ਜਿਉ ਜਿਉ ਭਗਤਿ ਕਬੀਰ ਕੀ ਤਿਉ ਤਿਉ ਰਾਮ ਨਿਵਾਸ ॥੧੪੧॥
जिउ जिउ भगति कबीर की तिउ तिउ राम निवास ॥१४१॥
ज्यों-ज्यों वे भक्ति-वंदना करते हैं, त्यों-त्यों उनके मन में ईश्वर अवस्थित हो जाता है।॥१४१॥
ਕਬੀਰ ਗਹਗਚਿ ਪਰਿਓ ਕੁਟੰਬ ਕੈ ਕਾਂਠੈ ਰਹਿ ਗਇਓ ਰਾਮੁ ॥
कबीर गहगचि परिओ कुट्मब कै कांठै रहि गइओ रामु ॥
कबीर जी कथन करते हैं कि व्यक्ति जीवन भर अपने पुत्र-स्त्री इत्यादि परिवार में व्यस्त रहता है और राम भजन उसके गले में अटक जाता है।
ਆਇ ਪਰੇ ਧਰਮ ਰਾਇ ਕੇ ਬੀਚਹਿ ਧੂਮਾ ਧਾਮ ॥੧੪੨॥
आइ परे धरम राइ के बीचहि धूमा धाम ॥१४२॥
इस व्यस्तता के बीच ही यमराज के दूत लेने आ जाते हैं॥१४२ ॥
ਕਬੀਰ ਸਾਕਤ ਤੇ ਸੂਕਰ ਭਲਾ ਰਾਖੈ ਆਛਾ ਗਾਉ ॥
कबीर साकत ते सूकर भला राखै आछा गाउ ॥
कबीर जी उपदेश देते हैं कि मायावी पुरुष से तो सूअर ही भला है, जो विष्ठा खाकर जगह तो साफ रखता है।
ਉਹੁ ਸਾਕਤੁ ਬਪੁਰਾ ਮਰਿ ਗਇਆ ਕੋਇ ਨ ਲੈਹੈ ਨਾਉ ॥੧੪੩॥
उहु साकतु बपुरा मरि गइआ कोइ न लैहै नाउ ॥१४३॥
परन्तु मायावी पुरुष का मरने के बाद कोई नाम तक नहीं लेता, जिसने कितने ही कुटिल कर्म किए होते हैं।॥१४३॥
ਕਬੀਰ ਕਉਡੀ ਕਉਡੀ ਜੋਰਿ ਕੈ ਜੋਰੇ ਲਾਖ ਕਰੋਰਿ ॥
कबीर कउडी कउडी जोरि कै जोरे लाख करोरि ॥
कबीर जी कहते हैं कि व्यक्ति कौड़ी-कौड़ी (एक-एक पैसा) इकठ्ठा करके लाखों रुपए जमा कर लेता है।
ਚਲਤੀ ਬਾਰ ਨ ਕਛੁ ਮਿਲਿਓ ਲਈ ਲੰਗੋਟੀ ਤੋਰਿ ॥੧੪੪॥
चलती बार न कछु मिलिओ लई लंगोटी तोरि ॥१४४॥
अंततः संसार से चलते वक्त उसे कुछ भी नहीं मिलता और लंगोटी तक उतार ली जाती है॥१४४ ॥
ਕਬੀਰ ਬੈਸਨੋ ਹੂਆ ਤ ਕਿਆ ਭਇਆ ਮਾਲਾ ਮੇਲੀਂ ਚਾਰਿ ॥
कबीर बैसनो हूआ त किआ भइआ माला मेलीं चारि ॥
कबीर जी कहते हैं कि चार मालाएँ गले में डालकर वैष्णव बन गया तो कौन-सी बड़ी बात है।
ਬਾਹਰਿ ਕੰਚਨੁ ਬਾਰਹਾ ਭੀਤਰਿ ਭਰੀ ਭੰਗਾਰ ॥੧੪੫॥
बाहरि कंचनु बारहा भीतरि भरी भंगार ॥१४५॥
क्योंकि बाहर से ही समाज के सामने शुद्ध स्वर्ण प्रतीत होते हो परन्तु मन में मैल भरी हुई है ॥१४५॥
ਕਬੀਰ ਰੋੜਾ ਹੋਇ ਰਹੁ ਬਾਟ ਕਾ ਤਜਿ ਮਨ ਕਾ ਅਭਿਮਾਨੁ ॥
कबीर रोड़ा होइ रहु बाट का तजि मन का अभिमानु ॥
कबीर जी कथन करते हैं- अपने मन का अभिमान छोड़कर रास्ते का पत्थर बना रह, ताकि लोग गुजरते जाएँ।
ਐਸਾ ਕੋਈ ਦਾਸੁ ਹੋਇ ਤਾਹਿ ਮਿਲੈ ਭਗਵਾਨੁ ॥੧੪੬॥
ऐसा कोई दासु होइ ताहि मिलै भगवानु ॥१४६॥
यदि कोई ऐसा उपकारी भक्त हो तो ही भगवान मिलता है।॥१४६॥
ਕਬੀਰ ਰੋੜਾ ਹੂਆ ਤ ਕਿਆ ਭਇਆ ਪੰਥੀ ਕਉ ਦੁਖੁ ਦੇਇ ॥
कबीर रोड़ा हूआ त किआ भइआ पंथी कउ दुखु देइ ॥
कबीर जी इसी बात पर पुनः कहते हैं कि यदि रास्ते का पत्थर बन गए तो यह कौन-सी बड़ी बात है, क्योंकि वह तो मुसाफिर के पैर को चुभेगा और दुख ही प्रदान करेगा।
ਐਸਾ ਤੇਰਾ ਦਾਸੁ ਹੈ ਜਿਉ ਧਰਨੀ ਮਹਿ ਖੇਹ ॥੧੪੭॥
ऐसा तेरा दासु है जिउ धरनी महि खेह ॥१४७॥
परमात्मा का भक्त ऐसा (नरमदिल) होना चाहिए, ज्यों धरती पर मिट्टी होती है।॥१४७ ॥
ਕਬੀਰ ਖੇਹ ਹੂਈ ਤਉ ਕਿਆ ਭਇਆ ਜਉ ਉਡਿ ਲਾਗੈ ਅੰਗ ॥
कबीर खेह हूई तउ किआ भइआ जउ उडि लागै अंग ॥
कबीर जी कहते हैं कि यदि धूल-मिट्टी भी बन गए तो इसमें कोई बड़ी बात नहीं, क्योंकि धूल भी उड़-उड़कर शरीर के अंगों को मलिन कर देती है।
ਹਰਿ ਜਨੁ ਐਸਾ ਚਾਹੀਐ ਜਿਉ ਪਾਨੀ ਸਰਬੰਗ ॥੧੪੮॥
हरि जनु ऐसा चाहीऐ जिउ पानी सरबंग ॥१४८॥
अतः हरि-भक्त ऐसा होना चाहिए ज्यों पानी सब में घुलमिल जाता है॥१४८ ॥
ਕਬੀਰ ਪਾਨੀ ਹੂਆ ਤ ਕਿਆ ਭਇਆ ਸੀਰਾ ਤਾਤਾ ਹੋਇ ॥
कबीर पानी हूआ त किआ भइआ सीरा ताता होइ ॥
कबीर जी सदुपदेश देते हैं कि यदि पानी की तरह बन गए तो यह भी कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि पानी भी कभी ठण्डा और गर्म होता है।
ਹਰਿ ਜਨੁ ਐਸਾ ਚਾਹੀਐ ਜੈਸਾ ਹਰਿ ਹੀ ਹੋਇ ॥੧੪੯॥
हरि जनु ऐसा चाहीऐ जैसा हरि ही होइ ॥१४९॥
इसलिए हरि-भक्त ऐसा होना चाहिए जैसा हरि-रूप ही हो जाए ॥ १४६ ॥
ਊਚ ਭਵਨ ਕਨਕਾਮਨੀ ਸਿਖਰਿ ਧਜਾ ਫਹਰਾਇ ॥
ऊच भवन कनकामनी सिखरि धजा फहराइ ॥
यदि ऊँचे घर-मकान हों, धन-दौलत एवं सुन्दर स्त्री हो, बेशक चारों ओर शोहरत फैली हो।
ਤਾ ਤੇ ਭਲੀ ਮਧੂਕਰੀ ਸੰਤਸੰਗਿ ਗੁਨ ਗਾਇ ॥੧੫੦॥
ता ते भली मधूकरी संतसंगि गुन गाइ ॥१५०॥
इन सबके बावजूद भिक्षा की रोटी अच्छी है, जिसे लेकर संतों की संगत में प्रभु का गुणगान होता ફે ॥१५०॥
ਕਬੀਰ ਪਾਟਨ ਤੇ ਊਜਰੁ ਭਲਾ ਰਾਮ ਭਗਤ ਜਿਹ ਠਾਇ ॥
कबीर पाटन ते ऊजरु भला राम भगत जिह ठाइ ॥
हे कबीर ! आबाद शहर से उजाड़ इलाका कहीं अच्छा है, जहाँ परमात्मा के भक्त वंदना करते हैं।
ਰਾਮ ਸਨੇਹੀ ਬਾਹਰਾ ਜਮ ਪੁਰੁ ਮੇਰੇ ਭਾਂਇ ॥੧੫੧॥
राम सनेही बाहरा जम पुरु मेरे भांइ ॥१५१॥
प्रभु-प्रेमियों के बिना जो स्थान है, वह तो मेरे लिए यमपुरी के समान है॥१५१॥
ਕਬੀਰ ਗੰਗ ਜਮੁਨ ਕੇ ਅੰਤਰੇ ਸਹਜ ਸੁੰਨ ਕੇ ਘਾਟ ॥
कबीर गंग जमुन के अंतरे सहज सुंन के घाट ॥
कबीर जी कथन करते हैं कि हमने गंगा-यमुना (इड़ा-पिंगला) के भीतर शून्यावस्था में अपने आप को स्थिर कर लिया है।
ਤਹਾ ਕਬੀਰੈ ਮਟੁ ਕੀਆ ਖੋਜਤ ਮੁਨਿ ਜਨ ਬਾਟ ॥੧੫੨॥
तहा कबीरै मटु कीआ खोजत मुनि जन बाट ॥१५२॥
कबीर ने वहाँ पर स्थान किया है, जिस रास्ते को मुनिजन ढूंढते है ॥१५२॥
ਕਬੀਰ ਜੈਸੀ ਉਪਜੀ ਪੇਡ ਤੇ ਜਉ ਤੈਸੀ ਨਿਬਹੈ ਓੜਿ ॥
कबीर जैसी उपजी पेड ते जउ तैसी निबहै ओड़ि ॥
हे कबीर ! जैसी कोमलता व मृदुलता नए पौधे में होती है, यदि ऐसी ही (भक्ति-भावना) अंत तक बनी रहे तो फिर
ਹੀਰਾ ਕਿਸ ਕਾ ਬਾਪੁਰਾ ਪੁਜਹਿ ਨ ਰਤਨ ਕਰੋੜਿ ॥੧੫੩॥
हीरा किस का बापुरा पुजहि न रतन करोड़ि ॥१५३॥
एक हीरा क्या बेचारा है, उस तक करोड़ों रत्न भी नहीं पहुँच सकते॥१५३॥
ਕਬੀਰਾ ਏਕੁ ਅਚੰਭਉ ਦੇਖਿਓ ਹੀਰਾ ਹਾਟ ਬਿਕਾਇ ॥
कबीरा एकु अच्मभउ देखिओ हीरा हाट बिकाइ ॥
कबीर जी कहते हैं कि मैंने एक अद्भुत लीला देखी है कि हीरा दुकान पर बिकता है, परन्तु उसके पारखी जौहरी के बिना वह कौड़ियों के भाव जा रहा है।
ਬਨਜਨਹਾਰੇ ਬਾਹਰਾ ਕਉਡੀ ਬਦਲੈ ਜਾਇ ॥੧੫੪॥
बनजनहारे बाहरा कउडी बदलै जाइ ॥१५४॥
यह मानव जन्म एक हीरे के समान अमूल्य है, जो इसको प्रभु-भक्ति में नहीं लगाता, वह संसार के कार्यों में इसे व्यर्थ गंवा देता है ॥१५४॥
ਕਬੀਰਾ ਜਹਾ ਗਿਆਨੁ ਤਹ ਧਰਮੁ ਹੈ ਜਹਾ ਝੂਠੁ ਤਹ ਪਾਪੁ ॥
कबीरा जहा गिआनु तह धरमु है जहा झूठु तह पापु ॥
कबीर जी उपदेश देते हैं कि जहाँ ज्ञान होता है, वहीं धर्म है, जहाँ झूठ का बोलबाला होता है, वहाँ पाप ही रहता है।
ਜਹਾ ਲੋਭੁ ਤਹ ਕਾਲੁ ਹੈ ਜਹਾ ਖਿਮਾ ਤਹ ਆਪਿ ॥੧੫੫॥
जहा लोभु तह कालु है जहा खिमा तह आपि ॥१५५॥
जहाँ लोभ-लालच बना रहता है, वहाँ मृत्यु खड़ी रहती है। जहाँ दया व क्षमा-भावना है, वहाँ स्वयं परमेश्वर है॥१५५ ॥
ਕਬੀਰ ਮਾਇਆ ਤਜੀ ਤ ਕਿਆ ਭਇਆ ਜਉ ਮਾਨੁ ਤਜਿਆ ਨਹੀ ਜਾਇ ॥
कबीर माइआ तजी त किआ भइआ जउ मानु तजिआ नही जाइ ॥
कबीर जी उद्बोधन करते हैं कि यदि मान-अभिमान को नहीं छोड़ा तो फिर माया को छोड़ने का भी कोई फायदा नहीं।
ਮਾਨ ਮੁਨੀ ਮੁਨਿਵਰ ਗਲੇ ਮਾਨੁ ਸਭੈ ਕਉ ਖਾਇ ॥੧੫੬॥
मान मुनी मुनिवर गले मानु सभै कउ खाइ ॥१५६॥
इस मान ने तो बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों को भी ध्वस्त कर दिया है, दरअसल मान सब को खा जाता है॥१५६ ॥
ਕਬੀਰ ਸਾਚਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮੈ ਮਿਲਿਆ ਸਬਦੁ ਜੁ ਬਾਹਿਆ ਏਕੁ ॥
कबीर साचा सतिगुरु मै मिलिआ सबदु जु बाहिआ एकु ॥
कबीर जी कहते हैं कि मुझे अब सच्चा गुरु मिला तो उसने मुझे एक उपदेश का राम-बाण मारा,
ਲਾਗਤ ਹੀ ਭੁਇ ਮਿਲਿ ਗਇਆ ਪਰਿਆ ਕਲੇਜੇ ਛੇਕੁ ॥੧੫੭॥
लागत ही भुइ मिलि गइआ परिआ कलेजे छेकु ॥१५७॥
जिसके लगते ही मैं धरती से मिल गया और मेरा दिल गुरु-प्रेम में बिंध गया ॥१५७॥
ਕਬੀਰ ਸਾਚਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਕਿਆ ਕਰੈ ਜਉ ਸਿਖਾ ਮਹਿ ਚੂਕ ॥
कबीर साचा सतिगुरु किआ करै जउ सिखा महि चूक ॥
कबीर जी कहते हैं कि सच्चा गुरु भी भला क्या कर सकता है, यदि शिष्यों में खराबी-त्रुटियाँ हों।
ਅੰਧੇ ਏਕ ਨ ਲਾਗਈ ਜਿਉ ਬਾਂਸੁ ਬਜਾਈਐ ਫੂਕ ॥੧੫੮॥
अंधे एक न लागई जिउ बांसु बजाईऐ फूक ॥१५८॥
मुर्ख को कितनी ही शिक्षा दी जाए, यह वैसे ही है ज्यों बांस को फूंक से बजाया जाता है॥१५८ ॥
ਕਬੀਰ ਹੈ ਗੈ ਬਾਹਨ ਸਘਨ ਘਨ ਛਤ੍ਰਪਤੀ ਕੀ ਨਾਰਿ ॥
कबीर है गै बाहन सघन घन छत्रपती की नारि ॥
कबीर जी उपदेश देते हैं कि हाथी, घोड़े, रथ इत्यादि सुख-सुविधाओं से सम्पन्न बड़े राजा की रानी