ਮਨ ਰੇ ਕਿਉ ਛੂਟਹਿ ਬਿਨੁ ਪਿਆਰ ॥l
मन रे किउ छूटहि बिनु पिआर ॥
हे मेरे मन ! प्रभु से प्रेम के बिना तेरी मुक्ति किस तरह होगी ?
ਗੁਰਮੁਖਿ ਅੰਤਰਿ ਰਵਿ ਰਹਿਆ ਬਖਸੇ ਭਗਤਿ ਭੰਡਾਰ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गुरमुखि अंतरि रवि रहिआ बखसे भगति भंडार ॥१॥ रहाउ ॥
भगवान तो गुरु के हृदय में निवास करता है और वह जीवों को भक्ति के भण्डार प्रदान करता है अर्थात् गुरु की कृपा से ही भक्ति प्राप्त होती है।॥१॥ रहाउ॥
ਰੇ ਮਨ ਐਸੀ ਹਰਿ ਸਿਉ ਪ੍ਰੀਤਿ ਕਰਿ ਜੈਸੀ ਮਛੁਲੀ ਨੀਰ ॥
रे मन ऐसी हरि सिउ प्रीति करि जैसी मछुली नीर ॥
हे मेरे मन ! ईश्वर से ऐसी प्रेम-भक्ति कर जैसी मछली की जल से है।
ਜਿਉ ਅਧਿਕਉ ਤਿਉ ਸੁਖੁ ਘਣੋ ਮਨਿ ਤਨਿ ਸਾਂਤਿ ਸਰੀਰ ॥
जिउ अधिकउ तिउ सुखु घणो मनि तनि सांति सरीर ॥
जितना अधिक जल बढ़ता है उतना अधिक सुख प्राप्त करती है। मछली आत्मा, तन व शरीर में सुख-शांति अनुभव करती है।
ਬਿਨੁ ਜਲ ਘੜੀ ਨ ਜੀਵਈ ਪ੍ਰਭੁ ਜਾਣੈ ਅਭ ਪੀਰ ॥੨॥
बिनु जल घड़ी न जीवई प्रभु जाणै अभ पीर ॥२॥
जल के बिना वह एक क्षण मात्र भी जीवित नहीं रहती। स्वामी उसके ह्रदय की पीड़ा को जानता है ॥२ ॥
ਰੇ ਮਨ ਐਸੀ ਹਰਿ ਸਿਉ ਪ੍ਰੀਤਿ ਕਰਿ ਜੈਸੀ ਚਾਤ੍ਰਿਕ ਮੇਹ ॥
रे मन ऐसी हरि सिउ प्रीति करि जैसी चात्रिक मेह ॥
हे मेरे मन ! ईश्वर से ऐसी प्रीति कर, जैसी चात्रिक की बारिश से प्रीति है।
ਸਰ ਭਰਿ ਥਲ ਹਰੀਆਵਲੇ ਇਕ ਬੂੰਦ ਨ ਪਵਈ ਕੇਹ ॥
सर भरि थल हरीआवले इक बूंद न पवई केह ॥
यदि वर्षा की बूंद इसके मुख में न पड़े, तो इसको लबालव भरे तालाबों एवं हरी-भरी धरती का क्या लाभ है?
ਕਰਮਿ ਮਿਲੈ ਸੋ ਪਾਈਐ ਕਿਰਤੁ ਪਇਆ ਸਿਰਿ ਦੇਹ ॥੩॥
करमि मिलै सो पाईऐ किरतु पइआ सिरि देह ॥३॥
यदि परमेश्वर की कृपा-दृष्टि हो तो वह बारिश की बूंदों की बौछार करेगा, अन्यथा अपने पूर्व कर्मो अनुसार वह अपना शीश दे देता है ॥३॥
ਰੇ ਮਨ ਐਸੀ ਹਰਿ ਸਿਉ ਪ੍ਰੀਤਿ ਕਰਿ ਜੈਸੀ ਜਲ ਦੁਧ ਹੋਇ ॥
रे मन ऐसी हरि सिउ प्रीति करि जैसी जल दुध होइ ॥
हे मेरे मन ! तू परमेश्वर के साथ ऐसी प्रीति कर जैसी जल की दूध के साथ है।
ਆਵਟਣੁ ਆਪੇ ਖਵੈ ਦੁਧ ਕਉ ਖਪਣਿ ਨ ਦੇਇ ॥
आवटणु आपे खवै दुध कउ खपणि न देइ ॥
जल स्वयं तपस बर्दाश्त करता है और दूध को जलने नहीं देता ।
ਆਪੇ ਮੇਲਿ ਵਿਛੁੰਨਿਆ ਸਚਿ ਵਡਿਆਈ ਦੇਇ ॥੪॥
आपे मेलि विछुंनिआ सचि वडिआई देइ ॥४॥
ईश्वर स्वयं ही बिछुड़ों का मिलन करवाता है और स्वयं ही सत्य द्वारा प्रशंसा प्रदान करता है ॥४॥
ਰੇ ਮਨ ਐਸੀ ਹਰਿ ਸਿਉ ਪ੍ਰੀਤਿ ਕਰਿ ਜੈਸੀ ਚਕਵੀ ਸੂਰ ॥
रे मन ऐसी हरि सिउ प्रीति करि जैसी चकवी सूर ॥
हे मेरे मन ! प्रभु से ऐसी प्रीति कर जैसी चकवी की सूर्य के साथ है।
ਖਿਨੁ ਪਲੁ ਨੀਦ ਨ ਸੋਵਈ ਜਾਣੈ ਦੂਰਿ ਹਜੂਰਿ ॥
खिनु पलु नीद न सोवई जाणै दूरि हजूरि ॥
वह एक क्षण या एक पल के लिए सो नहीं सकती; सूर्य बहुत दूर है, लेकिन वह सोचती है कि यह निकट है।
ਮਨਮੁਖਿ ਸੋਝੀ ਨਾ ਪਵੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਦਾ ਹਜੂਰਿ ॥੫॥
मनमुखि सोझी ना पवै गुरमुखि सदा हजूरि ॥५॥
कुमार्गी पुरुष को सूझ नहीं पड़ती। गुरमुख के लिए प्रभु सदैव निकट ही है ॥५॥
ਮਨਮੁਖਿ ਗਣਤ ਗਣਾ ਵਣੀ ਕਰਤਾ ਕਰੇ ਸੁ ਹੋਇ ॥
मनमुखि गणत गणावणी करता करे सु होइ ॥
स्वार्थी प्राणी लेखा-जोखा करते हैं, परन्तु जो कुछ सृजनहार की इच्छा हो, वही होता है।
ਤਾ ਕੀ ਕੀਮਤਿ ਨਾ ਪਵੈ ਜੇ ਲੋਚੈ ਸਭੁ ਕੋਇ ॥
ता की कीमति ना पवै जे लोचै सभु कोइ ॥
चाहे सभी जैसी इच्छा करें, उसका मोल नहीं पाया जा सकता।
ਗੁਰਮਤਿ ਹੋਇ ਤ ਪਾਈਐ ਸਚਿ ਮਿਲੈ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥੬॥
गुरमति होइ त पाईऐ सचि मिलै सुखु होइ ॥६॥
परन्तु, गुरु की शिक्षा अनुसार इसका बोध होता है। परमात्मा से मिलन द्वारा सुख प्राप्त होता है।॥६॥
ਸਚਾ ਨੇਹੁ ਨ ਤੁਟਈ ਜੇ ਸਤਿਗੁਰੁ ਭੇਟੈ ਸੋਇ ॥
सचा नेहु न तुटई जे सतिगुरु भेटै सोइ ॥
यदि प्राणी को सतिगुरु मिल जाएँ तो सच्ची प्रीति नहीं टूटती।
ਗਿਆਨ ਪਦਾਰਥੁ ਪਾਈਐ ਤ੍ਰਿਭਵਣ ਸੋਝੀ ਹੋਇ ॥
गिआन पदारथु पाईऐ त्रिभवण सोझी होइ ॥
जब मनुष्य को ज्ञान प्राप्त हो जाता है तो फिर उसे आकाश, पाताल, मृत्युलोक तीनों लोकों की सूझ हो जाती है।
ਨਿਰਮਲੁ ਨਾਮੁ ਨ ਵੀਸਰੈ ਜੇ ਗੁਣ ਕਾ ਗਾਹਕੁ ਹੋਇ ॥੭॥
निरमलु नामु न वीसरै जे गुण का गाहकु होइ ॥७॥
यदि प्राणी प्रभु के गुणों का ग्राहक बन जाए तो वह पवित्र नाम को कदापि विस्मृत नहीं करता ॥७॥
ਖੇਲਿ ਗਏ ਸੇ ਪੰਖਣੂੰ ਜੋ ਚੁਗਦੇ ਸਰ ਤਲਿ ॥
खेलि गए से पंखणूं जो चुगदे सर तलि ॥
जो जीव रूपी पक्षी संसार सागर के तट पर दाना चुगते थे, वह जीवन बाजी खेल कर चले गए हैं।
ਘੜੀ ਕਿ ਮੁਹਤਿ ਕਿ ਚਲਣਾ ਖੇਲਣੁ ਅਜੁ ਕਿ ਕਲਿ ॥
घड़ी कि मुहति कि चलणा खेलणु अजु कि कलि ॥
प्रत्येक जीव ने एक घड़ी अथवा मुहूर्त उपरांत यहाँ से चले जाना है।
ਜਿਸੁ ਤੂੰ ਮੇਲਹਿ ਸੋ ਮਿਲੈ ਜਾਇ ਸਚਾ ਪਿੜੁ ਮਲਿ ॥੮॥
जिसु तूं मेलहि सो मिलै जाइ सचा पिड़ु मलि ॥८॥
उसकी खुशी का खेल आज अथवा कल के लिए है। हे प्रभु ! तुझे वहीं मिलता है, जिसे तुम स्वयं मिलाते हो। वह यहाँ से सच्ची बाजी जीत कर जाता है।॥८॥
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਪ੍ਰੀਤਿ ਨ ਊਪਜੈ ਹਉਮੈ ਮੈਲੁ ਨ ਜਾਇ ॥
बिनु गुर प्रीति न ऊपजै हउमै मैलु न जाइ ॥
इसलिए गुरु के बिना मनुष्य के मन में प्रभु के लिए प्रेम उत्पन्न नहीं होता और उसकी अहंकार की मलिनता दूर नहीं होती।
ਸੋਹੰ ਆਪੁ ਪਛਾਣੀਐ ਸਬਦਿ ਭੇਦਿ ਪਤੀਆਇ ॥
सोहं आपु पछाणीऐ सबदि भेदि पतीआइ ॥
जो ईश्वर की अपने हृदय में स्तुति करता है और उसके नाम के साथ बिंध गया है, उसकी तृप्ति हो जाती है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਆਪੁ ਪਛਾਣੀਐ ਅਵਰ ਕਿ ਕਰੇ ਕਰਾਇ ॥੯॥
गुरमुखि आपु पछाणीऐ अवर कि करे कराइ ॥९॥
जब मनुष्य गुरु के ज्ञान द्वारा अपने स्वरुप को समझ लेता है, तब उसके लिए अन्य क्या करना या करवाना शेष रह जाता है ?॥९॥
ਮਿਲਿਆ ਕਾ ਕਿਆ ਮੇਲੀਐ ਸਬਦਿ ਮਿਲੇ ਪਤੀਆਇ ॥
ਮਿਲਿਆ ਕਾ ਕਿਆ ਮੇਲੀਐ ਸਬਦਿ ਮਿਲੇ ਪਤੀਆਇ ॥
उनको परमेश्वर से मिलाने बारे क्या कहना हुआ, जो आगे ही गुरु के शब्द द्वारा उसके मिलन में है। नाम प्राप्त करने से उनको संतोष हो गया है।
ਮਨਮੁਖਿ ਸੋਝੀ ਨਾ ਪਵੈ ਵੀਛੁੜਿ ਚੋਟਾ ਖਾਇ ॥
मनमुखि सोझी ना पवै वीछुड़ि चोटा खाइ ॥
मनमुख प्राणियों को प्रभु का ज्ञान नहीं होता। ईश्वर से अलग होकर वे यमों की मार खाते हैं।
ਨਾਨਕ ਦਰੁ ਘਰੁ ਏਕੁ ਹੈ ਅਵਰੁ ਨ ਦੂਜੀ ਜਾਇ ॥੧੦॥੧੧॥
नानक दरु घरु एकु है अवरु न दूजी जाइ ॥१०॥११॥
हे नानक ! प्रभु का दर एवं घर ही जीव का एकमात्र सहारा है। उसके लिए अन्य कोई ठिकाना नहीं हैं ॥१०॥११॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੧ ॥
सिरीरागु महला १ ॥
श्रीरागु महला १ ॥
ਮਨਮੁਖਿ ਭੁਲੈ ਭੁਲਾਈਐ ਭੂਲੀ ਠਉਰ ਨ ਕਾਇ ॥
मनमुखि भुलै भुलाईऐ भूली ठउर न काइ ॥
मनमुख जीव-स्त्री भगवान को भूल जाती है। माया उसे मोह में फँसाकर भुला देती है। भूली हुई जीव-स्त्री को सहारा लेने हेतु कोई स्थान नहीं मिलता।
ਗੁਰ ਬਿਨੁ ਕੋ ਨ ਦਿਖਾਵਈ ਅੰਧੀ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥
गुर बिनु को न दिखावई अंधी आवै जाइ ॥
गुरु के बिना कोई भी उसे प्रभु-मिलन का मार्ग नहीं दिखा सकता। वह ज्ञानहीन जन्मती-मरती रहती है।
ਗਿਆਨ ਪਦਾਰਥੁ ਖੋਇਆ ਠਗਿਆ ਮੁਠਾ ਜਾਇ ॥੧॥
गिआन पदारथु खोइआ ठगिआ मुठा जाइ ॥१॥
जिस ने ज्ञान-पदार्थ गंवा लिया है, वह लुट जाता है ॥१॥
ਬਾਬਾ ਮਾਇਆ ਭਰਮਿ ਭੁਲਾਇ ॥
बाबा माइआ भरमि भुलाइ ॥
हे भाई ! माया ने भ्रम पैदा किया है
ਭਰਮਿ ਭੁਲੀ ਡੋਹਾਗਣੀ ਨਾ ਪਿਰ ਅੰਕਿ ਸਮਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
भरमि भुली डोहागणी ना पिर अंकि समाइ ॥१॥ रहाउ ॥
इस भ्रम में पड़कर भूली हुई दुहागिन प्रभु पति के आलिंगन में नहीं आ सकती ॥१॥ रहाउ॥
ਭੂਲੀ ਫਿਰੈ ਦਿਸੰਤਰੀ ਭੂਲੀ ਗ੍ਰਿਹੁ ਤਜਿ ਜਾਇ ॥
भूली फिरै दिसंतरी भूली ग्रिहु तजि जाइ ॥
वह भूली हुई अपना घर छोड़कर चली जाती है और देश-देशांतरों में भटकती रहती है।
ਭੂਲੀ ਡੂੰਗਰਿ ਥਲਿ ਚੜੈ ਭਰਮੈ ਮਨੁ ਡੋਲਾਇ ॥
भूली डूंगरि थलि चड़ै भरमै मनु डोलाइ ॥
संदेह के कारण उसका चित्त डगमगाता फिरता है और वह अपना सद्मार्ग भूलकर ऊँचे मैदानों तथा पर्वतों पर आरोहण करती है।
ਧੁਰਹੁ ਵਿਛੁੰਨੀ ਕਿਉ ਮਿਲੈ ਗਰਬਿ ਮੁਠੀ ਬਿਲਲਾਇ ॥੨॥
धुरहु विछुंनी किउ मिलै गरबि मुठी बिललाइ ॥२॥
वह आदि से ही प्रभु के हुक्म से बिछुड़ी हुई है, वह प्रभु से कैसे मिल सकती है? अहंकारवश ठगी हुई वह दुखी होकर विलाप करती है॥२॥
ਵਿਛੁੜਿਆ ਗੁਰੁ ਮੇਲਸੀ ਹਰਿ ਰਸਿ ਨਾਮ ਪਿਆਰਿ ॥
विछुड़िआ गुरु मेलसी हरि रसि नाम पिआरि ॥
गुरु जी बिछुड़ी आत्माओं का प्रभु के साथ मिलन करवा देते हैं। ऐसे व्यक्ति प्रेम से नाम जप कर हरि रस का आनंद प्राप्त करते हैं।