछवहु गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु प्रानीअहु ॥१॥१३॥
हे प्राणियो, यदि लोक-परलोक में तुम सर्व सुख पाना चाहते हो तो ‘गुरु-गुरु-गुरु’ जपते रहो ॥१॥१३॥
ਗੁਰੂ ਗੁਰੁ ਗੁਰੂ ਗੁਰੁ ਗੁਰੂ ਜਪਿ ਸਤਿ ਕਰਿ ॥
गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपि सति करि ॥
गुरु को सत्य मानकर हरदम उसी का जाप करो और गुरु-गुरु जपते रहना।
ਅਗਮ ਗੁਨ ਜਾਨੁ ਨਿਧਾਨੁ ਹਰਿ ਮਨਿ ਧਰਹੁ ਧੵਾਨੁ ਅਹਿਨਿਸਿ ਕਰਹੁ ਬਚਨ ਗੁਰ ਰਿਦੈ ਧਰਿ ॥
अगम गुन जानु निधानु हरि मनि धरहु ध्यानु अहिनिसि करहु बचन गुर रिदै धरि ॥
बेअंत गुणों को जानकर सुखनिधान हरि को मन में धारण करो, दिन-रात गुरु के वचन को हृदय में धारण करो।
ਫੁਨਿ ਗੁਰੂ ਜਲ ਬਿਮਲ ਅਥਾਹ ਮਜਨੁ ਕਰਹੁ ਸੰਤ ਗੁਰਸਿਖ ਤਰਹੁ ਨਾਮ ਸਚ ਰੰਗ ਸਰਿ ॥
फुनि गुरू जल बिमल अथाह मजनु करहु संत गुरसिख तरहु नाम सच रंग सरि ॥
पुनः गुरु रूपी अथाह निर्मल जल सागर में स्नान करो, हे संतो, गुरु के शिष्यो ! सच्चे नाम के सरोवर में तैरते रहना।
ਸਦਾ ਨਿਰਵੈਰੁ ਨਿਰੰਕਾਰੁ ਨਿਰਭਉ ਜਪੈ ਪ੍ਰੇਮ ਗੁਰ ਸਬਦ ਰਸਿ ਕਰਤ ਦ੍ਰਿੜੁ ਭਗਤਿ ਹਰਿ ॥
सदा निरवैरु निरंकारु निरभउ जपै प्रेम गुर सबद रसि करत द्रिड़ु भगति हरि ॥
जो गुरु (रामदास) सदैव निर्वेर, निराकार, निर्भय परमात्मा का जाप करता है, वह शब्द-गुरु के प्रेम एवं रस में हरिभक्ति ही दृढ़ करवाता है।
ਮੁਗਧ ਮਨ ਭ੍ਰਮੁ ਤਜਹੁ ਨਾਮੁ ਗੁਰਮੁਖਿ ਭਜਹੁ ਗੁਰੂ ਗੁਰੁ ਗੁਰੂ ਗੁਰੁ ਗੁਰੂ ਜਪੁ ਸਤਿ ਕਰਿ ॥੨॥੧੪॥
मुगध मन भ्रमु तजहु नामु गुरमुखि भजहु गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु सति करि ॥२॥१४॥
हे मूर्ख मन ! भ्रम छोड़कर गुरु-परमेश्वर का भजन करो, गुरु को सत्य मानते हुए उसका जाप करो, गुरु-गुरु रटते रहो ॥२ ॥१४ ॥