Hindi Page 756

ਸਚਾ ਸਾਹੁ ਸਚੇ ਵਣਜਾਰੇ ਓਥੈ ਕੂੜੇ ਨਾ ਟਿਕੰਨਿ ॥
सचा साहु सचे वणजारे ओथै कूड़े ना टिकंनि ॥
परमात्मा सच्चा साहूकार है और उसके संत सच्चे व्यापारी हैं। झूठ के व्यापारी सत्य के द्वार पर टिक ही नहीं सकते।

ਓਨਾ ਸਚੁ ਨ ਭਾਵਈ ਦੁਖ ਹੀ ਮਾਹਿ ਪਚੰਨਿ ॥੧੮॥
ओना सचु न भावई दुख ही माहि पचंनि ॥१८॥
चूंकि उन्हें सत्य अच्छा नहीं लगता और वह दुखों में ही बर्बाद हो जाते हैं।॥ १८॥

ਹਉਮੈ ਮੈਲਾ ਜਗੁ ਫਿਰੈ ਮਰਿ ਜੰਮੈ ਵਾਰੋ ਵਾਰ ॥
हउमै मैला जगु फिरै मरि जमै वारो वार ॥
अहंकार से अपवित्र हुआ यह जगत् भटकता रहता है और बार-बार जन्मता-मरता रहता है।

ਪਇਐ ਕਿਰਤਿ ਕਮਾਵਣਾ ਕੋਇ ਨ ਮੇਟਣਹਾਰ ॥੧੯॥
पइऐ किरति कमावणा कोइ न मेटणहार ॥१९॥
पूर्व जन्म के कर्मानुसार जो उसकी तकदीर में लिखा होता है, वह वही कर्म करता है, और उसकी तकदीर को मिटाने वाला कोई नहीं है॥ १६॥

ਸੰਤਾ ਸੰਗਤਿ ਮਿਲਿ ਰਹੈ ਤਾ ਸਚਿ ਲਗੈ ਪਿਆਰੁ ॥
संता संगति मिलि रहै ता सचि लगै पिआरु ॥
यदि मनुष्य संतों की संगति में मिला रहे तो उसका सत्य से प्रेम हो जाता है।

ਸਚੁ ਸਲਾਹੀ ਸਚੁ ਮਨਿ ਦਰਿ ਸਚੈ ਸਚਿਆਰੁ ॥੨੦॥
सचु सलाही सचु मनि दरि सचै सचिआरु ॥२०॥
वह सत्य का स्तुतिगान करता है, सत्य को ही अपने मन में बसा लेता है। फिर वह सत्य के द्वार पर सत्यवादी बन जाता है।॥ २०॥

ਗੁਰ ਪੂਰੇ ਪੂਰੀ ਮਤਿ ਹੈ ਅਹਿਨਿਸਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇ ॥
गुर पूरे पूरी मति है अहिनिसि नामु धिआइ ॥
हे भाई ! पूर्ण गुरु की मति पूर्ण है और उसकी मति द्वारा रात-दिन प्रभु नाम का ध्यान करता रहता हूँ।

ਹਉਮੈ ਮੇਰਾ ਵਡ ਰੋਗੁ ਹੈ ਵਿਚਹੁ ਠਾਕਿ ਰਹਾਇ ॥੨੧॥
हउमै मेरा वड रोगु है विचहु ठाकि रहाइ ॥२१॥
अहंकार का रोग बहुत बड़ा है। लेकिन इस पर अपने मन से अंकुश लगा दिया है॥ २१॥

ਗੁਰੁ ਸਾਲਾਹੀ ਆਪਣਾ ਨਿਵਿ ਨਿਵਿ ਲਾਗਾ ਪਾਇ ॥
गुरु सालाही आपणा निवि निवि लागा पाइ ॥
मैं गुरु की स्तुति करता रहता हूँ और झुक झुक कर उसके चरणों में लगता हूँ।

ਤਨੁ ਮਨੁ ਸਉਪੀ ਆਗੈ ਧਰੀ ਵਿਚਹੁ ਆਪੁ ਗਵਾਇ ॥੨੨॥
तनु मनु सउपी आगै धरी विचहु आपु गवाइ ॥२२॥
मैंने अहंत्व को दूर करके अपना मन एवं तन गुरु को सौंपकर उसके समक्ष रख दिया है॥ २२॥

ਖਿੰਚੋਤਾਣਿ ਵਿਗੁਚੀਐ ਏਕਸੁ ਸਿਉ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥
खिंचोताणि विगुचीऐ एकसु सिउ लिव लाइ ॥
फँसकर जीव ख्वार होता रहता है, इसलिए एक ईश्वर से ही वृत्ति लगानी चाहिए।

ਹਉਮੈ ਮੇਰਾ ਛਡਿ ਤੂ ਤਾ ਸਚਿ ਰਹੈ ਸਮਾਇ ॥੨੩॥
हउमै मेरा छडि तू ता सचि रहै समाइ ॥२३॥
हे तू अपना अहंत्व एवं ममत्व छोड़ दे तो ही तू सत्य में समाया रहेगा ॥ २३॥

ਸਤਿਗੁਰ ਨੋ ਮਿਲੇ ਸਿ ਭਾਇਰਾ ਸਚੈ ਸਬਦਿ ਲਗੰਨਿ ॥
सतिगुर नो मिले सि भाइरा सचै सबदि लगंनि ॥
जो व्यक्ति मिले हैं, वही मेरे भाई हैं और सच्चे शब्द में ही प्रवृत्त रहते हैं।

ਸਚਿ ਮਿਲੇ ਸੇ ਨ ਵਿਛੁੜਹਿ ਦਰਿ ਸਚੈ ਦਿਸੰਨਿ ॥੨੪॥
सचि मिले से न विछुड़हि दरि सचै दिसंनि ॥२४॥
जो सत्य से मिल गए हैं, वे दोबारा उससे जुदा नहीं होते और सत्य के द्वार पर सत्यवादी दिखाई देते हैं।॥ २४॥

ਸੇ ਭਾਈ ਸੇ ਸਜਣਾ ਜੋ ਸਚਾ ਸੇਵੰਨਿ ॥
से भाई से सजणा जो सचा सेवंनि ॥
जो सच्चे प्रभु की उपासना करते हैं, वही मेरे भाई हैं, और वही मेरे सज्जन हैं।

ਅਵਗਣ ਵਿਕਣਿ ਪਲ੍ਹ੍ਹਰਨਿ ਗੁਣ ਕੀ ਸਾਝ ਕਰੰਨੑਿ ॥੨੫॥
अवगण विकणि पल्हरनि गुण की साझ करंन्हि ॥२५॥
वे अपने व्यर्थ अवगुणों को बेचकर, गुरु से गुणों की भागीदारी करते हैं।॥ २५॥

ਗੁਣ ਕੀ ਸਾਝ ਸੁਖੁ ਊਪਜੈ ਸਚੀ ਭਗਤਿ ਕਰੇਨਿ ॥
गुण की साझ सुखु ऊपजै सची भगति करेनि ॥
गुणों की भागीदारी करने से उनके मन में बड़ा सुख उत्पन्न होता है और वे सच्ची भक्ति ही करते रहते हैं।

ਸਚੁ ਵਣੰਜਹਿ ਗੁਰ ਸਬਦ ਸਿਉ ਲਾਹਾ ਨਾਮੁ ਲਏਨਿ ॥੨੬॥
सचु वणंजहि गुर सबद सिउ लाहा नामु लएनि ॥२६॥
वे गुरु के शब्द द्वारा सत्य-नाम का व्यापार करते हैं और नाम रूपी लाभ हासिल करते हैं।॥ २६ ॥

ਸੁਇਨਾ ਰੁਪਾ ਪਾਪ ਕਰਿ ਕਰਿ ਸੰਚੀਐ ਚਲੈ ਨ ਚਲਦਿਆ ਨਾਲਿ ॥
सुइना रुपा पाप करि करि संचीऐ चलै न चलदिआ नालि ॥
मनुष्य पाप कर-करके सोना-चांदी इत्यादि धन इकट्ठा करता रहता है लेकिन चलते समय ये उसके साथ नहीं जाता।

ਵਿਣੁ ਨਾਵੈ ਨਾਲਿ ਨ ਚਲਸੀ ਸਭ ਮੁਠੀ ਜਮਕਾਲਿ ॥੨੭॥
विणु नावै नालि न चलसी सभ मुठी जमकालि ॥२७॥
नाम के सिवा कुछ भी मनुष्य के साथ नहीं जाता और यम ने तो सारी दुनिया को ठग लिया है॥ २७ ॥

ਮਨ ਕਾ ਤੋਸਾ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਹੈ ਹਿਰਦੈ ਰਖਹੁ ਸਮ੍ਹ੍ਹਾਲਿ ॥
मन का तोसा हरि नामु है हिरदै रखहु सम्हालि ॥
मन का सफर-खर्च केवल हरि का नाम है, इसे अपने हृदय में संभाल कर रखो !

ਏਹੁ ਖਰਚੁ ਅਖੁਟੁ ਹੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਿਬਹੈ ਨਾਲਿ ॥੨੮॥
एहु खरचु अखुटु है गुरमुखि निबहै नालि ॥२८॥
यह नाम रूपी सफर-खर्च अक्षय है और यह अन्तिम समय गुरुमुख का साथ निभाता है॥ २८ ॥

ਏ ਮਨ ਮੂਲਹੁ ਭੁਲਿਆ ਜਾਸਹਿ ਪਤਿ ਗਵਾਇ ॥
ए मन मूलहु भुलिआ जासहि पति गवाइ ॥
हे मेरे मन ! तू जगत् के मूल प्रभु को भूला हुआ है, तू अपनी इज्जत गंवा कर यहाँ से चला जाएगा।

ਇਹੁ ਜਗਤੁ ਮੋਹਿ ਦੂਜੈ ਵਿਆਪਿਆ ਗੁਰਮਤੀ ਸਚੁ ਧਿਆਇ ॥੨੯॥
इहु जगतु मोहि दूजै विआपिआ गुरमती सचु धिआइ ॥२९॥
यह जगत् तो माया के मोह में ही फँसा हुआ है, इसलिए गुरु की शिक्षा द्वारा सत्य का ध्यान किया कर॥ २९॥

ਹਰਿ ਕੀ ਕੀਮਤਿ ਨਾ ਪਵੈ ਹਰਿ ਜਸੁ ਲਿਖਣੁ ਨ ਜਾਇ ॥
हरि की कीमति ना पवै हरि जसु लिखणु न जाइ ॥
हरि का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता और न ही हरि-यश लिखा जा सकता है।

ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਮਨੁ ਤਨੁ ਰਪੈ ਹਰਿ ਸਿਉ ਰਹੈ ਸਮਾਇ ॥੩੦॥
गुर कै सबदि मनु तनु रपै हरि सिउ रहै समाइ ॥३०॥
जब इन्सान का मन एवं तन गुरु के शब्द में रंग जाता है तो वह हरि में लीन हुआ रहता है॥ ३०॥

ਸੋ ਸਹੁ ਮੇਰਾ ਰੰਗੁਲਾ ਰੰਗੇ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ॥
सो सहु मेरा रंगुला रंगे सहजि सुभाइ ॥
मेरा वह पति-प्रभु बड़ा ही रंगीला है और वह सहज स्वभाव ही मुझे प्रेम में रंग देता है।

ਕਾਮਣਿ ਰੰਗੁ ਤਾ ਚੜੈ ਜਾ ਪਿਰ ਕੈ ਅੰਕਿ ਸਮਾਇ ॥੩੧॥
कामणि रंगु ता चड़ै जा पिर कै अंकि समाइ ॥३१॥
जीव रूपी कामिनी को प्रेम का रंग तभी चढ़ता है, जब वह प्रभु के चरणों में लगती है॥ ३१ ॥

ਚਿਰੀ ਵਿਛੁੰਨੇ ਭੀ ਮਿਲਨਿ ਜੋ ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵੰਨਿ ॥
चिरी विछुंने भी मिलनि जो सतिगुरु सेवंनि ॥
जो सतगुरु की सेवा करते हैं, वे चिरकाल से बिछुड़े हुए भी प्रभु से मिल जाते हैं।

ਅੰਤਰਿ ਨਵ ਨਿਧਿ ਨਾਮੁ ਹੈ ਖਾਨਿ ਖਰਚਨਿ ਨ ਨਿਖੁਟਈ ਹਰਿ ਗੁਣ ਸਹਜਿ ਰਵੰਨਿ ॥੩੨॥
अंतरि नव निधि नामु है खानि खरचनि न निखुटई हरि गुण सहजि रवंनि ॥३२॥
उनके हृदय में ही नवनिधियों वाला प्रभु का नाम बसता है, जो उनके उपयोग करने से एवं दूसरों को बांटने से समाप्त नहीं होता। वे सहज ही हरि के गुण स्मरण करते रहते हैं।॥ ३२॥

ਨਾ ਓਇ ਜਨਮਹਿ ਨਾ ਮਰਹਿ ਨਾ ਓਇ ਦੁਖ ਸਹੰਨਿ ॥
ना ओइ जनमहि ना मरहि ना ओइ दुख सहंनि ॥
ऐसे व्यक्ति न ही बार-बार जन्मते हैं, न ही मरते हैं और न ही दुख सहन करते हैं।

ਗੁਰਿ ਰਾਖੇ ਸੇ ਉਬਰੇ ਹਰਿ ਸਿਉ ਕੇਲ ਕਰੰਨਿ ॥੩੩॥
गुरि राखे से उबरे हरि सिउ केल करंनि ॥३३॥
जिनकी गुरु ने रक्षा की है, वे भवसागर में डूबने से बच गए हैं, वे हरि से मिलकर आनंद करते हैं।॥ ३३॥

ਸਜਣ ਮਿਲੇ ਨ ਵਿਛੁੜਹਿ ਜਿ ਅਨਦਿਨੁ ਮਿਲੇ ਰਹੰਨਿ ॥
सजण मिले न विछुड़हि जि अनदिनु मिले रहंनि ॥
जो सज्जन प्रभु से मिले रहते हैं, वे कभी उससे बिछुड़ते नहीं।

ਇਸੁ ਜਗ ਮਹਿ ਵਿਰਲੇ ਜਾਣੀਅਹਿ ਨਾਨਕ ਸਚੁ ਲਹੰਨਿ ॥੩੪॥੧॥੩॥
इसु जग महि विरले जाणीअहि नानक सचु लहंनि ॥३४॥१॥३॥
हे नानक ! इस जग में विरले पुरुष ही जाने जाते हैं, जो सत्य को प्राप्त कर लेते हैं।॥ ३४ ॥ १ ॥ ३ ॥

ਸੂਹੀ ਮਹਲਾ ੩ ॥
सूही महला ३ ॥
सूही महला ३ ॥

ਹਰਿ ਜੀ ਸੂਖਮੁ ਅਗਮੁ ਹੈ ਕਿਤੁ ਬਿਧਿ ਮਿਲਿਆ ਜਾਇ ॥
हरि जी सूखमु अगमु है कितु बिधि मिलिआ जाइ ॥
परमेश्वर सूक्ष्म एवं अगम्य है, फिर उसे किस विधि द्वारा मिला जाए?

ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਭ੍ਰਮੁ ਕਟੀਐ ਅਚਿੰਤੁ ਵਸੈ ਮਨਿ ਆਇ ॥੧॥
गुर कै सबदि भ्रमु कटीऐ अचिंतु वसै मनि आइ ॥१॥
जब गुरु के शब्द द्वारा भ्रम का नाश हो जाता है तो वह नैसर्गिक ही मन में आकर बस जाता है॥ १॥

ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਜਪੰਨਿ ॥
गुरमुखि हरि हरि नामु जपंनि ॥
गुरुमुख परमात्मा का नाम ही जपते रहते हैं।

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