ਅੰਤਿ ਕਾਲਿ ਪਛੁਤਾਸੀ ਅੰਧੁਲੇ ਜਾ ਜਮਿ ਪਕੜਿ ਚਲਾਇਆ ॥
अंति कालि पछुतासी अंधुले जा जमि पकड़ि चलाइआ
अज्ञानी प्राणी, अन्तकाल पश्चाताप करता है, जब यमदूत इसे आ पकड़ते हैं अर्थात् काल आने पर प्राणी पछतावा करने लगता है।
ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਅਪੁਨਾ ਕਰਿ ਕਰਿ ਰਾਖਿਆ ਖਿਨ ਮਹਿ ਭਇਆ ਪਰਾਇਆ ॥
सभु किछु अपुना करि करि राखिआ खिन महि भइआ पराइआ ॥
वह सब कुछ जिसे प्रतिदिन वह अपना कहता था, क्षण में ही उससे पराया हो जाता है।
ਬੁਧਿ ਵਿਸਰਜੀ ਗਈ ਸਿਆਣਪ ਕਰਿ ਅਵਗਣ ਪਛੁਤਾਇ ॥
बुधि विसरजी गई सिआणप करि अवगण पछुताइ ॥
यमदूतों के वश पड़ते ही प्राणी का विवेक कुष्ठित हो जाता है। सारी चतुराई धरी रह जाती है और वह अपने अवगुणों को याद कर-करके पछताने लगता है।
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਾਣੀ ਤੀਜੈ ਪਹਰੈ ਪ੍ਰਭੁ ਚੇਤਹੁ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥੩॥
कहु नानक प्राणी तीजै पहरै प्रभु चेतहु लिव लाइ ॥३॥
नानक ! जीवन रूपी रात्रि के तृतीय प्रहर में चित्त लगाकर भगवान का सिमरन करो ॥३॥
ਚਉਥੈ ਪਹਰੈ ਰੈਣਿ ਕੈ ਵਣਜਾਰਿਆ ਮਿਤ੍ਰਾ ਬਿਰਧਿ ਭਇਆ ਤਨੁ ਖੀਣੁ ॥
चउथै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा बिरधि भइआ तनु खीणु ॥
हे मेरे वणजारे मित्र ! जीवन रूपी रात्रि के चतुर्थ प्रहर में शरीर वृद्ध होकर क्षीण हो जाता है। तन में कमजोरी आ जाती है।
ਅਖੀ ਅੰਧੁ ਨ ਦੀਸਈ ਵਣਜਾਰਿਆ ਮਿਤ੍ਰਾ ਕੰਨੀ ਸੁਣੈ ਨ ਵੈਣ ॥
अखी अंधु न दीसई वणजारिआ मित्रा कंनी सुणै न वैण ॥
हे मेरे वणजारे मित्र ! आंखों-कानों की शक्ति भी चली जाती है, उसे आंखों से दिखाई नहीं देता और कानों से वह सुन नहीं पाता।
ਅਖੀ ਅੰਧੁ ਜੀਭ ਰਸੁ ਨਾਹੀ ਰਹੇ ਪਰਾਕਉ ਤਾਣਾ ॥
अखी अंधु जीभ रसु नाही रहे पराकउ ताणा ॥
दाँतों की असमर्थता के कारण जिव्हा का रस भी जाता रहता है और वह पराए सहारे की आशा में जीवनयापन करने लगता है।
ਗੁਣ ਅੰਤਰਿ ਨਾਹੀ ਕਿਉ ਸੁਖੁ ਪਾਵੈ ਮਨਮੁਖ ਆਵਣ ਜਾਣਾ ॥
गुण अंतरि नाही किउ सुखु पावै मनमुख आवण जाणा ॥
उस मनमुख के भीतर कोई आध्यात्मिक गुण कभी नहीं पनपता, इसलिए उसे सुख कैसे प्राप्त हो। बेचारा यूं ही जीवन-मरण के चक्र में पड़ा रहता है।
ਖੜੁ ਪਕੀ ਕੁੜਿ ਭਜੈ ਬਿਨਸੈ ਆਇ ਚਲੈ ਕਿਆ ਮਾਣੁ ॥
खड़ु पकी कुड़ि भजै बिनसै आइ चलै किआ माणु ॥
शरीर-रूपी खेती पककर झुक जाती है। कभी अपने आप अंग टूटते लगते हैं, शरीर नष्ट हो जाता है। प्राणी के जीवन-मरण की इस लोक में कोई प्रतिष्ठा नहीं रह जाती।
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਾਣੀ ਚਉਥੈ ਪਹਰੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਬਦੁ ਪਛਾਣੁ ॥੪॥
कहु नानक प्राणी चउथै पहरै गुरमुखि सबदु पछाणु ॥४॥
हे नानक ! प्राणी को अपनी जीवन रूपी रात्रि के चतुर्थ प्रहर में गुरु के माध्यम से नाम की पहचान करनी चाहिए ॥४॥
ਓੜਕੁ ਆਇਆ ਤਿਨ ਸਾਹਿਆ ਵਣਜਾਰਿਆ ਮਿਤ੍ਰਾ ਜਰੁ ਜਰਵਾਣਾ ਕੰਨਿ ॥
ओड़कु आइआ तिन साहिआ वणजारिआ मित्रा जरु जरवाणा कंनि ॥
हे मेरे वणजारे मित्र ! जब जीव को मिले श्वासों का अन्तिम समय निकट आ जाता है तो जालिम बुढापा उसके कंधों पर आ चढ़ता है।
ਇਕ ਰਤੀ ਗੁਣ ਨ ਸਮਾਣਿਆ ਵਣਜਾਰਿਆ ਮਿਤ੍ਰਾ ਅਵਗਣ ਖੜਸਨਿ ਬੰਨਿ ॥
इक रती गुण न समाणिआ वणजारिआ मित्रा अवगण खड़सनि बंनि ॥
हे मेरे वणजारे मित्र ! जिस जीव ने अपने हृदय में कोई गुण संचित नहीं किए उसके अवगुण ही उसे बांधकर ले जाते हैं।
ਗੁਣ ਸੰਜਮਿ ਜਾਵੈ ਚੋਟ ਨ ਖਾਵੈ ਨਾ ਤਿਸੁ ਜੰਮਣੁ ਮਰਣਾ ॥
गुण संजमि जावै चोट न खावै ना तिसु जमणु मरणा ॥
जो जीव संयम,ध्यान एवं समाधि द्वारा अपने भीतर गुण पैदा करके दुनिया से जाता है, वह यमों की मार नहीं खाता और उसका जन्म-मरण मिट जाता है।
ਕਾਲੁ ਜਾਲੁ ਜਮੁ ਜੋਹਿ ਨ ਸਾਕੈ ਭਾਇ ਭਗਤਿ ਭੈ ਤਰਣਾ ॥
कालु जालु जमु जोहि न साकै भाइ भगति भै तरणा ॥
वह यम के जाल में नहीं फंसता और यम उसकी तरफ दृष्टि नहीं करता। वह प्रेमपूर्वक भगवान की भक्ति करके भवसागर से पार हो जाता है।
ਪਤਿ ਸੇਤੀ ਜਾਵੈ ਸਹਜਿ ਸਮਾਵੈ ਸਗਲੇ ਦੂਖ ਮਿਟਾਵੈ ॥
पति सेती जावै सहजि समावै सगले दूख मिटावै ॥
फिर प्रभु के दरबार में उसे बड़ी शोभा प्राप्त होती है। वह सहज ही भगवान में समा जाता है और उसके सभी दुःख मिट जाते हैं।
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਾਣੀ ਗੁਰਮੁਖਿ ਛੂਟੈ ਸਾਚੇ ਤੇ ਪਤਿ ਪਾਵੈ ॥੫॥੨॥
कहु नानक प्राणी गुरमुखि छूटै साचे ते पति पावै ॥५॥२॥
हे नानक ! गुरु के माध्यम से ही प्राणी की जीवन-मृत्यु से मुक्ति होती है और वह सत्य प्रभु से सम्मान प्राप्त करता हे ॥५॥२॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੪ ॥
सिरीरागु महला ४ ॥
श्रीरागु महला ੪ ॥
ਪਹਿਲੈ ਪਹਰੈ ਰੈਣਿ ਕੈ ਵਣਜਾਰਿਆ ਮਿਤ੍ਰਾ ਹਰਿ ਪਾਇਆ ਉਦਰ ਮੰਝਾਰਿ ॥
पहिलै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा हरि पाइआ उदर मंझारि ॥
हे मेरे वणजारे मित्र ! जीवन रूपी रात्रि के प्रथम प्रहर में ईश्वर प्राणी को माँ के गर्भ में डाल देता है।
ਹਰਿ ਧਿਆਵੈ ਹਰਿ ਉਚਰੈ ਵਣਜਾਰਿਆ ਮਿਤ੍ਰਾ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਸਮਾਰਿ ॥
हरि धिआवै हरि उचरै वणजारिआ मित्रा हरि हरि नामु समारि ॥
हे वणजारे मित्र ! माँ के उदर में पड़ा प्राणी ईश्वर की आराधना करता है, वह हरि का नाम अपने मुख से उच्चरित करता रहता है। वह अपने मन द्वारा हरि नाम का सिमरन करता रहता है।
ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਜਪੇ ਆਰਾਧੇ ਵਿਚਿ ਅਗਨੀ ਹਰਿ ਜਪਿ ਜੀਵਿਆ ॥
हरि हरि नामु जपे आराधे विचि अगनी हरि जपि जीविआ ॥
प्राणी बार-बार हरि-नाम की स्तुति और आराधना करता है। गर्भ की अग्नि में वह परमात्मा के नाम के कारण ही जीवित रह पाता है।
ਬਾਹਰਿ ਜਨਮੁ ਭਇਆ ਮੁਖਿ ਲਾਗਾ ਸਰਸੇ ਪਿਤਾ ਮਾਤ ਥੀਵਿਆ ॥
बाहरि जनमु भइआ मुखि लागा सरसे पिता मात थीविआ ॥
जब वह जन्म लेकर माँ के गर्भ में से बाहर आता है तो माता-पिता उसका मुख देखकर प्रसन्न होते हैं।
ਜਿਸ ਕੀ ਵਸਤੁ ਤਿਸੁ ਚੇਤਹੁ ਪ੍ਰਾਣੀ ਕਰਿ ਹਿਰਦੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੀਚਾਰਿ ॥
जिस की वसतु तिसु चेतहु प्राणी करि हिरदै गुरमुखि बीचारि ॥
हे प्राणी ! जिसकी यह वस्तु (बालक) है। उसे स्मरण करो। गुरु की दया से अपने हृदय में हरि-नाम का स्मरण करो।
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਾਣੀ ਪਹਿਲੈ ਪਹਰੈ ਹਰਿ ਜਪੀਐ ਕਿਰਪਾ ਧਾਰਿ ॥੧॥
कहु नानक प्राणी पहिलै पहरै हरि जपीऐ किरपा धारि ॥१॥
हे नानक ! जीवन रूपी रात्रि के प्रथम प्रहर में तभी नाम-सिमरन किया जा सकता है। यदि भगवान अपनी कृपा धारण करें ॥१॥
ਦੂਜੈ ਪਹਰੈ ਰੈਣਿ ਕੈ ਵਣਜਾਰਿਆ ਮਿਤ੍ਰਾ ਮਨੁ ਲਾਗਾ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ॥
दूजै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा मनु लागा दूजै भाइ ॥
हे मेरे वणजारे मित्र ! जीवन रूपी रात्रि के द्वितीय प्रहर में प्राणी का मन माया के आकर्षणों में लीन हो जाता है।
ਮੇਰਾ ਮੇਰਾ ਕਰਿ ਪਾਲੀਐ ਵਣਜਾਰਿਆ ਮਿਤ੍ਰਾ ਲੇ ਮਾਤ ਪਿਤਾ ਗਲਿ ਲਾਇ ॥
मेरा मेरा करि पालीऐ वणजारिआ मित्रा ले मात पिता गलि लाइ ॥
माता-पिता उसे ‘मेरा-मेरा’ करके बड़े प्यार से पालन-पोषण करते हैं और उसे अपने गले से लगाते हैं।
ਲਾਵੈ ਮਾਤ ਪਿਤਾ ਸਦਾ ਗਲ ਸੇਤੀ ਮਨਿ ਜਾਣੈ ਖਟਿ ਖਵਾਏ ॥
लावै मात पिता सदा गल सेती मनि जाणै खटि खवाए ॥
माता-पिता (स्वार्थवश) गले से लगाते हुए सोचते हैं कि वह बड़ा होकर उन्हें कमाकर खिलाएगा।
ਜੋ ਦੇਵੈ ਤਿਸੈ ਨ ਜਾਣੈ ਮੂੜਾ ਦਿਤੇ ਨੋ ਲਪਟਾਏ ॥
जो देवै तिसै न जाणै मूड़ा दिते नो लपटाए ॥
प्राणी कितना मूर्ख है कि देने वाले (दाता) को तो पहचानने का प्रयास नहीं करता और उसकी प्रदान की हुई नश्वर वस्तुओं से लिपटता फिरता है।
ਕੋਈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਵੈ ਸੁ ਕਰੈ ਵੀਚਾਰੁ ਹਰਿ ਧਿਆਵੈ ਮਨਿ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥
कोई गुरमुखि होवै सु करै वीचारु हरि धिआवै मनि लिव लाइ ॥
कोई गुरमुख ही भक्ति करता है और वह अपने मन में सुरति लगाकर भगवान का ध्यान करता है।
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਦੂਜੈ ਪਹਰੈ ਪ੍ਰਾਣੀ ਤਿਸੁ ਕਾਲੁ ਨ ਕਬਹੂੰ ਖਾਇ ॥੨॥
कहु नानक दूजै पहरै प्राणी तिसु कालु न कबहूं खाइ ॥२॥
हे नानक ! जीवन रूपी रात्रि के द्वितीय प्रहर में जो प्राणी भगवान का ध्यान करता है, उसे काल कदापि नहीं निगलता ॥२ ॥
ਤੀਜੈ ਪਹਰੈ ਰੈਣਿ ਕੈ ਵਣਜਾਰਿਆ ਮਿਤ੍ਰਾ ਮਨੁ ਲਗਾ ਆਲਿ ਜੰਜਾਲਿ ॥
तीजै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा मनु लगा आलि जंजालि ॥
हे मेरे वणजारे मित्र ! जीवन रूपी रात्रि के तृतीय प्रहर में मनुष्य का मन दुनिया के धंधे-व्यवहार में आसक्त हो जाता है।
ਧਨੁ ਚਿਤਵੈ ਧਨੁ ਸੰਚਵੈ ਵਣਜਾਰਿਆ ਮਿਤ੍ਰਾ ਹਰਿ ਨਾਮਾ ਹਰਿ ਨ ਸਮਾਲਿ ॥
धनु चितवै धनु संचवै वणजारिआ मित्रा हरि नामा हरि न समालि ॥
वह धन-दौलत का ही ध्यान करता है और धन-दौलत ही संग्रह करता है। हे मेरे वणजारे मित्र ! परन्तु हरि-नाम और हरि का चिन्तन नहीं करता।
ਹਰਿ ਨਾਮਾ ਹਰਿ ਹਰਿ ਕਦੇ ਨ ਸਮਾਲੈ ਜਿ ਹੋਵੈ ਅੰਤਿ ਸਖਾਈ ॥
हरि नामा हरि हरि कदे न समालै जि होवै अंति सखाई ॥
वह कदाचित हरि-नाम और स्वामी हरेि को स्मरण नहीं करता, जो अंत में उसका सहायक होना है।