ਮਨ ਮੇਰੇ ਗਹੁ ਹਰਿ ਨਾਮ ਕਾ ਓਲਾ ॥
मन मेरे गहु हरि नाम का ओला ॥
हे मेरे मन ! ईश्वर के नाम का आश्रय लो।
ਤੁਝੈ ਨ ਲਾਗੈ ਤਾਤਾ ਝੋਲਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
तुझै न लागै ताता झोला ॥१॥ रहाउ ॥
तुझे हवा का गर्म झोका भी स्पर्श नहीं करेगा। ॥ १॥ रहाउ ॥
ਜਿਉ ਬੋਹਿਥੁ ਭੈ ਸਾਗਰ ਮਾਹਿ ॥
जिउ बोहिथु भै सागर माहि ॥
जैसे भयानक सागर में जहाज सहायक होता है,
ਅੰਧਕਾਰ ਦੀਪਕ ਦੀਪਾਹਿ ॥
अंधकार दीपक दीपाहि ॥
जैसे दीपक अंधेरे में उजाला कर देता है,
ਅਗਨਿ ਸੀਤ ਕਾ ਲਾਹਸਿ ਦੂਖ ॥
अगनि सीत का लाहसि दूख ॥
जैसे अग्नि सर्दी की पीड़ा को दूर कर देती है,
ਨਾਮੁ ਜਪਤ ਮਨਿ ਹੋਵਤ ਸੂਖ ॥੨॥
नामु जपत मनि होवत सूख ॥२॥
वैसे ही नाम-स्मरण से मन को शांति प्राप्त हो जाती है। २ ॥
ਉਤਰਿ ਜਾਇ ਤੇਰੇ ਮਨ ਕੀ ਪਿਆਸ ॥
उतरि जाइ तेरे मन की पिआस ॥
नाम-सिमरन से तेरे मन की तृष्णा बुझ जाएगी,”
ਪੂਰਨ ਹੋਵੈ ਸਗਲੀ ਆਸ ॥
पूरन होवै सगली आस ॥
समस्त आकांक्षा पूर्ण हो जाएँगी,
ਡੋਲੈ ਨਾਹੀ ਤੁਮਰਾ ਚੀਤੁ ॥
डोलै नाही तुमरा चीतु ॥
तेरा मन डावांडोल नहीं होगा,
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਮੁ ਜਪਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਮੀਤ ॥੩॥
अम्रित नामु जपि गुरमुखि मीत ॥३॥
यदि हे मित्र ! तू गुरु की दया से नाम अमृत का स्मरण करे। ॥३॥
ਨਾਮੁ ਅਉਖਧੁ ਸੋਈ ਜਨੁ ਪਾਵੈ ॥
नामु अउखधु सोई जनु पावै ॥
केवल वही मनुष्य नाम रूपी औषधि प्राप्त करता है,
ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਜਿਸੁ ਆਪਿ ਦਿਵਾਵੈ ॥
करि किरपा जिसु आपि दिवावै ॥
जिसे प्रभु स्वयं दया धारण करके गुरु से दिलवाता है।
ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਜਾ ਕੈ ਹਿਰਦੈ ਵਸੈ ॥
हरि हरि नामु जा कै हिरदै वसै ॥
हे नानक ! जिसके हृदय में हरि-परमेश्वर का नाम निवास करता है,
ਦੂਖੁ ਦਰਦੁ ਤਿਹ ਨਾਨਕ ਨਸੈ ॥੪॥੧੦॥੭੯॥
दूखु दरदु तिह नानक नसै ॥४॥१०॥७९॥
उसके दुःख-दर्द दूर हो जाते हैं ॥ ४॥ १०॥ ७९॥
ਗਉੜੀ ਗੁਆਰੇਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥
गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥
गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥
ਬਹੁਤੁ ਦਰਬੁ ਕਰਿ ਮਨੁ ਨ ਅਘਾਨਾ ॥
बहुतु दरबु करि मनु न अघाना ॥
अधिकतर धन संग्रह करने से भी इन्सान का मन तृप्त नहीं होता।
ਅਨਿਕ ਰੂਪ ਦੇਖਿ ਨਹ ਪਤੀਆਨਾ ॥
अनिक रूप देखि नह पतीआना ॥
अनेक रूपसियों का सौन्दर्य देखकर भी इन्सान संतुष्ट नहीं होता।
ਪੁਤ੍ਰ ਕਲਤ੍ਰ ਉਰਝਿਓ ਜਾਨਿ ਮੇਰੀ ॥
पुत्र कलत्र उरझिओ जानि मेरी ॥
अपने पुत्र एवं पत्नी के मोह में मेरे प्राण उलझे हुए हैं।
ਓਹ ਬਿਨਸੈ ਓਇ ਭਸਮੈ ਢੇਰੀ ॥੧॥
ओह बिनसै ओइ भसमै ढेरी ॥१॥
मेरी धन-दौलत सब नाश हो जाएगी और वह संबधी राख का अम्बार हो जायेंगे ॥१॥
ਬਿਨੁ ਹਰਿ ਭਜਨ ਦੇਖਉ ਬਿਲਲਾਤੇ ॥
बिनु हरि भजन देखउ बिललाते ॥
हरि-भजन के बिना में प्राणियों को विलाप करते देखता हूँ।
ਧ੍ਰਿਗੁ ਤਨੁ ਧ੍ਰਿਗੁ ਧਨੁ ਮਾਇਆ ਸੰਗਿ ਰਾਤੇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
ध्रिगु तनु ध्रिगु धनु माइआ संगि राते ॥१॥ रहाउ ॥
जो व्यक्ति माया के मोह में मग्न रहते हैं, उनका तन एवं मन धिक्कार योग्य है ॥१॥ रहाउ॥
ਜਿਉ ਬਿਗਾਰੀ ਕੈ ਸਿਰਿ ਦੀਜਹਿ ਦਾਮ ॥
जिउ बिगारी कै सिरि दीजहि दाम ॥
जैसे जैसे धन दौलत की पोटली बेगारी के सिर पर रख दी जाती है,
ਓਇ ਖਸਮੈ ਕੈ ਗ੍ਰਿਹਿ ਉਨ ਦੂਖ ਸਹਾਮ ॥
ओइ खसमै कै ग्रिहि उन दूख सहाम ॥
वह धन दौलत की पोटली स्वामी के घर पहुँच जाती है परन्तु बेगारी भार उठाने का कष्ट सहन करता है।
ਜਿਉ ਸੁਪਨੈ ਹੋਇ ਬੈਸਤ ਰਾਜਾ ॥
जिउ सुपनै होइ बैसत राजा ॥
जैसे स्वप्न में साधारण पुरुष राजा बनकर विराजमान हो जाता है
ਨੇਤ੍ਰ ਪਸਾਰੈ ਤਾ ਨਿਰਾਰਥ ਕਾਜਾ ॥੨॥
नेत्र पसारै ता निरारथ काजा ॥२॥
परन्तु जब वह अपने नेत्र खोलता है, तो उसका सारा कार्य व्यर्थ हो जाता है ॥२॥
ਜਿਉ ਰਾਖਾ ਖੇਤ ਊਪਰਿ ਪਰਾਏ ॥
जिउ राखा खेत ऊपरि पराए ॥
जैसे कोई रखवाला फसल की रक्षा करता है,
ਖੇਤੁ ਖਸਮ ਕਾ ਰਾਖਾ ਉਠਿ ਜਾਏ ॥
खेतु खसम का राखा उठि जाए ॥
फसल तो स्वामी की बन जाती है और रखवाला उठ कर अपने घर चला जाता है |
ਉਸੁ ਖੇਤ ਕਾਰਣਿ ਰਾਖਾ ਕੜੈ ॥
उसु खेत कारणि राखा कड़ै ॥
उस फसल के कारन रखवाला अधिक कष्ट सहन करता है,
ਤਿਸ ਕੈ ਪਾਲੈ ਕਛੂ ਨ ਪੜੈ ॥੩॥
तिस कै पालै कछू न पड़ै ॥३॥
परन्तु उसमें आखिर उसे कुछ नहीं मिलता ॥ ३॥
ਜਿਸ ਕਾ ਰਾਜੁ ਤਿਸੈ ਕਾ ਸੁਪਨਾ ॥
जिस का राजु तिसै का सुपना ॥
जिस प्रभु का दिया हुआ शासन मिलता है। उसी का दिया हुआ स्वप्न भी होता है।
ਜਿਨਿ ਮਾਇਆ ਦੀਨੀ ਤਿਨਿ ਲਾਈ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ॥
जिनि माइआ दीनी तिनि लाई त्रिसना ॥
जिसने धन-दौलत प्रदान की है, उसने ही इसलिए तृणा उत्पन्न की है।
ਆਪਿ ਬਿਨਾਹੇ ਆਪਿ ਕਰੇ ਰਾਸਿ ॥
आपि बिनाहे आपि करे रासि ॥
परमेश्वर स्वयं प्राणी का विनाश करता है और स्वयं ही उसका मनोरथ सफल करता है।
ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਭ ਆਗੈ ਅਰਦਾਸਿ ॥੪॥੧੧॥੮੦॥
नानक प्रभ आगै अरदासि ॥४॥११॥८०॥
हे नानक ! प्रभु के समक्ष प्रार्थना किया कर ॥४॥११॥८०॥
ਗਉੜੀ ਗੁਆਰੇਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥
गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥
गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥
ਬਹੁ ਰੰਗ ਮਾਇਆ ਬਹੁ ਬਿਧਿ ਪੇਖੀ ॥
बहु रंग माइआ बहु बिधि पेखी ॥
बहुरंगी मोहिनी मैंने अनेक विधियों से लुभाती हुई देखी है।
ਕਲਮ ਕਾਗਦ ਸਿਆਨਪ ਲੇਖੀ ॥
कलम कागद सिआनप लेखी ॥
अनेक विद्वानों ने अपनी कलम से कागज पर प्रवीण बातें लिखी हैं।
ਮਹਰ ਮਲੂਕ ਹੋਇ ਦੇਖਿਆ ਖਾਨ ॥
महर मलूक होइ देखिआ खान ॥
मैंने कुछ लोगों को चौधरी, राजा और सामन्त बनते देखा है।
ਤਾ ਤੇ ਨਾਹੀ ਮਨੁ ਤ੍ਰਿਪਤਾਨ ॥੧॥
ता ते नाही मनु त्रिपतान ॥१॥
परन्तु ऐसा बन जाने पर भी उनका मन तृप्त नहीं हुआ। १॥
ਸੋ ਸੁਖੁ ਮੋ ਕਉ ਸੰਤ ਬਤਾਵਹੁ ॥
सो सुखु मो कउ संत बतावहु ॥
हे सन्तजनो ! मुझे वह सुख बताएँ,
ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਬੂਝੈ ਮਨੁ ਤ੍ਰਿਪਤਾਵਹੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
त्रिसना बूझै मनु त्रिपतावहु ॥१॥ रहाउ ॥
जिससे तृष्णा मिट जाए और मन तृप्त हो जाए। १॥ रहाउ॥
ਅਸੁ ਪਵਨ ਹਸਤਿ ਅਸਵਾਰੀ ॥
असु पवन हसति असवारी ॥
चाहे मेरे पास वायुगतिगामी घोड़ों एवं हाथियों की सवारी हो,
ਚੋਆ ਚੰਦਨੁ ਸੇਜ ਸੁੰਦਰਿ ਨਾਰੀ ॥
चोआ चंदनु सेज सुंदरि नारी ॥
चन्दन का इत्र, सुन्दर नारियों की सेज हो,
ਨਟ ਨਾਟਿਕ ਆਖਾਰੇ ਗਾਇਆ ॥
नट नाटिक आखारे गाइआ ॥
रंगभूमि में नटों के नाटक, मेरे लिए गाने वाले कलाकार हों,
ਤਾ ਮਹਿ ਮਨਿ ਸੰਤੋਖੁ ਨ ਪਾਇਆ ॥੨॥
ता महि मनि संतोखु न पाइआ ॥२॥
परन्तु उन में से हृदय को संतोष प्राप्त नहीं होता। २॥
ਤਖਤੁ ਸਭਾ ਮੰਡਨ ਦੋਲੀਚੇ ॥
तखतु सभा मंडन दोलीचे ॥
राजसिंहासन, राजकीय दरबार, आभूषण, गलीचे,
ਸਗਲ ਮੇਵੇ ਸੁੰਦਰ ਬਾਗੀਚੇ ॥
सगल मेवे सुंदर बागीचे ॥
समूह फल, सुन्दर उद्यान,
ਆਖੇੜ ਬਿਰਤਿ ਰਾਜਨ ਕੀ ਲੀਲਾ ॥
आखेड़ बिरति राजन की लीला ॥
आखेट का शौक और राजाओं की क्रीड़ाएँ-मनोरंजन,
ਮਨੁ ਨ ਸੁਹੇਲਾ ਪਰਪੰਚੁ ਹੀਲਾ ॥੩॥
मनु न सुहेला परपंचु हीला ॥३॥
ऐसे झूठे प्रयासों से हृदय प्रसन्न नहीं होता। ३ ।
ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਸੰਤਨ ਸਚੁ ਕਹਿਆ ॥
करि किरपा संतन सचु कहिआ ॥
संतों ने कृपा करके यह सत्य ही कहा है
ਸਰਬ ਸੂਖ ਇਹੁ ਆਨੰਦੁ ਲਹਿਆ ॥
सरब सूख इहु आनंदु लहिआ ॥
कि यह आनंद एवं सर्व सुख वही मनुष्य प्राप्त करता है,
ਸਾਧਸੰਗਿ ਹਰਿ ਕੀਰਤਨੁ ਗਾਈਐ ॥
साधसंगि हरि कीरतनु गाईऐ ॥
जो संतों की संगति करके भगवान का कीर्तन गायन करता है।
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਵਡਭਾਗੀ ਪਾਈਐ ॥੪॥
कहु नानक वडभागी पाईऐ ॥४॥
हे नानक! संतो की संगती सौभाग्यवश ही मिलती है
ਜਾ ਕੈ ਹਰਿ ਧਨੁ ਸੋਈ ਸੁਹੇਲਾ ॥
जा कै हरि धनु सोई सुहेला ॥
जिसके पास हरि नाम रूपी धन है,
ਪ੍ਰਭ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਸਾਧਸੰਗਿ ਮੇਲਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ਦੂਜਾ ॥੧੨॥੮੧॥
प्रभ किरपा ते साधसंगि मेला ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१२॥८१॥
वही सुप्रसन्न है। प्रभु की दया से संतों की संगति प्राप्त होती है। १॥ रहाउ दूजा ॥१२ ॥ ८१॥
ਗਉੜੀ ਗੁਆਰੇਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥
गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥
गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥