ਗੁਰ ਕਾ ਦਰਸਨੁ ਅਗਮ ਅਪਾਰਾ ॥੧॥
गुर का दरसनु अगम अपारा ॥१॥
परन्तु गुरु का दर्शन (अर्थात् शास्त्र) अगम्य एवं अपार है॥ १॥
ਗੁਰ ਕੈ ਦਰਸਨਿ ਮੁਕਤਿ ਗਤਿ ਹੋਇ ॥
गुर कै दरसनि मुकति गति होइ ॥
गुरु के दर्शन (शास्त्र) से मुक्ति एवं गति हो जाती है।
ਸਾਚਾ ਆਪਿ ਵਸੈ ਮਨਿ ਸੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
साचा आपि वसै मनि सोइ ॥१॥ रहाउ ॥
सत्यस्वरूप प्रभु स्वयं आकर मनुष्य के चित्त में बस जाता है॥ १॥ रहाउ॥
ਗੁਰ ਦਰਸਨਿ ਉਧਰੈ ਸੰਸਾਰਾ ॥
गुर दरसनि उधरै संसारा ॥
गुरु के दर्शन (शास्त्र) से जगत का उद्धार हो जाता है,”
ਜੇ ਕੋ ਲਾਏ ਭਾਉ ਪਿਆਰਾ ॥
जे को लाए भाउ पिआरा ॥
यदि मनुष्य इससे प्रेम एवं प्रीति करे।
ਭਾਉ ਪਿਆਰਾ ਲਾਏ ਵਿਰਲਾ ਕੋਇ ॥
भाउ पिआरा लाए विरला कोइ ॥
कोई विरला पुरुष ही गुरु के दर्शन से प्रेम करता है।
ਗੁਰ ਕੈ ਦਰਸਨਿ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥੨॥
गुर कै दरसनि सदा सुखु होइ ॥२॥
गुरु के दर्शन से सदैव सुख प्राप्त होता है॥ २॥
ਗੁਰ ਕੈ ਦਰਸਨਿ ਮੋਖ ਦੁਆਰੁ ॥
गुर कै दरसनि मोख दुआरु ॥
गुरु के दर्शन (शास्त्र) से मोक्ष द्वार मिल जाता है।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵੈ ਪਰਵਾਰ ਸਾਧਾਰੁ ॥
सतिगुरु सेवै परवार साधारु ॥
सतिगुरु की सेवा करने से मनुष्य के परिवार का कल्याण हो जाता है।
ਨਿਗੁਰੇ ਕਉ ਗਤਿ ਕਾਈ ਨਾਹੀ ॥
निगुरे कउ गति काई नाही ॥
जो निगुरा है, उसे मुक्ति नहीं मिलती।
ਅਵਗਣਿ ਮੁਠੇ ਚੋਟਾ ਖਾਹੀ ॥੩॥
अवगणि मुठे चोटा खाही ॥३॥
ऐसे मनुष्य अवगुणों के कारण लूटे जाते हैं और चोटें खाते रहते हैं।॥ ३॥
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਸੁਖੁ ਸਾਂਤਿ ਸਰੀਰ ॥
गुर कै सबदि सुखु सांति सरीर ॥
गुरु के शब्द से शरीर में सुख एवं शांति प्राप्त होती है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਤਾ ਕਉ ਲਗੈ ਨ ਪੀਰ ॥
गुरमुखि ता कउ लगै न पीर ॥
जो गुरुमुख बन जाता है, उसे कोई पीड़ा नहीं सताती।
ਜਮਕਾਲੁ ਤਿਸੁ ਨੇੜਿ ਨ ਆਵੈ ॥
जमकालु तिसु नेड़ि न आवै ॥
यमदूत भी उसके निकट नहीं आता।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਾਚਿ ਸਮਾਵੈ ॥੪॥੧॥੪੦॥
नानक गुरमुखि साचि समावै ॥४॥१॥४०॥
हे नानक ! गुरुमुख सत्य में ही समा जाता है॥४॥१॥४०
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੩ ॥
आसा महला ३ ॥
आसा महला ३ ॥
ਸਬਦਿ ਮੁਆ ਵਿਚਹੁ ਆਪੁ ਗਵਾਇ ॥
सबदि मुआ विचहु आपु गवाइ ॥
जिस व्यक्ति का मन गुरु के शब्द द्वारा विकारों की ओर से मृत हो जाता है, उसका आत्माभिमान समाप्त हो जाता है और
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵੇ ਤਿਲੁ ਨ ਤਮਾਇ ॥
सतिगुरु सेवे तिलु न तमाइ ॥
एक तिलमात्र भी लालच के बिना सतिगुरु की सेवा करता है।
ਨਿਰਭਉ ਦਾਤਾ ਸਦਾ ਮਨਿ ਹੋਇ ॥
निरभउ दाता सदा मनि होइ ॥
उसके हृदय में सदैव ही दाता निडर प्रभु निवास करता है।
ਸਚੀ ਬਾਣੀ ਪਾਏ ਭਾਗਿ ਕੋਇ ॥੧॥
सची बाणी पाए भागि कोइ ॥१॥
सच्ची गुरुवाणी की देन किसी विरले भाग्यशाली को ही प्राप्त होती है॥ १॥
ਗੁਣ ਸੰਗ੍ਰਹੁ ਵਿਚਹੁ ਅਉਗੁਣ ਜਾਹਿ ॥
गुण संग्रहु विचहु अउगुण जाहि ॥
(हे भाई !) गुणों का संग्रह कर चूंकि जो तेरे भीतर से अवगुण भाग जाएँ।
ਪੂਰੇ ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਸਮਾਹਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
पूरे गुर कै सबदि समाहि ॥१॥ रहाउ ॥
इस तरह तुम पूर्ण गुरु के शब्द में लीन हो जाओगे॥ १॥ रहाउ॥
ਗੁਣਾ ਕਾ ਗਾਹਕੁ ਹੋਵੈ ਸੋ ਗੁਣ ਜਾਣੈ ॥
गुणा का गाहकु होवै सो गुण जाणै ॥
जो प्राणी गुणों का ग्राहक होता है, वही गुणों की विशेषता समझता है।
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਸਬਦਿ ਨਾਮੁ ਵਖਾਣੈ ॥
अम्रित सबदि नामु वखाणै ॥
वह अमृत शब्द द्वारा नाम का उच्चारण करता है।
ਸਾਚੀ ਬਾਣੀ ਸੂਚਾ ਹੋਇ ॥
साची बाणी सूचा होइ ॥
सच्ची वाणी द्वारा मनुष्य पवित्र हो जाता है।
ਗੁਣ ਤੇ ਨਾਮੁ ਪਰਾਪਤਿ ਹੋਇ ॥੨॥
गुण ते नामु परापति होइ ॥२॥
गुणों द्वारा प्रभु-नाम प्राप्त हो जाता है॥ २॥
ਗੁਣ ਅਮੋਲਕ ਪਾਏ ਨ ਜਾਹਿ ॥
गुण अमोलक पाए न जाहि ॥
ईश्वर के गुणों का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।
ਮਨਿ ਨਿਰਮਲ ਸਾਚੈ ਸਬਦਿ ਸਮਾਹਿ ॥
मनि निरमल साचै सबदि समाहि ॥
निर्मल मन सच्चे शब्द में लीन हो जाता है।
ਸੇ ਵਡਭਾਗੀ ਜਿਨੑ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇਆ ॥
से वडभागी जिन्ह नामु धिआइआ ॥
जो मनुष्य नाम की आराधना करते हैं, वे बड़े भाग्यशाली हैं और
ਸਦਾ ਗੁਣਦਾਤਾ ਮੰਨਿ ਵਸਾਇਆ ॥੩॥
सदा गुणदाता मंनि वसाइआ ॥३॥
सदैव ही गुणदाता प्रभु को अपने चित्त में बसाते हैं।॥ ३॥
ਜੋ ਗੁਣ ਸੰਗ੍ਰਹੈ ਤਿਨੑ ਬਲਿਹਾਰੈ ਜਾਉ ॥
जो गुण संग्रहै तिन्ह बलिहारै जाउ ॥
जो मनुष्य गुणों का संग्रह करते हैं, उन पर मैं बलिहारी जाता हूँ।
ਦਰਿ ਸਾਚੈ ਸਾਚੇ ਗੁਣ ਗਾਉ ॥
दरि साचै साचे गुण गाउ ॥
मैं सत्य के दरबार पर सच्चे परमात्मा का गुणगान करता हूँ।
ਆਪੇ ਦੇਵੈ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ॥
आपे देवै सहजि सुभाइ ॥
वह प्रभु स्वयं सहज ही देन प्रदान करता है।
ਨਾਨਕ ਕੀਮਤਿ ਕਹਣੁ ਨ ਜਾਇ ॥੪॥੨॥੪੧॥
नानक कीमति कहणु न जाइ ॥४॥२॥४१॥
हे नानक ! ईश्वर के गुणों का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता ॥ ४॥ २॥ ४१ ॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੩ ॥
आसा महला ३ ॥
आसा महला ३ ॥
ਸਤਿਗੁਰ ਵਿਚਿ ਵਡੀ ਵਡਿਆਈ ॥
सतिगुर विचि वडी वडिआई ॥
हे बन्धु ! सतिगुरु का यह बहुत बड़ा बड़प्पन है कि
ਚਿਰੀ ਵਿਛੁੰਨੇ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਈ ॥
चिरी विछुंने मेलि मिलाई ॥
वह चिरकाल से बिछुड़े जीवों को प्रभु से मिला देता है।
ਆਪੇ ਮੇਲੇ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਏ ॥
आपे मेले मेलि मिलाए ॥
ईश्वर आप ही गुरु से मिलाकर प्राणी को अपने साथ मिला लेता है।
ਆਪਣੀ ਕੀਮਤਿ ਆਪੇ ਪਾਏ ॥੧॥
आपणी कीमति आपे पाए ॥१॥
वह अपना मूल्य स्वयं ही जानता है॥ १॥
ਹਰਿ ਕੀ ਕੀਮਤਿ ਕਿਨ ਬਿਧਿ ਹੋਇ ॥
हरि की कीमति किन बिधि होइ ॥
हे बन्धु ! किस विधि से मनुष्य हरि का मूल्यांकन कर सकता है?
ਹਰਿ ਅਪਰੰਪਰੁ ਅਗਮ ਅਗੋਚਰੁ ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਮਿਲੈ ਜਨੁ ਕੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हरि अपर्मपरु अगम अगोचरु गुर कै सबदि मिलै जनु कोइ ॥१॥ रहाउ ॥
हरि अपरंपार, अगम्य एवं अगोचर है, गुरु के शब्द द्वारा कोई विरला मनुष्य ही परमात्मा को मिलता है।॥ १॥ रहाउ॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਕੀਮਤਿ ਜਾਣੈ ਕੋਇ ॥
गुरमुखि कीमति जाणै कोइ ॥
कोई गुरुमुख ही ईश्वर के नाम की महत्ता समझता है।
ਵਿਰਲੇ ਕਰਮਿ ਪਰਾਪਤਿ ਹੋਇ ॥
विरले करमि परापति होइ ॥
कोई विरला मनुष्य ही प्रभु के करम से नाम प्राप्त करता है।
ਊਚੀ ਬਾਣੀ ਊਚਾ ਹੋਇ ॥
ऊची बाणी ऊचा होइ ॥
ऊँची वाणी से मनुष्य का जीवन आचरण ऊँचा हो जाता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਬਦਿ ਵਖਾਣੈ ਕੋਇ ॥੨॥
गुरमुखि सबदि वखाणै कोइ ॥२॥
कोई गुरुमुख ही नाम का सुमिरन करता है॥ २॥
ਵਿਣੁ ਨਾਵੈ ਦੁਖੁ ਦਰਦੁ ਸਰੀਰਿ ॥
विणु नावै दुखु दरदु सरीरि ॥
नाम-स्मरण के बिना मनुष्य शरीर में दुख-दर्द उत्पन्न हुए रहते हैं।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਭੇਟੇ ਤਾ ਉਤਰੈ ਪੀਰ ॥
सतिगुरु भेटे ता उतरै पीर ॥
यदि सतिगुरु से भेंट हो जाए तो पीड़ा निवृत्त हो जाती है।
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਭੇਟੇ ਦੁਖੁ ਕਮਾਇ ॥
बिनु गुर भेटे दुखु कमाइ ॥
गुरु से भेंटवार्ता बिना दुख ही हासिल होता है,”
ਮਨਮੁਖਿ ਬਹੁਤੀ ਮਿਲੈ ਸਜਾਇ ॥੩॥
मनमुखि बहुती मिलै सजाइ ॥३॥
लेकिन मनमुख को कठोर दण्ड मिलता है॥ ३॥
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਮੀਠਾ ਅਤਿ ਰਸੁ ਹੋਇ ॥
हरि का नामु मीठा अति रसु होइ ॥
हरि का नाम बहुत मीठा है और बहुत स्वादिष्ट है।
ਪੀਵਤ ਰਹੈ ਪੀਆਏ ਸੋਇ ॥
पीवत रहै पीआए सोइ ॥
जिसे वह प्रभु पिलाता है, केवल वही इसका पान करता है।
ਗੁਰ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਹਰਿ ਰਸੁ ਪਾਏ ॥
गुर किरपा ते हरि रसु पाए ॥
गुरु की कृपा से मनुष्य हरि रस प्राप्त करता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਗਤਿ ਪਾਏ ॥੪॥੩॥੪੨॥
नानक नामि रते गति पाए ॥४॥३॥४२॥
हे नानक ! प्रभु-नाम में मग्न होने से मनुष्य मोक्षं प्राप्त कर लेता है ॥ ४॥ ३॥ ४२॥
ਆਸਾ ਮਹਲਾ ੩ ॥
आसा महला ३ ॥
आसा महला ३ ॥
ਮੇਰਾ ਪ੍ਰਭੁ ਸਾਚਾ ਗਹਿਰ ਗੰਭੀਰ ॥
मेरा प्रभु साचा गहिर ग्मभीर ॥
हे बन्धु ! मेरा सच्चा प्रभु गहरा एवं गंभीर है।
ਸੇਵਤ ਹੀ ਸੁਖੁ ਸਾਂਤਿ ਸਰੀਰ ॥
सेवत ही सुखु सांति सरीर ॥
प्रभु की सेवा-भक्ति करने से शरीर को तुरंत ही सुख-शांति प्राप्त हो जाते हैं।
ਸਬਦਿ ਤਰੇ ਜਨ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ॥
सबदि तरे जन सहजि सुभाइ ॥
शब्द द्वारा भक्त जन सहज ही संसार सागर से पार हो जाते हैं।
ਤਿਨ ਕੈ ਹਮ ਸਦ ਲਾਗਹ ਪਾਇ ॥੧॥
तिन कै हम सद लागह पाइ ॥१॥
इसलिए हम सदैव ही उनके चरण-स्पर्श करते हैं। १॥