Hindi Page 1364

ਸਾਗਰ ਮੇਰ ਉਦਿਆਨ ਬਨ ਨਵ ਖੰਡ ਬਸੁਧਾ ਭਰਮ ॥
सागर मेर उदिआन बन नव खंड बसुधा भरम ॥
सागर, पर्वत, उद्यान, वन, नवखण्ड एवं धरती का भ्रमण कोई महत्व नहीं रखता।

ਮੂਸਨ ਪ੍ਰੇਮ ਪਿਰੰਮ ਕੈ ਗਨਉ ਏਕ ਕਰਿ ਕਰਮ ॥੩॥
मूसन प्रेम पिरम कै गनउ एक करि करम ॥३॥
हे मूसन ! प्रियतम से प्रेम ही उत्तम कर्म माना जाता है, सच्चा प्रेमी सब पार कर जाता है॥ ३॥

ਮੂਸਨ ਮਸਕਰ ਪ੍ਰੇਮ ਕੀ ਰਹੀ ਜੁ ਅੰਬਰੁ ਛਾਇ ॥
मूसन मसकर प्रेम की रही जु अ्मबरु छाइ ॥
हे मूसन ! जिनके दिल रूपी अंबर में प्रेम की चांदनी छाई रहती है,

ਬੀਧੇ ਬਾਂਧੇ ਕਮਲ ਮਹਿ ਭਵਰ ਰਹੇ ਲਪਟਾਇ ॥੪॥
बीधे बांधे कमल महि भवर रहे लपटाइ ॥४॥
वे कमल-फूल से भंवरे की तरह प्रेम में ही लिपटे रहते हैं॥ ४॥

ਜਪ ਤਪ ਸੰਜਮ ਹਰਖ ਸੁਖ ਮਾਨ ਮਹਤ ਅਰੁ ਗਰਬ ॥
जप तप संजम हरख सुख मान महत अरु गरब ॥
पूजा-पाठ, संयम, खुशी, सुख मान-प्रतिष्ठा एवं गर्व इत्यादि

ਮੂਸਨ ਨਿਮਖਕ ਪ੍ਰੇਮ ਪਰਿ ਵਾਰਿ ਵਾਰਿ ਦੇਂਉ ਸਰਬ ॥੫॥
मूसन निमखक प्रेम परि वारि वारि देंउ सरब ॥५॥
हे मूसन ! थोड़े-से प्रेम की खातिर सब न्यौछावर कर दो॥ ५॥

ਮੂਸਨ ਮਰਮੁ ਨ ਜਾਨਈ ਮਰਤ ਹਿਰਤ ਸੰਸਾਰ ॥
मूसन मरमु न जानई मरत हिरत संसार ॥
हे मूसन ! संसार के लोग प्रेम का भेद नहीं जानते, मृत्यु के मुँह में जा रहे हैं और लुट रहे हैं।

ਪ੍ਰੇਮ ਪਿਰੰਮ ਨ ਬੇਧਿਓ ਉਰਝਿਓ ਮਿਥ ਬਿਉਹਾਰ ॥੬॥
प्रेम पिरम न बेधिओ उरझिओ मिथ बिउहार ॥६॥
वे प्रियतम के प्रेम में लीन नहीं होते और झूठे धंधों में फंसे हुए हैं।॥ ६॥

ਘਬੁ ਦਬੁ ਜਬ ਜਾਰੀਐ ਬਿਛੁਰਤ ਪ੍ਰੇਮ ਬਿਹਾਲ ॥
घबु दबु जब जारीऐ बिछुरत प्रेम बिहाल ॥
जब किसी के घर धन-दौलत खत्म हो जाता है तो वह प्रेम के कारण वियोग में दुखी होता है।

ਮੂਸਨ ਤਬ ਹੀ ਮੂਸੀਐ ਬਿਸਰਤ ਪੁਰਖ ਦਇਆਲ ॥੭॥
मूसन तब ही मूसीऐ बिसरत पुरख दइआल ॥७॥
हे मूसन ! दरअसल यह तभी लुटता है, जब दयालु प्रभु भूल जाता है॥ ७॥

ਜਾ ਕੋ ਪ੍ਰੇਮ ਸੁਆਉ ਹੈ ਚਰਨ ਚਿਤਵ ਮਨ ਮਾਹਿ ॥
जा को प्रेम सुआउ है चरन चितव मन माहि ॥
जिसे प्रेम लग जाता है, उसका मन प्रभु-चरणों में ही टिका रहता है।

ਨਾਨਕ ਬਿਰਹੀ ਬ੍ਰਹਮ ਕੇ ਆਨ ਨ ਕਤਹੂ ਜਾਹਿ ॥੮॥
नानक बिरही ब्रहम के आन न कतहू जाहि ॥८॥
नानक का कथन है कि ब्रह्म से प्रेम करने वाले जिज्ञासु फिर अन्य कहीं नहीं जाते॥ ८॥

ਲਖ ਘਾਟੀਂ ਊਂਚੌ ਘਨੋ ਚੰਚਲ ਚੀਤ ਬਿਹਾਲ ॥
लख घाटीं ऊंचौ घनो चंचल चीत बिहाल ॥
चंचल मन अनेकों ऊँची चोटियों पर चढ़ने का प्रयास करता है, परन्तु दुख पाता है।

ਨੀਚ ਕੀਚ ਨਿਮ੍ਰਿਤ ਘਨੀ ਕਰਨੀ ਕਮਲ ਜਮਾਲ ॥੯॥
नीच कीच निम्रित घनी करनी कमल जमाल ॥९॥
हे जमाल ! कीचड़ को नीच माना जाता है, परन्तु विनम्र है, इसी से कमल का फूल उत्पन्न होता है॥ ६॥

ਕਮਲ ਨੈਨ ਅੰਜਨ ਸਿਆਮ ਚੰਦ੍ਰ ਬਦਨ ਚਿਤ ਚਾਰ ॥
कमल नैन अंजन सिआम चंद्र बदन चित चार ॥
वह कमलनयन, जिसके नयनों में अञ्जन है, वह श्याम सुन्दर, जिसका मुख चन्द्र सरीखा है, चित को चुराने वाला है।

ਮੂਸਨ ਮਗਨ ਮਰੰਮ ਸਿਉ ਖੰਡ ਖੰਡ ਕਰਿ ਹਾਰ ॥੧੦॥
मूसन मगन मरम सिउ खंड खंड करि हार ॥१०॥
हे मूसन ! उसके प्रेम में लीन हूँ, उसके लिए गले के हार के टुकड़े-टुकड़े कर दूँ॥ १०॥

ਮਗਨੁ ਭਇਓ ਪ੍ਰਿਅ ਪ੍ਰੇਮ ਸਿਉ ਸੂਧ ਨ ਸਿਮਰਤ ਅੰਗ ॥
मगनु भइओ प्रिअ प्रेम सिउ सूध न सिमरत अंग ॥
प्रभु-प्रेम में इतना मग्न हो गया हूँ कि उसकी स्मृति में कोई होश नहीं रही।

ਪ੍ਰਗਟਿ ਭਇਓ ਸਭ ਲੋਅ ਮਹਿ ਨਾਨਕ ਅਧਮ ਪਤੰਗ ॥੧੧॥
प्रगटि भइओ सभ लोअ महि नानक अधम पतंग ॥११॥
नानक का कथन है कि पतंगा स्वयं तो जल जाता है परन्तु दीए की ज्योति से अलग नहीं होता, इसी कारण पतंगे की कीर्ति लोक-प्रख्यात है॥ ११॥

ਸਲੋਕ ਭਗਤ ਕਬੀਰ ਜੀਉ ਕੇ
सलोक भगत कबीर जीउ के
सलोक भगत कबीर जीउ के

ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
वह परब्रह्म केवल एक (ऑकार-स्वरूप) है, सतगुरु की कृपा से प्राप्ति होती है।

ਕਬੀਰ ਮੇਰੀ ਸਿਮਰਨੀ ਰਸਨਾ ਊਪਰਿ ਰਾਮੁ ॥
कबीर मेरी सिमरनी रसना ऊपरि रामु ॥
कबीर जी कथन करते हैं- जीभ से ‘राम-राम’ जपना ही मेरी माला है।

ਆਦਿ ਜੁਗਾਦੀ ਸਗਲ ਭਗਤ ਤਾ ਕੋ ਸੁਖੁ ਬਿਸ੍ਰਾਮੁ ॥੧॥
आदि जुगादी सगल भगत ता को सुखु बिस्रामु ॥१॥
जब से सृष्टि बनी है, युग-युगांतर सब भक्तों को इसी से सुख-शान्ति प्राप्त हो रही है॥ १॥

ਕਬੀਰ ਮੇਰੀ ਜਾਤਿ ਕਉ ਸਭੁ ਕੋ ਹਸਨੇਹਾਰੁ ॥
कबीर मेरी जाति कउ सभु को हसनेहारु ॥
कबीर जी कथन करते हैं कि मेरी (जुलाहा) जाति पर हर व्यक्ति हँसी उड़ाता था परन्तु

ਬਲਿਹਾਰੀ ਇਸ ਜਾਤਿ ਕਉ ਜਿਹ ਜਪਿਓ ਸਿਰਜਨਹਾਰੁ ॥੨॥
बलिहारी इस जाति कउ जिह जपिओ सिरजनहारु ॥२॥
मैं इस जाति पर बलिहारी जाता हूँ, जिसमें जीवन गुज़ार कर रचनहार परमेश्वर का भजन किया है॥ २॥

ਕਬੀਰ ਡਗਮਗ ਕਿਆ ਕਰਹਿ ਕਹਾ ਡੁਲਾਵਹਿ ਜੀਉ ॥
कबीर डगमग किआ करहि कहा डुलावहि जीउ ॥
कबीर जी उद्बोधन करते हैं कि हे मनुष्य ! क्यों डावांडोल हो रहा है, किसलिए घबरा रहा है।

ਸਰਬ ਸੂਖ ਕੋ ਨਾਇਕੋ ਰਾਮ ਨਾਮ ਰਸੁ ਪੀਉ ॥੩॥
सरब सूख को नाइको राम नाम रसु पीउ ॥३॥
राम नाम सर्व सुखों का घर है, इसी का रस पान करो॥ ३॥

ਕਬੀਰ ਕੰਚਨ ਕੇ ਕੁੰਡਲ ਬਨੇ ਊਪਰਿ ਲਾਲ ਜੜਾਉ ॥
कबीर कंचन के कुंडल बने ऊपरि लाल जड़ाउ ॥
हे कबीर ! जो हीरे-मोतियों से जड़ित सोने के कुण्डल धारण करते हैं,

ਦੀਸਹਿ ਦਾਧੇ ਕਾਨ ਜਿਉ ਜਿਨੑ ਮਨਿ ਨਾਹੀ ਨਾਉ ॥੪॥
दीसहि दाधे कान जिउ जिन्ह मनि नाही नाउ ॥४॥
जिनके मन में परमात्मा का नाम नहीं होता, वे तो ऐसे दिखाई देते हैं, जैसे कान जले हुए हों।॥ ४॥

ਕਬੀਰ ਐਸਾ ਏਕੁ ਆਧੁ ਜੋ ਜੀਵਤ ਮਿਰਤਕੁ ਹੋਇ ॥
कबीर ऐसा एकु आधु जो जीवत मिरतकु होइ ॥
हे कबीर ! ऐसा कोई एकाध ही होता है, जो जीवन्मुक्त होता है।

ਨਿਰਭੈ ਹੋਇ ਕੈ ਗੁਨ ਰਵੈ ਜਤ ਪੇਖਉ ਤਤ ਸੋਇ ॥੫॥
निरभै होइ कै गुन रवै जत पेखउ तत सोइ ॥५॥
वह निर्भय होकर ईश्वर के गुणगान में रत रहता है, जिधर देखता है, उसे वही दिखाई देता है॥ ५॥

ਕਬੀਰ ਜਾ ਦਿਨ ਹਉ ਮੂਆ ਪਾਛੈ ਭਇਆ ਅਨੰਦੁ ॥
कबीर जा दिन हउ मूआ पाछै भइआ अनंदु ॥
हे कबीर ! जिस दिन मेरा अभिमान खत्म हो गया, आनंद ही आनंद उत्पन्न हो गया।

ਮੋਹਿ ਮਿਲਿਓ ਪ੍ਰਭੁ ਆਪਨਾ ਸੰਗੀ ਭਜਹਿ ਗੋੁਬਿੰਦੁ ॥੬॥
मोहि मिलिओ प्रभु आपना संगी भजहि गोबिंदु ॥६॥
मुझे अपना प्रभु मिल गया और अब संत संगियों के साथ भजन ही करता हूँ॥ ६॥

ਕਬੀਰ ਸਭ ਤੇ ਹਮ ਬੁਰੇ ਹਮ ਤਜਿ ਭਲੋ ਸਭੁ ਕੋਇ ॥
कबीर सभ ते हम बुरे हम तजि भलो सभु कोइ ॥
कबीर जी उद्बोधन करते हैं- जिसने इस तथ्य को समझ लिया है कि हम सबसे बुरे हैं,

ਜਿਨਿ ਐਸਾ ਕਰਿ ਬੂਝਿਆ ਮੀਤੁ ਹਮਾਰਾ ਸੋਇ ॥੭॥
जिनि ऐसा करि बूझिआ मीतु हमारा सोइ ॥७॥
हमें छोड़कर हर कोई भला है, वही हमारा परम मित्र है॥ ७॥

ਕਬੀਰ ਆਈ ਮੁਝਹਿ ਪਹਿ ਅਨਿਕ ਕਰੇ ਕਰਿ ਭੇਸ ॥
कबीर आई मुझहि पहि अनिक करे करि भेस ॥
हे कबीर ! माया अनेकों रूप धारण करके मेरे पास आई,

ਹਮ ਰਾਖੇ ਗੁਰ ਆਪਨੇ ਉਨਿ ਕੀਨੋ ਆਦੇਸੁ ॥੮॥
हम राखे गुर आपने उनि कीनो आदेसु ॥८॥
लेकिन गुरु-परमेश्वर ने हमारी रक्षा की है, अतः वह सिर झुका कर वापिस चली गई॥ ८॥

ਕਬੀਰ ਸੋਈ ਮਾਰੀਐ ਜਿਹ ਮੂਐ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥
कबीर सोई मारीऐ जिह मूऐ सुखु होइ ॥
कबीर जी आग्रह करते हैं- उस अहम् को मारो, जिसके खत्म होने से परम सुख प्राप्त होता है।

ਭਲੋ ਭਲੋ ਸਭੁ ਕੋ ਕਹੈ ਬੁਰੋ ਨ ਮਾਨੈ ਕੋਇ ॥੯॥
भलो भलो सभु को कहै बुरो न मानै कोइ ॥९॥
उसको मारने से हर कोई भला ही कहता है और कोई बुरा नहीं मानता॥ ६॥

ਕਬੀਰ ਰਾਤੀ ਹੋਵਹਿ ਕਾਰੀਆ ਕਾਰੇ ਊਭੇ ਜੰਤ ॥
कबीर राती होवहि कारीआ कारे ऊभे जंत ॥
कबीर जी बतलाते हैं कि जब अंधेरी रात होती है तो चोर-लुटेरे बुरे काम के लिए उठ जाते हैं।

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