ਨਾਨਕ ਕੀ ਪ੍ਰਭ ਬੇਨਤੀ ਹਰਿ ਭਾਵੈ ਬਖਸਿ ਮਿਲਾਇ ॥੪੧॥
नानक की प्रभ बेनती हरि भावै बखसि मिलाइ ॥४१॥
नानक की प्रभु से विनती है कि यदि तुझे ठीक लगे तो हमें बख्श कर अपने साथ मिला लो॥४१॥
ਮਨ ਆਵਣ ਜਾਣੁ ਨ ਸੁਝਈ ਨਾ ਸੁਝੈ ਦਰਬਾਰੁ ॥
मन आवण जाणु न सुझई ना सुझै दरबारु ॥
मन को आवागमन की कोई सूझ नहीं और न ही प्रभु दरबार का ज्ञान है।
ਮਾਇਆ ਮੋਹਿ ਪਲੇਟਿਆ ਅੰਤਰਿ ਅਗਿਆਨੁ ਗੁਬਾਰੁ ॥
माइआ मोहि पलेटिआ अंतरि अगिआनु गुबारु ॥
मन माया-मोह में लीन होकर अज्ञान के अन्धेरे में ही रहता है।
ਤਬ ਨਰੁ ਸੁਤਾ ਜਾਗਿਆ ਸਿਰਿ ਡੰਡੁ ਲਗਾ ਬਹੁ ਭਾਰੁ ॥
तब नरु सुता जागिआ सिरि डंडु लगा बहु भारु ॥
जब यम का भारी दण्ड लगता है तो ही व्यक्ति मोह की निद्रा से जागता है।
ਗੁਰਮੁਖਾਂ ਕਰਾਂ ਉਪਰਿ ਹਰਿ ਚੇਤਿਆ ਸੇ ਪਾਇਨਿ ਮੋਖ ਦੁਆਰੁ ॥
गुरमुखां करां उपरि हरि चेतिआ से पाइनि मोख दुआरु ॥
गुरमुख हरदम परमात्मा की स्तुति में लीन रहते हैं और वे मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
ਨਾਨਕ ਆਪਿ ਓਹਿ ਉਧਰੇ ਸਭ ਕੁਟੰਬ ਤਰੇ ਪਰਵਾਰ ॥੪੨॥
नानक आपि ओहि उधरे सभ कुट्मब तरे परवार ॥४२॥
हे नानक ! वे स्वयं तो मुक्त होते ही हैं, पूरे परिवार को पार करवा देते हैं ॥४२॥
ਸਬਦਿ ਮਰੈ ਸੋ ਮੁਆ ਜਾਪੈ ॥
सबदि मरै सो मुआ जापै ॥
असल में वही मरता है, जो शब्द से (विकारों की ओर से) मरता है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਹਰਿ ਰਸਿ ਧ੍ਰਾਪੈ ॥
गुर परसादी हरि रसि ध्रापै ॥
गुरु की कृपा से हरि भजन का आनंद प्राप्त होता और
ਹਰਿ ਦਰਗਹਿ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਸਿਞਾਪੈ ॥
हरि दरगहि गुर सबदि सिञापै ॥
शब्द-गुरु से प्रभु-दरबार में सम्मान हासिल होता है।
ਬਿਨੁ ਸਬਦੈ ਮੁਆ ਹੈ ਸਭੁ ਕੋਇ ॥
बिनु सबदै मुआ है सभु कोइ ॥
शब्द के बिना हर कोई मरता है,
ਮਨਮੁਖੁ ਮੁਆ ਅਪੁਨਾ ਜਨਮੁ ਖੋਇ ॥
मनमुखु मुआ अपुना जनमु खोइ ॥
पर मनमुख मरकर अपना जीवन गंवा देते हैं।
ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਨ ਚੇਤਹਿ ਅੰਤਿ ਦੁਖੁ ਰੋਇ ॥
हरि नामु न चेतहि अंति दुखु रोइ ॥
वे ईश्वर को स्मरण नहीं करते और आखिर में दुख-मुसीबतों में पड़कर रोते हैं।
ਨਾਨਕ ਕਰਤਾ ਕਰੇ ਸੁ ਹੋਇ ॥੪੩॥
नानक करता करे सु होइ ॥४३॥
गुरु नानक फुरनाते हैं कि दरअसल (इनका भी कोई कसूर नहीं) जो परमेश्वर करता है, वही होता है।॥४३॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੁਢੇ ਕਦੇ ਨਾਹੀ ਜਿਨੑਾ ਅੰਤਰਿ ਸੁਰਤਿ ਗਿਆਨੁ ॥
गुरमुखि बुढे कदे नाही जिन्हा अंतरि सुरति गिआनु ॥
जिनके मन में ज्ञान-ध्यान होता है, ऐसे गुरुमुख कभी बूढ़े नहीं होते।
ਸਦਾ ਸਦਾ ਹਰਿ ਗੁਣ ਰਵਹਿ ਅੰਤਰਿ ਸਹਜ ਧਿਆਨੁ ॥
सदा सदा हरि गुण रवहि अंतरि सहज धिआनु ॥
वे अन्तर्मन में सहज स्वाभाविक ध्यान लगाए रखते हैं और सदैव परमात्मा की प्रशंसा व गुण गान में मस्त रहते हैं।
ਓਇ ਸਦਾ ਅਨੰਦਿ ਬਿਬੇਕ ਰਹਹਿ ਦੁਖਿ ਸੁਖਿ ਏਕ ਸਮਾਨਿ ॥
ओइ सदा अनंदि बिबेक रहहि दुखि सुखि एक समानि ॥
वे सदैव आनंदमय एवं विवेकवान बने रहते हैं और दुख-सुख को बराबर ही मानते हैं।
ਤਿਨਾ ਨਦਰੀ ਇਕੋ ਆਇਆ ਸਭੁ ਆਤਮ ਰਾਮੁ ਪਛਾਨੁ ॥੪੪॥
तिना नदरी इको आइआ सभु आतम रामु पछानु ॥४४॥
उनको सब में परमात्मा ही दिखाई देता है और अन्तरात्मा में उनको ब्रह्म की पहचान हो जाती है।॥४४॥
ਮਨਮੁਖੁ ਬਾਲਕੁ ਬਿਰਧਿ ਸਮਾਨਿ ਹੈ ਜਿਨੑਾ ਅੰਤਰਿ ਹਰਿ ਸੁਰਤਿ ਨਾਹੀ ॥
मनमुखु बालकु बिरधि समानि है जिन्हा अंतरि हरि सुरति नाही ॥
स्वेच्छाचारी बच्चों-बूढ़ों की तरह हैं, जिनके मन में ईश्वर की स्मृति नहीं होती।
ਵਿਚਿ ਹਉਮੈ ਕਰਮ ਕਮਾਵਦੇ ਸਭ ਧਰਮ ਰਾਇ ਕੈ ਜਾਂਹੀ ॥
विचि हउमै करम कमावदे सभ धरम राइ कै जांही ॥
वे अभिमान में फँसकर कर्म करते हैं, जिस कारण यमराज ही उनके कर्मो का हिसाब करता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਛੇ ਨਿਰਮਲੇ ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਸੁਭਾਇ ॥
गुरमुखि हछे निरमले गुर कै सबदि सुभाइ ॥
जो गुरु के उपदेश में रत रहते हैं, ऐसे गुरुमुख अच्छे एवं दिल से निर्मल हैं।
ਓਨਾ ਮੈਲੁ ਪਤੰਗੁ ਨ ਲਗਈ ਜਿ ਚਲਨਿ ਸਤਿਗੁਰ ਭਾਇ ॥
ओना मैलु पतंगु न लगई जि चलनि सतिगुर भाइ ॥
वे सतिगुरु की रज़ानुसार जीवन-आचरण बिताते हैं और उनको कोई मोह-माया की मैल नहीं लगती।
ਮਨਮੁਖ ਜੂਠਿ ਨ ਉਤਰੈ ਜੇ ਸਉ ਧੋਵਣ ਪਾਇ ॥
मनमुख जूठि न उतरै जे सउ धोवण पाइ ॥
स्वेच्छाचारी को सौ बार भी धोया जाए परन्तु उसकी जूठन दूर नहीं होती।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਮੇਲਿਅਨੁ ਗੁਰ ਕੈ ਅੰਕਿ ਸਮਾਇ ॥੪੫॥
नानक गुरमुखि मेलिअनु गुर कै अंकि समाइ ॥४५॥
हे नानक ! गुरुमुख गुरु की शरण में ही समाए रहते हैं।॥४५॥
ਬੁਰਾ ਕਰੇ ਸੁ ਕੇਹਾ ਸਿਝੈ ॥
बुरा करे सु केहा सिझै ॥
जो किसी का बुरा करता है, उसकी भी क्या दशा होती है।
ਆਪਣੈ ਰੋਹਿ ਆਪੇ ਹੀ ਦਝੈ ॥
आपणै रोहि आपे ही दझै ॥
वह स्वयं भी क्रोध की ज्वाला में जलता रहता है।
ਮਨਮੁਖਿ ਕਮਲਾ ਰਗੜੈ ਲੁਝੈ ॥
मनमुखि कमला रगड़ै लुझै ॥
स्वेच्छाचारी पगला बना उलझनों में फँसा रहता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਇ ਤਿਸੁ ਸਭ ਕਿਛੁ ਸੁਝੈ ॥
गुरमुखि होइ तिसु सभ किछु सुझै ॥
जब गुरुमुख बन जाता है तो उसे सब ज्ञान हो जाता है।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਮਨ ਸਿਉ ਲੁਝੈ ॥੪੬॥
नानक गुरमुखि मन सिउ लुझै ॥४६॥
हे नानक ! गुरमुख मन से ही जूझता है॥४६॥
ਜਿਨਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਪੁਰਖੁ ਨ ਸੇਵਿਓ ਸਬਦਿ ਨ ਕੀਤੋ ਵੀਚਾਰੁ ॥
जिना सतिगुरु पुरखु न सेविओ सबदि न कीतो वीचारु ॥
जिन्होंने सतगुरु की सेवा नहीं की, न ही ब्रह्म-शब्द का चिंतन किया है,
ਓਇ ਮਾਣਸ ਜੂਨਿ ਨ ਆਖੀਅਨਿ ਪਸੂ ਢੋਰ ਗਾਵਾਰ ॥
ओइ माणस जूनि न आखीअनि पसू ढोर गावार ॥
वे मनुष्य नहीं, दरअसल ऐसे मूर्ख तो पशु कहलाने के हकदार हैं।
ਓਨਾ ਅੰਤਰਿ ਗਿਆਨੁ ਨ ਧਿਆਨੁ ਹੈ ਹਰਿ ਸਉ ਪ੍ਰੀਤਿ ਨ ਪਿਆਰੁ ॥
ओना अंतरि गिआनु न धिआनु है हरि सउ प्रीति न पिआरु ॥
उनके मन में कोई ज्ञान-ध्यान नहीं होता और वे ईश्वर से भी प्रेम नहीं करते।
ਮਨਮੁਖ ਮੁਏ ਵਿਕਾਰ ਮਹਿ ਮਰਿ ਜੰਮਹਿ ਵਾਰੋ ਵਾਰ ॥
मनमुख मुए विकार महि मरि जमहि वारो वार ॥
स्वेच्छाचारी विकारों में ही मरते हैं और बार-बार जन्म-मरण को प्राप्त होते हैं।
ਜੀਵਦਿਆ ਨੋ ਮਿਲੈ ਸੁ ਜੀਵਦੇ ਹਰਿ ਜਗਜੀਵਨ ਉਰ ਧਾਰਿ ॥
जीवदिआ नो मिलै सु जीवदे हरि जगजीवन उर धारि ॥
जिसने दिल में परमात्मा को बसाया है, उस आत्मिक रूप से जीवित गुरमुख को मिलकर अन्य भी जिंदा हो जाते है।
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸੋਹਣੇ ਤਿਤੁ ਸਚੈ ਦਰਬਾਰਿ ॥੪੭॥
नानक गुरमुखि सोहणे तितु सचै दरबारि ॥४७॥
गुरु नानक फुरमान करते हैं कि प्रभु के दरबार में गुरमुख ही सुन्दर लगते हैं॥४७॥
ਹਰਿ ਮੰਦਰੁ ਹਰਿ ਸਾਜਿਆ ਹਰਿ ਵਸੈ ਜਿਸੁ ਨਾਲਿ ॥
हरि मंदरु हरि साजिआ हरि वसै जिसु नालि ॥
शरीर रूपी हरिमन्दिर की रचना हरि ने ही की है और वह उसी में रह रहा है।
ਗੁਰਮਤੀ ਹਰਿ ਪਾਇਆ ਮਾਇਆ ਮੋਹ ਪਰਜਾਲਿ ॥
गुरमती हरि पाइआ माइआ मोह परजालि ॥
गुरु की शिक्षा से माया-मोह को दूर करने से ही हरि प्राप्त होता है।
ਹਰਿ ਮੰਦਰਿ ਵਸਤੁ ਅਨੇਕ ਹੈ ਨਵ ਨਿਧਿ ਨਾਮੁ ਸਮਾਲਿ ॥
हरि मंदरि वसतु अनेक है नव निधि नामु समालि ॥
हरिमन्दिर में अनेक वस्तुएँ मौजूद हैं, सुखों के भण्डार हरिनाम का स्मरण करो।
ਧਨੁ ਭਗਵੰਤੀ ਨਾਨਕਾ ਜਿਨਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਲਧਾ ਹਰਿ ਭਾਲਿ ॥
धनु भगवंती नानका जिना गुरमुखि लधा हरि भालि ॥
नानक फुरमान करते हैं- वह जीव-स्त्री धन्य एवं भाग्यशाली है, जिसने गुरु द्वारा प्रभु को प्राप्त किया है।
ਵਡਭਾਗੀ ਗੜ ਮੰਦਰੁ ਖੋਜਿਆ ਹਰਿ ਹਿਰਦੈ ਪਾਇਆ ਨਾਲਿ ॥੪੮॥
वडभागी गड़ मंदरु खोजिआ हरि हिरदै पाइआ नालि ॥४८॥
उस भाग्यशाली ने शरीर रूपी मन्दिर में खोजकर प्रभु को पा लिया है॥४८ ॥
ਮਨਮੁਖ ਦਹ ਦਿਸਿ ਫਿਰਿ ਰਹੇ ਅਤਿ ਤਿਸਨਾ ਲੋਭ ਵਿਕਾਰ ॥
मनमुख दह दिसि फिरि रहे अति तिसना लोभ विकार ॥
मनमति पुरुष तृष्णा, लोभ, विकारों में फँसकर दसों दिशाओं में भटकता रहता है।