ਜਨਮ ਜਨਮ ਕੇ ਕਿਲਬਿਖ ਦੁਖ ਕਾਟੇ ਆਪੇ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਈ ॥ ਰਹਾਉ ॥
जनम जनम के किलबिख दुख काटे आपे मेलि मिलाई ॥ रहाउ ॥
वह उनके जन्म-जन्मान्तरों के पाप एवं कष्ट मिटा देता है और उन्हें स्वयं ही अपने साथ मिला लेता है॥ रहाउ॥
ਇਹੁ ਕੁਟੰਬੁ ਸਭੁ ਜੀਅ ਕੇ ਬੰਧਨ ਭਾਈ ਭਰਮਿ ਭੁਲਾ ਸੈਂਸਾਰਾ ॥
इहु कुट्मबु सभु जीअ के बंधन भाई भरमि भुला सैंसारा ॥
हे भाई! यह सभी कुटुंब इत्यादि तो जीव हेतु बन्धन ही हैं और सारी दुनिया भ्रम में ही भटक रही है।
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਬੰਧਨ ਟੂਟਹਿ ਨਾਹੀ ਗੁਰਮੁਖਿ ਮੋਖ ਦੁਆਰਾ ॥
बिनु गुर बंधन टूटहि नाही गुरमुखि मोख दुआरा ॥
गुरु के बिना बन्धन नष्ट नहीं होते और गुरु के माध्यम से मोक्ष का द्वार मिल जाता है।
ਕਰਮ ਕਰਹਿ ਗੁਰ ਸਬਦੁ ਨ ਪਛਾਣਹਿ ਮਰਿ ਜਨਮਹਿ ਵਾਰੋ ਵਾਰਾ ॥੨॥
करम करहि गुर सबदु न पछाणहि मरि जनमहि वारो वारा ॥२॥
जो प्राणी सांसारिक कर्म करता है और गुरु के शब्द की पहचान नहीं करता, वह बार-बार दुनिया में मरता और जन्मता ही रहता है॥ २॥
ਹਉ ਮੇਰਾ ਜਗੁ ਪਲਚਿ ਰਹਿਆ ਭਾਈ ਕੋਇ ਨ ਕਿਸ ਹੀ ਕੇਰਾ ॥
हउ मेरा जगु पलचि रहिआ भाई कोइ न किस ही केरा ॥
हे भाई ! यह दुनिया तो अहंत्व एवं आत्माभिमान में ही उलझी हुई है परन्तु कोई भी किसी का सखा नहीं।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਮਹਲੁ ਪਾਇਨਿ ਗੁਣ ਗਾਵਨਿ ਨਿਜ ਘਰਿ ਹੋਇ ਬਸੇਰਾ ॥
गुरमुखि महलु पाइनि गुण गावनि निज घरि होइ बसेरा ॥
गुरुमुख पुरुष सत्य के महल को प्राप्त कर लेते हैं, सत्य का ही गुणगान करते हैं और अपने आत्मस्वरूप (भगवान के चरणों) में बसेरा प्राप्त कर लेते हैं।
ਐਥੈ ਬੂਝੈ ਸੁ ਆਪੁ ਪਛਾਣੈ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਹੈ ਤਿਸੁ ਕੇਰਾ ॥੩॥
ऐथै बूझै सु आपु पछाणै हरि प्रभु है तिसु केरा ॥३॥
जो व्यक्ति इहलोक में स्वयं को समझ जाता है, वह अपने आत्मस्वरूप को पहचान लेता है और हरि-प्रभु उसका बन जाता है॥ ३ ॥
ਸਤਿਗੁਰੂ ਸਦਾ ਦਇਆਲੁ ਹੈ ਭਾਈ ਵਿਣੁ ਭਾਗਾ ਕਿਆ ਪਾਈਐ ॥
सतिगुरू सदा दइआलु है भाई विणु भागा किआ पाईऐ ॥
हे भाई ! सतिगुरु तो हमेशा ही दयालु है परन्तु तकदीर के बिना प्राणी क्या प्राप्त कर सकता है ?
ਏਕ ਨਦਰਿ ਕਰਿ ਵੇਖੈ ਸਭ ਊਪਰਿ ਜੇਹਾ ਭਾਉ ਤੇਹਾ ਫਲੁ ਪਾਈਐ ॥
एक नदरि करि वेखै सभ ऊपरि जेहा भाउ तेहा फलु पाईऐ ॥
सतिगुरु सभी पर एक समान कृपा-दृष्टि से ही देखता है परन्तु जैसी प्राणी की प्रेम-भावना होती है, उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਵਸੈ ਮਨ ਅੰਤਰਿ ਵਿਚਹੁ ਆਪੁ ਗਵਾਈਐ ॥੪॥੬॥
नानक नामु वसै मन अंतरि विचहु आपु गवाईऐ ॥४॥६॥
हे नानक ! यदि अन्तर्मन में से आत्माभिमान को दूर कर दिया जाए तो मन के अन्दर प्रभु-नाम का निवास हो जाता है॥ ४॥ ६॥
ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੩ ਚੌਤੁਕੇ ॥
सोरठि महला ३ चौतुके ॥
सोरठि महला ३ चौतुके ॥
ਸਚੀ ਭਗਤਿ ਸਤਿਗੁਰ ਤੇ ਹੋਵੈ ਸਚੀ ਹਿਰਦੈ ਬਾਣੀ ॥
सची भगति सतिगुर ते होवै सची हिरदै बाणी ॥
सतगुरु के माध्यम से ही सच्ची भक्ति होती है एवं हृदय में सच्ची वाणी का निवास हो जाता है।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵੇ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਏ ਹਉਮੈ ਸਬਦਿ ਸਮਾਣੀ ॥
सतिगुरु सेवे सदा सुखु पाए हउमै सबदि समाणी ॥
गुरु की सेवा करने से सदा सुख की उपलब्धि होती है और गुरु-शब्द के माध्यम से अहंकार मिट जाता है।
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਸਾਚੇ ਭਗਤਿ ਨ ਹੋਵੀ ਹੋਰ ਭੂਲੀ ਫਿਰੈ ਇਆਣੀ ॥
बिनु गुर साचे भगति न होवी होर भूली फिरै इआणी ॥
गुरु के बिना सच्ची भक्ति नहीं हो सकती और गुरु के बिना नादान दुनिया दुविधा में फँस कर भटकती ही रहती है।
ਮਨਮੁਖਿ ਫਿਰਹਿ ਸਦਾ ਦੁਖੁ ਪਾਵਹਿ ਡੂਬਿ ਮੁਏ ਵਿਣੁ ਪਾਣੀ ॥੧॥
मनमुखि फिरहि सदा दुखु पावहि डूबि मुए विणु पाणी ॥१॥
मनमुख व्यक्ति भटकते ही रहते हैं, वे हमेशा दुःखी ही रहते हैं और जल के बिना ही डूबकर मर जाते हैं।॥ १॥
ਭਾਈ ਰੇ ਸਦਾ ਰਹਹੁ ਸਰਣਾਈ ॥
भाई रे सदा रहहु सरणाई ॥
हे भाई ! हमेशा भगवान की शरण में रहो,
ਆਪਣੀ ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਪਤਿ ਰਾਖੈ ਹਰਿ ਨਾਮੋ ਦੇ ਵਡਿਆਈ ॥ ਰਹਾਉ ॥
आपणी नदरि करे पति राखै हरि नामो दे वडिआई ॥ रहाउ ॥
वह अपनी कृपा-दृष्टि करके जीवों की हमेशा ही लाज-प्रतिष्ठा बचाता रहता है और अपने हरि-नाम की जीवों को कीर्ति प्रदान करता है॥ रहाउ॥
ਪੂਰੇ ਗੁਰ ਤੇ ਆਪੁ ਪਛਾਤਾ ਸਬਦਿ ਸਚੈ ਵੀਚਾਰਾ ॥
पूरे गुर ते आपु पछाता सबदि सचै वीचारा ॥
पूर्ण गुरु के माध्यम से मनुष्य सच्चे शब्द का चिंतन करने से अपने आत्माभिमान को समझ लेता है।
ਹਿਰਦੈ ਜਗਜੀਵਨੁ ਸਦ ਵਸਿਆ ਤਜਿ ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਅਹੰਕਾਰਾ ॥
हिरदै जगजीवनु सद वसिआ तजि कामु क्रोधु अहंकारा ॥
वह काम, क्रोध एवं अहंकार को छोड़ देता है और जगत का जीवनदाता हरि हमेशा ही उसके हृदय में आकर निवास कर लेता है।
ਸਦਾ ਹਜੂਰਿ ਰਵਿਆ ਸਭ ਠਾਈ ਹਿਰਦੈ ਨਾਮੁ ਅਪਾਰਾ ॥
सदा हजूरि रविआ सभ ठाई हिरदै नामु अपारा ॥
अपरंपार नाम हृदय में निवास करने से प्रभु हमेशा उसे प्रत्यक्ष एवं समस्त स्थानों पर व्यापक दृष्टिमान होता है।
ਜੁਗਿ ਜੁਗਿ ਬਾਣੀ ਸਬਦਿ ਪਛਾਣੀ ਨਾਉ ਮੀਠਾ ਮਨਹਿ ਪਿਆਰਾ ॥੨॥
जुगि जुगि बाणी सबदि पछाणी नाउ मीठा मनहि पिआरा ॥२॥
युग-युगान्तरों में अनहद शब्द द्वारा ही प्रभु वाणी की पहचान हुई है और मन को नाम मधुर एवं प्यारा लगता है ॥२॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਿ ਜਿਨਿ ਨਾਮੁ ਪਛਾਤਾ ਸਫਲ ਜਨਮੁ ਜਗਿ ਆਇਆ ॥
सतिगुरु सेवि जिनि नामु पछाता सफल जनमु जगि आइआ ॥
सतगुरु की सेवा करके जिस व्यक्ति ने नाम की पहचान कर ली है, इस दुनिया में उसका आगमन एवं जन्म सफल हो गया है।
ਹਰਿ ਰਸੁ ਚਾਖਿ ਸਦਾ ਮਨੁ ਤ੍ਰਿਪਤਿਆ ਗੁਣ ਗਾਵੈ ਗੁਣੀ ਅਘਾਇਆ ॥
हरि रसु चाखि सदा मनु त्रिपतिआ गुण गावै गुणी अघाइआ ॥
हरि-रस को चखकर उसका मन हमेशा के लिए तृप्त हो गया है और वह गुणों के भण्डार प्रभु का गुणगान करते हुए संतुष्ट हुआ रहता है।
ਕਮਲੁ ਪ੍ਰਗਾਸਿ ਸਦਾ ਰੰਗਿ ਰਾਤਾ ਅਨਹਦ ਸਬਦੁ ਵਜਾਇਆ ॥
कमलु प्रगासि सदा रंगि राता अनहद सबदु वजाइआ ॥
उसका हृदय-कमल प्रफुल्लित हो गया है और प्रभु के प्रेम-रंग में वह सदैव मग्न रहता है और उसके भीतर अनहद शब्द गूंजता रहता है।
ਤਨੁ ਮਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਨਿਰਮਲ ਬਾਣੀ ਸਚੇ ਸਚਿ ਸਮਾਇਆ ॥੩॥
तनु मनु निरमलु निरमल बाणी सचे सचि समाइआ ॥३॥
उसका तन-मन निर्मल हो गया है और वाणी भी निर्मल हो गई है और वह सत्यशील बनकर परम-सत्य में विलीन हो गया है॥ ३॥
ਰਾਮ ਨਾਮ ਕੀ ਗਤਿ ਕੋਇ ਨ ਬੂਝੈ ਗੁਰਮਤਿ ਰਿਦੈ ਸਮਾਈ ॥
राम नाम की गति कोइ न बूझै गुरमति रिदै समाई ॥
राम-नाम की महानता को कोई भी नहीं जानता और गुरु के उपदेश द्वारा ही यह हृदय में समाता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਵੈ ਸੁ ਮਗੁ ਪਛਾਣੈ ਹਰਿ ਰਸਿ ਰਸਨ ਰਸਾਈ ॥
गुरमुखि होवै सु मगु पछाणै हरि रसि रसन रसाई ॥
जो व्यक्ति गुरुमुख होता है, वह मार्ग की पहचान कर लेता है और हरि-रस में ही उसकी रसना रसमग्न रहती है।
ਜਪੁ ਤਪੁ ਸੰਜਮੁ ਸਭੁ ਗੁਰ ਤੇ ਹੋਵੈ ਹਿਰਦੈ ਨਾਮੁ ਵਸਾਈ ॥
जपु तपु संजमु सभु गुर ते होवै हिरदै नामु वसाई ॥
जप, तप एवं संयम सभी गुरु से ही प्राप्त होते हैं और गुरु द्वारा ही हृदय में नाम का निवास होता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਸਮਾਲਹਿ ਸੇ ਜਨ ਸੋਹਨਿ ਦਰਿ ਸਾਚੈ ਪਤਿ ਪਾਈ ॥੪॥੭॥
नानक नामु समालहि से जन सोहनि दरि साचै पति पाई ॥४॥७॥
हे नानक ! जो व्यक्ति नाम-सिमरन करते हैं, वे सुन्दर दिखाई देते हैं और सत्य के दरबार में बड़ी शोभा प्राप्त करते हैं॥ ४ ॥ ७ ॥
ਸੋਰਠਿ ਮਃ ੩ ਦੁਤੁਕੇ ॥
सोरठि मः ३ दुतुके ॥
सोरठि मः ३ दुतुके ॥
ਸਤਿਗੁਰ ਮਿਲਿਐ ਉਲਟੀ ਭਈ ਭਾਈ ਜੀਵਤ ਮਰੈ ਤਾ ਬੂਝ ਪਾਇ ॥
सतिगुर मिलिऐ उलटी भई भाई जीवत मरै ता बूझ पाइ ॥
हे भाई ! सतिगुरु से भेंट करके मेरी बुद्धि मोह-माया की तरफ से उलट गई है, यदि कोई जीवित ही विषय-विकारों की ओर से मृत रहता है तो उसे आध्यात्मिक जीवन का ज्ञान मिल जाता है।
ਸੋ ਗੁਰੂ ਸੋ ਸਿਖੁ ਹੈ ਭਾਈ ਜਿਸੁ ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਮਿਲਾਇ ॥੧॥
सो गुरू सो सिखु है भाई जिसु जोती जोति मिलाइ ॥१॥
हे भाई ! वही गुरु है और वही सिक्ख है, जिसकी ज्योति को परमात्मा अपनी परम ज्योति से मिला लेता है॥ १॥
ਮਨ ਰੇ ਹਰਿ ਹਰਿ ਸੇਤੀ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥
मन रे हरि हरि सेती लिव लाइ ॥
हे मेरे मन ! परमात्मा के साथ सुरति लगाओ।
ਮਨ ਹਰਿ ਜਪਿ ਮੀਠਾ ਲਾਗੈ ਭਾਈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਏ ਹਰਿ ਥਾਇ ॥ ਰਹਾਉ ॥
मन हरि जपि मीठा लागै भाई गुरमुखि पाए हरि थाइ ॥ रहाउ ॥
हे भाई ! भजन करने से हरि जिसके मन को मीठा लगता है वह गुरुमुख व्यक्ति हरि के चरणों में स्थान प्राप्त कर लेता है ॥ रहाउ ॥