ਲੰਗਰੁ ਚਲੈ ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਹਰਿ ਤੋਟਿ ਨ ਆਵੀ ਖਟੀਐ ॥
लंगरु चलै गुर सबदि हरि तोटि न आवी खटीऐ ॥
संगत के लिए गुरु के शब्द द्वारा लंगर चलता रहता है परन्तु उसमें कोई कमी नहीं आती।
ਖਰਚੇ ਦਿਤਿ ਖਸੰਮ ਦੀ ਆਪ ਖਹਦੀ ਖੈਰਿ ਦਬਟੀਐ ॥
खरचे दिति खसम दी आप खहदी खैरि दबटीऐ ॥
अपने मालिक की दी हुई भी सेवन करते रहते हैं और याचकों को भरपूर भिक्षा-दान देते रहते हैं।
ਹੋਵੈ ਸਿਫਤਿ ਖਸੰਮ ਦੀ ਨੂਰੁ ਅਰਸਹੁ ਕੁਰਸਹੁ ਝਟੀਐ ॥
होवै सिफति खसम दी नूरु अरसहु कुरसहु झटीऐ ॥
जिस वक्त गुरु अंगद देव जी के दरबार में ईश्वर का स्तुतिगान किया जाता है, उस वक्त वैकुण्ठ एवं देवलोक से भी नूर बरसता है।
ਤੁਧੁ ਡਿਠੇ ਸਚੇ ਪਾਤਿਸਾਹ ਮਲੁ ਜਨਮ ਜਨਮ ਦੀ ਕਟੀਐ ॥
तुधु डिठे सचे पातिसाह मलु जनम जनम दी कटीऐ ॥
हे सच्चे पातशाह गुरु जी ! तेरे दर्शन करके जन्म-जन्मांतर की पापों की मैल भी कट जाती है।
ਸਚੁ ਜਿ ਗੁਰਿ ਫੁਰਮਾਇਆ ਕਿਉ ਏਦੂ ਬੋਲਹੁ ਹਟੀਐ ॥
सचु जि गुरि फुरमाइआ किउ एदू बोलहु हटीऐ ॥
गुरु के शिष्य कहते है केि गुरु नानक देव जी ने गुरु अंगद देव जी को गुरुयाई देने का सच्चा हुक्म किया है, अतः हम उस हुक्म की अवहेलना कैसे कर सकते है?”
ਪੁਤ੍ਰੀ ਕਉਲੁ ਨ ਪਾਲਿਓ ਕਰਿ ਪੀਰਹੁ ਕੰਨੑ ਮੁਰਟੀਐ ॥
पुत्री कउलु न पालिओ करि पीरहु कंन्ह मुरटीऐ ॥
गुरु नानक देव जी के पुत्रो ने उनके हुक्म का पालन नहीं नहीं किया कि वे गुरु अंगद देव जी को अपना गुरु-पीर मानें, अपितु वे तो उनसे विमुख हो गए।
ਦਿਲਿ ਖੋਟੈ ਆਕੀ ਫਿਰਨੑਿ ਬੰਨੑਿ ਭਾਰੁ ਉਚਾਇਨੑਿ ਛਟੀਐ ॥
दिलि खोटै आकी फिरन्हि बंन्हि भारु उचाइन्हि छटीऐ ॥
खोटे दिलों वाले होने के कारण वे हुक्म मानने से विद्रोही होकर फिरते हैं और पापों का भार उठाकर घूमते रहते हैं।
ਜਿਨਿ ਆਖੀ ਸੋਈ ਕਰੇ ਜਿਨਿ ਕੀਤੀ ਤਿਨੈ ਥਟੀਐ ॥
जिनि आखी सोई करे जिनि कीती तिनै थटीऐ ॥
जिस गुरु नानक ने जो बात कही, गुरु अंगद देव जी ने वही बात कर दी। गुरु अंगद देव जी ने गुरु नानक के हुक्म का पालन किया है, इसलिए उन्हें गुरु स्थापित किया गया।
ਕਉਣੁ ਹਾਰੇ ਕਿਨਿ ਉਵਟੀਐ ॥੨॥
कउणु हारे किनि उवटीऐ ॥२॥
देख लो, हुक्म मानने की इस खेल में (भाई लहणा एवं गुरु पुत्रों में) कौन बाजी हार गया है और कौन जीत गया है॥ २॥
ਜਿਨਿ ਕੀਤੀ ਸੋ ਮੰਨਣਾ ਕੋ ਸਾਲੁ ਜਿਵਾਹੇ ਸਾਲੀ ॥
जिनि कीती सो मंनणा को सालु जिवाहे साली ॥
जिस (भाई लहणा) ने हुक्म का पालन किया, वही गुरु रूप में पूज्य हो गया। चावल और भूसी इन दोनों में कौन उत्तम है अर्थात् भाई लहणा एवं गुरु-पुत्रों में कौन श्रेष्ठ है?”
ਧਰਮ ਰਾਇ ਹੈ ਦੇਵਤਾ ਲੈ ਗਲਾ ਕਰੇ ਦਲਾਲੀ ॥
धरम राइ है देवता लै गला करे दलाली ॥
धर्मराज रूपी देवता दोनों तरफ के गुण देखकर ही फैसला करता है।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਆਖੈ ਸਚਾ ਕਰੇ ਸਾ ਬਾਤ ਹੋਵੈ ਦਰਹਾਲੀ ॥
सतिगुरु आखै सचा करे सा बात होवै दरहाली ॥
गुरु अंगद सर्वश्रेष्ठ हैं और अपने सेवकों की बातें सुनकर उन्हें प्रभु से मिलाने की मध्यस्थता करते हैं।
ਗੁਰ ਅੰਗਦ ਦੀ ਦੋਹੀ ਫਿਰੀ ਸਚੁ ਕਰਤੈ ਬੰਧਿ ਬਹਾਲੀ ॥
गुर अंगद दी दोही फिरी सचु करतै बंधि बहाली ॥
सच्चा परमेश्वर वही करता है वचन सतगुरु अंगद देव जी कहते हैं और उनकी कही हुई बात तुरंत ही पूरी हो जाती है। अंगद देव जी की गुरुगद्दी की घोषणा हो गई तो सच्चे परमात्मा ने स्वयं ही गुरुयाई की पुष्टि दी।
ਨਾਨਕੁ ਕਾਇਆ ਪਲਟੁ ਕਰਿ ਮਲਿ ਤਖਤੁ ਬੈਠਾ ਸੈ ਡਾਲੀ ॥
नानकु काइआ पलटु करि मलि तखतु बैठा सै डाली ॥
गुरु नानक देव जी अपनी काया पलट कर स्वयं ही गुरु-सिंहासन पर विराजमान हुए हैं उनके सैकड़ों ही सिक्ख हैं।
ਦਰੁ ਸੇਵੇ ਉਮਤਿ ਖੜੀ ਮਸਕਲੈ ਹੋਇ ਜੰਗਾਲੀ ॥
दरु सेवे उमति खड़ी मसकलै होइ जंगाली ॥
गुरु अंगद देव जी की सिक्ख संगत उनके द्वार पर खड़ी स्तुति करती रहती है और संगत का मन पापों से यों पवित्र हो रहा है जैसे जंगाली हुई धातु जी को अपने मालिक (गुरु नानक) के द्वार उनके मुँह पर लाली आ जाती है।
ਦਰਿ ਦਰਵੇਸੁ ਖਸੰਮ ਦੈ ਨਾਇ ਸਚੈ ਬਾਣੀ ਲਾਲੀ ॥
दरि दरवेसु खसम दै नाइ सचै बाणी लाली ॥
दरवेश गुरु अंगद देव जी को अपने मालिक (गुरु नानक ) के द्वार से सत्य की देंन प्राप्त हुई है और वाणी गाने से उनके मुँह पर लाली आ जाती है।
ਬਲਵੰਡ ਖੀਵੀ ਨੇਕ ਜਨ ਜਿਸੁ ਬਹੁਤੀ ਛਾਉ ਪਤ੍ਰਾਲੀ ॥
बलवंड खीवी नेक जन जिसु बहुती छाउ पत्राली ॥
बलवंड कहता है की गुरु अंगद देव जी की पत्नी माता खीवी जी बहुत भली स्त्री है जिनकी छाँव पत्राली की तरह घनी है अर्थात उनके पास बैठने से सबको बहुत सुख और शांति मिलती है।
ਲੰਗਰਿ ਦਉਲਤਿ ਵੰਡੀਐ ਰਸੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਖੀਰਿ ਘਿਆਲੀ ॥
लंगरि दउलति वंडीऐ रसु अम्रितु खीरि घिआली ॥
माता जी की निगरानी में गुरु के लंगर में घृतयुक्त खीर वितरित की जाती है, जिसका स्वाद अमृत समान मीठा है।
ਗੁਰਸਿਖਾ ਕੇ ਮੁਖ ਉਜਲੇ ਮਨਮੁਖ ਥੀਏ ਪਰਾਲੀ ॥
गुरसिखा के मुख उजले मनमुख थीए पराली ॥
यहाँ गुरु के शिष्यों के मुख सदा उज्ज्वल रहते हैं किन्तु मनमुख जल भून गए हैं और उनकी कोई पूछ नहीं होती।
ਪਏ ਕਬੂਲੁ ਖਸੰਮ ਨਾਲਿ ਜਾਂ ਘਾਲ ਮਰਦੀ ਘਾਲੀ ॥
पए कबूलु खसम नालि जां घाल मरदी घाली ॥
गुरु अंगद देव ने जब शूरवीरों वाली साधना की तो ही वे अपने मालिक को स्वीकार हुए।
ਮਾਤਾ ਖੀਵੀ ਸਹੁ ਸੋਇ ਜਿਨਿ ਗੋਇ ਉਠਾਲੀ ॥੩॥
माता खीवी सहु सोइ जिनि गोइ उठाली ॥३॥
माता खीवी जी के पतेि गुरु अंगद देव जी ऐसे शूरवीर हैं, जिन्होंने सारी पृथ्वी का भार अपने सिर पर उठा लिया है॥ ३॥
ਹੋਰਿਂਓ ਗੰਗ ਵਹਾਈਐ ਦੁਨਿਆਈ ਆਖੈ ਕਿ ਕਿਓਨੁ ॥
होरिंओ गंग वहाईऐ दुनिआई आखै कि किओनु ॥
दुनिया कहती है कि गुरु नानक देव जी ने भला यह क्या किया है (अपने सेवक भाई लहणा को गुरुगद्दी देकर तो) उन्होंने गंगा अन्य ही दिशा बहा दी है।
ਨਾਨਕ ਈਸਰਿ ਜਗਨਾਥਿ ਉਚਹਦੀ ਵੈਣੁ ਵਿਰਿਕਿਓਨੁ ॥
नानक ईसरि जगनाथि उचहदी वैणु विरिकिओनु ॥
जगन्नाथ, ईश्वर रूप गुरु नानक देव जी ने (अपने शिष्य को गुरु बनाकर) बहुत ऊँची बात कर दी है।
ਮਾਧਾਣਾ ਪਰਬਤੁ ਕਰਿ ਨੇਤ੍ਰਿ ਬਾਸਕੁ ਸਬਦਿ ਰਿੜਕਿਓਨੁ ॥
माधाणा परबतु करि नेत्रि बासकु सबदि रिड़किओनु ॥
उन्होंने अपने ध्यान को विध्याचल पर्वत रूपी मथनी और मन को वासुकि नाग रूपी रस्सी बनाकर शब्द रूपी क्षीर सागर का मंथन किया है,
ਚਉਦਹ ਰਤਨ ਨਿਕਾਲਿਅਨੁ ਕਰਿ ਆਵਾ ਗਉਣੁ ਚਿਲਕਿਓਨੁ ॥
चउदह रतन निकालिअनु करि आवा गउणु चिलकिओनु ॥
जिससे चौदह रत्न रूपी सरीखे चौदह गुण निकाल लिए हैं और इनके द्वारा जन्म-मरण के चक्र वाले जगत् को चमका दिया है।
ਕੁਦਰਤਿ ਅਹਿ ਵੇਖਾਲੀਅਨੁ ਜਿਣਿ ਐਵਡ ਪਿਡ ਠਿਣਕਿਓਨੁ ॥
कुदरति अहि वेखालीअनु जिणि ऐवड पिड ठिणकिओनु ॥
गुरु नानक देव जी ने भाई लहणा जी के शरीर को ठोक बजाकर देखा एवं उन्हें परखकर सिक्ख संगत को यह करिश्मा दिखा दिया है कि वही गुरुगद्दी का हकदार है।
ਲਹਣੇ ਧਰਿਓਨੁ ਛਤ੍ਰੁ ਸਿਰਿ ਅਸਮਾਨਿ ਕਿਆੜਾ ਛਿਕਿਓਨੁ ॥
लहणे धरिओनु छत्रु सिरि असमानि किआड़ा छिकिओनु ॥
इस प्रकार भाई लहणा जी के सिर पर गुरुयाई का छत्र धर दिया और उनकी कीर्ति का चंदोआ आसमान तक तान दिया।
ਜੋਤਿ ਸਮਾਣੀ ਜੋਤਿ ਮਾਹਿ ਆਪੁ ਆਪੈ ਸੇਤੀ ਮਿਕਿਓਨੁ ॥
जोति समाणी जोति माहि आपु आपै सेती मिकिओनु ॥
तत्पश्चात् उनकी ज्योति भाई लहणा (गुरु अंगद देव) की ज्योति में समा गई और गुरु नानक ने स्वयं ही अपने स्वरूप को गुरु अंगद के स्वरूप में मिला दिया।
ਸਿਖਾਂ ਪੁਤ੍ਰਾਂ ਘੋਖਿ ਕੈ ਸਭ ਉਮਤਿ ਵੇਖਹੁ ਜਿ ਕਿਓਨੁ ॥
सिखां पुत्रां घोखि कै सभ उमति वेखहु जि किओनु ॥
गुरु नानक देव जी ने अपने सिक्खों एवं पुत्रों को भलीभांति परखकर जो कुछ किया है, सारी संगत ने उसे देख लिया है।
ਜਾਂ ਸੁਧੋਸੁ ਤਾਂ ਲਹਣਾ ਟਿਕਿਓਨੁ ॥੪॥
जां सुधोसु तां लहणा टिकिओनु ॥४॥
जब भाई लहणा पवित्र-पावन हो गया तो ही उन्हें गुरु-गद्दी पर विराजमान करके गुरु नियुक्त किया गया॥ ४॥
ਫੇਰਿ ਵਸਾਇਆ ਫੇਰੁਆਣਿ ਸਤਿਗੁਰਿ ਖਾਡੂਰੁ ॥
फेरि वसाइआ फेरुआणि सतिगुरि खाडूरु ॥
फिर भाई फेरू जी के पुत्र सतिगुरु अंगद देव जी ने करतारपुर से आकर खडूर नगर बसा दिया।
ਜਪੁ ਤਪੁ ਸੰਜਮੁ ਨਾਲਿ ਤੁਧੁ ਹੋਰੁ ਮੁਚੁ ਗਰੂਰੁ ॥
जपु तपु संजमु नालि तुधु होरु मुचु गरूरु ॥
हे गुरु अंगद ! जप, तप एवं संयम तेरे साथ रहता है, परन्तु अन्य जगत् के साथ घमण्ड बसता है।
ਲਬੁ ਵਿਣਾਹੇ ਮਾਣਸਾ ਜਿਉ ਪਾਣੀ ਬੂਰੁ ॥
लबु विणाहे माणसा जिउ पाणी बूरु ॥
जैसे बूर पानी को खराब कर देता है, वैसे ही लोभ ने मनुष्य को बर्बाद कर दिया है।
ਵਰ੍ਹਿਐ ਦਰਗਹ ਗੁਰੂ ਕੀ ਕੁਦਰਤੀ ਨੂਰੁ ॥
वर्हिऐ दरगह गुरू की कुदरती नूरु ॥
गुरु अंगद देव जी के दरबार में कुदरती नूर बरसता है।
ਜਿਤੁ ਸੁ ਹਾਥ ਨ ਲਭਈ ਤੂੰ ਓਹੁ ਠਰੂਰੁ ॥
जितु सु हाथ न लभई तूं ओहु ठरूरु ॥
हे गुरु ! तू शान्ति का वह स्रोत है, जिसकी गहराई को कोई भी समझ नहीं सकता।
ਨਉ ਨਿਧਿ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਹੈ ਤੁਧੁ ਵਿਚਿ ਭਰਪੂਰੁ ॥
नउ निधि नामु निधानु है तुधु विचि भरपूरु ॥
तेरे हृदय में नवनिधि वाला नाम रूपी कोष भरा हुआ है।
ਨਿੰਦਾ ਤੇਰੀ ਜੋ ਕਰੇ ਸੋ ਵੰਞੈ ਚੂਰੁ ॥
निंदा तेरी जो करे सो वंञै चूरु ॥
जो तेरी निंदा करता है, वह चूर-चूर होकर नष्ट हो जाता है।
ਨੇੜੈ ਦਿਸੈ ਮਾਤ ਲੋਕ ਤੁਧੁ ਸੁਝੈ ਦੂਰੁ ॥
नेड़ै दिसै मात लोक तुधु सुझै दूरु ॥
लोगों को तो निकट का मृत्युलोक ही नजर आता है परन्तु तुझे तो दूर का परलोक भी सूझता है।
ਫੇਰਿ ਵਸਾਇਆ ਫੇਰੁਆਣਿ ਸਤਿਗੁਰਿ ਖਾਡੂਰੁ ॥੫॥
फेरि वसाइआ फेरुआणि सतिगुरि खाडूरु ॥५॥
फिर भाई फेरू जी के पुत्र गुरु अंगद देव जी ने करतारपुर से आकर खडूर नगर बसा दिया ॥५॥