ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਜਾ ਕੈ ਹਰਿ ਸਾ ਠਾਕੁਰੁ ਭਾਈ ॥
जा कै हरि सा ठाकुरु भाई ॥
हे भाई ! जिसका भगवान जैसा ठाकुर मौजूद है,
ਮੁਕਤਿ ਅਨੰਤ ਪੁਕਾਰਣਿ ਜਾਈ ॥੧॥
मुकति अनंत पुकारणि जाई ॥१॥
अनन्त मुक्तियाँ उसके समक्ष अपने आप न्योछावर होती हैं।॥ १॥
ਅਬ ਕਹੁ ਰਾਮ ਭਰੋਸਾ ਤੋਰਾ ॥
अब कहु राम भरोसा तोरा ॥
हे राम ! बताओ ! अब जब मुझे तेरा ही भरोसा है तो
ਤਬ ਕਾਹੂ ਕਾ ਕਵਨੁ ਨਿਹੋਰਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
तब काहू का कवनु निहोरा ॥१॥ रहाउ ॥
अब मुझे किसी दूसरे की खुशामद करने की आवश्यकता नहीं ॥ १॥ रहाउ॥
ਤੀਨਿ ਲੋਕ ਜਾ ਕੈ ਹਹਿ ਭਾਰ ॥
तीनि लोक जा कै हहि भार ॥
प्रभु जो तीनों लोकों स्वर्ग लोक, पाताल लोक एवं मृत्युलोक का भार सहन कर रहा है,
ਸੋ ਕਾਹੇ ਨ ਕਰੈ ਪ੍ਰਤਿਪਾਰ ॥੨॥
सो काहे न करै प्रतिपार ॥२॥
वह क्यों देखभाल नहीं करेगा ? ॥ २॥
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਇਕ ਬੁਧਿ ਬੀਚਾਰੀ ॥
कहु कबीर इक बुधि बीचारी ॥
हे कबीर ! मैंने अपनी बुद्धि में इस बात पर ही विचार किया है कि
ਕਿਆ ਬਸੁ ਜਉ ਬਿਖੁ ਦੇ ਮਹਤਾਰੀ ॥੩॥੨੨॥
किआ बसु जउ बिखु दे महतारी ॥३॥२२॥
यदि माता ही अपनी संतान को विष देने लगे तो हम क्या कर सकते हैं ? ॥ ३ ॥ २२ ॥
ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਬਿਨੁ ਸਤ ਸਤੀ ਹੋਇ ਕੈਸੇ ਨਾਰਿ ॥
बिनु सत सती होइ कैसे नारि ॥
हे पण्डित ! हृदय में सोच-विचार कर देख,
ਪੰਡਿਤ ਦੇਖਹੁ ਰਿਦੈ ਬੀਚਾਰਿ ॥੧॥
पंडित देखहु रिदै बीचारि ॥१॥
ला पतिव्रता एवं सदाचारण के सिवाय कोई नारी कैसे सती बन सकती है ? ॥ १॥
ਪ੍ਰੀਤਿ ਬਿਨਾ ਕੈਸੇ ਬਧੈ ਸਨੇਹੁ ॥
प्रीति बिना कैसे बधै सनेहु ॥
यदि पत्नी का प्रभु-पति से प्रेम नहीं तो प्रभु-पति का उससे प्रेम कैसे बढ़ सकता है ?
ਜਬ ਲਗੁ ਰਸੁ ਤਬ ਲਗੁ ਨਹੀ ਨੇਹੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जब लगु रसु तब लगु नही नेहु ॥१॥ रहाउ ॥
जब तक सांसारिक मोह है, तब तक ईश्वरीय प्रीति नहीं हो सकती ॥ १॥ रहाउ॥
ਸਾਹਨਿ ਸਤੁ ਕਰੈ ਜੀਅ ਅਪਨੈ ॥
साहनि सतु करै जीअ अपनै ॥
जो व्यक्ति अपने हृदय में माया को सत्य समझता है,
ਸੋ ਰਮਯੇ ਕਉ ਮਿਲੈ ਨ ਸੁਪਨੈ ॥੨॥
सो रमये कउ मिलै न सुपनै ॥२॥
वह राम को अपने स्वप्न में भी नहीं मिलता ॥ २॥
ਤਨੁ ਮਨੁ ਧਨੁ ਗ੍ਰਿਹੁ ਸਉਪਿ ਸਰੀਰੁ ॥
तनु मनु धनु ग्रिहु सउपि सरीरु ॥
कबीर जी कहते हैं कि वही नारी सुहागिन व माग्यवान है,
ਸੋਈ ਸੁਹਾਗਨਿ ਕਹੈ ਕਬੀਰੁ ॥੩॥੨੩॥
सोई सुहागनि कहै कबीरु ॥३॥२३॥
जो अपना तन, मन, धन, घर और शरीर अपने स्वार्मी को अर्पण कर देती है॥ ३ ॥ २३ ॥
ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਬਿਖਿਆ ਬਿਆਪਿਆ ਸਗਲ ਸੰਸਾਰੁ ॥
बिखिआ बिआपिआ सगल संसारु ॥
सारी दुनिया ही माया के विकारों में फँसी हुई है।
ਬਿਖਿਆ ਲੈ ਡੂਬੀ ਪਰਵਾਰੁ ॥੧॥
बिखिआ लै डूबी परवारु ॥१॥
माया के विकारों ने परिवारों को (जीवों को) ही डुबो दिया है॥ १॥
ਰੇ ਨਰ ਨਾਵ ਚਉੜਿ ਕਤ ਬੋੜੀ ॥
रे नर नाव चउड़ि कत बोड़ी ॥
हे नश्वर मनुष्य ! तूने (अपने जीवन की) नाव कहाँ नष्ट कर छोड़ी है।
ਹਰਿ ਸਿਉ ਤੋੜਿ ਬਿਖਿਆ ਸੰਗਿ ਜੋੜੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हरि सिउ तोड़ि बिखिआ संगि जोड़ी ॥१॥ रहाउ ॥
तूने ईश्वर से प्रीति तोड़कर माया से सम्बन्ध कायम कर लिया है॥ १॥ रहाउ॥
ਸੁਰਿ ਨਰ ਦਾਧੇ ਲਾਗੀ ਆਗਿ ॥
सुरि नर दाधे लागी आगि ॥
सारी दुनिया में माया की तृष्णा की अग्नि लगी हुई है, देवता एवं मनुष्य (अग्नि में) जल रहे हैं।
ਨਿਕਟਿ ਨੀਰੁ ਪਸੁ ਪੀਵਸਿ ਨ ਝਾਗਿ ॥੨॥
निकटि नीरु पसु पीवसि न झागि ॥२॥
प्रभु का नाम-रूपी जल निकट ही है। बुरे-विकारों की झाग को दूर हटाकर पशु (जीव) इसका पान नहीं करता ॥ २॥
ਚੇਤਤ ਚੇਤਤ ਨਿਕਸਿਓ ਨੀਰੁ ॥
चेतत चेतत निकसिओ नीरु ॥
हे कबीर ! वह नाम रूपी जल निरन्तर स्मरण करते हुए ही प्रकट होता है,
ਸੋ ਜਲੁ ਨਿਰਮਲੁ ਕਥਤ ਕਬੀਰੁ ॥੩॥੨੪॥
सो जलु निरमलु कथत कबीरु ॥३॥२४॥
वह जल बड़ा निर्मल होता है॥ ३ ॥ २४ ॥
ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਜਿਹ ਕੁਲਿ ਪੂਤੁ ਨ ਗਿਆਨ ਬੀਚਾਰੀ ॥
जिह कुलि पूतु न गिआन बीचारी ॥
जिसके पुत्र को ज्ञान नहीं और जो प्रभु के नाम का चिन्तन नहीं करता,”
ਬਿਧਵਾ ਕਸ ਨ ਭਈ ਮਹਤਾਰੀ ॥੧॥
बिधवा कस न भई महतारी ॥१॥
उस कुल की माता विधवा क्यों न हो गई ॥ १॥
ਜਿਹ ਨਰ ਰਾਮ ਭਗਤਿ ਨਹਿ ਸਾਧੀ ॥
जिह नर राम भगति नहि साधी ॥
जिस मनुष्य ने राम-भक्ति हेतु साधना नहीं की,
ਜਨਮਤ ਕਸ ਨ ਮੁਓ ਅਪਰਾਧੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जनमत कस न मुओ अपराधी ॥१॥ रहाउ ॥
वह अपराधी जन्म लेते ही क्यों न मर गया ? ॥ १॥ रहाउ॥
ਮੁਚੁ ਮੁਚੁ ਗਰਭ ਗਏ ਕੀਨ ਬਚਿਆ ॥
मुचु मुचु गरभ गए कीन बचिआ ॥
“(सृष्टि में) कई गर्भ गिर जाते हैं, वह क्यों बच गया है।
ਬੁਡਭੁਜ ਰੂਪ ਜੀਵੇ ਜਗ ਮਝਿਆ ॥੨॥
बुडभुज रूप जीवे जग मझिआ ॥२॥
भयानक आकृति वाला पुरुष जगत् में नीच जीवन व्यतीत कर रहा है॥ २॥
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਜੈਸੇ ਸੁੰਦਰ ਸਰੂਪ ॥
कहु कबीर जैसे सुंदर सरूप ॥
हे कबीर ! जो पुरुष ईश्वर के नाम से विहीन हैं, वे चाहे देखने में सुन्दर रूप वाले हैं
ਨਾਮ ਬਿਨਾ ਜੈਸੇ ਕੁਬਜ ਕੁਰੂਪ ॥੩॥੨੫॥
नाम बिना जैसे कुबज कुरूप ॥३॥२५॥
लेकिन वास्तव में कुबड़े तथा कुरूप हैं॥ ३॥ २५ ॥
ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਜੋ ਜਨ ਲੇਹਿ ਖਸਮ ਕਾ ਨਾਉ ॥
जो जन लेहि खसम का नाउ ॥
जो व्यक्ति जगत् के मालिक प्रभु का नाम लेते हैं
ਤਿਨ ਕੈ ਸਦ ਬਲਿਹਾਰੈ ਜਾਉ ॥੧॥
तिन कै सद बलिहारै जाउ ॥१॥
मैं हमेशा उन पर बलिहारी जाता हूँ॥ १॥
ਸੋ ਨਿਰਮਲੁ ਨਿਰਮਲ ਹਰਿ ਗੁਨ ਗਾਵੈ ॥
सो निरमलु निरमल हरि गुन गावै ॥
जो व्यक्ति पवित्र पावन है, वे भगवान के निर्मल गुण ही गाते रहते हैं,
ਸੋ ਭਾਈ ਮੇਰੈ ਮਨਿ ਭਾਵੈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
सो भाई मेरै मनि भावै ॥१॥ रहाउ ॥
वो भाई मेरे मन को बहुत प्रिय लगते हैं।॥ १॥ रहाउ॥
ਜਿਹ ਘਟ ਰਾਮੁ ਰਹਿਆ ਭਰਪੂਰਿ ॥
जिह घट रामु रहिआ भरपूरि ॥
जिनके ह्रदय में राम मौजूद हो गया है,
ਤਿਨ ਕੀ ਪਗ ਪੰਕਜ ਹਮ ਧੂਰਿ ॥੨॥
तिन की पग पंकज हम धूरि ॥२॥
मैं उनके कमल-पुष्प जैसे सुन्दर चरणों की धूलि हूँ॥ २॥
ਜਾਤਿ ਜੁਲਾਹਾ ਮਤਿ ਕਾ ਧੀਰੁ ॥ ਸਹਜਿ ਸਹਜਿ ਗੁਣ ਰਮੈ ਕਬੀਰੁ ॥੩॥੨੬॥
जाति जुलाहा मति का धीरु ॥ सहजि सहजि गुण रमै कबीरु ॥३॥२६॥
मैं जाति से जुलाहा हूँ और स्वभाव से धैर्यवान हूँ। कबीर धीरे-धीरे (सहज ही) राम की गुणस्तुति करता है॥ ३॥ २६
ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਗਗਨਿ ਰਸਾਲ ਚੁਐ ਮੇਰੀ ਭਾਠੀ ॥
गगनि रसाल चुऐ मेरी भाठी ॥
मेरी गगन-रूपी भट्ठी में से स्वादिष्ट अमृत टपक रहा है।
ਸੰਚਿ ਮਹਾ ਰਸੁ ਤਨੁ ਭਇਆ ਕਾਠੀ ॥੧॥
संचि महा रसु तनु भइआ काठी ॥१॥
अपने शरीर को लकड़ियों बनाकर मैंने प्रभु नाम के महारस को एकत्रित किया है॥ १ ॥
ਉਆ ਕਉ ਕਹੀਐ ਸਹਜ ਮਤਵਾਰਾ ॥
उआ कउ कहीऐ सहज मतवारा ॥
केवल वही सहज तौर पर मतवाला कहा जाता है।
ਪੀਵਤ ਰਾਮ ਰਸੁ ਗਿਆਨ ਬੀਚਾਰਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
पीवत राम रसु गिआन बीचारा ॥१॥ रहाउ ॥
जिसने ज्ञान के विचार द्वारा राम रस का पान किया है॥ १॥ रहाउ॥
ਸਹਜ ਕਲਾਲਨਿ ਜਉ ਮਿਲਿ ਆਈ ॥
सहज कलालनि जउ मिलि आई ॥
जब सहज अवस्था रूपी मदिरा पिलाने वाली आ मिलती है,
ਆਨੰਦਿ ਮਾਤੇ ਅਨਦਿਨੁ ਜਾਈ ॥੨॥
आनंदि माते अनदिनु जाई ॥२॥
तब दिन और रात आनंद में मस्त होकर बीतते हैं॥ २ ॥
ਚੀਨਤ ਚੀਤੁ ਨਿਰੰਜਨ ਲਾਇਆ ॥
चीनत चीतु निरंजन लाइआ ॥
हे कबीर ! जब स्मरण द्वारा मैंने अपना मन निरंजन से जोड़ लिया तो
ਕਹੁ ਕਬੀਰ ਤੌ ਅਨਭਉ ਪਾਇਆ ॥੩॥੨੭॥
कहु कबीर तौ अनभउ पाइआ ॥३॥२७॥
मुझे निर्भय प्रभु प्राप्त हो गया ॥ ३॥ २७ ॥
ਗਉੜੀ ਕਬੀਰ ਜੀ ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
गउड़ी कबीर जी ॥
ਮਨ ਕਾ ਸੁਭਾਉ ਮਨਹਿ ਬਿਆਪੀ ॥
मन का सुभाउ मनहि बिआपी ॥
मन का स्वभाव है, मन के पीछे पड़ना और इसका सुधार करना।