ਭਣਤਿ ਨਾਨਕੁ ਜਨੋ ਰਵੈ ਜੇ ਹਰਿ ਮਨੋ ਮਨ ਪਵਨ ਸਿਉ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਜੈ ॥
भणति नानकु जनो रवै जे हरि मनो मन पवन सिउ अम्रितु पीजै ॥
नानक विनय करते हैं कि हे भक्तजनो, एकाग्रचित होकर प्रभु का सिमरन करो और हरिनामामृत का पान करना।
ਮੀਨ ਕੀ ਚਪਲ ਸਿਉ ਜੁਗਤਿ ਮਨੁ ਰਾਖੀਐ ਉਡੈ ਨਹ ਹੰਸੁ ਨਹ ਕੰਧੁ ਛੀਜੈ ॥੩॥੯॥
मीन की चपल सिउ जुगति मनु राखीऐ उडै नह हंसु नह कंधु छीजै ॥३॥९॥
इस प्रकार चंचल मछली सरीखी ऐसी युक्ति से मन को नियंत्रण में किया जाए तो आत्मा भटकती नहीं और न ही शरीर रूपी दीवार ध्वरत होती है।३॥ ६॥
ਮਾਰੂ ਮਹਲਾ ੧ ॥
मारू महला १ ॥
मारू महला १॥
ਮਾਇਆ ਮੁਈ ਨ ਮਨੁ ਮੁਆ ਸਰੁ ਲਹਰੀ ਮੈ ਮਤੁ ॥
माइआ मुई न मनु मुआ सरु लहरी मै मतु ॥
न माया का लोभ समाप्त हुआ, न मन की लालसा का अन्त हुआ। हृदय रूपी सरोवर माया-मोह रूपी जल-तरंगों से भरपूर रहता है और यह मन माया के मोह रूपी नशे में मस्त बना रहता है।
ਬੋਹਿਥੁ ਜਲ ਸਿਰਿ ਤਰਿ ਟਿਕੈ ਸਾਚਾ ਵਖਰੁ ਜਿਤੁ ॥
बोहिथु जल सिरि तरि टिकै साचा वखरु जितु ॥
जिस चित में सत्य-नाम रूपी सौदा भरा हुआ है, वह चित्त रूपी जहाज हृदय रूपी सरोवर के जल में पहुँच कर प्रभु-चरणों में टिक जाता है।
ਮਾਣਕੁ ਮਨ ਮਹਿ ਮਨੁ ਮਾਰਸੀ ਸਚਿ ਨ ਲਾਗੈ ਕਤੁ ॥
माणकु मन महि मनु मारसी सचि न लागै कतु ॥
जिस मन में नाम रूपी माणिक्य होता है, वह मन को वशीभूत कर लेता है, परन्तु सत्य में लीन पावन मन को कोई दोष नहीं लगता।
ਰਾਜਾ ਤਖਤਿ ਟਿਕੈ ਗੁਣੀ ਭੈ ਪੰਚਾਇਣ ਰਤੁ ॥੧॥
राजा तखति टिकै गुणी भै पंचाइण रतु ॥१॥
शुभ गुणों वाला मन रूपी राजा स्थिर होकर सिंहासन पर विराजमान हो जाता है और सत्य के भय में तल्लीन रहता है।॥ १॥
ਬਾਬਾ ਸਾਚਾ ਸਾਹਿਬੁ ਦੂਰਿ ਨ ਦੇਖੁ ॥
बाबा साचा साहिबु दूरि न देखु ॥
हे बाबा ! सच्चे परमेश्वर को दूर मत समझो;
ਸਰਬ ਜੋਤਿ ਜਗਜੀਵਨਾ ਸਿਰਿ ਸਿਰਿ ਸਾਚਾ ਲੇਖੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
सरब जोति जगजीवना सिरि सिरि साचा लेखु ॥१॥ रहाउ ॥
चूंकि सब जीवों में जग के जीवन ईश्वर की ही ज्योति विद्यमान है और सबके माथे पर तक़दीर का सच्चा आलेख लिख दिया है॥ १॥ रहाउ॥
ਬ੍ਰਹਮਾ ਬਿਸਨੁ ਰਿਖੀ ਮੁਨੀ ਸੰਕਰੁ ਇੰਦੁ ਤਪੈ ਭੇਖਾਰੀ ॥
ब्रहमा बिसनु रिखी मुनी संकरु इंदु तपै भेखारी ॥
ब्रह्मा, विष्णु, ऋषि-मुनि, शिवशंकर, देवराज इन्द्र, तपस्वी एवं फकीर-“
ਮਾਨੈ ਹੁਕਮੁ ਸੋਹੈ ਦਰਿ ਸਾਚੈ ਆਕੀ ਮਰਹਿ ਅਫਾਰੀ ॥
मानै हुकमु सोहै दरि साचै आकी मरहि अफारी ॥
जो भी परमात्मा के हुक्म का पालन करता है, वही सच्चे दरबार में शोभा का पात्र बनता है किन्तु घमण्डी विमुख जीव आवागमन में पड़े रहते हैं।
ਜੰਗਮ ਜੋਧ ਜਤੀ ਸੰਨਿਆਸੀ ਗੁਰਿ ਪੂਰੈ ਵੀਚਾਰੀ ॥
जंगम जोध जती संनिआसी गुरि पूरै वीचारी ॥
पूर्ण गुरु ने यही विचार किया है कि जंगम साधु, योद्धा, ब्रह्मचारी, संन्यासी इत्यादि
ਬਿਨੁ ਸੇਵਾ ਫਲੁ ਕਬਹੁ ਨ ਪਾਵਸਿ ਸੇਵਾ ਕਰਣੀ ਸਾਰੀ ॥੨॥
बिनु सेवा फलु कबहु न पावसि सेवा करणी सारी ॥२॥
कोई भी सेवा बिना कभी फल प्राप्त नहीं करता, इसलिए सेवा ही उत्तम कर्म है॥ २॥
ਨਿਧਨਿਆ ਧਨੁ ਨਿਗੁਰਿਆ ਗੁਰੁ ਨਿੰਮਾਣਿਆ ਤੂ ਮਾਣੁ ॥
निधनिआ धनु निगुरिआ गुरु निमाणिआ तू माणु ॥
हे ईश्वर ! तू ही निर्धनों का धन, निगुरों का गुरु एवं मानहीनों का मान है।
ਅੰਧੁਲੈ ਮਾਣਕੁ ਗੁਰੁ ਪਕੜਿਆ ਨਿਤਾਣਿਆ ਤੂ ਤਾਣੁ ॥
अंधुलै माणकु गुरु पकड़िआ निताणिआ तू ताणु ॥
तू ही बलहीनों का बल है, मुझ अन्धे (ज्ञानहीन) ने माणिक्य रूपी गुरु का आँचल पकड़ लिया है।
ਹੋਮ ਜਪਾ ਨਹੀ ਜਾਣਿਆ ਗੁਰਮਤੀ ਸਾਚੁ ਪਛਾਣੁ ॥
होम जपा नही जाणिआ गुरमती साचु पछाणु ॥
मैंने होम, जप-तप को समझा ही नहीं परन्तु गुरु मतानुसार सत्य को पहचान लिया है।
ਨਾਮ ਬਿਨਾ ਨਾਹੀ ਦਰਿ ਢੋਈ ਝੂਠਾ ਆਵਣ ਜਾਣੁ ॥੩॥
नाम बिना नाही दरि ढोई झूठा आवण जाणु ॥३॥
परमात्मा के नाम बिना किसी को भी उसके द्वार पर सहारा नहीं मिलता, झूठा आदमी कंपल जन्म-मरण में ही पड़ा रहता है।३॥
ਸਾਚਾ ਨਾਮੁ ਸਲਾਹੀਐ ਸਾਚੇ ਤੇ ਤ੍ਰਿਪਤਿ ਹੋਇ ॥
साचा नामु सलाहीऐ साचे ते त्रिपति होइ ॥
सच्चे नाम की प्रशंसा करो, चूंकेि सत्य से ही मन की तृप्ति होती है।
ਗਿਆਨ ਰਤਨਿ ਮਨੁ ਮਾਜੀਐ ਬਹੁੜਿ ਨ ਮੈਲਾ ਹੋਇ ॥
गिआन रतनि मनु माजीऐ बहुड़ि न मैला होइ ॥
ज्ञान-रत्न से मन को स्वच्छ करने से वह दोबारा मलिन नहीं होता।
ਜਬ ਲਗੁ ਸਾਹਿਬੁ ਮਨਿ ਵਸੈ ਤਬ ਲਗੁ ਬਿਘਨੁ ਨ ਹੋਇ ॥
जब लगु साहिबु मनि वसै तब लगु बिघनु न होइ ॥
जब तक मन में भगवान बसता रहता है, तब तक कोई विघ्न उत्पन्न नहीं होता।
ਨਾਨਕ ਸਿਰੁ ਦੇ ਛੁਟੀਐ ਮਨਿ ਤਨਿ ਸਾਚਾ ਸੋਇ ॥੪॥੧੦॥
नानक सिरु दे छुटीऐ मनि तनि साचा सोइ ॥४॥१०॥
हे नानक ! जिसके मन-तन में सत्य ही बसा हुआ है, वह सबकुछ न्यौछावर करके मोक्ष हासिल कर लेता है॥ ४॥ १०॥
ਮਾਰੂ ਮਹਲਾ ੧ ॥
मारू महला १ ॥
मारू महला १॥
ਜੋਗੀ ਜੁਗਤਿ ਨਾਮੁ ਨਿਰਮਾਇਲੁ ਤਾ ਕੈ ਮੈਲੁ ਨ ਰਾਤੀ ॥
जोगी जुगति नामु निरमाइलु ता कै मैलु न राती ॥
जिस योगी की योग-युक्ति परमात्मा का निर्मल नाम है, उसके मन में अहम् रूपी मैल किंचित मात्र भी नहीं रहती।
ਪ੍ਰੀਤਮ ਨਾਥੁ ਸਦਾ ਸਚੁ ਸੰਗੇ ਜਨਮ ਮਰਣ ਗਤਿ ਬੀਤੀ ॥੧॥
प्रीतम नाथु सदा सचु संगे जनम मरण गति बीती ॥१॥
सदैव सत्य प्रियतम प्रभु जिसके अंग-संग है, उसकी जन्म-मरण की गति मिट गई है॥ १॥
ਗੁਸਾਈ ਤੇਰਾ ਕਹਾ ਨਾਮੁ ਕੈਸੇ ਜਾਤੀ ॥
गुसाई तेरा कहा नामु कैसे जाती ॥
हे मालिक ! तेरा नाम कैसा है, उसकी कैसे पहचान होती है,
ਜਾ ਤਉ ਭੀਤਰਿ ਮਹਲਿ ਬੁਲਾਵਹਿ ਪੂਛਉ ਬਾਤ ਨਿਰੰਤੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जा तउ भीतरि महलि बुलावहि पूछउ बात निरंती ॥१॥ रहाउ ॥
यदि तू मुझे दसम द्वार रूपी महल में बुला ले तो तुझसे मिलन की बात पूछ लूं॥ १॥ रहाउ॥
ਬ੍ਰਹਮਣੁ ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨ ਇਸਨਾਨੀ ਹਰਿ ਗੁਣ ਪੂਜੇ ਪਾਤੀ ॥
ब्रहमणु ब्रहम गिआन इसनानी हरि गुण पूजे पाती ॥
सच्चा ब्राह्मण वही है, जो ब्रह्म-ज्ञान रूपी तीर्थ में स्नान करता है और हरि गुणगान रूपी पुष्पों से पूजा-अर्चन करता है।
ਏਕੋ ਨਾਮੁ ਏਕੁ ਨਾਰਾਇਣੁ ਤ੍ਰਿਭਵਣ ਏਕਾ ਜੋਤੀ ॥੨॥
एको नामु एकु नाराइणु त्रिभवण एका जोती ॥२॥
परमात्मा एक है, एक उसके ही नाम का अस्तित्व है और तीनों लोकों में उसकी ही ज्योति का प्रसार है॥ २॥
ਜਿਹਵਾ ਡੰਡੀ ਇਹੁ ਘਟੁ ਛਾਬਾ ਤੋਲਉ ਨਾਮੁ ਅਜਾਚੀ ॥
जिहवा डंडी इहु घटु छाबा तोलउ नामु अजाची ॥
यह जिव्हा तराजू की डण्डी है, यह हृदय तराजू का तुला है, इसमें अतुल नाम को तोलो अर्थात् ह्रदय में भगवान का भजन करो।
ਏਕੋ ਹਾਟੁ ਸਾਹੁ ਸਭਨਾ ਸਿਰਿ ਵਣਜਾਰੇ ਇਕ ਭਾਤੀ ॥੩॥
एको हाटु साहु सभना सिरि वणजारे इक भाती ॥३॥
एक परमेश्वर सबका मालिक है, जिसका संसार रूपी हाट है, राव एक भांति के जीव नाम के व्यापारी हैं। ३॥
ਦੋਵੈ ਸਿਰੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਨਿਬੇੜੇ ਸੋ ਬੂਝੈ ਜਿਸੁ ਏਕ ਲਿਵ ਲਾਗੀ ਜੀਅਹੁ ਰਹੈ ਨਿਭਰਾਤੀ ॥
दोवै सिरे सतिगुरू निबेड़े सो बूझै जिसु एक लिव लागी जीअहु रहै निभराती ॥
लोक-परलोक दोनों स्थानों में सतगुरु ही जीवों के कर्मो का निपटारा करता है, इस तथ्य को वही बुझता है, जो भ्रांतियों से रहित होकर एक ईश्वर में ध्यान लगाता है।
ਸਬਦੁ ਵਸਾਏ ਭਰਮੁ ਚੁਕਾਏ ਸਦਾ ਸੇਵਕੁ ਦਿਨੁ ਰਾਤੀ ॥੪॥
सबदु वसाए भरमु चुकाए सदा सेवकु दिनु राती ॥४॥
वह शब्द को मन में बसा लेता है, भ्रम को मिटाकर दिन-रात भगवान की भक्ति में लीन रहता है॥ ४॥
ਊਪਰਿ ਗਗਨੁ ਗਗਨ ਪਰਿ ਗੋਰਖੁ ਤਾ ਕਾ ਅਗਮੁ ਗੁਰੂ ਪੁਨਿ ਵਾਸੀ ॥
ऊपरि गगनु गगन परि गोरखु ता का अगमु गुरू पुनि वासी ॥
धरती के ऊपर गगन मण्डल है, उस गगन पर ईश्वर रहता है, परन्तु यह स्थान अगम्य है और गुरु पुनः जीवों को उस स्थान का वासी बना देता है।
ਗੁਰ ਬਚਨੀ ਬਾਹਰਿ ਘਰਿ ਏਕੋ ਨਾਨਕੁ ਭਇਆ ਉਦਾਸੀ ॥੫॥੧੧॥
गुर बचनी बाहरि घरि एको नानकु भइआ उदासी ॥५॥११॥
हे नानक ! गुरु के वचन से यह ज्ञान हो जाता है कि शरीर रूपी घर एवं बाहर जगत् में परमात्मा ही मौजूद है, इस ज्ञान से जीव निर्लिप्त हो जाता है ॥५॥११॥