ਪੂਰਬ ਜਨਮ ਹਮ ਤੁਮ੍ਹ੍ਹਰੇ ਸੇਵਕ ਅਬ ਤਉ ਮਿਟਿਆ ਨ ਜਾਈ ॥
पूरब जनम हम तुम्हरे सेवक अब तउ मिटिआ न जाई ॥
पूर्व जन्म से ही हम तुम्हारे सेवक हैं, इसलिए अब इस जन्म में भी तेरी सेवा किए बिना रहा नहीं जाता।
ਤੇਰੇ ਦੁਆਰੈ ਧੁਨਿ ਸਹਜ ਕੀ ਮਾਥੈ ਮੇਰੇ ਦਗਾਈ ॥੨॥
तेरे दुआरै धुनि सहज की माथै मेरे दगाई ॥२॥
तेरे द्वार पर अनहद शब्द की ध्वनि होती रहती है और तूने मेरे पर यह भक्ति की निशानी लगा दी है॥ २॥
ਦਾਗੇ ਹੋਹਿ ਸੁ ਰਨ ਮਹਿ ਜੂਝਹਿ ਬਿਨੁ ਦਾਗੇ ਭਗਿ ਜਾਈ ॥
दागे होहि सु रन महि जूझहि बिनु दागे भगि जाई ॥
इस जगत् रूपी रणभूमि में वही शूरवीर दुष्टों जूझते हैं, जो चिन्हित होते हैं और बिना चिन्ह तो डर कर ही भाग जाते हैं।
ਸਾਧੂ ਹੋਇ ਸੁ ਭਗਤਿ ਪਛਾਨੈ ਹਰਿ ਲਏ ਖਜਾਨੈ ਪਾਈ ॥੩॥
साधू होइ सु भगति पछानै हरि लए खजानै पाई ॥३॥
जो सच्चा साधु होता, उसे ही भक्ति की पहचान होती है और भगवान उसे अपने खजाने में शामिल कर लेता॥ ३॥
ਕੋਠਰੇ ਮਹਿ ਕੋਠਰੀ ਪਰਮ ਕੋਠੀ ਬੀਚਾਰਿ ॥
कोठरे महि कोठरी परम कोठी बीचारि ॥
मानव-शरीर रूपी कोठे में ही सत्य की कोठरी है, जो नाम-स्मरण द्वारा पावन हो जाती है।
ਗੁਰਿ ਦੀਨੀ ਬਸਤੁ ਕਬੀਰ ਕਉ ਲੇਵਹੁ ਬਸਤੁ ਸਮ੍ਹ੍ਹਾਰਿ ॥੪॥
गुरि दीनी बसतु कबीर कउ लेवहु बसतु सम्हारि ॥४॥
कबीर कहते हैं कि गुरु ने मुझे सत्य-नाम रूपी वस्तु प्रदान की है और कहा कि इस वस्तु को संभाल कर रखो॥ ४॥
ਕਬੀਰਿ ਦੀਈ ਸੰਸਾਰ ਕਉ ਲੀਨੀ ਜਿਸੁ ਮਸਤਕਿ ਭਾਗੁ ॥
कबीरि दीई संसार कउ लीनी जिसु मसतकि भागु ॥
कबीर ने यह नाम रूपी वस्तु संसार के लोगों को भी वितरित कर दी है, परन्तु इसे भाग्यवान् ने ही हासिल किया है।
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਰਸੁ ਜਿਨਿ ਪਾਇਆ ਥਿਰੁ ਤਾ ਕਾ ਸੋਹਾਗੁ ॥੫॥੪॥
अम्रित रसु जिनि पाइआ थिरु ता का सोहागु ॥५॥४॥
जिस जीव रूपी नारी ने नाम रूपी अमृत रस प्राप्त किया है, उसका सुहाग अटल है ॥५॥४॥
ਜਿਹ ਮੁਖ ਬੇਦੁ ਗਾਇਤ੍ਰੀ ਨਿਕਸੈ ਸੋ ਕਿਉ ਬ੍ਰਹਮਨੁ ਬਿਸਰੁ ਕਰੈ ॥
जिह मुख बेदु गाइत्री निकसै सो किउ ब्रहमनु बिसरु करै ॥
जिस परब्रह्म के मुख से वेद एवं गायत्री निकले हैं, हे ब्राह्मण ! उसे क्यों विस्मृत करता है।
ਜਾ ਕੈ ਪਾਇ ਜਗਤੁ ਸਭੁ ਲਾਗੈ ਸੋ ਕਿਉ ਪੰਡਿਤੁ ਹਰਿ ਨ ਕਹੈ ॥੧॥
जा कै पाइ जगतु सभु लागै सो किउ पंडितु हरि न कहै ॥१॥
हे पण्डित ! जिसके चरणों में समूचा जगत् लगता है, तू उस हरि को क्यों नहीं स्मरण करता॥ १॥
ਕਾਹੇ ਮੇਰੇ ਬਾਮ੍ਹ੍ਹਨ ਹਰਿ ਨ ਕਹਹਿ ॥
काहे मेरे बाम्हन हरि न कहहि ॥
हे ब्राह्मण ! क्योंकर हरि का नाम नहीं जपता ?
ਰਾਮੁ ਨ ਬੋਲਹਿ ਪਾਡੇ ਦੋਜਕੁ ਭਰਹਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
रामु न बोलहि पाडे दोजकु भरहि ॥१॥ रहाउ ॥
हे पाण्डे ! तू राम नाम नहीं बोलता, तेरी नरक में जाने की संभावना है॥ १॥ रहाउ॥
ਆਪਨ ਊਚ ਨੀਚ ਘਰਿ ਭੋਜਨੁ ਹਠੇ ਕਰਮ ਕਰਿ ਉਦਰੁ ਭਰਹਿ ॥
आपन ऊच नीच घरि भोजनु हठे करम करि उदरु भरहि ॥
तू खुद को उच्च जाति का समझता है किन्तु नीचों के घर भोजन करता है, तू तो हठ कर्म करके अपना पेट भरता है।
ਚਉਦਸ ਅਮਾਵਸ ਰਚਿ ਰਚਿ ਮਾਂਗਹਿ ਕਰ ਦੀਪਕੁ ਲੈ ਕੂਪਿ ਪਰਹਿ ॥੨॥
चउदस अमावस रचि रचि मांगहि कर दीपकु लै कूपि परहि ॥२॥
तू चौदस एवं अमावस्या के आधार पर अपने यजमानों से दान माँगता रहता है और हाथ में दीपक लेकर कूप में भी पड़ता है॥ २॥
ਤੂੰ ਬ੍ਰਹਮਨੁ ਮੈ ਕਾਸੀਕ ਜੁਲਹਾ ਮੁਹਿ ਤੋਹਿ ਬਰਾਬਰੀ ਕੈਸੇ ਕੈ ਬਨਹਿ ॥
तूं ब्रहमनु मै कासीक जुलहा मुहि तोहि बराबरी कैसे कै बनहि ॥
तू ब्राह्मण है और मैं काशी का जुलाहा हूँ, फिर तेरी और मेरी बराबरी कैसे हो सकती है ?”
ਹਮਰੇ ਰਾਮ ਨਾਮ ਕਹਿ ਉਬਰੇ ਬੇਦ ਭਰੋਸੇ ਪਾਂਡੇ ਡੂਬਿ ਮਰਹਿ ॥੩॥੫॥
हमरे राम नाम कहि उबरे बेद भरोसे पांडे डूबि मरहि ॥३॥५॥
अरे पाण्डे ! हमारा तो राम नाम जपने से उद्धार हो गया है, परन्तु तू वेदों के भरोसे पर डूब मरेंगा॥ ३॥ ५॥
ਤਰਵਰੁ ਏਕੁ ਅਨੰਤ ਡਾਰ ਸਾਖਾ ਪੁਹਪ ਪਤ੍ਰ ਰਸ ਭਰੀਆ ॥
तरवरु एकु अनंत डार साखा पुहप पत्र रस भरीआ ॥
ईश्वर एक पेड़ है, मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंगे एवं अन्य जीव इस पेड़ की डालियाँ, शाखाएँ, पुष्प, पत्र-रस इत्यादि हैं।
ਇਹ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਕੀ ਬਾੜੀ ਹੈ ਰੇ ਤਿਨਿ ਹਰਿ ਪੂਰੈ ਕਰੀਆ ॥੧॥
इह अम्रित की बाड़ी है रे तिनि हरि पूरै करीआ ॥१॥
यह सृष्टि (नाम रूपी) अमृत की वाटिका है, जिसे परमेश्वर ने स्वयं ही पैदा किया है।॥१॥
ਜਾਨੀ ਜਾਨੀ ਰੇ ਰਾਜਾ ਰਾਮ ਕੀ ਕਹਾਨੀ ॥
जानी जानी रे राजा राम की कहानी ॥
मैंने राजा राम की (रचना की) कहानी जान ली है।
ਅੰਤਰਿ ਜੋਤਿ ਰਾਮ ਪਰਗਾਸਾ ਗੁਰਮੁਖਿ ਬਿਰਲੈ ਜਾਨੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
अंतरि जोति राम परगासा गुरमुखि बिरलै जानी ॥१॥ रहाउ ॥
सब जीवों के अन्तर्मन में राम की ज्योति का ही प्रकाश है, पर किसी विरले गुरुमुख ने ही इस भेद को समझा है ॥१॥ रहाउ ॥
ਭਵਰੁ ਏਕੁ ਪੁਹਪ ਰਸ ਬੀਧਾ ਬਾਰਹ ਲੇ ਉਰ ਧਰਿਆ ॥
भवरु एकु पुहप रस बीधा बारह ले उर धरिआ ॥
एक जीव रूपी भंवरा इस पेड़ के पुष्प के रस में बिंध गया है, प्राणवायु ने प्राणायाम के अभ्यास द्वारा उस भंवरे को बारह पंखुड़ियों वाले अनाहत कमल में धारण कर दिया और
ਸੋਰਹ ਮਧੇ ਪਵਨੁ ਝਕੋਰਿਆ ਆਕਾਸੇ ਫਰੁ ਫਰਿਆ ॥੨॥
सोरह मधे पवनु झकोरिआ आकासे फरु फरिआ ॥२॥
फिर उस भंवरे ने सोलह पंखुड़ियों वाले विशुद्ध कमल पर चढ़कर प्राणवायु को झकझोरा, तदुपरांत यह भंवरा उड़कर दशम द्वार में जा चढ़ा॥ २॥
ਸਹਜ ਸੁੰਨਿ ਇਕੁ ਬਿਰਵਾ ਉਪਜਿਆ ਧਰਤੀ ਜਲਹਰੁ ਸੋਖਿਆ ॥
सहज सुंनि इकु बिरवा उपजिआ धरती जलहरु सोखिआ ॥
वहाँ अनहद शब्द की आनंदमय ध्वनि में सत्य-नाम रुपी पौधा उत्पन्न हो गया, जिसने उसकी शरीर रूपी धरती पर मंडराते हुए तृष्णा बादल को सुखा दिया है,
ਕਹਿ ਕਬੀਰ ਹਉ ਤਾ ਕਾ ਸੇਵਕੁ ਜਿਨਿ ਇਹੁ ਬਿਰਵਾ ਦੇਖਿਆ ॥੩॥੬॥
कहि कबीर हउ ता का सेवकु जिनि इहु बिरवा देखिआ ॥३॥६॥
कबीर कहते हैं कि मैं उस भक्त का सेवक हूँ, जिसने सत्य-नाम रूपी पौधे को देखा है॥ ३॥ ६॥
ਮੁੰਦ੍ਰਾ ਮੋਨਿ ਦਇਆ ਕਰਿ ਝੋਲੀ ਪਤ੍ਰ ਕਾ ਕਰਹੁ ਬੀਚਾਰੁ ਰੇ ॥
मुंद्रा मोनि दइआ करि झोली पत्र का करहु बीचारु रे ॥
कानों में मौन धारण को मुद्राएँ पहनो, दया को अपनी कफ़नी बनाओ और विचार अर्थात् नाम-स्मरण को अपना खप्पर बनाओ ।
ਖਿੰਥਾ ਇਹੁ ਤਨੁ ਸੀਅਉ ਅਪਨਾ ਨਾਮੁ ਕਰਉ ਆਧਾਰੁ ਰੇ ॥੧॥
खिंथा इहु तनु सीअउ अपना नामु करउ आधारु रे ॥१॥
अपने इस शरीर को पावन रखने की खिंथा सी लो और नाम को अपना जीवनाधार बनाओ॥ १॥
ਐਸਾ ਜੋਗੁ ਕਮਾਵਹੁ ਜੋਗੀ ॥
ऐसा जोगु कमावहु जोगी ॥
हे योगी ! ऐसा योग कमाओ।
ਜਪ ਤਪ ਸੰਜਮੁ ਗੁਰਮੁਖਿ ਭੋਗੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जप तप संजमु गुरमुखि भोगी ॥१॥ रहाउ ॥
गृहस्थ में रहकर गुरु के निर्देशानुसार नाम-स्मरण करते रहो, यही जप-तप एवं संयम है। १॥ रहाउ॥
ਬੁਧਿ ਬਿਭੂਤਿ ਚਢਾਵਉ ਅਪੁਨੀ ਸਿੰਗੀ ਸੁਰਤਿ ਮਿਲਾਈ ॥
बुधि बिभूति चढावउ अपुनी सिंगी सुरति मिलाई ॥
बुद्धि को निर्मल रखने की विभूति अपने शरीर पर लगाओ और अपनी सुरति से प्रभु का ध्यान करो, यही सिंगी बजाओ।
ਕਰਿ ਬੈਰਾਗੁ ਫਿਰਉ ਤਨਿ ਨਗਰੀ ਮਨ ਕੀ ਕਿੰਗੁਰੀ ਬਜਾਈ ॥੨॥
करि बैरागु फिरउ तनि नगरी मन की किंगुरी बजाई ॥२॥
प्रभु-मिलन का वैराग्य पैदा करके शरीर रूपी नगरी में मन की यह किंगुरी बजाते रहो॥ २॥
ਪੰਚ ਤਤੁ ਲੈ ਹਿਰਦੈ ਰਾਖਹੁ ਰਹੈ ਨਿਰਾਲਮ ਤਾੜੀ ॥
पंच ततु लै हिरदै राखहु रहै निरालम ताड़ी ॥
निर्विकल्प समाधि यूँ लगी रहती है कि पंचतत्व के शुभ गुणों को लेकर अपने हृदय में बसा लो।
ਕਹਤੁ ਕਬੀਰੁ ਸੁਨਹੁ ਰੇ ਸੰਤਹੁ ਧਰਮੁ ਦਇਆ ਕਰਿ ਬਾੜੀ ॥੩॥੭॥
कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु धरमु दइआ करि बाड़ी ॥३॥७॥
कबीर कहते हैं कि हे संतजनो ! ध्यानपूर्वक सुनो, धर्म एवं दया को अपनी वाटिका बना लो॥ ३॥ ७॥
ਕਵਨ ਕਾਜ ਸਿਰਜੇ ਜਗ ਭੀਤਰਿ ਜਨਮਿ ਕਵਨ ਫਲੁ ਪਾਇਆ ॥
कवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआ ॥
किस काम के लिए जग में हमें उत्पन्न किया है और जन्म लेकर हमने क्या फल प्राप्त किया है ?
ਭਵ ਨਿਧਿ ਤਰਨ ਤਾਰਨ ਚਿੰਤਾਮਨਿ ਇਕ ਨਿਮਖ ਨ ਇਹੁ ਮਨੁ ਲਾਇਆ ॥੧॥
भव निधि तरन तारन चिंतामनि इक निमख न इहु मनु लाइआ ॥१॥
उस मोक्षदाता, संसार-सागर से पार करने वाले, चिंतामणि परमेश्वर में एक क्षण भी यह मन नहीं लगाया ॥१॥