ਪਿਰ ਕੀ ਸਾਰ ਨ ਜਾਣਈ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਪਿਆਰੁ ॥
पिर की सार न जाणई दूजै भाइ पिआरु ॥
वह तो अपने प्रभु के महत्व को नहीं जानती और द्वैतभाव के स्नेह में ही लगी रहती है।
ਸਾ ਕੁਸੁਧ ਸਾ ਕੁਲਖਣੀ ਨਾਨਕ ਨਾਰੀ ਵਿਚਿ ਕੁਨਾਰਿ ॥੨॥
सा कुसुध सा कुलखणी नानक नारी विचि कुनारि ॥२॥
हे नानक ! वह तो अपवित्र एवं कुलक्षणी है और समस्त नारियों में वह कुलटा नारी है ॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਅਪਣੀ ਦਇਆ ਕਰਿ ਹਰਿ ਬੋਲੀ ਬੈਣੀ ॥
हरि हरि अपणी दइआ करि हरि बोली बैणी ॥
हे हरि ! मुझ पर अपनी दया करो, ताकि मैं तेरी पवित्र वाणी का बखान करता रहूँ।
ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਈ ਹਰਿ ਉਚਰਾ ਹਰਿ ਲਾਹਾ ਲੈਣੀ ॥
हरि नामु धिआई हरि उचरा हरि लाहा लैणी ॥
मैं तो हरि-नाम का ही ध्यान करता हूँ, हरि के नाम का ही उच्चारण करता हूँ और हरि-नाम को ही लाभ के रूप में प्राप्त करता हूँ।
ਜੋ ਜਪਦੇ ਹਰਿ ਹਰਿ ਦਿਨਸੁ ਰਾਤਿ ਤਿਨ ਹਉ ਕੁਰਬੈਣੀ ॥
जो जपदे हरि हरि दिनसु राति तिन हउ कुरबैणी ॥
जो भक्त दिन-रात परमेश्वर का ही भजन करते रहते हैं, मैं उन पर तन-मन से कुर्बान जाता हूँ।
ਜਿਨਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮੇਰਾ ਪਿਆਰਾ ਅਰਾਧਿਆ ਤਿਨ ਜਨ ਦੇਖਾ ਨੈਣੀ ॥
जिना सतिगुरु मेरा पिआरा अराधिआ तिन जन देखा नैणी ॥
जिन्होंने मेरे प्यारे सतगुरु की आराधना की है, अपने इन नयनों से मैं उन महापुरुषों के ही दर्शनों की कामना करता हूँ।
ਹਉ ਵਾਰਿਆ ਅਪਣੇ ਗੁਰੂ ਕਉ ਜਿਨਿ ਮੇਰਾ ਹਰਿ ਸਜਣੁ ਮੇਲਿਆ ਸੈਣੀ ॥੨੪॥
हउ वारिआ अपणे गुरू कउ जिनि मेरा हरि सजणु मेलिआ सैणी ॥२४॥
मैं तो अपने गुरु पर तन मन से न्यौछावर हूँ, जिसने मुझे मेरे सज्जन एवं संबंधी प्रभु से मिला दिया है ॥२४॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੪ ॥
सलोकु मः ४ ॥
श्लोक महला ४ ॥
ਹਰਿ ਦਾਸਨ ਸਿਉ ਪ੍ਰੀਤਿ ਹੈ ਹਰਿ ਦਾਸਨ ਕੋ ਮਿਤੁ ॥
हरि दासन सिउ प्रीति है हरि दासन को मितु ॥
परमात्मा को अपने दासों से बड़ी प्रीति है, वही अपने दासों का घनिष्ठ मित्र है।
ਹਰਿ ਦਾਸਨ ਕੈ ਵਸਿ ਹੈ ਜਿਉ ਜੰਤੀ ਕੈ ਵਸਿ ਜੰਤੁ ॥
हरि दासन कै वसि है जिउ जंती कै वसि जंतु ॥
वह तो अपने दासों के ऐसे वशीभूत होता है, जैसे कोई संगीत यंत्र किसी संगीतकार के वशीभूत होता है,”
ਹਰਿ ਕੇ ਦਾਸ ਹਰਿ ਧਿਆਇਦੇ ਕਰਿ ਪ੍ਰੀਤਮ ਸਿਉ ਨੇਹੁ ॥
हरि के दास हरि धिआइदे करि प्रीतम सिउ नेहु ॥
अपने प्रियतम से प्रेम करके हरि के दास, हरि का ही ध्यान करते हैं।
ਕਿਰਪਾ ਕਰਿ ਕੈ ਸੁਨਹੁ ਪ੍ਰਭ ਸਭ ਜਗ ਮਹਿ ਵਰਸੈ ਮੇਹੁ ॥
किरपा करि कै सुनहु प्रभ सभ जग महि वरसै मेहु ॥
हे प्रभु ! कृपा करके सुनो और समूचे जगत में अपनी नाम-कृपा की मूसलाधार वर्षा कर दो।
ਜੋ ਹਰਿ ਦਾਸਨ ਕੀ ਉਸਤਤਿ ਹੈ ਸਾ ਹਰਿ ਕੀ ਵਡਿਆਈ ॥
जो हरि दासन की उसतति है सा हरि की वडिआई ॥
जो परमात्मा के दासों की स्तुति है, वह परमात्मा की महिमा है।
ਹਰਿ ਆਪਣੀ ਵਡਿਆਈ ਭਾਵਦੀ ਜਨ ਕਾ ਜੈਕਾਰੁ ਕਰਾਈ ॥
हरि आपणी वडिआई भावदी जन का जैकारु कराई ॥
परमात्मा को अपनी महिमा बहुत प्यारी लगती है, जिसके कारण वह अपने सेवकों की जय-जयकार करवाता है।
ਸੋ ਹਰਿ ਜਨੁ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇਦਾ ਹਰਿ ਹਰਿ ਜਨੁ ਇਕ ਸਮਾਨਿ ॥
सो हरि जनु नामु धिआइदा हरि हरि जनु इक समानि ॥
जो नाम का ध्यान करता है वही भक्तजन है और परमात्मा एवं भक्तजन एक रूप ही होते हैं।
ਜਨੁ ਨਾਨਕੁ ਹਰਿ ਕਾ ਦਾਸੁ ਹੈ ਹਰਿ ਪੈਜ ਰਖਹੁ ਭਗਵਾਨ ॥੧॥
जनु नानकु हरि का दासु है हरि पैज रखहु भगवान ॥१॥
नानक तो उस हरि-परमेश्वर का ही दास है, हे भगवान ! उसकी लाज-प्रतिष्ठा रखो ॥१॥
ਮਃ ੪ ॥
मः ४ ॥
महला ४॥
ਨਾਨਕ ਪ੍ਰੀਤਿ ਲਾਈ ਤਿਨਿ ਸਾਚੈ ਤਿਸੁ ਬਿਨੁ ਰਹਣੁ ਨ ਜਾਈ ॥
नानक प्रीति लाई तिनि साचै तिसु बिनु रहणु न जाई ॥
हे नानक ! उस सच्चे परमात्मा ने मन में ऐसा प्रेम पैदा कर दिया है कि उसके बिना अब एक क्षण भी जीना असंभव है।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲੈ ਤ ਪੂਰਾ ਪਾਈਐ ਹਰਿ ਰਸਿ ਰਸਨ ਰਸਾਈ ॥੨॥
सतिगुरु मिलै त पूरा पाईऐ हरि रसि रसन रसाई ॥२॥
जब सतगुरु से साक्षात्कार होता है तो पूर्ण परमेश्वर की प्राप्ति होती है और जीभ हरि-रस का आनंद लेती है॥२॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥
ਰੈਣਿ ਦਿਨਸੁ ਪਰਭਾਤਿ ਤੂਹੈ ਹੀ ਗਾਵਣਾ ॥
रैणि दिनसु परभाति तूहै ही गावणा ॥
हे ईश्वर ! रात, दिन एवं प्रभात काल तेरा ही यशगान करना है।
ਜੀਅ ਜੰਤ ਸਰਬਤ ਨਾਉ ਤੇਰਾ ਧਿਆਵਣਾ ॥
जीअ जंत सरबत नाउ तेरा धिआवणा ॥
सब जीव तेरे नाम का ही ध्यान करते हैं।
ਤੂ ਦਾਤਾ ਦਾਤਾਰੁ ਤੇਰਾ ਦਿਤਾ ਖਾਵਣਾ ॥
तू दाता दातारु तेरा दिता खावणा ॥
हे दातार प्रभु ! तू ही हम सबका दाता है और हम सब तेरा दिया हुआ ही खाते हैं।
ਭਗਤ ਜਨਾ ਕੈ ਸੰਗਿ ਪਾਪ ਗਵਾਵਣਾ ॥
भगत जना कै संगि पाप गवावणा ॥
भक्तजनों की संगति में ही सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।
ਜਨ ਨਾਨਕ ਸਦ ਬਲਿਹਾਰੈ ਬਲਿ ਬਲਿ ਜਾਵਣਾ ॥੨੫॥
जन नानक सद बलिहारै बलि बलि जावणा ॥२५॥
नानक तो सदैव तुझ पर बलिहारी है और तन-मन से न्यौछावर है ॥२५॥
ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੪ ॥
सलोकु मः ४ ॥
श्लोक महला ४॥
ਅੰਤਰਿ ਅਗਿਆਨੁ ਭਈ ਮਤਿ ਮਧਿਮ ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਪਰਤੀਤਿ ਨਾਹੀ ॥
अंतरि अगिआनु भई मति मधिम सतिगुर की परतीति नाही ॥
जिस जीव के मन में अज्ञान है उसकी तो बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई है, उसे सतगुरु के प्रति कोई आस्था नहीं।
ਅੰਦਰਿ ਕਪਟੁ ਸਭੁ ਕਪਟੋ ਕਰਿ ਜਾਣੈ ਕਪਟੇ ਖਪਹਿ ਖਪਾਹੀ ॥
अंदरि कपटु सभु कपटो करि जाणै कपटे खपहि खपाही ॥
जिसके मन में छल-कपट ही है, वह सबको कपटी ही समझता है और इस छल-कपट के कारण वह तबाह हो जाता है।
ਸਤਿਗੁਰ ਕਾ ਭਾਣਾ ਚਿਤਿ ਨ ਆਵੈ ਆਪਣੈ ਸੁਆਇ ਫਿਰਾਹੀ ॥
सतिगुर का भाणा चिति न आवै आपणै सुआइ फिराही ॥
उसके मन में गुरु की रज़ा प्रविष्ट नहीं होती और वह तो अपने स्वार्थ के लिए ही भटकता रहता है।
ਕਿਰਪਾ ਕਰੇ ਜੇ ਆਪਣੀ ਤਾ ਨਾਨਕ ਸਬਦਿ ਸਮਾਹੀ ॥੧॥
किरपा करे जे आपणी ता नानक सबदि समाही ॥१॥
हे नानक ! यदि ईश्वर अपनी कृपा करे तो ही वह शब्द में समा जाता है।॥ १॥
ਮਃ ੪ ॥
मः ४ ॥
महला ४॥
ਮਨਮੁਖ ਮਾਇਆ ਮੋਹਿ ਵਿਆਪੇ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਮਨੂਆ ਥਿਰੁ ਨਾਹਿ ॥
मनमुख माइआ मोहि विआपे दूजै भाइ मनूआ थिरु नाहि ॥
मनमुख जीव माया के मोह में ही फँसे रहते हैं और द्वैतभाव के कारण उनका मन स्थिर नहीं होता।
ਅਨਦਿਨੁ ਜਲਤ ਰਹਹਿ ਦਿਨੁ ਰਾਤੀ ਹਉਮੈ ਖਪਹਿ ਖਪਾਹਿ ॥
अनदिनु जलत रहहि दिनु राती हउमै खपहि खपाहि ॥
वे तो दिन-रात तृष्णाग्नि में जलते रहते हैं और अहंकार में बिल्कुल नष्ट हो जाते हैं (एवं दूसरों को भी नष्ट कर देते हैं)।
ਅੰਤਰਿ ਲੋਭੁ ਮਹਾ ਗੁਬਾਰਾ ਤਿਨ ਕੈ ਨਿਕਟਿ ਨ ਕੋਈ ਜਾਹਿ ॥
अंतरि लोभु महा गुबारा तिन कै निकटि न कोई जाहि ॥
इनके मन में लोभ का घोर अन्धेरा है और कोई भी उनके निकट नहीं आता।
ਓਇ ਆਪਿ ਦੁਖੀ ਸੁਖੁ ਕਬਹੂ ਨ ਪਾਵਹਿ ਜਨਮਿ ਮਰਹਿ ਮਰਿ ਜਾਹਿ ॥
ओइ आपि दुखी सुखु कबहू न पावहि जनमि मरहि मरि जाहि ॥
वे आप दुःखी रहते हैं और कभी भी उन्हें सुख की प्राप्ति नहीं होती। वे मर जाते हैं और जन्मते-मरते ही रहते हैं।
ਨਾਨਕ ਬਖਸਿ ਲਏ ਪ੍ਰਭੁ ਸਾਚਾ ਜਿ ਗੁਰ ਚਰਨੀ ਚਿਤੁ ਲਾਹਿ ॥੨॥
नानक बखसि लए प्रभु साचा जि गुर चरनी चितु लाहि ॥२॥
हे नानक ! जो अपना चित गुरु के चरणों में लगाते हैं, सच्चा प्रभु उन्हें क्षमा कर देता है॥ २॥
ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥
ਸੰਤ ਭਗਤ ਪਰਵਾਣੁ ਜੋ ਪ੍ਰਭਿ ਭਾਇਆ ॥
संत भगत परवाणु जो प्रभि भाइआ ॥
जो प्रभु को अच्छा लगता है, वही संत एवं भक्त परवान हैं।
ਸੇਈ ਬਿਚਖਣ ਜੰਤ ਜਿਨੀ ਹਰਿ ਧਿਆਇਆ ॥
सेई बिचखण जंत जिनी हरि धिआइआ ॥
जिसने भगवान का ध्यान किया है, वही पुरुष चतुर है।
ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਭੋਜਨੁ ਖਾਇਆ ॥
अम्रितु नामु निधानु भोजनु खाइआ ॥
वह अमृत नाम का भोजन ग्रहण करता है, जो सर्व गुणों का भण्ड़ार है।
ਸੰਤ ਜਨਾ ਕੀ ਧੂਰਿ ਮਸਤਕਿ ਲਾਇਆ ॥
संत जना की धूरि मसतकि लाइआ ॥
वह तो संतजनों की चरण-धूलि ही अपने माथे पर लगाता है।