ਦੇਵ ਸੰਸੈ ਗਾਂਠਿ ਨ ਛੂਟੈ ॥
देव संसै गांठि न छूटै ॥
हे ईश्वर ! मन में से संशय की गाँठ नहीं खुलती,
ਕਾਮ ਕ੍ਰੋਧ ਮਾਇਆ ਮਦ ਮਤਸਰ ਇਨ ਪੰਚਹੁ ਮਿਲਿ ਲੂਟੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
काम क्रोध माइआ मद मतसर इन पंचहु मिलि लूटे ॥१॥ रहाउ ॥
अपितु काम, क्रोध, माया, अभिमान एवं इर्षा -इन पाँचों ने मिलकर शुभ गुणों को लूट लिया है॥ १॥ रहाउ॥
ਹਮ ਬਡ ਕਬਿ ਕੁਲੀਨ ਹਮ ਪੰਡਿਤ ਹਮ ਜੋਗੀ ਸੰਨਿਆਸੀ ॥
हम बड कबि कुलीन हम पंडित हम जोगी संनिआसी ॥
हमारी यह बुद्धि कभी नाश नहीं होती की हम बड़े कवी कुलीन पंडित योगी सन्यासी
ਗਿਆਨੀ ਗੁਨੀ ਸੂਰ ਹਮ ਦਾਤੇ ਇਹ ਬੁਧਿ ਕਬਹਿ ਨ ਨਾਸੀ ॥੨॥
गिआनी गुनी सूर हम दाते इह बुधि कबहि न नासी ॥२॥
ज्ञानवान, गुणवान, शूरवीर एवं दानवीर हैं।॥ २॥
ਕਹੁ ਰਵਿਦਾਸ ਸਭੈ ਨਹੀ ਸਮਝਸਿ ਭੂਲਿ ਪਰੇ ਜੈਸੇ ਬਉਰੇ ॥
कहु रविदास सभै नही समझसि भूलि परे जैसे बउरे ॥
रविदास जी कहते हैं कि हम सभी सत्य को नहीं समझते और जैसे बावले बनकर भटके हुए हैं।
ਮੋਹਿ ਅਧਾਰੁ ਨਾਮੁ ਨਾਰਾਇਨ ਜੀਵਨ ਪ੍ਰਾਨ ਧਨ ਮੋਰੇ ॥੩॥੧॥
मोहि अधारु नामु नाराइन जीवन प्रान धन मोरे ॥३॥१॥
नारायण का नाम मेरा आधार है और यही मेरा जीवन, प्राण एवं धन है।॥३॥ १॥
ਰਾਮਕਲੀ ਬਾਣੀ ਬੇਣੀ ਜੀਉ ਕੀ
रामकली बाणी बेणी जीउ की
रामकली बाणी बेणी जीउ की
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि॥
ਇੜਾ ਪਿੰਗੁਲਾ ਅਉਰ ਸੁਖਮਨਾ ਤੀਨਿ ਬਸਹਿ ਇਕ ਠਾਈ ॥
इड़ा पिंगुला अउर सुखमना तीनि बसहि इक ठाई ॥
इड़ा (गंगा) पिंगला (यमुना), और सुषुम्ना (सरस्वती)-यह तीनों जिस एक स्थान पर रहती हैं,
ਬੇਣੀ ਸੰਗਮੁ ਤਹ ਪਿਰਾਗੁ ਮਨੁ ਮਜਨੁ ਕਰੇ ਤਿਥਾਈ ॥੧॥
बेणी संगमु तह पिरागु मनु मजनु करे तिथाई ॥१॥
वह स्थल ही त्रिवेणी संगम है और वहाँ ही प्रयागराज तीर्थ है। उस पावन तीर्थ पर ही मेरा मन नाम रूपी जल में स्नान करता रहता है॥ १॥
ਸੰਤਹੁ ਤਹਾ ਨਿਰੰਜਨ ਰਾਮੁ ਹੈ ॥
संतहु तहा निरंजन रामु है ॥
हे संतजनो ! उस स्थान पर ही मायातीत राम है,
ਗੁਰ ਗਮਿ ਚੀਨੈ ਬਿਰਲਾ ਕੋਇ ॥
गुर गमि चीनै बिरला कोइ ॥
पर कोई विरला ही गुरु से साक्षात्कार करके इस सत्य की पहचान करता है केि
ਤਹਾਂ ਨਿਰੰਜਨੁ ਰਮਈਆ ਹੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
तहां निरंजनु रमईआ होइ ॥१॥ रहाउ ॥
वहाँ मायातीत राम का निवास है॥ १॥ रहाउ॥
ਦੇਵ ਸਥਾਨੈ ਕਿਆ ਨੀਸਾਣੀ ॥
देव सथानै किआ नीसाणी ॥
इस देवस्थल की क्या निशानी है ?
ਤਹ ਬਾਜੇ ਸਬਦ ਅਨਾਹਦ ਬਾਣੀ ॥
तह बाजे सबद अनाहद बाणी ॥
उस पावन-स्थान पर अनाहत वाणी एवं शब्द गूंजता रहता है।
ਤਹ ਚੰਦੁ ਨ ਸੂਰਜੁ ਪਉਣੁ ਨ ਪਾਣੀ ॥
तह चंदु न सूरजु पउणु न पाणी ॥
वहाँ चाँद-सूर्य एवं पवन-पानी भी नहीं है।
ਸਾਖੀ ਜਾਗੀ ਗੁਰਮੁਖਿ ਜਾਣੀ ॥੨॥
साखी जागी गुरमुखि जाणी ॥२॥
उस स्थान का तभी ज्ञान हुआ, जब गुरु की शिक्षा द्वारा मन जाग्रत हो गया॥ २॥
ਉਪਜੈ ਗਿਆਨੁ ਦੁਰਮਤਿ ਛੀਜੈ ॥
उपजै गिआनु दुरमति छीजै ॥
जब मन में ज्ञान उत्पन्न होता है तो दुर्मति नष्ट हो जाती है और
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਰਸਿ ਗਗਨੰਤਰਿ ਭੀਜੈ ॥
अम्रित रसि गगनंतरि भीजै ॥
मन दसम द्वार में नामामृत के रस से भीग जाता है।
ਏਸੁ ਕਲਾ ਜੋ ਜਾਣੈ ਭੇਉ ॥
एसु कला जो जाणै भेउ ॥
इस कला के भेद को जो समझ लेता है,
ਭੇਟੈ ਤਾਸੁ ਪਰਮ ਗੁਰਦੇਉ ॥੩॥
भेटै तासु परम गुरदेउ ॥३॥
उसकी परम गुरुदेव से भेंट हो जाती है॥ ३॥
ਦਸਮ ਦੁਆਰਾ ਅਗਮ ਅਪਾਰਾ ਪਰਮ ਪੁਰਖ ਕੀ ਘਾਟੀ ॥
दसम दुआरा अगम अपारा परम पुरख की घाटी ॥
दसम द्वार अगम्य-अपार है, वहाँ परमपुरुष परमात्मा का निवास है।
ਊਪਰਿ ਹਾਟੁ ਹਾਟ ਪਰਿ ਆਲਾ ਆਲੇ ਭੀਤਰਿ ਥਾਤੀ ॥੪॥
ऊपरि हाटु हाट परि आला आले भीतरि थाती ॥४॥
ऊपर मष्तिष्क में सत्य की दुकान है। इस दसम द्वार रूपी दुकान के ऊपर एक ब्रहा-कमल रूपी आला है, जिसमें परम-ज्योति रूपी थाती मौजूद है॥ ४॥
ਜਾਗਤੁ ਰਹੈ ਸੁ ਕਬਹੁ ਨ ਸੋਵੈ ॥
जागतु रहै सु कबहु न सोवै ॥
जो व्यक्ति सदैव मोह-माया से जाग्रत रहता है, वह कभी मोह की निद्रा में नहीं सोता।
ਤੀਨਿ ਤਿਲੋਕ ਸਮਾਧਿ ਪਲੋਵੈ ॥
तीनि तिलोक समाधि पलोवै ॥
ऐसे साधक की लगी समाधि में तीनों लोक लुप्त हो जाते हैं।
ਬੀਜ ਮੰਤ੍ਰੁ ਲੈ ਹਿਰਦੈ ਰਹੈ ॥
बीज मंत्रु लै हिरदै रहै ॥
वह गुरु से मूलमंत्र लेकर उसे अपने हृदय में बसा लेता है,
ਮਨੂਆ ਉਲਟਿ ਸੁੰਨ ਮਹਿ ਗਹੈ ॥੫॥
मनूआ उलटि सुंन महि गहै ॥५॥
फिर उसका मन विकारों से हटकर शून्यावस्था में स्थिर रहता है॥ ५॥
ਜਾਗਤੁ ਰਹੈ ਨ ਅਲੀਆ ਭਾਖੈ ॥
जागतु रहै न अलीआ भाखै ॥
जो मोह-माया से सचेत रहता है, वह कदापि झूठ या अपशब्द नहीं बोलता।
ਪਾਚਉ ਇੰਦ੍ਰੀ ਬਸਿ ਕਰਿ ਰਾਖੈ ॥
पाचउ इंद्री बसि करि राखै ॥
वह अपनी पाँचों इन्द्रियों को वशीभूत रखता है और
ਗੁਰ ਕੀ ਸਾਖੀ ਰਾਖੈ ਚੀਤਿ ॥
गुर की साखी राखै चीति ॥
गुरु की शिक्षा को याद रखता है।
ਮਨੁ ਤਨੁ ਅਰਪੈ ਕ੍ਰਿਸਨ ਪਰੀਤਿ ॥੬॥
मनु तनु अरपै क्रिसन परीति ॥६॥
फिर वह अपना तन-मन भगवान की प्रीति में अर्पण कर देता है॥ ६॥
ਕਰ ਪਲਵ ਸਾਖਾ ਬੀਚਾਰੇ ॥
कर पलव साखा बीचारे ॥
वह अपने हाथों को शरीर रूपी पेड़ की शाखा एवं पते मानता है और
ਅਪਨਾ ਜਨਮੁ ਨ ਜੂਐ ਹਾਰੇ ॥
अपना जनमु न जूऐ हारे ॥
अपना जन्म व्यर्थ नहीं गंवाता।
ਅਸੁਰ ਨਦੀ ਕਾ ਬੰਧੈ ਮੂਲੁ ॥
असुर नदी का बंधै मूलु ॥
वह बुराईयों की नदिया पर अंकुश लगाता है और
ਪਛਿਮ ਫੇਰਿ ਚੜਾਵੈ ਸੂਰੁ ॥
पछिम फेरि चड़ावै सूरु ॥
सूर्य को पश्चिम से उदय अर्थात् दुनियावी मोह को छोड़ देता है।
ਅਜਰੁ ਜਰੈ ਸੁ ਨਿਝਰੁ ਝਰੈ ॥
अजरु जरै सु निझरु झरै ॥
वह अजर को सहन कर लेता है और चश्मे के बिना ही नामामृत का रस लेता है।
ਜਗੰਨਾਥ ਸਿਉ ਗੋਸਟਿ ਕਰੈ ॥੭॥
जगंनाथ सिउ गोसटि करै ॥७॥
फिर वह संसार के मालिक परमात्मा से भेंट करता है॥ ७॥
ਚਉਮੁਖ ਦੀਵਾ ਜੋਤਿ ਦੁਆਰ ॥
चउमुख दीवा जोति दुआर ॥
उस दसम द्वार में प्रभु-ज्योति का दीया प्रज्वलित होता है।
ਪਲੂ ਅਨਤ ਮੂਲੁ ਬਿਚਕਾਰਿ ॥
पलू अनत मूलु बिचकारि ॥
वह जगत् के मूल केन्द्र में ही है और जगत् रूपी पल्लव उसके आस-पास है।
ਸਰਬ ਕਲਾ ਲੇ ਆਪੇ ਰਹੈ ॥
सरब कला ले आपे रहै ॥
वह सर्वकला सम्पूर्ण स्वयं ही रहता है।
ਮਨੁ ਮਾਣਕੁ ਰਤਨਾ ਮਹਿ ਗੁਹੈ ॥੮॥
मनु माणकु रतना महि गुहै ॥८॥
साधक अपने माणिक्य रूपी अमूल्य मन में गुण रूपी रत्नों को पेिरो लेता है॥ ८॥
ਮਸਤਕਿ ਪਦਮੁ ਦੁਆਲੈ ਮਣੀ ॥
मसतकि पदमु दुआलै मणी ॥
यह सहंसदल कमल मनुष्य के मस्तिष्क में है और उसके आस-पास पंखुड़ियाँ रूपी रत्न चमकते हैं।
ਮਾਹਿ ਨਿਰੰਜਨੁ ਤ੍ਰਿਭਵਣ ਧਣੀ ॥
माहि निरंजनु त्रिभवण धणी ॥
तीनों लोकों का मालिक परमेश्वर कमल में निवास करता है और
ਪੰਚ ਸਬਦ ਨਿਰਮਾਇਲ ਬਾਜੇ ॥
पंच सबद निरमाइल बाजे ॥
वहाँ निर्मल पंच शब्द गूंजते रहते हैं।
ਢੁਲਕੇ ਚਵਰ ਸੰਖ ਘਨ ਗਾਜੇ ॥
ढुलके चवर संख घन गाजे ॥
वहाँ चॅवर झूलते हैं और शंखनाद होता रहता है।
ਦਲਿ ਮਲਿ ਦੈਤਹੁ ਗੁਰਮੁਖਿ ਗਿਆਨੁ ॥
दलि मलि दैतहु गुरमुखि गिआनु ॥
साधक गुरु से ज्ञान लेकर काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार रूपी दैत्यों का दमन कर देता है।
ਬੇਣੀ ਜਾਚੈ ਤੇਰਾ ਨਾਮੁ ॥੯॥੧॥
बेणी जाचै तेरा नामु ॥९॥१॥
बेणी कहते हैं कि हे प्रभु ! मैं तो तेरा नाम ही माँगता हूँ॥ ६॥ १॥