ਰਾਗੁ ਮਾਲੀ ਗਉੜਾ ਮਹਲਾ ੪
रागु माली गउड़ा महला ४
रागु माली गउड़ा महला ४
ੴ ਸਤਿ ਨਾਮੁ ਕਰਤਾ ਪੁਰਖੁ ਨਿਰਭਉ ਨਿਰਵੈਰੁ ਅਕਾਲ ਮੂਰਤਿ ਅਜੂਨੀ ਸੈਭੰ ਗੁਰਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरप्रसादि ॥
ओंकार केवल एक है, उसका नाम सत्य (शाश्वत) है, वह परमपुरुष संसार का रचयिता है, उसे कोई भय नहीं अर्थात् कर्म दोष से परे है, सब पर समान दृष्टि होने के कारण वह प्रेमस्वरूप है, अतः वैर भावना से रहित है, वह कालातीत ब्रह्म-मूर्ति अमर है, वह जन्म-मरण से रहित है, स्वयंभू अर्थात् स्वयं ही प्रकाशमान हुआ है और गुरु-कृपा से ही प्राप्त होता है।
ਅਨਿਕ ਜਤਨ ਕਰਿ ਰਹੇ ਹਰਿ ਅੰਤੁ ਨਾਹੀ ਪਾਇਆ ॥
अनिक जतन करि रहे हरि अंतु नाही पाइआ ॥
अनेक यत्न करके हम हार गए हैं मगर ईश्वर का अंत प्राप्त नहीं हुआ।
ਹਰਿ ਅਗਮ ਅਗਮ ਅਗਾਧਿ ਬੋਧਿ ਆਦੇਸੁ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭ ਰਾਇਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हरि अगम अगम अगाधि बोधि आदेसु हरि प्रभ राइआ ॥१॥ रहाउ ॥
वह अगम्य, अपरंपार, अथाह ज्ञान वाला है, उस प्रभु को हमारा कोटि-कोटि नमन है॥ १॥ रहाउ॥
ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਲੋਭੁ ਮੋਹੁ ਨਿਤ ਝਗਰਤੇ ਝਗਰਾਇਆ ॥
कामु क्रोधु लोभु मोहु नित झगरते झगराइआ ॥
हम नित्य काम, क्रोध, लोभ, मोह के झगड़े में झगड़ते रहते हैं।
ਹਮ ਰਾਖੁ ਰਾਖੁ ਦੀਨ ਤੇਰੇ ਹਰਿ ਸਰਨਿ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭ ਆਇਆ ॥੧॥
हम राखु राखु दीन तेरे हरि सरनि हरि प्रभ आइआ ॥१॥
हे हरि ! हम दीन तेरी शरण में आए हैं, हमारी रक्षा करो।॥ १॥
ਸਰਣਾਗਤੀ ਪ੍ਰਭ ਪਾਲਤੇ ਹਰਿ ਭਗਤਿ ਵਛਲੁ ਨਾਇਆ ॥
सरणागती प्रभ पालते हरि भगति वछलु नाइआ ॥
हे हरि ! तेरा नाम भक्तवत्सल है और शरण में आए भक्तों की तू ही हिफाजत करता है।
ਪ੍ਰਹਿਲਾਦੁ ਜਨੁ ਹਰਨਾਖਿ ਪਕਰਿਆ ਹਰਿ ਰਾਖਿ ਲੀਓ ਤਰਾਇਆ ॥੨॥
प्रहिलादु जनु हरनाखि पकरिआ हरि राखि लीओ तराइआ ॥२॥
जब दुष्ट हिरण्यकशिपु ने भक्त प्रहलाद को मारने के लिए पकड़ लिया था तो तूने रक्षा करके उसका कल्याण किया था॥ २॥
ਹਰਿ ਚੇਤਿ ਰੇ ਮਨ ਮਹਲੁ ਪਾਵਣ ਸਭ ਦੂਖ ਭੰਜਨੁ ਰਾਇਆ ॥
हरि चेति रे मन महलु पावण सभ दूख भंजनु राइआ ॥
हे मन ! प्रभु को पाने के लिए उसे याद करो, वह सब दुख मिटाने वाला है।
ਭਉ ਜਨਮ ਮਰਨ ਨਿਵਾਰਿ ਠਾਕੁਰ ਹਰਿ ਗੁਰਮਤੀ ਪ੍ਰਭੁ ਪਾਇਆ ॥੩॥
भउ जनम मरन निवारि ठाकुर हरि गुरमती प्रभु पाइआ ॥३॥
जन्म-मरण का भय दूर करने वाले प्रभु की प्राप्ति गुरु-मतानुसार ही होती है॥ ३॥
ਹਰਿ ਪਤਿਤ ਪਾਵਨ ਨਾਮੁ ਸੁਆਮੀ ਭਉ ਭਗਤ ਭੰਜਨੁ ਗਾਇਆ ॥
हरि पतित पावन नामु सुआमी भउ भगत भंजनु गाइआ ॥
हरि का नाम पतितों को पायन करने वाला है, भक्तजन उस भयभंजन स्वामी का ही स्तुतिगान करते हैं।
ਹਰਿ ਹਾਰੁ ਹਰਿ ਉਰਿ ਧਾਰਿਓ ਜਨ ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਸਮਾਇਆ ॥੪॥੧॥
हरि हारु हरि उरि धारिओ जन नानक नामि समाइआ ॥४॥१॥
हे नानक ! जिसने हरि-नाम का हार अपने गले में धारण कर लिया है, वह नाम में ही समाया रहता है।४॥ १॥
ਮਾਲੀ ਗਉੜਾ ਮਹਲਾ ੪ ॥
माली गउड़ा महला ४ ॥
माली गउड़ा महला ४॥
ਜਪਿ ਮਨ ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਸੁਖਦਾਤਾ ॥
जपि मन राम नामु सुखदाता ॥
हे मन ! परम सुख देने वाला राम नाम जपो;
ਸਤਸੰਗਤਿ ਮਿਲਿ ਹਰਿ ਸਾਦੁ ਆਇਆ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬ੍ਰਹਮੁ ਪਛਾਤਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
सतसंगति मिलि हरि सादु आइआ गुरमुखि ब्रहमु पछाता ॥१॥ रहाउ ॥
सत्संगति में मिलकर प्रभु-भजन का आनंद मिलता है और गुरु के माध्यम से ब्रह्म की पहचान हो सकती है॥ १॥ रहाउ॥
ਵਡਭਾਗੀ ਗੁਰ ਦਰਸਨੁ ਪਾਇਆ ਗੁਰਿ ਮਿਲਿਐ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਜਾਤਾ ॥
वडभागी गुर दरसनु पाइआ गुरि मिलिऐ हरि प्रभु जाता ॥
मैं बड़ा हूँ, जो गुरु-दर्शन प्राप्त हुआ है, गुरु से मिलकर परमात्मा को जान लिया है।
ਦੁਰਮਤਿ ਮੈਲੁ ਗਈ ਸਭ ਨੀਕਰਿ ਹਰਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤਿ ਹਰਿ ਸਰਿ ਨਾਤਾ ॥੧॥
दुरमति मैलु गई सभ नीकरि हरि अम्रिति हरि सरि नाता ॥१॥
हरि-नामामृत के सरोवर में स्नान करने से दुर्मति की सारी मैल निकल गई है॥ १॥
ਧਨੁ ਧਨੁ ਸਾਧ ਜਿਨੑੀ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਪਾਇਆ ਤਿਨੑ ਪੂਛਉ ਹਰਿ ਕੀ ਬਾਤਾ ॥
धनु धनु साध जिन्ही हरि प्रभु पाइआ तिन्ह पूछउ हरि की बाता ॥
वे साधु धन्य हैं, जिन्होंने प्रभु को पाया है, मैं उनसे हरि की बातें पूछता रहता हूँ।
ਪਾਇ ਲਗਉ ਨਿਤ ਕਰਉ ਜੁਦਰੀਆ ਹਰਿ ਮੇਲਹੁ ਕਰਮਿ ਬਿਧਾਤਾ ॥੨॥
पाइ लगउ नित करउ जुदरीआ हरि मेलहु करमि बिधाता ॥२॥
मैं उनके चरणों में लगकर नित्य प्रार्थना करता रहता हूँ कि मुझे कर्म-विधाता परमात्मा से मिला दो॥ २॥
ਲਿਲਾਟ ਲਿਖੇ ਪਾਇਆ ਗੁਰੁ ਸਾਧੂ ਗੁਰ ਬਚਨੀ ਮਨੁ ਤਨੁ ਰਾਤਾ ॥
लिलाट लिखे पाइआ गुरु साधू गुर बचनी मनु तनु राता ॥
ललाट पर लिखे कर्मानुसार मैंने साधु गुरु को पा लिया है और मेरा मन-तन गुरु के वचन में ही लीन रहता है।
ਹਰਿ ਪ੍ਰਭ ਆਇ ਮਿਲੇ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ਸਭ ਕਿਲਵਿਖ ਪਾਪ ਗਵਾਤਾ ॥੩॥
हरि प्रभ आइ मिले सुखु पाइआ सभ किलविख पाप गवाता ॥३॥
जब प्रभु मुझे मिल गया तो सुख प्राप्त हो गया और सारे किल्विष पाप दूर हो गए॥ ३॥
ਰਾਮ ਰਸਾਇਣੁ ਜਿਨੑ ਗੁਰਮਤਿ ਪਾਇਆ ਤਿਨੑ ਕੀ ਊਤਮ ਬਾਤਾ ॥
राम रसाइणु जिन्ह गुरमति पाइआ तिन्ह की ऊतम बाता ॥
जिन्होंने गुरु की मतानुसार राम-रसायन को प्राप्त किया है, उनकी बात ही उत्तम है।
ਤਿਨ ਕੀ ਪੰਕ ਪਾਈਐ ਵਡਭਾਗੀ ਜਨ ਨਾਨਕੁ ਚਰਨਿ ਪਰਾਤਾ ॥੪॥੨॥
तिन की पंक पाईऐ वडभागी जन नानकु चरनि पराता ॥४॥२॥
उनकी चरण-धूलि अहोभाग्य से ही प्राप्त होती है, दास नानक तो उनके चरणों में ही पड़ा रहता है ॥४॥२॥