ਚਾਰੇ ਕੁੰਡਾ ਝੋਕਿ ਵਰਸਦਾ ਬੂੰਦ ਪਵੈ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ॥
चारे कुंडा झोकि वरसदा बूंद पवै सहजि सुभाइ ॥
फिर चारों तरफ से कृपा की बारिश हो जाती है और सहज स्वाभाविक नाम-बूंद मुख में पड़ती है।
ਜਲ ਹੀ ਤੇ ਸਭ ਊਪਜੈ ਬਿਨੁ ਜਲ ਪਿਆਸ ਨ ਜਾਇ ॥
जल ही ते सभ ऊपजै बिनु जल पिआस न जाइ ॥
जल से ही सब उत्पन्न होता है और जल बिना प्यास दूर नहीं होती।
ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਜਲੁ ਜਿਨਿ ਪੀਆ ਤਿਸੁ ਭੂਖ ਨ ਲਾਗੈ ਆਇ ॥੫੫॥
नानक हरि जलु जिनि पीआ तिसु भूख न लागै आइ ॥५५॥
हे नानक ! जो हरिनाम रूपी जल का पान करता है, उसे कोई भूख नहीं लगती॥५५ ॥
ਬਾਬੀਹਾ ਤੂੰ ਸਹਜਿ ਬੋਲਿ ਸਚੈ ਸਬਦਿ ਸੁਭਾਇ ॥
बाबीहा तूं सहजि बोलि सचै सबदि सुभाइ ॥
हे जिज्ञासु-पपीहे! तू सहज स्वाभाविक सच्चे उपदेश का उच्चारण कर।
ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਤੇਰੈ ਨਾਲਿ ਹੈ ਸਤਿਗੁਰਿ ਦੀਆ ਦਿਖਾਇ ॥
सभु किछु तेरै नालि है सतिगुरि दीआ दिखाइ ॥
सतगुरु ने दिखा दिया है कि सब कुछ तेरे अन्तर में ही है।
ਆਪੁ ਪਛਾਣਹਿ ਪ੍ਰੀਤਮੁ ਮਿਲੈ ਵੁਠਾ ਛਹਬਰ ਲਾਇ ॥
आपु पछाणहि प्रीतमु मिलै वुठा छहबर लाइ ॥
यदि आत्मज्ञान की पहचान हो जाए तो प्रियतम मिल जाता है और कृपा की बरसात होने लग जाती है।
ਝਿਮਿ ਝਿਮਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਵਰਸਦਾ ਤਿਸਨਾ ਭੁਖ ਸਭ ਜਾਇ ॥
झिमि झिमि अम्रितु वरसदा तिसना भुख सभ जाइ ॥
फिरनाम-अमृत की रिमझिम बरसात होती है, जिससे तृष्णा एवं भूख निवृत्त हो जाती है।
ਕੂਕ ਪੁਕਾਰ ਨ ਹੋਵਈ ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਮਿਲਾਇ ॥
कूक पुकार न होवई जोती जोति मिलाइ ॥
आत्म-ज्योति परम-ज्योति में विलीन हो जाती है और कोई पुकार नहीं होती।
ਨਾਨਕ ਸੁਖਿ ਸਵਨੑਿ ਸੋਹਾਗਣੀ ਸਚੈ ਨਾਮਿ ਸਮਾਇ ॥੫੬॥
नानक सुखि सवन्हि सोहागणी सचै नामि समाइ ॥५६॥
हे नानक ! सच्चे नाम में लीन रहने वाली सुहागिन सदा सुखपूर्वक रहती है॥५६॥
ਧੁਰਹੁ ਖਸਮਿ ਭੇਜਿਆ ਸਚੈ ਹੁਕਮਿ ਪਠਾਇ ॥
धुरहु खसमि भेजिआ सचै हुकमि पठाइ ॥
मालिक ने हुक्म करके भेजा,
ਇੰਦੁ ਵਰਸੈ ਦਇਆ ਕਰਿ ਗੂੜ੍ਹ੍ਹੀ ਛਹਬਰ ਲਾਇ ॥
इंदु वरसै दइआ करि गूड़्ही छहबर लाइ ॥
(गुरु रूपी) बादल ने दया करके (प्रेम की) बरसात की है।
ਬਾਬੀਹੇ ਤਨਿ ਮਨਿ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ਜਾਂ ਤਤੁ ਬੂੰਦ ਮੁਹਿ ਪਾਇ ॥
बाबीहे तनि मनि सुखु होइ जां ततु बूंद मुहि पाइ ॥
पपीहे का तन मन तभी सुखी होता है, जब उसके मुख में स्वाति बूंद पड़ती है।
ਅਨੁ ਧਨੁ ਬਹੁਤਾ ਉਪਜੈ ਧਰਤੀ ਸੋਭਾ ਪਾਇ ॥
अनु धनु बहुता उपजै धरती सोभा पाइ ॥
अन्न-धन बहुत अधिक उत्पन्न होता है और धरती भी शोभा पाती है।
ਅਨਦਿਨੁ ਲੋਕੁ ਭਗਤਿ ਕਰੇ ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਸਮਾਇ ॥
अनदिनु लोकु भगति करे गुर कै सबदि समाइ ॥
गुरु के उपदेश में लीन होकर जो लोग परमेश्वर की भक्ति करते हैं,
ਆਪੇ ਸਚਾ ਬਖਸਿ ਲਏ ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਕਰੈ ਰਜਾਇ ॥
आपे सचा बखसि लए करि किरपा करै रजाइ ॥
परमेश्वर स्वयं ही अपनी मर्जी से कृपा करके उनको बख्श लेता है।
ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵਹੁ ਕਾਮਣੀ ਸਚੈ ਸਬਦਿ ਸਮਾਇ ॥
हरि गुण गावहु कामणी सचै सबदि समाइ ॥
जीव रूपी कामिनी सच्चे शब्द में लीन होकर परमात्मा का भजन गान करती है।
ਭੈ ਕਾ ਸਹਜੁ ਸੀਗਾਰੁ ਕਰਿਹੁ ਸਚਿ ਰਹਹੁ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥
भै का सहजु सीगारु करिहु सचि रहहु लिव लाइ ॥
वह श्रद्धा-भय का स्वाभाविक ही श्रृंगार करती है और प्रभु के ध्यान में लीन रहती है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੋ ਮਨਿ ਵਸੈ ਹਰਿ ਦਰਗਹ ਲਏ ਛਡਾਇ ॥੫੭॥
नानक नामो मनि वसै हरि दरगह लए छडाइ ॥५७॥
हे नानक ! यदि हरिनाम मन में बस जाए तो प्रभु-दरबार में मुक्ति मिल जाती है ॥५७ ॥
ਬਾਬੀਹਾ ਸਗਲੀ ਧਰਤੀ ਜੇ ਫਿਰਹਿ ਊਡਿ ਚੜਹਿ ਆਕਾਸਿ ॥
बाबीहा सगली धरती जे फिरहि ऊडि चड़हि आकासि ॥
जिज्ञासु-पपीहा पूरी धरती पर घूमता है, आकाश में उड़ता है।
ਸਤਿਗੁਰਿ ਮਿਲਿਐ ਜਲੁ ਪਾਈਐ ਚੂਕੈ ਭੂਖ ਪਿਆਸ ॥
सतिगुरि मिलिऐ जलु पाईऐ चूकै भूख पिआस ॥
जब गुरु मिल जाता है तो उसे नाम-जल प्राप्त होता है और उसकी भूख-प्यास मिट जाती है।
ਜੀਉ ਪਿੰਡੁ ਸਭੁ ਤਿਸ ਕਾ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਤਿਸ ਕੈ ਪਾਸਿ ॥
जीउ पिंडु सभु तिस का सभु किछु तिस कै पासि ॥
यह प्राण-शरीर सर्वस्व परमात्मा की देन है, सब कुछ उसी के पास है।
ਵਿਣੁ ਬੋਲਿਆ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਜਾਣਦਾ ਕਿਸੁ ਆਗੈ ਕੀਚੈ ਅਰਦਾਸਿ ॥
विणु बोलिआ सभु किछु जाणदा किसु आगै कीचै अरदासि ॥
वह बिना बोले ही (सुख-दुख) सब जानता है, उसके आगे प्रार्थना ही करो।
ਨਾਨਕ ਘਟਿ ਘਟਿ ਏਕੋ ਵਰਤਦਾ ਸਬਦਿ ਕਰੇ ਪਰਗਾਸ ॥੫੮॥
नानक घटि घटि एको वरतदा सबदि करे परगास ॥५८॥
हे नानक ! सब में एक ईश्वर ही व्याप्त है, शब्द-गुरु से उसका अन्तर्मन में प्रकाश होता है॥५८ ॥
ਨਾਨਕ ਤਿਸੈ ਬਸੰਤੁ ਹੈ ਜਿ ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਿ ਸਮਾਇ ॥
नानक तिसै बसंतु है जि सतिगुरु सेवि समाइ ॥
गुरु नानक फुरमान करते हैं- जो सतिगुरु की सेवा में लीन रहता है, उसे बसन्त का आनंद प्राप्त होता है।
ਹਰਿ ਵੁਠਾ ਮਨੁ ਤਨੁ ਸਭੁ ਪਰਫੜੈ ਸਭੁ ਜਗੁ ਹਰੀਆਵਲੁ ਹੋਇ ॥੫੯॥
हरि वुठा मनु तनु सभु परफड़ै सभु जगु हरीआवलु होइ ॥५९॥
प्रभु की प्रसन्नता से मन-तन खिल जाता है और पूरा जगत हरा-भरा हो जाता है ॥५६॥
ਸਬਦੇ ਸਦਾ ਬਸੰਤੁ ਹੈ ਜਿਤੁ ਤਨੁ ਮਨੁ ਹਰਿਆ ਹੋਇ ॥
सबदे सदा बसंतु है जितु तनु मनु हरिआ होइ ॥
प्रभु-शब्द से सदैव खुशियाँ-ही-खुशियाँ हैं, जिससे तन मन हरा हो जाता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਨ ਵੀਸਰੈ ਜਿਨਿ ਸਿਰਿਆ ਸਭੁ ਕੋਇ ॥੬੦॥
नानक नामु न वीसरै जिनि सिरिआ सभु कोइ ॥६०॥
गुरु नानक कथन करते हैं कि जिस विधाता ने समूची सृष्टि सहित हम सबको बनाया है, उस परमेश्वर का नाम हमें कभी न भूले । ॥६०॥
ਨਾਨਕ ਤਿਨਾ ਬਸੰਤੁ ਹੈ ਜਿਨਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਵਸਿਆ ਮਨਿ ਸੋਇ ॥
नानक तिना बसंतु है जिना गुरमुखि वसिआ मनि सोइ ॥
हे नानक ! जिन गुरुमुखों के मन में परमात्मा बस जाता है, वहीं वसंत मौसम का आनंद पाते हैं।
ਹਰਿ ਵੁਠੈ ਮਨੁ ਤਨੁ ਪਰਫੜੈ ਸਭੁ ਜਗੁ ਹਰਿਆ ਹੋਇ ॥੬੧॥
हरि वुठै मनु तनु परफड़ै सभु जगु हरिआ होइ ॥६१॥
ईश्वर की कृपा से मन-तन खिल उठता है और पूरा जगत प्रसन्न हो जाता है ॥६१॥
ਵਡੜੈ ਝਾਲਿ ਝਲੁੰਭਲੈ ਨਾਵੜਾ ਲਈਐ ਕਿਸੁ ॥
वडड़ै झालि झलु्मभलै नावड़ा लईऐ किसु ॥
(प्रश्न) प्रभात काल उठकर किसका नाम जपना चाहिए ?
ਨਾਉ ਲਈਐ ਪਰਮੇਸਰੈ ਭੰਨਣ ਘੜਣ ਸਮਰਥੁ ॥੬੨॥
नाउ लईऐ परमेसरै भंनण घड़ण समरथु ॥६२॥
(उत्तर-) उस परमेश्वर का नाम जपना चाहिए, जो तोड़ने-बनाने में समर्थ है ॥६२ ॥
ਹਰਹਟ ਭੀ ਤੂੰ ਤੂੰ ਕਰਹਿ ਬੋਲਹਿ ਭਲੀ ਬਾਣਿ ॥
हरहट भी तूं तूं करहि बोलहि भली बाणि ॥
अरे रहट ! तू भी तू-तू करता है, बड़ी मधुर ध्वनि करता है।
ਸਾਹਿਬੁ ਸਦਾ ਹਦੂਰਿ ਹੈ ਕਿਆ ਉਚੀ ਕਰਹਿ ਪੁਕਾਰ ॥
साहिबु सदा हदूरि है किआ उची करहि पुकार ॥
मालिक सदैव सामने हैं, क्यों ऊँची पुकार करता है।
ਜਿਨਿ ਜਗਤੁ ਉਪਾਇ ਹਰਿ ਰੰਗੁ ਕੀਆ ਤਿਸੈ ਵਿਟਹੁ ਕੁਰਬਾਣੁ ॥
जिनि जगतु उपाइ हरि रंगु कीआ तिसै विटहु कुरबाणु ॥
जिस ईश्वर ने जगत उत्पन्न करके लीला की है, उस पर मैं सदैव कुर्बान जाता है।
ਆਪੁ ਛੋਡਹਿ ਤਾਂ ਸਹੁ ਮਿਲੈ ਸਚਾ ਏਹੁ ਵੀਚਾਰੁ ॥
आपु छोडहि तां सहु मिलै सचा एहु वीचारु ॥
केवल यही सच्ची बात है कि अहम्-भाव को छोड़ दिया जाए तो प्रभु से मिलाप हो जाता है।
ਹਉਮੈ ਫਿਕਾ ਬੋਲਣਾ ਬੁਝਿ ਨ ਸਕਾ ਕਾਰ ॥
हउमै फिका बोलणा बुझि न सका कार ॥
अहंकार भाव में कड़वा बोलने से भले-बुरे की समझ नहीं होती।
ਵਣੁ ਤ੍ਰਿਣੁ ਤ੍ਰਿਭਵਣੁ ਤੁਝੈ ਧਿਆਇਦਾ ਅਨਦਿਨੁ ਸਦਾ ਵਿਹਾਣ ॥
वणु त्रिणु त्रिभवणु तुझै धिआइदा अनदिनु सदा विहाण ॥
तीनों लोक, पूरी कुदरत हे प्रभु ! तेरा ही भजन करती है और सदैव तेरी स्मृति में लीन रहती है।
ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਕਿਨੈ ਨ ਪਾਇਆ ਕਰਿ ਕਰਿ ਥਕੇ ਵੀਚਾਰ ॥
बिनु सतिगुर किनै न पाइआ करि करि थके वीचार ॥
सतगुरु के बिना कोई भी ईश्वर को पा नहीं सका, बातें कर-करके सब थक गए हैं।