Hindi Page 969

ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਮਦ ਮਤਸਰ ਕਾਟਿ ਕਾਟਿ ਕਸੁ ਦੀਨੁ ਰੇ ॥੧॥
त्रिसना कामु क्रोधु मद मतसर काटि काटि कसु दीनु रे ॥१॥
तृष्णा, काम, क्रोध एवं इर्षा रूपी छाल को काट-काटकर गुड़ में डाला है॥ १॥

ਕੋਈ ਹੈ ਰੇ ਸੰਤੁ ਸਹਜ ਸੁਖ ਅੰਤਰਿ ਜਾ ਕਉ ਜਪੁ ਤਪੁ ਦੇਉ ਦਲਾਲੀ ਰੇ ॥
कोई है रे संतु सहज सुख अंतरि जा कउ जपु तपु देउ दलाली रे ॥
क्या कोई ऐसा संत है, जिसके हृदय में सहज सुख पैदा हो गया है ? मैं उस संत को अपने किए जप-तप का फल दलाली के रूप में दे दूँगा।

ਏਕ ਬੂੰਦ ਭਰਿ ਤਨੁ ਮਨੁ ਦੇਵਉ ਜੋ ਮਦੁ ਦੇਇ ਕਲਾਲੀ ਰੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
एक बूंद भरि तनु मनु देवउ जो मदु देइ कलाली रे ॥१॥ रहाउ ॥
यदि वह मुझे इस भट्टी में से निकाल कर एक बूंद भर नाम रूपी मदिरा पान करने के लिए प्रदान कर दे तो मैं उसे अपना तन-मन भी सौंप दूँगा॥ १॥ रहाउ।

ਭਵਨ ਚਤੁਰ ਦਸ ਭਾਠੀ ਕੀਨੑੀ ਬ੍ਰਹਮ ਅਗਨਿ ਤਨਿ ਜਾਰੀ ਰੇ ॥
भवन चतुर दस भाठी कीन्ही ब्रहम अगनि तनि जारी रे ॥
यह नाम-मदिरा निकालने के लिए मैंने चौदह लोकों को भट्टी बनाया है और इस भट्टी में अपने शरीर की ब्रह-अग्नि प्रज्वलित की है।

ਮੁਦ੍ਰਾ ਮਦਕ ਸਹਜ ਧੁਨਿ ਲਾਗੀ ਸੁਖਮਨ ਪੋਚਨਹਾਰੀ ਰੇ ॥੨॥
मुद्रा मदक सहज धुनि लागी सुखमन पोचनहारी रे ॥२॥
अनहद शब्द की मधुर ध्वनि में जो मेरा ध्यान लीन रहता है, उसे मैंने उस नाली की डाट बनाया है, जिसके द्वारा नाम-मदिरा बनकर शरीर रूपी मटकी में से बाहर निकलती है। सुषम्ना नाड़ी पर ध्यान लगाकर रखने का अभ्यास उसे शीतल रखने वाली लीर है, जिसमें से मदिरा भाप रूप में आ रही होती है॥ २॥

ਤੀਰਥ ਬਰਤ ਨੇਮ ਸੁਚਿ ਸੰਜਮ ਰਵਿ ਸਸਿ ਗਹਨੈ ਦੇਉ ਰੇ ॥
तीरथ बरत नेम सुचि संजम रवि ससि गहनै देउ रे ॥
नाम-मदिरा का पान करने के लिए तीर्थ-स्नान, व्रत, पातंजलेि ऋषि के अष्टांग के पाँच नियम, शुद्धता, संयम इड़ा-पिंगला नाड़ी द्वारा किए प्राणायाम इत्यादि के सभी फल उस संत के पास रख दूंगा।

ਸੁਰਤਿ ਪਿਆਲ ਸੁਧਾ ਰਸੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਏਹੁ ਮਹਾ ਰਸੁ ਪੇਉ ਰੇ ॥੩॥
सुरति पिआल सुधा रसु अम्रितु एहु महा रसु पेउ रे ॥३॥
मैं अपने ध्यान को अभ्यास प्याला बनाकर नाम रूपी सुधा रस पीता रहता हूँ, यही महारस है॥ ३॥

ਨਿਝਰ ਧਾਰ ਚੁਐ ਅਤਿ ਨਿਰਮਲ ਇਹ ਰਸ ਮਨੂਆ ਰਾਤੋ ਰੇ ॥
निझर धार चुऐ अति निरमल इह रस मनूआ रातो रे ॥
मेरे दसम द्वार में से अमृत रस की अति निर्मल धारा मेरी जिव्हा पर बहती रहती है, अब मेरा मन उस रस में मतवाला बना रहता है।

ਕਹਿ ਕਬੀਰ ਸਗਲੇ ਮਦ ਛੂਛੇ ਇਹੈ ਮਹਾ ਰਸੁ ਸਾਚੋ ਰੇ ॥੪॥੧॥
कहि कबीर सगले मद छूछे इहै महा रसु साचो रे ॥४॥१॥
कबीर जी कहते हैं कि दुनिया के सभी मद व्यर्थ हैं, केवल यह नाम रूपी महारस ही सच्चा है॥ ४॥ १॥

ਗੁੜੁ ਕਰਿ ਗਿਆਨੁ ਧਿਆਨੁ ਕਰਿ ਮਹੂਆ ਭਉ ਭਾਠੀ ਮਨ ਧਾਰਾ ॥
गुड़ु करि गिआनु धिआनु करि महूआ भउ भाठी मन धारा ॥
नाम रूपी मदिरा तैयार करने के लिए मैंने ज्ञान को गुड़ बनाकर और ध्यान को महुआ के फूल बनाकर इन्हें प्रभु-भय की भट्टी में चढ़ाया है और मन की एकाग्रता होने पर नाम-मदिरा की धारा बहती रहती है।

ਸੁਖਮਨ ਨਾਰੀ ਸਹਜ ਸਮਾਨੀ ਪੀਵੈ ਪੀਵਨਹਾਰਾ ॥੧॥
सुखमन नारी सहज समानी पीवै पीवनहारा ॥१॥
मेरी सुरति प्राण वायु द्वारा सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करके सहज ही समाई रहती है और पीने वाला मेरा मन इस मदिरा का पान करता रहता है।॥ १॥

ਅਉਧੂ ਮੇਰਾ ਮਨੁ ਮਤਵਾਰਾ ॥
अउधू मेरा मनु मतवारा ॥
हे अवधूत ! मेरा मन नाम-मदिरा का पान करके मतवाला हो गया है !

ਉਨਮਦ ਚਢਾ ਮਦਨ ਰਸੁ ਚਾਖਿਆ ਤ੍ਰਿਭਵਨ ਭਇਆ ਉਜਿਆਰਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
उनमद चढा मदन रसु चाखिआ त्रिभवन भइआ उजिआरा ॥१॥ रहाउ ॥
मैंने प्रेम-रस चख लिया है और मन को नाम रूपी नशा हो गया है। इस नाम रस को पीने से मेरे शरीर में तीनों लोकों का उजाला हो गया है॥ १॥ रहाउ॥

ਦੁਇ ਪੁਰ ਜੋਰਿ ਰਸਾਈ ਭਾਠੀ ਪੀਉ ਮਹਾ ਰਸੁ ਭਾਰੀ ॥
दुइ पुर जोरि रसाई भाठी पीउ महा रसु भारी ॥
पृथ्वी एवं आकाश, इन दोनों पाटों को मिलाकर जब भट्टी जलाई तो इस भारी महारस का पान किया।

ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਦੁਇ ਕੀਏ ਜਲੇਤਾ ਛੂਟਿ ਗਈ ਸੰਸਾਰੀ ॥੨॥
कामु क्रोधु दुइ कीए जलेता छूटि गई संसारी ॥२॥
काम-क्रोध रूपी इन दोनों विकारों को भट्टी का ईधन बनाकर जलाया तो मन की संसारी प्रवृत्ति छूट गई॥ २॥

ਪ੍ਰਗਟ ਪ੍ਰਗਾਸ ਗਿਆਨ ਗੁਰ ਗੰਮਿਤ ਸਤਿਗੁਰ ਤੇ ਸੁਧਿ ਪਾਈ ॥
प्रगट प्रगास गिआन गुर गमित सतिगुर ते सुधि पाई ॥
गुरु से साक्षात्कार करने से मन में ज्ञान का प्रकाश प्रगट हो गया है और इस ज्ञान की सूझ सतगुरु से ही प्राप्त हुई है।

ਦਾਸੁ ਕਬੀਰੁ ਤਾਸੁ ਮਦ ਮਾਤਾ ਉਚਕਿ ਨ ਕਬਹੂ ਜਾਈ ॥੩॥੨॥
दासु कबीरु तासु मद माता उचकि न कबहू जाई ॥३॥२॥
दास कबीर कहता है कि मैं नाम-मदिरा के मद में ही मस्त हुआ रहता हूँ, जिसका नशा कभी समाप्त नहीं होता॥ ३॥ २॥

ਤੂੰ ਮੇਰੋ ਮੇਰੁ ਪਰਬਤੁ ਸੁਆਮੀ ਓਟ ਗਹੀ ਮੈ ਤੇਰੀ ॥
तूं मेरो मेरु परबतु सुआमी ओट गही मै तेरी ॥
हे स्वामी ! तू मेरा सुमेर पर्वत है, इसलिए मैंने तेरी ही ओट ली है।

ਨਾ ਤੁਮ ਡੋਲਹੁ ਨਾ ਹਮ ਗਿਰਤੇ ਰਖਿ ਲੀਨੀ ਹਰਿ ਮੇਰੀ ॥੧॥
ना तुम डोलहु ना हम गिरते रखि लीनी हरि मेरी ॥१॥
हे हरि ! तूने मेरी लाज रख ली है, न तू कभी डगमगाता है और न ही हम गिरते हैं॥ १॥

ਅਬ ਤਬ ਜਬ ਕਬ ਤੁਹੀ ਤੁਹੀ ॥
अब तब जब कब तुही तुही ॥
अब भी और तब भी जब कब तू ही तू है।

ਹਮ ਤੁਅ ਪਰਸਾਦਿ ਸੁਖੀ ਸਦ ਹੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हम तुअ परसादि सुखी सद ही ॥१॥ रहाउ ॥
तेरी कृपा से हम सदा ही सुखी रहते हैं।॥ १॥ रहाउ॥

ਤੋਰੇ ਭਰੋਸੇ ਮਗਹਰ ਬਸਿਓ ਮੇਰੇ ਤਨ ਕੀ ਤਪਤਿ ਬੁਝਾਈ ॥
तोरे भरोसे मगहर बसिओ मेरे तन की तपति बुझाई ॥
तेरे भरोसे पर मैं पहले मगहर की भूमि में आ बसा था और मेरे तन के विकारों की तपस तूने ही बुझाई थी।

ਪਹਿਲੇ ਦਰਸਨੁ ਮਗਹਰ ਪਾਇਓ ਫੁਨਿ ਕਾਸੀ ਬਸੇ ਆਈ ॥੨॥
पहिले दरसनु मगहर पाइओ फुनि कासी बसे आई ॥२॥
(कहा जाता था कि मगहर में प्राण त्यागने वाला जीव नरक में जाता है) मैंने तेरे दर्शन पहले मगहर में ही प्राप्त किए थे और अब पुनः काशी में आ बसा हूँ॥ २॥

ਜੈਸਾ ਮਗਹਰੁ ਤੈਸੀ ਕਾਸੀ ਹਮ ਏਕੈ ਕਰਿ ਜਾਨੀ ॥
जैसा मगहरु तैसी कासी हम एकै करि जानी ॥
मेरे लिए तो जैसा मगहर है, वैसे ही काशी है और मैंने दोनों को एक समान समझा है।

ਹਮ ਨਿਰਧਨ ਜਿਉ ਇਹੁ ਧਨੁ ਪਾਇਆ ਮਰਤੇ ਫੂਟਿ ਗੁਮਾਨੀ ॥੩॥
हम निरधन जिउ इहु धनु पाइआ मरते फूटि गुमानी ॥३॥
जैसे निर्धन को धन मिल जाता है, वैसे ही मुझे नाम-धन प्राप्त हो गया है। अहंकारी जीव अहंकार में ही फूट-फूट कर मरते रहते हैं।॥ ३॥

ਕਰੈ ਗੁਮਾਨੁ ਚੁਭਹਿ ਤਿਸੁ ਸੂਲਾ ਕੋ ਕਾਢਨ ਕਉ ਨਾਹੀ ॥
करै गुमानु चुभहि तिसु सूला को काढन कउ नाही ॥
जो व्यक्ति अहंकार करता है, उसे दुख रूपी शूल चुभते रहते हैं, जिन्हें निकालने वाला कोई नहीं है।

ਅਜੈ ਸੁ ਚੋਭ ਕਉ ਬਿਲਲ ਬਿਲਾਤੇ ਨਰਕੇ ਘੋਰ ਪਚਾਹੀ ॥੪॥
अजै सु चोभ कउ बिलल बिलाते नरके घोर पचाही ॥४॥
वह उम्र भर इन शूलों की चुभन से विलाप करता रहता है और आगे घोर नरक में भी दुखी होता है॥ ४॥

ਕਵਨੁ ਨਰਕੁ ਕਿਆ ਸੁਰਗੁ ਬਿਚਾਰਾ ਸੰਤਨ ਦੋਊ ਰਾਦੇ ॥
कवनु नरकु किआ सुरगु बिचारा संतन दोऊ रादे ॥
नरक अथवा स्वर्ग बेचारा कोई भी हो, संतों ने इन दोनों को रद्द कर दिया है।

ਹਮ ਕਾਹੂ ਕੀ ਕਾਣਿ ਨ ਕਢਤੇ ਅਪਨੇ ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੇ ॥੫॥
हम काहू की काणि न कढते अपने गुर परसादे ॥५॥
अपने गुरु से हम किसी के मुहताज नहीं हैं।॥ ५॥

ਅਬ ਤਉ ਜਾਇ ਚਢੇ ਸਿੰਘਾਸਨਿ ਮਿਲੇ ਹੈ ਸਾਰਿੰਗਪਾਨੀ ॥
अब तउ जाइ चढे सिंघासनि मिले है सारिंगपानी ॥
अब हमें भगवान मिल गया है और हृदय रूपी सिंहासन पर चढ़कर उसके संग बैठ गए हैं।

ਰਾਮ ਕਬੀਰਾ ਏਕ ਭਏ ਹੈ ਕੋਇ ਨ ਸਕੈ ਪਛਾਨੀ ॥੬॥੩॥
राम कबीरा एक भए है कोइ न सकै पछानी ॥६॥३॥
अब कबीर एवं राम दोनों एक रूप हो गए हैं और कोई भी पहचान नहीं सकता केि कबीर कौन है और राम कौन है॥ ६॥ ३॥

ਸੰਤਾ ਮਾਨਉ ਦੂਤਾ ਡਾਨਉ ਇਹ ਕੁਟਵਾਰੀ ਮੇਰੀ ॥
संता मानउ दूता डानउ इह कुटवारी मेरी ॥
मुझ कोतवाल का यही कर्तव्य है कि मैं संतों का सम्मान करूँ और (कामादिक) दुष्टों को दण्ड दूँ।

ਦਿਵਸ ਰੈਨਿ ਤੇਰੇ ਪਾਉ ਪਲੋਸਉ ਕੇਸ ਚਵਰ ਕਰਿ ਫੇਰੀ ॥੧॥
दिवस रैनि तेरे पाउ पलोसउ केस चवर करि फेरी ॥१॥
हे मालिक ! मैं दिन-रात तेरे चरणों की सेवा में लीन रहूँ और अपने केशों का चॅवर बनाकर झुलाता रहूँ॥ १॥

ਹਮ ਕੂਕਰ ਤੇਰੇ ਦਰਬਾਰਿ ॥
हम कूकर तेरे दरबारि ॥
मैं तेरे दरबार का कुत्ता हूँ और

ਭਉਕਹਿ ਆਗੈ ਬਦਨੁ ਪਸਾਰਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
भउकहि आगै बदनु पसारि ॥१॥ रहाउ ॥
अपना मुँह लम्बा कर तेरे आगे भौंकता रहता हूँ ॥१॥ रहाउ ॥

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