ਹਉ ਵਾਰੀ ਜੀਉ ਵਾਰੀ ਨਾਮੁ ਸੁਣਿ ਮੰਨਿ ਵਸਾਵਣਿਆ ॥
हउ वारी जीउ वारी नामु सुणि मंनि वसावणिआ ॥
मैं उन पर तन एवं मन से न्यौछावर हूँ जो भगवान के नाम को सुनकर अपने हृदय में बसाते हैं।
ਹਰਿ ਜੀਉ ਸਚਾ ਊਚੋ ਊਚਾ ਹਉਮੈ ਮਾਰਿ ਮਿਲਾਵਣਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हरि जीउ सचा ऊचो ऊचा हउमै मारि मिलावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥
हे पूज्य परमेश्वर ! तू सदैव सत्य एवं सर्वोपरि है। भगवान जीव के अहंकार को नष्ट करके उसे स्वयं ही अपने साथ मिला लेता है ॥१॥ रहाउ ॥
ਹਰਿ ਜੀਉ ਸਾਚਾ ਸਾਚੀ ਨਾਈ ॥
हरि जीउ साचा साची नाई ॥
पूज्य परमेश्वर सत्यस्वरूप है और उसकी महिमा भी सत्य है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਕਿਸੈ ਮਿਲਾਈ ॥
गुर परसादी किसै मिलाई ॥
गुरु की कृपा से वह परमेश्वर किसी विरले को ही अपने साथ मिलाता है।
ਗੁਰ ਸਬਦਿ ਮਿਲਹਿ ਸੇ ਵਿਛੁੜਹਿ ਨਾਹੀ ਸਹਜੇ ਸਚਿ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੨॥
गुर सबदि मिलहि से विछुड़हि नाही सहजे सचि समावणिआ ॥२॥
जो जीव गुरु की वाणी द्वारा प्रभु से मिल जाते हैं, फिर वह कभी भी प्रभु से जुदा नहीं होते और सहज ही सत्य में समाए रहते हैं।॥२॥
ਤੁਝ ਤੇ ਬਾਹਰਿ ਕਛੂ ਨ ਹੋਇ ॥
तुझ ते बाहरि कछू न होइ ॥
हे परमेश्वर ! तेरे हुक्म से बाहर कुछ भी नहीं होता।
ਤੂੰ ਕਰਿ ਕਰਿ ਵੇਖਹਿ ਜਾਣਹਿ ਸੋਇ ॥
तूं करि करि वेखहि जाणहि सोइ ॥
तू ही जगत् की रचना करके उसकी देखरेख करता है
ਆਪੇ ਕਰੇ ਕਰਾਏ ਕਰਤਾ ਗੁਰਮਤਿ ਆਪਿ ਮਿਲਾਵਣਿਆ ॥੩॥
आपे करे कराए करता गुरमति आपि मिलावणिआ ॥३॥
और तू ही सबकुछ जानता है। सृष्टिकर्ता स्वयं ही सबकुछ करता और जीवों से करवाता है। वह स्वयं ही गुरु की मति द्वारा जीवों को अपने साथ मिला लेता है॥३॥
ਕਾਮਣਿ ਗੁਣਵੰਤੀ ਹਰਿ ਪਾਏ ॥
कामणि गुणवंती हरि पाए ॥
गुणवान जीव-स्त्री प्रियतम-प्रभु को पा लेती है।
ਭੈ ਭਾਇ ਸੀਗਾਰੁ ਬਣਾਏ ॥
भै भाइ सीगारु बणाए ॥
वह प्रभु के भय एवं प्रेम को ही अपना श्रृंगार बनाती है।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਿ ਸਦਾ ਸੋਹਾਗਣਿ ਸਚ ਉਪਦੇਸਿ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੪॥
सतिगुरु सेवि सदा सोहागणि सच उपदेसि समावणिआ ॥४॥
जो जीव-स्त्री सतिगुरु की सेवा करती है, वह सदा सुहागिन है और वह सत्य-उपदेश में ही समाई रहती है॥ ४ ॥
ਸਬਦੁ ਵਿਸਾਰਨਿ ਤਿਨਾ ਠਉਰੁ ਨ ਠਾਉ ॥
सबदु विसारनि तिना ठउरु न ठाउ ॥
जो व्यक्ति भगवान के नाम को भुला देते हैं, उन्हें सहारा लेने के लिए कहीं भी आश्रय एवं स्थान नहीं मिलता।
ਭ੍ਰਮਿ ਭੂਲੇ ਜਿਉ ਸੁੰਞੈ ਘਰਿ ਕਾਉ ॥
भ्रमि भूले जिउ सुंञै घरि काउ ॥
वह भ्रम में फँसकर भटकते रहते हैं। वह जगत् में से खाली हाथ यूं ही चले जाते हैं जैसे किसी सूने घर में से कौआ खाली चला जाता है
ਹਲਤੁ ਪਲਤੁ ਤਿਨੀ ਦੋਵੈ ਗਵਾਏ ਦੁਖੇ ਦੁਖਿ ਵਿਹਾਵਣਿਆ ॥੫॥
हलतु पलतु तिनी दोवै गवाए दुखे दुखि विहावणिआ ॥५॥
ऐसे व्यक्ति अपना लोक-परलोक दोनों ही गंवा देते हैं और जीवन भर दुखी ही होते रहते हैं।॥५॥
ਲਿਖਦਿਆ ਲਿਖਦਿਆ ਕਾਗਦ ਮਸੁ ਖੋਈ ॥
लिखदिआ लिखदिआ कागद मसु खोई ॥
मनमुख व्यक्ति माया के लेख लिखते-लिखते अनेक कागज एवं स्याही खत्म कर लेते हैं।
ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਸੁਖੁ ਪਾਏ ਨ ਕੋਈ ॥
दूजै भाइ सुखु पाए न कोई ॥
कोई भी व्यक्ति माया के मोह में फँसकर सुख नहीं पा सकता।
ਕੂੜੁ ਲਿਖਹਿ ਤੈ ਕੂੜੁ ਕਮਾਵਹਿ ਜਲਿ ਜਾਵਹਿ ਕੂੜਿ ਚਿਤੁ ਲਾਵਣਿਆ ॥੬॥
कूड़ु लिखहि तै कूड़ु कमावहि जलि जावहि कूड़ि चितु लावणिआ ॥६॥
मनमुख मिथ्या माया के लेखे लिखते रहते हैं और मिथ्या माया ही कमाते रहते हैं। मिथ्या माया के मोह में चित्त लगाने वाले तृष्णाग्नि में जलते रहते हैं।॥६॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਚੋ ਸਚੁ ਲਿਖਹਿ ਵੀਚਾਰੁ ॥
गुरमुखि सचो सचु लिखहि वीचारु ॥
गुरमुख सत्य-प्रभु का नाम एवं गुणों बारे लिखते रहते हैं।
ਸੇ ਜਨ ਸਚੇ ਪਾਵਹਿ ਮੋਖ ਦੁਆਰੁ ॥
से जन सचे पावहि मोख दुआरु ॥
वह सत्यवादी बन जाते हैं और वह मोक्ष का द्वार प्राप्त कर लेते हैं।
ਸਚੁ ਕਾਗਦੁ ਕਲਮ ਮਸਵਾਣੀ ਸਚੁ ਲਿਖਿ ਸਚਿ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੭॥
सचु कागदु कलम मसवाणी सचु लिखि सचि समावणिआ ॥७॥
सत्य नाम ही उनका कागज, कलम एवं स्याही हैं। वे प्रभु की महिमा को लिख-लिख कर सत्य में ही समा जाते हैं॥ ७ ॥
ਮੇਰਾ ਪ੍ਰਭੁ ਅੰਤਰਿ ਬੈਠਾ ਵੇਖੈ ॥
मेरा प्रभु अंतरि बैठा वेखै ॥
मेरा प्रभु समस्त जीवों के हृदय में बैठकर उनके कर्म देख रहा है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਮਿਲੈ ਸੋਈ ਜਨੁ ਲੇਖੈ ॥
गुर परसादी मिलै सोई जनु लेखै ॥
जो पुरुष गुरु की दया से परमात्मा को मिलता है, जगत् में उसका आगमन ही सफल है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਮਿਲੈ ਵਡਿਆਈ ਪੂਰੇ ਗੁਰ ਤੇ ਪਾਵਣਿਆ ॥੮॥੨੨॥੨੩॥
नानक नामु मिलै वडिआई पूरे गुर ते पावणिआ ॥८॥२२॥२३॥
हे नानक ! प्रभु के नाम से उसके दरबार में महानता प्राप्त होती है और पूर्ण गुरु द्वारा ही नाम पाया जाता है ॥८॥२२॥२३॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੩ ॥
माझ महला ३ ॥
माझ महला ३ ॥
ਆਤਮ ਰਾਮ ਪਰਗਾਸੁ ਗੁਰ ਤੇ ਹੋਵੈ ॥
आतम राम परगासु गुर ते होवै ॥
मनुष्य के हृदय में आत्म-राम का प्रकाश गुरु की कृपा से होता है।
ਹਉਮੈ ਮੈਲੁ ਲਾਗੀ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਖੋਵੈ ॥
हउमै मैलु लागी गुर सबदी खोवै ॥
जब मनुष्य अपने मन को लगी अहंत्व की मैल को गुरु की वाणी द्वारा स्वच्छ कर लेता है तो
ਮਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਅਨਦਿਨੁ ਭਗਤੀ ਰਾਤਾ ਭਗਤਿ ਕਰੇ ਹਰਿ ਪਾਵਣਿਆ ॥੧॥
मनु निरमलु अनदिनु भगती राता भगति करे हरि पावणिआ ॥१॥
उसका निर्मल मन रात-दिन भगवान की भक्ति में मग्न रहता है और भक्ति करके वह भगवान को पा लेता है॥१॥
ਹਉ ਵਾਰੀ ਜੀਉ ਵਾਰੀ ਆਪਿ ਭਗਤਿ ਕਰਨਿ ਅਵਰਾ ਭਗਤਿ ਕਰਾਵਣਿਆ ॥
हउ वारी जीउ वारी आपि भगति करनि अवरा भगति करावणिआ ॥
में उन पर तन एवं मन से न्योछावर हूँ जो स्वयं भी भगवान की भक्ति करते हैं और दूसरों से भी भक्ति करवाते हैं।
ਤਿਨਾ ਭਗਤ ਜਨਾ ਕਉ ਸਦ ਨਮਸਕਾਰੁ ਕੀਜੈ ਜੋ ਅਨਦਿਨੁ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵਣਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
तिना भगत जना कउ सद नमसकारु कीजै जो अनदिनु हरि गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥
उन भक्तजनों को सदैव ही प्रणाम करो, जो रात-दिन ईश्वर का यशोगान करते हैं I॥१॥ रहाउ ॥
ਆਪੇ ਕਰਤਾ ਕਾਰਣੁ ਕਰਾਏ ॥
आपे करता कारणु कराए ॥
सृजनहार प्रभु स्वयं ही कारण बनाता है।
ਜਿਤੁ ਭਾਵੈ ਤਿਤੁ ਕਾਰੈ ਲਾਏ ॥
जितु भावै तितु कारै लाए ॥
जैसे उसको अच्छा लगता है, वैसे ही जीवों को कामकाज में लगाता है।
ਪੂਰੈ ਭਾਗਿ ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਹੋਵੈ ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਤੇ ਸੁਖੁ ਪਾਵਣਿਆ ॥੨॥
पूरै भागि गुर सेवा होवै गुर सेवा ते सुखु पावणिआ ॥२॥
पूर्ण सौभाग्य से ही गुरदेव की सेवा की जाती है और गुरु की सेवा से ही सुख प्राप्त होता है॥२॥
ਮਰਿ ਮਰਿ ਜੀਵੈ ਤਾ ਕਿਛੁ ਪਾਏ ॥
मरि मरि जीवै ता किछु पाए ॥
यदि मनुष्य अपने आपको मोह-माया से निर्लिप्त करके प्रभु भक्ति में जीवे तो उसे सबकुछ प्राप्त होता है।
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਹਰਿ ਮੰਨਿ ਵਸਾਏ ॥
गुर परसादी हरि मंनि वसाए ॥
गुरु की कृपा से वह ईश्वर को अपने हृदय में बसाता है।
ਸਦਾ ਮੁਕਤੁ ਹਰਿ ਮੰਨਿ ਵਸਾਏ ਸਹਜੇ ਸਹਜਿ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੩॥
सदा मुकतु हरि मंनि वसाए सहजे सहजि समावणिआ ॥३॥
जो प्राणी ईश्वर को अपने हृदय में बसा लेता है वह हमेशा के लिए मुक्त हो जाता है और सहज ही प्रभु में समा जाता है॥३॥
ਬਹੁ ਕਰਮ ਕਮਾਵੈ ਮੁਕਤਿ ਨ ਪਾਏ ॥
बहु करम कमावै मुकति न पाए ॥
जो व्यक्ति अधिकतर धर्म-कर्म करता है, वह मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।
ਦੇਸੰਤਰੁ ਭਵੈ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਖੁਆਏ ॥
देसंतरु भवै दूजै भाइ खुआए ॥
जो व्यक्ति देश-देशांतर भटकता रहता है, वह भी मोह-माया में फंसकर नष्ट हो जाता है।
ਬਿਰਥਾ ਜਨਮੁ ਗਵਾਇਆ ਕਪਟੀ ਬਿਨੁ ਸਬਦੈ ਦੁਖੁ ਪਾਵਣਿਆ ॥੪॥
बिरथा जनमु गवाइआ कपटी बिनु सबदै दुखु पावणिआ ॥४॥
कपटी प्राणी व्यर्थ ही अपना जीवन गंवा देता है। हरि-नाम के बिना वह बहुत कष्ट सहन करता है॥४॥
ਧਾਵਤੁ ਰਾਖੈ ਠਾਕਿ ਰਹਾਏ ॥
धावतु राखै ठाकि रहाए ॥
जो व्यक्ति विषय-विकारों में भटकते हुए अपने मन को नियंत्रित कर लेता है,
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਪਰਮ ਪਦੁ ਪਾਏ ॥
गुर परसादी परम पदु पाए ॥
वह गुरु की कृपा से (परमपद) मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਆਪੇ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਏ ਮਿਲਿ ਪ੍ਰੀਤਮ ਸੁਖੁ ਪਾਵਣਿਆ ॥੫॥
सतिगुरु आपे मेलि मिलाए मिलि प्रीतम सुखु पावणिआ ॥५॥
सतिगुरु स्वयं ही जीव का भगवान से मिलाप करवाते हैं। फिर वह जीव अपने प्रियतम प्रभु को मिलकर सुख की अनुभूति करता है॥५॥