ਤਾਸੁ ਪਟੰਤਰ ਨਾ ਪੁਜੈ ਹਰਿ ਜਨ ਕੀ ਪਨਿਹਾਰਿ ॥੧੫੯॥
तासु पटंतर ना पुजै हरि जन की पनिहारि ॥१५९॥
उस स्त्री की बराबरी नहीं कर सकती, जो प्रभु-भक्तों की सेविका है।॥१५६॥
ਕਬੀਰ ਨ੍ਰਿਪ ਨਾਰੀ ਕਿਉ ਨਿੰਦੀਐ ਕਿਉ ਹਰਿ ਚੇਰੀ ਕਉ ਮਾਨੁ ॥
कबीर न्रिप नारी किउ निंदीऐ किउ हरि चेरी कउ मानु ॥
कबीर जी जनमानस को बताते हैं कि किसी बड़े राजा की रानी की क्यों निन्दा की जाए और संत-महात्मा की दासी को क्यों सम्मान दिया जाता है।
ਓਹ ਮਾਂਗ ਸਵਾਰੈ ਬਿਖੈ ਕਉ ਓਹ ਸਿਮਰੈ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ॥੧੬੦॥
ओह मांग सवारै बिखै कउ ओह सिमरै हरि नामु ॥१६०॥
इसका कारण यह है कि राजा की रानी अपनी काम पूर्ति के लिए अपनी मांग को सिंदूर से संवारती है और दासी परमात्मा का भजन करती रहती है॥१६० ॥
ਕਬੀਰ ਥੂਨੀ ਪਾਈ ਥਿਤਿ ਭਈ ਸਤਿਗੁਰ ਬੰਧੀ ਧੀਰ ॥
कबीर थूनी पाई थिति भई सतिगुर बंधी धीर ॥
हे कबीर ! शब्द-गुरु रूपी स्तंभ मिला तो मन स्थिर हो गया और सतगुरु ने धैर्य व दृढ़ निश्चय प्रदान कर दिया।
ਕਬੀਰ ਹੀਰਾ ਬਨਜਿਆ ਮਾਨ ਸਰੋਵਰ ਤੀਰ ॥੧੬੧॥
कबीर हीरा बनजिआ मान सरोवर तीर ॥१६१॥
मैंने सत्संग रूपी मानसरोवर के किनारे हरिनाम रूपी हीरा खरीदा ॥
ਕਬੀਰ ਹਰਿ ਹੀਰਾ ਜਨ ਜਉਹਰੀ ਲੇ ਕੈ ਮਾਂਡੈ ਹਾਟ ॥
कबीर हरि हीरा जन जउहरी ले कै मांडै हाट ॥
हे कबीर ! हरिनाम रूपी हीरे के हरि-भक्त ही जौहरी हैं, जिसे लेकर वे मन रूपी दुकान पर सजा लेते हैं।
ਜਬ ਹੀ ਪਾਈਅਹਿ ਪਾਰਖੂ ਤਬ ਹੀਰਨ ਕੀ ਸਾਟ ॥੧੬੨॥
जब ही पाईअहि पारखू तब हीरन की साट ॥१६२॥
जब कोई अन्य पारखी (अर्थात् साधु-महात्मा) मिलता है तो ही इसकी परख अर्थात् ज्ञान चर्चा होती है॥१६२ ॥
ਕਬੀਰ ਕਾਮ ਪਰੇ ਹਰਿ ਸਿਮਰੀਐ ਐਸਾ ਸਿਮਰਹੁ ਨਿਤ ॥
कबीर काम परे हरि सिमरीऐ ऐसा सिमरहु नित ॥
कबीर जी उपदेश देते हैं कि काम पड़ने पर हम तत्क्षण परमात्मा को याद करते हैं, भलाई तो इसी में है कि उसे रोज़ याद करना चाहिए।
ਅਮਰਾ ਪੁਰ ਬਾਸਾ ਕਰਹੁ ਹਰਿ ਗਇਆ ਬਹੋਰੈ ਬਿਤ ॥੧੬੩॥
अमरा पुर बासा करहु हरि गइआ बहोरै बित ॥१६३॥
तब स्वर्ग में निवास करने का सुवअसर भी प्राप्त होगा और परमात्मा रूपी धन भी मिल जाएगा ॥१६३ ॥
ਕਬੀਰ ਸੇਵਾ ਕਉ ਦੁਇ ਭਲੇ ਏਕੁ ਸੰਤੁ ਇਕੁ ਰਾਮੁ ॥
कबीर सेवा कउ दुइ भले एकु संतु इकु रामु ॥
कबीर जी उद्बोधन करते हैं कि सेवा के लिए दो ही भले हैं, एक संत और एक राम।
ਰਾਮੁ ਜੁ ਦਾਤਾ ਮੁਕਤਿ ਕੋ ਸੰਤੁ ਜਪਾਵੈ ਨਾਮੁ ॥੧੬੪॥
रामु जु दाता मुकति को संतु जपावै नामु ॥१६४॥
क्योंकि राम मुक्ति देने वाला है और संत मुक्तिदाता का नाम जपवाता है।॥१६४ ॥
ਕਬੀਰ ਜਿਹ ਮਾਰਗਿ ਪੰਡਿਤ ਗਏ ਪਾਛੈ ਪਰੀ ਬਹੀਰ ॥
कबीर जिह मारगि पंडित गए पाछै परी बहीर ॥
हे कबीर ! जिस कर्मकाण्ड रूपी मार्ग पर पण्डित चले गए हैं, उनके पीछे पूरा समाज चल पड़ा है।
ਇਕ ਅਵਘਟ ਘਾਟੀ ਰਾਮ ਕੀ ਤਿਹ ਚੜਿ ਰਹਿਓ ਕਬੀਰ ॥੧੬੫॥
इक अवघट घाटी राम की तिह चड़ि रहिओ कबीर ॥१६५॥
प्रभु-मार्ग की घाटी बहुत कठिन है, जिस पर कबीर चढ़ रहा है॥१६५ ॥
ਕਬੀਰ ਦੁਨੀਆ ਕੇ ਦੋਖੇ ਮੂਆ ਚਾਲਤ ਕੁਲ ਕੀ ਕਾਨਿ ॥
कबीर दुनीआ के दोखे मूआ चालत कुल की कानि ॥
कबीर जी कहते हैं- व्यक्ति दुनिया के फिक्नों (परंपरा-रीति-रिवाज) में ही मर जाता है और अपनी कुल की रीति को अपनाता है कि यदि कुल की रीति मैंने न की तो लोग क्या कहेंगे ?
ਤਬ ਕੁਲੁ ਕਿਸ ਕਾ ਲਾਜਸੀ ਜਬ ਲੇ ਧਰਹਿ ਮਸਾਨਿ ॥੧੬੬॥
तब कुलु किस का लाजसी जब ले धरहि मसानि ॥१६६॥
कबीर जी कहते हैं कि हे मनुष्य ! जब तेरे संबंधी तुझे श्मशान घाट चिता में जला देंगे तो फिर भला कुल की लाज कौन बचाने वाला होगा ? ॥१६६॥
ਕਬੀਰ ਡੂਬਹਿਗੋ ਰੇ ਬਾਪੁਰੇ ਬਹੁ ਲੋਗਨ ਕੀ ਕਾਨਿ ॥
कबीर डूबहिगो रे बापुरे बहु लोगन की कानि ॥
कबीर जी कहते हैं कि अरे अभागे ! लोक-लाज में तू बेकार ही डूब जाएगा।
ਪਾਰੋਸੀ ਕੇ ਜੋ ਹੂਆ ਤੂ ਅਪਨੇ ਭੀ ਜਾਨੁ ॥੧੬੭॥
पारोसी के जो हूआ तू अपने भी जानु ॥१६७॥
जो पड़ोसी के साथ हुआ है, तू इस बात को मान ले कि तेरे साथ भी वही होना है (अर्थात् मौत निश्चय है) ॥१६७ ॥
ਕਬੀਰ ਭਲੀ ਮਧੂਕਰੀ ਨਾਨਾ ਬਿਧਿ ਕੋ ਨਾਜੁ ॥
कबीर भली मधूकरी नाना बिधि को नाजु ॥
कबीर जी समझाते हैं कि भिक्षा में मिली रोटी भली है, जिसमें कई प्रकार का अनाज होता है।
ਦਾਵਾ ਕਾਹੂ ਕੋ ਨਹੀ ਬਡਾ ਦੇਸੁ ਬਡ ਰਾਜੁ ॥੧੬੮॥
दावा काहू को नही बडा देसु बड राजु ॥१६८॥
भिखारी किसी जायदाद पर दावा नहीं करता, उसके लिए पूरा देश और बड़ा राज्य भी अपना ही प्रतीत होता है॥१६८ ॥
ਕਬੀਰ ਦਾਵੈ ਦਾਝਨੁ ਹੋਤੁ ਹੈ ਨਿਰਦਾਵੈ ਰਹੈ ਨਿਸੰਕ ॥
कबीर दावै दाझनु होतु है निरदावै रहै निसंक ॥
कबीर जी समझाते हैं कि (जमीन-जायदाद का) दावा करने से दुख-तकलीफ ही होती है और किसी चीज़ पर दावा न करने से सुख उपलब्ध होता है।
ਜੋ ਜਨੁ ਨਿਰਦਾਵੈ ਰਹੈ ਸੋ ਗਨੈ ਇੰਦ੍ਰ ਸੋ ਰੰਕ ॥੧੬੯॥
जो जनु निरदावै रहै सो गनै इंद्र सो रंक ॥१६९॥
जो व्यक्ति निःशंक रहता है, वह इन्द्र सरीखे राजा को भी कंगाल मानता है॥१६९ ॥
ਕਬੀਰ ਪਾਲਿ ਸਮੁਹਾ ਸਰਵਰੁ ਭਰਾ ਪੀ ਨ ਸਕੈ ਕੋਈ ਨੀਰੁ ॥
कबीर पालि समुहा सरवरु भरा पी न सकै कोई नीरु ॥
हे कबीर ! प्रभु नाम रूपी सरोवर किनारे तक भरा हुआ है, लेकिन कोई उस पानी को पी नहीं सकता।
ਭਾਗ ਬਡੇ ਤੈ ਪਾਇਓ ਤੂੰ ਭਰਿ ਭਰਿ ਪੀਉ ਕਬੀਰ ॥੧੭੦॥
भाग बडे तै पाइओ तूं भरि भरि पीउ कबीर ॥१७०॥
कबीर जी कहते हैं कि अहोभाग्य से इस नाम-जल को पा लिया है और जी भरकर पान कर रहा हूँ॥१७०॥
ਕਬੀਰ ਪਰਭਾਤੇ ਤਾਰੇ ਖਿਸਹਿ ਤਿਉ ਇਹੁ ਖਿਸੈ ਸਰੀਰੁ ॥
कबीर परभाते तारे खिसहि तिउ इहु खिसै सरीरु ॥
कबीर जी उपदेश देते हैं कि जैसे दिन चढ़ते ही आकाश के तारे लुप्त हो जाते हैं, वैसे ही बुढ़ापे के कारण यह शरीर समाप्त हो जाता है।
ਏ ਦੁਇ ਅਖਰ ਨਾ ਖਿਸਹਿ ਸੋ ਗਹਿ ਰਹਿਓ ਕਬੀਰੁ ॥੧੭੧॥
ए दुइ अखर ना खिसहि सो गहि रहिओ कबीरु ॥१७१॥
परन्तु ‘राम’ नाम के दो अक्षर कभी क्षीण नहीं होते, इसलिए कबीर ने उनको मन में बसा लिया है॥१७१॥
ਕਬੀਰ ਕੋਠੀ ਕਾਠ ਕੀ ਦਹ ਦਿਸਿ ਲਾਗੀ ਆਗਿ ॥
कबीर कोठी काठ की दह दिसि लागी आगि ॥
कबीर जी कहते हैं कि यह जगत् रूपी घर लकड़ी का है, इसकी दसों दिशाओं में मोह-माया की आग लगी हुई है।
ਪੰਡਿਤ ਪੰਡਿਤ ਜਲਿ ਮੂਏ ਮੂਰਖ ਉਬਰੇ ਭਾਗਿ ॥੧੭੨॥
पंडित पंडित जलि मूए मूरख उबरे भागि ॥१७२॥
अपने को पण्डित मानने वाले आत्माभिमानी इसी में जलकर मर रहे हैं परन्तु नासमझ कहे जाने वाले (नम्न-सुशील) इससे बचकर निकल गए हैं।॥१७२॥
ਕਬੀਰ ਸੰਸਾ ਦੂਰਿ ਕਰੁ ਕਾਗਦ ਦੇਹ ਬਿਹਾਇ ॥
कबीर संसा दूरि करु कागद देह बिहाइ ॥
कबीर जी उपदेश देते हैं कि मन का संशय दूर करो, धर्म ग्रंथों का पाठ छोड़ दो।
ਬਾਵਨ ਅਖਰ ਸੋਧਿ ਕੈ ਹਰਿ ਚਰਨੀ ਚਿਤੁ ਲਾਇ ॥੧੭੩॥
बावन अखर सोधि कै हरि चरनी चितु लाइ ॥१७३॥
बावन अक्षरों का सार मानकर परमात्मा के चरणों में मन लगाओ ॥ १७३॥
ਕਬੀਰ ਸੰਤੁ ਨ ਛਾਡੈ ਸੰਤਈ ਜਉ ਕੋਟਿਕ ਮਿਲਹਿ ਅਸੰਤ ॥
कबीर संतु न छाडै संतई जउ कोटिक मिलहि असंत ॥
कबीर जी उपदेश देते हैं कि बेशक करोड़ों ही दुष्ट-पापी मिल जाएँ परन्तु संत पुरुष अपना स्वभाव नहीं छोड़ता।
ਮਲਿਆਗਰੁ ਭੁਯੰਗਮ ਬੇਢਿਓ ਤ ਸੀਤਲਤਾ ਨ ਤਜੰਤ ॥੧੭੪॥
मलिआगरु भुयंगम बेढिओ त सीतलता न तजंत ॥१७४॥
जैसे चन्दन का पेड़ साँपों से लिपटा रहे परन्तु अपनी शीतलता नहौं छोड़ता ॥१७४ ॥
ਕਬੀਰ ਮਨੁ ਸੀਤਲੁ ਭਇਆ ਪਾਇਆ ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੁ ॥
कबीर मनु सीतलु भइआ पाइआ ब्रहम गिआनु ॥
हे कबीर ! ब्रह्म ज्ञान पा कर मन शीतल-शांत हो गया है।
ਜਿਨਿ ਜੁਆਲਾ ਜਗੁ ਜਾਰਿਆ ਸੁ ਜਨ ਕੇ ਉਦਕ ਸਮਾਨਿ ॥੧੭੫॥
जिनि जुआला जगु जारिआ सु जन के उदक समानि ॥१७५॥
जिस माया की ज्वाला ने पूरे जगत को जला दिया है, वह सेवक के लिए पानी समान ठण्डी हो गई है॥१७५ ॥
ਕਬੀਰ ਸਾਰੀ ਸਿਰਜਨਹਾਰ ਕੀ ਜਾਨੈ ਨਾਹੀ ਕੋਇ ॥
कबीर सारी सिरजनहार की जानै नाही कोइ ॥
हे कबीर ! उस सृजनहार की लीला को कोई नहीं जानता।
ਕੈ ਜਾਨੈ ਆਪਨ ਧਨੀ ਕੈ ਦਾਸੁ ਦੀਵਾਨੀ ਹੋਇ ॥੧੭੬॥
कै जानै आपन धनी कै दासु दीवानी होइ ॥१७६॥
या तो इसे स्वयं वह मालिक जानता है या उसके सान्निध्य में रहने वाला भक्त ही जान सकता है॥१७६ ॥
ਕਬੀਰ ਭਲੀ ਭਈ ਜੋ ਭਉ ਪਰਿਆ ਦਿਸਾ ਗਈਂ ਸਭ ਭੂਲਿ ॥
कबीर भली भई जो भउ परिआ दिसा गईं सभ भूलि ॥
हे कबीर ! यह बहुत अच्छा हुआ कि परमेश्वर का भय मन में पड़ गया, जिससे संसार की दिशा सब भूल गई है।