ਹਉ ਜੀਉ ਕਰੀ ਤਿਸ ਵਿਟਉ ਚਉ ਖੰਨੀਐ ਜੋ ਮੈ ਪਿਰੀ ਦਿਖਾਵਏ ॥
हउ जीउ करी तिस विटउ चउ खंनीऐ जो मै पिरी दिखावए ॥
मैं अपने प्राण भी उस पर न्यौछावर करने को तैयार हैं, जो मुझे प्रभु के दर्शन करा दे।
ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਹੋਇ ਦਇਆਲੁ ਤਾਂ ਗੁਰੁ ਪੂਰਾ ਮੇਲਾਵਏ ॥੫॥
नानक हरि होइ दइआलु तां गुरु पूरा मेलावए ॥५॥
गुरु नानक फुरमान करते हैं- जब परमात्मा दयालु होता है तो पूरे गुरु से मिला देता है॥ ५ ॥
ਅੰਤਰਿ ਜੋਰੁ ਹਉਮੈ ਤਨਿ ਮਾਇਆ ਕੂੜੀ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥
अंतरि जोरु हउमै तनि माइआ कूड़ी आवै जाइ ॥
हमारे मन में अभिमान का बल हैं, तन में झूठी माया ने घर किया हुआ है, इसी वजह से जन्म-मरण का चक्र चलता है।
ਸਤਿਗੁਰ ਕਾ ਫੁਰਮਾਇਆ ਮੰਨਿ ਨ ਸਕੀ ਦੁਤਰੁ ਤਰਿਆ ਨ ਜਾਇ ॥
सतिगुर का फुरमाइआ मंनि न सकी दुतरु तरिआ न जाइ ॥
गुरु का उपदेश हम लोग मानते नहीं, अतः कठिन भवसागर से तैर नहीं पाते।
ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਜਿਸੁ ਆਪਣੀ ਸੋ ਚਲੈ ਸਤਿਗੁਰ ਭਾਇ ॥
नदरि करे जिसु आपणी सो चलै सतिगुर भाइ ॥
जिस पर ईश्वर अपनी कृपा कर देता है, वहीं गुरु के निर्देशानुसार चलता है।
ਸਤਿਗੁਰ ਕਾ ਦਰਸਨੁ ਸਫਲੁ ਹੈ ਜੋ ਇਛੈ ਸੋ ਫਲੁ ਪਾਇ ॥
सतिगुर का दरसनु सफलु है जो इछै सो फलु पाइ ॥
गुरु का दर्शन फलप्रद-सफल है, जो कामना होती है, वहीं फल प्राप्त हो जाता है।
ਜਿਨੀ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮੰਨਿਆਂ ਹਉ ਤਿਨ ਕੇ ਲਾਗਉ ਪਾਇ ॥
जिनी सतिगुरु मंनिआं हउ तिन के लागउ पाइ ॥
जिन्होंने गुरु का वंदन एवं मनन किया है, मैं उनके पैरों में पड़ता हैं।
ਨਾਨਕੁ ਤਾ ਕਾ ਦਾਸੁ ਹੈ ਜਿ ਅਨਦਿਨੁ ਰਹੈ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥੬॥
नानकु ता का दासु है जि अनदिनु रहै लिव लाइ ॥६॥
गुरु नानक फुरमाते हैं- हमें उनकी दासता कबूल है, जो दिन-रात प्रभु-ध्यान में लीन रहते हैं ॥६॥
ਜਿਨਾ ਪਿਰੀ ਪਿਆਰੁ ਬਿਨੁ ਦਰਸਨ ਕਿਉ ਤ੍ਰਿਪਤੀਐ ॥
जिना पिरी पिआरु बिनु दरसन किउ त्रिपतीऐ ॥
जिनका ईश्वर से प्रेम है, वे भला दर्शन बिना कैसे तृप्त हो सकते हैं।
ਨਾਨਕ ਮਿਲੇ ਸੁਭਾਇ ਗੁਰਮੁਖਿ ਇਹੁ ਮਨੁ ਰਹਸੀਐ ॥੭॥
नानक मिले सुभाइ गुरमुखि इहु मनु रहसीऐ ॥७॥
हे नानक ! गुरु के द्वारा वे सहज स्वाभाविक प्रभु से मिल जाते हैं और उनका मन प्रसन्न हो जाता है॥ ७ ॥
ਜਿਨਾ ਪਿਰੀ ਪਿਆਰੁ ਕਿਉ ਜੀਵਨਿ ਪਿਰ ਬਾਹਰੇ ॥
जिना पिरी पिआरु किउ जीवनि पिर बाहरे ॥
जिनका परमेश्वर से प्रेम लगा हुआ है, वे उसके बिना भला कैसे जी सकते हैं।
ਜਾਂ ਸਹੁ ਦੇਖਨਿ ਆਪਣਾ ਨਾਨਕ ਥੀਵਨਿ ਭੀ ਹਰੇ ॥੮॥
जां सहु देखनि आपणा नानक थीवनि भी हरे ॥८॥
हे नानक ! जब वे अपने प्रभु के दर्शन करते हैं तो उनका मन खिल उठता है ॥८॥
ਜਿਨਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਅੰਦਰਿ ਨੇਹੁ ਤੈ ਪ੍ਰੀਤਮ ਸਚੈ ਲਾਇਆ ॥
जिना गुरमुखि अंदरि नेहु तै प्रीतम सचै लाइआ ॥
हे सच्चे प्रभु ! जिन गुरमुख जिज्ञासुओं के दिल में तूने अपना प्रेम लगाया है।
ਰਾਤੀ ਅਤੈ ਡੇਹੁ ਨਾਨਕ ਪ੍ਰੇਮਿ ਸਮਾਇਆ ॥੯॥
राती अतै डेहु नानक प्रेमि समाइआ ॥९॥
गुरु नानक का कथन है कि वे दिन-रात प्रेम-भक्ति में लीन रहते हैं ॥६॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਚੀ ਆਸਕੀ ਜਿਤੁ ਪ੍ਰੀਤਮੁ ਸਚਾ ਪਾਈਐ ॥
गुरमुखि सची आसकी जितु प्रीतमु सचा पाईऐ ॥
गुरुमुखों के दिल में सच्ची आशिकी लगी हुई है, जिस कारण वे प्रियतम प्रभु को पा लेते हैं।
ਅਨਦਿਨੁ ਰਹਹਿ ਅਨੰਦਿ ਨਾਨਕ ਸਹਜਿ ਸਮਾਈਐ ॥੧੦॥
अनदिनु रहहि अनंदि नानक सहजि समाईऐ ॥१०॥
गुरु नानक फुरमाते हैं कि फिर वे दिन-रात आनंदमय रहते हैं, सहज-सुख में समाहित हो जाते हैं ॥१०॥
ਸਚਾ ਪ੍ਰੇਮ ਪਿਆਰੁ ਗੁਰ ਪੂਰੇ ਤੇ ਪਾਈਐ ॥
सचा प्रेम पिआरु गुर पूरे ते पाईऐ ॥
सच्चा प्रेम भी पूरे गुरु से ही प्राप्त होता है।
ਕਬਹੂ ਨ ਹੋਵੈ ਭੰਗੁ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਈਐ ॥੧੧॥
कबहू न होवै भंगु नानक हरि गुण गाईऐ ॥११॥
हे नानक ! ऐसा प्रेम कभी नहीं टूटता और हरदम ईश्वर का गुणगान होता रहता है। ॥११ ॥
ਜਿਨੑਾ ਅੰਦਰਿ ਸਚਾ ਨੇਹੁ ਕਿਉ ਜੀਵਨੑਿ ਪਿਰੀ ਵਿਹੂਣਿਆ ॥
जिन्हा अंदरि सचा नेहु किउ जीवन्हि पिरी विहूणिआ ॥
जिनके दिल में सच्चा प्रेम लग गया है, वे प्रभु से विहीन रहकर कैसे जी सकते हैं।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਮੇਲੇ ਆਪਿ ਨਾਨਕ ਚਿਰੀ ਵਿਛੁੰਨਿਆ ॥੧੨॥
गुरमुखि मेले आपि नानक चिरी विछुंनिआ ॥१२॥
गुरु नानक कथन करते हैं कि चिरकाल से बिछुड़े हुओं का मिलन गुरु से ही होता है ॥ १२ ॥
ਜਿਨ ਕਉ ਪ੍ਰੇਮ ਪਿਆਰੁ ਤਉ ਆਪੇ ਲਾਇਆ ਕਰਮੁ ਕਰਿ ॥
जिन कउ प्रेम पिआरु तउ आपे लाइआ करमु करि ॥
हे प्रभु ! जिन भक्तों को तेरे साथ प्रेम है, वह भी तूने ही कृपा करके लगाया है।
ਨਾਨਕ ਲੇਹੁ ਮਿਲਾਇ ਮੈ ਜਾਚਿਕ ਦੀਜੈ ਨਾਮੁ ਹਰਿ ॥੧੩॥
नानक लेहु मिलाइ मै जाचिक दीजै नामु हरि ॥१३॥
नानक की विनती है कि मुझ सरीखे याचक को भी हरिनाम देकर अपने चरणों में मिला लो ॥१३ ॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਸੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਰੋਵੈ ॥
गुरमुखि हसै गुरमुखि रोवै ॥
गुरुमुख (भक्ति के आनंद में) हँसता है और (प्रभु-वियोग के कारण) रोता है।
ਜਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਕਰੇ ਸਾਈ ਭਗਤਿ ਹੋਵੈ ॥
जि गुरमुखि करे साई भगति होवै ॥
जो गुरुमुख करता है, वहीं भक्ति होती है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਵੈ ਸੁ ਕਰੇ ਵੀਚਾਰੁ ॥
गुरमुखि होवै सु करे वीचारु ॥
जो गुरुमुख हो जाता है, वह सत्य का चिंतन करता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਨਕ ਪਾਵੈ ਪਾਰੁ ॥੧੪॥
गुरमुखि नानक पावै पारु ॥१४॥
गुरु नानक फुरमाते हैं कि गुरुमुख ही संसार-समुद्र से पार उतरता है ॥ १४ ॥
ਜਿਨਾ ਅੰਦਰਿ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਹੈ ਗੁਰਬਾਣੀ ਵੀਚਾਰਿ ॥
जिना अंदरि नामु निधानु है गुरबाणी वीचारि ॥
जिनके दिल में सुखनिधान हरिनाम है, जो गुरु की वाणी जपते हैं।
ਤਿਨ ਕੇ ਮੁਖ ਸਦ ਉਜਲੇ ਤਿਤੁ ਸਚੈ ਦਰਬਾਰਿ ॥
तिन के मुख सद उजले तितु सचै दरबारि ॥
उन्हीं के मुख सच्चे दरबार में उज्ज्वल होते हैं।
ਤਿਨ ਬਹਦਿਆ ਉਠਦਿਆ ਕਦੇ ਨ ਵਿਸਰੈ ਜਿ ਆਪਿ ਬਖਸੇ ਕਰਤਾਰਿ ॥
तिन बहदिआ उठदिआ कदे न विसरै जि आपि बखसे करतारि ॥
उठते-बैठते उनको कभी परमात्मा नहीं भूलता, दरअसल कर्तार इनको स्वयं ही बख्श देता है।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਮਿਲੇ ਨ ਵਿਛੁੜਹਿ ਜਿ ਮੇਲੇ ਸਿਰਜਣਹਾਰਿ ॥੧੫॥
नानक गुरमुखि मिले न विछुड़हि जि मेले सिरजणहारि ॥१५॥
गुरु नानक फुरमान करते हैं कि जिसे सृष्टा अपने चरणों में मिला लेता है, वह गुरुमुख मिलकर उससे जुदा नहीं होता ॥१५ ॥
ਗੁਰ ਪੀਰਾਂ ਕੀ ਚਾਕਰੀ ਮਹਾਂ ਕਰੜੀ ਸੁਖ ਸਾਰੁ ॥
गुर पीरां की चाकरी महां करड़ी सुख सारु ॥
गुरु एवं पीरों की सेवा बहुत कठिन है, लेकिन यही सुखदायक है।
ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਜਿਸੁ ਆਪਣੀ ਤਿਸੁ ਲਾਏ ਹੇਤ ਪਿਆਰੁ ॥
नदरि करे जिसु आपणी तिसु लाए हेत पिआरु ॥
जिस पर प्रभु अपनी कृपा करता है, उसे सेवा-प्रेम लगा देता है।
ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਸੇਵੈ ਲਗਿਆ ਭਉਜਲੁ ਤਰੈ ਸੰਸਾਰੁ ॥
सतिगुर की सेवै लगिआ भउजलु तरै संसारु ॥
गुरु की सेवा में तल्लीन होने से प्राणी संसार-समुद्र से तिर जाता है।
ਮਨ ਚਿੰਦਿਆ ਫਲੁ ਪਾਇਸੀ ਅੰਤਰਿ ਬਿਬੇਕ ਬੀਚਾਰੁ ॥
मन चिंदिआ फलु पाइसी अंतरि बिबेक बीचारु ॥
सेवा से दिल में विवेक एवं ज्ञान अवस्थित होता है और मनवांछित फल की प्राप्ति होती है।
ਨਾਨਕ ਸਤਿਗੁਰਿ ਮਿਲਿਐ ਪ੍ਰਭੁ ਪਾਈਐ ਸਭੁ ਦੂਖ ਨਿਵਾਰਣਹਾਰੁ ॥੧੬॥
नानक सतिगुरि मिलिऐ प्रभु पाईऐ सभु दूख निवारणहारु ॥१६॥
गुरु नानक फरमान करते हैं, जब सच्चा गुरु मिल जाता है तो प्रभु भी प्राप्त हो जाता है, जो सब दुखों का निवारण करने वाला है ॥१६॥
ਮਨਮੁਖ ਸੇਵਾ ਜੋ ਕਰੇ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਚਿਤੁ ਲਾਇ ॥
मनमुख सेवा जो करे दूजै भाइ चितु लाइ ॥
स्वेच्छाचारी द्वैतभाव में वृत्ति लगाकर सेवा करता है,
ਪੁਤੁ ਕਲਤੁ ਕੁਟੰਬੁ ਹੈ ਮਾਇਆ ਮੋਹੁ ਵਧਾਇ ॥
पुतु कलतु कुट्मबु है माइआ मोहु वधाइ ॥
उसका पुत्र-पत्नी इत्यादि परिवार से माया-मोह बढ़ जाता है।
ਦਰਗਹਿ ਲੇਖਾ ਮੰਗੀਐ ਕੋਈ ਅੰਤਿ ਨ ਸਕੀ ਛਡਾਇ ॥
दरगहि लेखा मंगीऐ कोई अंति न सकी छडाइ ॥
जब प्रभु-दरबार में कर्मों का हिसाब मांगा जाता है तो उसे कोई भी बचा नहीं पाता।