ਮਾਇਆ ਮੋਹਿ ਸੁਧਿ ਨ ਕਾਈ ॥
माइआ मोहि सुधि न काई ॥
मोह-माया में मस्त जीव को कोई होश नहीं होती।
ਮਨਮੁਖ ਅੰਧੇ ਕਿਛੂ ਨ ਸੂਝੈ ਗੁਰਮਤਿ ਨਾਮੁ ਪ੍ਰਗਾਸੀ ਹੇ ॥੧੪॥
मनमुख अंधे किछू न सूझै गुरमति नामु प्रगासी हे ॥१४॥
अन्धे मनमुख को कोई ज्ञान नहीं होता, परन्तु गुरु के उपदेश से ही ह्रदय में नाम का आलोक होता है॥ १४॥
ਮਨਮੁਖ ਹਉਮੈ ਮਾਇਆ ਸੂਤੇ ॥
मनमुख हउमै माइआ सूते ॥
मनमुखी जीव अहंकार एवं मोह-माया में ही सोए रहते हैं।
ਅਪਣਾ ਘਰੁ ਨ ਸਮਾਲਹਿ ਅੰਤਿ ਵਿਗੂਤੇ ॥
अपणा घरु न समालहि अंति विगूते ॥
वे कामादिक दूतों से अपने हृदय-घर की संभाल नहीं करते और अंत में ख्वार होते हैं।
ਪਰ ਨਿੰਦਾ ਕਰਹਿ ਬਹੁ ਚਿੰਤਾ ਜਾਲੈ ਦੁਖੇ ਦੁਖਿ ਨਿਵਾਸੀ ਹੇ ॥੧੫॥
पर निंदा करहि बहु चिंता जालै दुखे दुखि निवासी हे ॥१५॥
वे पराई निन्दा करते हैं, चिन्ता उन्हें बहुत जलाती है और सदैव दुखी रहते हैं।॥ १५॥
ਆਪੇ ਕਰਤੈ ਕਾਰ ਕਰਾਈ ॥
आपे करतै कार कराई ॥
ईश्वर स्वयं ही मनमुखों से ऐसा कार्य करवाता है परन्तु
ਆਪੇ ਗੁਰਮੁਖਿ ਦੇਇ ਬੁਝਾਈ ॥
आपे गुरमुखि देइ बुझाई ॥
वह गुरुमुखों को ज्ञान प्रदान कर देता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਮਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਨਾਮੇ ਨਾਮਿ ਨਿਵਾਸੀ ਹੇ ॥੧੬॥੫॥
नानक नामि रते मनु निरमलु नामे नामि निवासी हे ॥१६॥५॥
हे नानक ! नाम में लीन होने से मन निर्मल हो जाता है और जीव नाम द्वारा नाम-स्मरण में ही लीन रहता है॥ १६॥ ५॥
ਮਾਰੂ ਮਹਲਾ ੩ ॥
मारू महला ३ ॥
मारू महला ३॥
ਏਕੋ ਸੇਵੀ ਸਦਾ ਥਿਰੁ ਸਾਚਾ ॥
एको सेवी सदा थिरु साचा ॥
एक ईश्वर की ही उपासना करता हूँ जो सदैव स्थिर एवं शाश्वत है।
ਦੂਜੈ ਲਾਗਾ ਸਭੁ ਜਗੁ ਕਾਚਾ ॥
दूजै लागा सभु जगु काचा ॥
द्वैतभाव में लीन समूचा जगत् नाशवान है।
ਗੁਰਮਤੀ ਸਦਾ ਸਚੁ ਸਾਲਾਹੀ ਸਾਚੇ ਹੀ ਸਾਚਿ ਪਤੀਜੈ ਹੇ ॥੧॥
गुरमती सदा सचु सालाही साचे ही साचि पतीजै हे ॥१॥
गुरु उपदेशानुसार सदा ही सत्य की स्तुति करता हूँ और मन उस परम-सत्य से ही संतुष्ट होता है।॥ १॥
ਤੇਰੇ ਗੁਣ ਬਹੁਤੇ ਮੈ ਏਕੁ ਨ ਜਾਤਾ ॥
तेरे गुण बहुते मै एकु न जाता ॥
हे गुणों के सागर ! तेरे गुण बेअंत हैं, किन्तु मैंने तेरे एक गुण को भी नहीं जाना।
ਆਪੇ ਲਾਇ ਲਏ ਜਗਜੀਵਨੁ ਦਾਤਾ ॥
आपे लाइ लए जगजीवनु दाता ॥
हे जग-जीवन दाता ! तू स्वयं ही अपनी भक्ति में लगा लेता है,”
ਆਪੇ ਬਖਸੇ ਦੇ ਵਡਿਆਈ ਗੁਰਮਤਿ ਇਹੁ ਮਨੁ ਭੀਜੈ ਹੇ ॥੨॥
आपे बखसे दे वडिआई गुरमति इहु मनु भीजै हे ॥२॥
स्वयं ही क्षमा करके बड़ाई प्रदान करता है और गुरु-मत से ही यह मन हरि-रस में भीगता है॥ २॥
ਮਾਇਆ ਲਹਰਿ ਸਬਦਿ ਨਿਵਾਰੀ ॥
माइआ लहरि सबदि निवारी ॥
शब्द द्वारा माया की लहर को दूर कर दिया है और
ਇਹੁ ਮਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਹਉਮੈ ਮਾਰੀ ॥
इहु मनु निरमलु हउमै मारी ॥
अभिमान को मिटाकर यह मन निर्मल हो गया है।
ਸਹਜੇ ਗੁਣ ਗਾਵੈ ਰੰਗਿ ਰਾਤਾ ਰਸਨਾ ਰਾਮੁ ਰਵੀਜੈ ਹੇ ॥੩॥
सहजे गुण गावै रंगि राता रसना रामु रवीजै हे ॥३॥
राम के रंग में लीन रसना स्वाभाविक ही गुणगान करती है॥ ३॥
ਮੇਰੀ ਮੇਰੀ ਕਰਤ ਵਿਹਾਣੀ ॥ ਮਨਮੁਖਿ ਨ ਬੂਝੈ ਫਿਰੈ ਇਆਣੀ ॥
मेरी मेरी करत विहाणी ॥ मनमुखि न बूझै फिरै इआणी ॥
मैं-मेरी करते हुए सारी आयु व्यतीत हो जाती है, मनमुखी जीव को ज्ञान नहीं होता और वह अज्ञानता में भटकता रहता है।
ਜਮਕਾਲੁ ਘੜੀ ਮੁਹਤੁ ਨਿਹਾਲੇ ਅਨਦਿਨੁ ਆਰਜਾ ਛੀਜੈ ਹੇ ॥੪॥
जमकालु घड़ी मुहतु निहाले अनदिनु आरजा छीजै हे ॥४॥
यम उसे हर घड़ी – देखता रहता है और प्रतिदिन उसकी आयु कम होती है॥ ४॥
ਅੰਤਰਿ ਲੋਭੁ ਕਰੈ ਨਹੀ ਬੂਝੈ ॥
अंतरि लोभु करै नही बूझै ॥
वह मन में लोभ करता है पर इसके फल को नहीं बूझता।
ਸਿਰ ਊਪਰਿ ਜਮਕਾਲੁ ਨ ਸੂਝੈ ॥
सिर ऊपरि जमकालु न सूझै ॥
यम उसके सिर पर खड़ा है किन्तु उसे कोई सूझ नहीं।
ਐਥੈ ਕਮਾਣਾ ਸੁ ਅਗੈ ਆਇਆ ਅੰਤਕਾਲਿ ਕਿਆ ਕੀਜੈ ਹੇ ॥੫॥
ऐथै कमाणा सु अगै आइआ अंतकालि किआ कीजै हे ॥५॥
जो कर्म किया है, वही आगे (परलोक में) आया है, अब वह अंतकाल क्या कर सकता है॥ ५॥
ਜੋ ਸਚਿ ਲਾਗੇ ਤਿਨ ਸਾਚੀ ਸੋਇ ॥
जो सचि लागे तिन साची सोइ ॥
जो सत्य में लवलीन हो जाते हैं,उनकी ही सच्ची शोभा होती है।
ਦੂਜੈ ਲਾਗੇ ਮਨਮੁਖਿ ਰੋਇ ॥
दूजै लागे मनमुखि रोइ ॥
द्वैतभाव में लीन मनमुखी जीव रोते हैं।
ਦੁਹਾ ਸਿਰਿਆ ਕਾ ਖਸਮੁ ਹੈ ਆਪੇ ਆਪੇ ਗੁਣ ਮਹਿ ਭੀਜੈ ਹੇ ॥੬॥
दुहा सिरिआ का खसमु है आपे आपे गुण महि भीजै हे ॥६॥
ईश्वर स्वयं लोक-परलोक का मालिक है और स्वयं ही गुणों पर प्रसन्न होता है॥ ६॥
ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਸਦਾ ਜਨੁ ਸੋਹੈ ॥
गुर कै सबदि सदा जनु सोहै ॥
गुरु के शब्द द्वारा मनुष्य सदैव शोभा का पात्र बनता है।
ਨਾਮ ਰਸਾਇਣਿ ਇਹੁ ਮਨੁ ਮੋਹੈ ॥
नाम रसाइणि इहु मनु मोहै ॥
नाम रूपी रसायन का पान करके यह मन मोहित हो जाता है।
ਮਾਇਆ ਮੋਹ ਮੈਲੁ ਪਤੰਗੁ ਨ ਲਾਗੈ ਗੁਰਮਤੀ ਹਰਿ ਨਾਮਿ ਭੀਜੈ ਹੇ ॥੭॥
माइआ मोह मैलु पतंगु न लागै गुरमती हरि नामि भीजै हे ॥७॥
फिर मोह-माया की मैल बिल्कुल नहीं लगती और मन गुरु-मतानुसार हरि नाम में भीग जाता है॥ ७॥
ਸਭਨਾ ਵਿਚਿ ਵਰਤੈ ਇਕੁ ਸੋਈ ॥
सभना विचि वरतै इकु सोई ॥
सब जीवों में एक ईश्वर ही व्याप्त है और
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਪਰਗਟੁ ਹੋਈ ॥
गुर परसादी परगटु होई ॥
गुरु की कृपा से वह प्रगट हो जाता है।
ਹਉਮੈ ਮਾਰਿ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ਨਾਇ ਸਾਚੈ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਜੈ ਹੇ ॥੮॥
हउमै मारि सदा सुखु पाइआ नाइ साचै अम्रितु पीजै हे ॥८॥
अभिमान को मिटाकर सदैव सुख प्राप्त होता है और सत्य-नाम में लीन रहकर नामामृत का पान होता है॥ ८॥
ਕਿਲਬਿਖ ਦੂਖ ਨਿਵਾਰਣਹਾਰਾ ॥
किलबिख दूख निवारणहारा ॥
पाप-दुखों का निवारण करने वाला ईश्वर ही है और
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸੇਵਿਆ ਸਬਦਿ ਵੀਚਾਰਾ ॥
गुरमुखि सेविआ सबदि वीचारा ॥
गुरुमुख ने शब्द-चिंतन द्वारा उसकी ही उपासना की है।
ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਆਪੇ ਆਪਿ ਵਰਤੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਤਨੁ ਮਨੁ ਭੀਜੈ ਹੇ ॥੯॥
सभु किछु आपे आपि वरतै गुरमुखि तनु मनु भीजै हे ॥९॥
वह स्वयं ही सब कुछ कर रहा है और नाम-स्मरण से गुरुमुख का तन-मन भीग जाता है॥ ९॥
ਮਾਇਆ ਅਗਨਿ ਜਲੈ ਸੰਸਾਰੇ ॥
माइआ अगनि जलै संसारे ॥
माया की अग्नि समूचे संसार में जल रही है,”
ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਿਵਾਰੈ ਸਬਦਿ ਵੀਚਾਰੇ ॥
गुरमुखि निवारै सबदि वीचारे ॥
लेकिन गुरु शब्द के चिंतन द्वारा इसका निवारण कर देता है।
ਅੰਤਰਿ ਸਾਂਤਿ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ਗੁਰਮਤੀ ਨਾਮੁ ਲੀਜੈ ਹੇ ॥੧੦॥
अंतरि सांति सदा सुखु पाइआ गुरमती नामु लीजै हे ॥१०॥
जिसने गुरु की शिक्षा द्वारा नाम-स्मरण किया है, उसके मन को ही शान्ति मिली है और सदैव सुख पा लिया है॥ १०॥
ਇੰਦ੍ਰ ਇੰਦ੍ਰਾਸਣਿ ਬੈਠੇ ਜਮ ਕਾ ਭਉ ਪਾਵਹਿ ॥
इंद्र इंद्रासणि बैठे जम का भउ पावहि ॥
अपने सिंहासन पर विराजमान स्वर्गाधिपति देवराज इन्द्र भी यम का भय अनुभव करता है।
ਜਮੁ ਨ ਛੋਡੈ ਬਹੁ ਕਰਮ ਕਮਾਵਹਿ ॥
जमु न छोडै बहु करम कमावहि ॥
अगर कोई अनेक धर्म-कर्म करता है, परन्तु यम उसे भी नहीं छोड़ता।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਭੇਟੈ ਤਾ ਮੁਕਤਿ ਪਾਈਐ ਹਰਿ ਹਰਿ ਰਸਨਾ ਪੀਜੈ ਹੇ ॥੧੧॥
सतिगुरु भेटै ता मुकति पाईऐ हरि हरि रसना पीजै हे ॥११॥
जीव को मुक्ति तभी मिलती है, जब उसकी सतगुरु से भेंट होती है और जिव्हा हरिनामामृत का पान करती है॥ ११॥
ਮਨਮੁਖਿ ਅੰਤਰਿ ਭਗਤਿ ਨ ਹੋਈ ॥
मनमुखि अंतरि भगति न होई ॥
मनमुखी जीव के मन में प्रभु-भक्ति उत्पन्न नहीं होती मगर
ਗੁਰਮੁਖਿ ਭਗਤਿ ਸਾਂਤਿ ਸੁਖੁ ਹੋਈ ॥
गुरमुखि भगति सांति सुखु होई ॥
गुरुमुख को भक्ति से शान्ति एवं सुख उत्पन्न हो जाता है।
ਪਵਿਤ੍ਰ ਪਾਵਨ ਸਦਾ ਹੈ ਬਾਣੀ ਗੁਰਮਤਿ ਅੰਤਰੁ ਭੀਜੈ ਹੇ ॥੧੨॥
पवित्र पावन सदा है बाणी गुरमति अंतरु भीजै हे ॥१२॥
वाणी सदैव पवित्र एवं पावन है और गुरु उपदेशानुसार हृदय भीग जाता है॥ १२॥
ਬ੍ਰਹਮਾ ਬਿਸਨੁ ਮਹੇਸੁ ਵੀਚਾਰੀ ॥
ब्रहमा बिसनु महेसु वीचारी ॥
ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश भी माया के तीन गुणों में बँधे हुए हैं और
ਤ੍ਰੈ ਗੁਣ ਬਧਕ ਮੁਕਤਿ ਨਿਰਾਰੀ ॥
त्रै गुण बधक मुकति निरारी ॥
मुक्ति उनसे निराली रहती है।