Hindi Page 343

ਬਾਵਨ ਅਖਰ ਜੋਰੇ ਆਨਿ ॥
वन अखर जोरे आनि ॥
मनुष्य ने बावन अक्षर जोड़ लिए हैं।

ਸਕਿਆ ਨ ਅਖਰੁ ਏਕੁ ਪਛਾਨਿ ॥
सकिआ न अखरु एकु पछानि ॥
परन्तु वह ईश्वर के एक शब्द को नहीं पहचान सकता।

ਸਤ ਕਾ ਸਬਦੁ ਕਬੀਰਾ ਕਹੈ ॥
सत का सबदु कबीरा कहै ॥
कबीर सत्य वचन कहता है कि

ਪੰਡਿਤ ਹੋਇ ਸੁ ਅਨਭੈ ਰਹੈ ॥
पंडित होइ सु अनभै रहै ॥
पण्डित वही है, जो निडर होकर विचरता है।

ਪੰਡਿਤ ਲੋਗਹ ਕਉ ਬਿਉਹਾਰ ॥
पंडित लोगह कउ बिउहार ॥
अक्षरों को जोड़ना पण्डित पुरुषों का काम-धंधा है।

ਗਿਆਨਵੰਤ ਕਉ ਤਤੁ ਬੀਚਾਰ ॥
गिआनवंत कउ ततु बीचार ॥
ज्ञानवान ज्ञानी मनुष्य यथार्थ को सोचता-समझता है।

ਜਾ ਕੈ ਜੀਅ ਜੈਸੀ ਬੁਧਿ ਹੋਈ ॥ ਕਹਿ ਕਬੀਰ ਜਾਨੈਗਾ ਸੋਈ ॥੪੫॥
जा कै जीअ जैसी बुधि होई ॥ कहि कबीर जानैगा सोई ॥४५॥
कबीर जी कहते हैं जैसी बुद्धि प्राणी के मन में है,वैसा ही वह समझता है॥ ४५ ॥

ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।

ਰਾਗੁ ਗਉੜੀ ਥਿਤੀਂ ਕਬੀਰ ਜੀ ਕੀਂ ॥
रागु गउड़ी थितीं कबीर जी कीं ॥
रागु गउड़ी थित्तिं कबीर जी की ॥

ਸਲੋਕੁ ॥
सलोकु ॥
श्लोक ॥

ਪੰਦ੍ਰਹ ਥਿਤੀਂ ਸਾਤ ਵਾਰ ॥
पंद्रह थितीं सात वार ॥
पन्द्रह तिथियाँ एवं सात सप्ताह के दिन हैं।

ਕਹਿ ਕਬੀਰ ਉਰਵਾਰ ਨ ਪਾਰ ॥
कहि कबीर उरवार न पार ॥
कबीर कहता है-मैं उस ईश्वर का गुणानुवाद करता हूँ जो अनन्त है।

ਸਾਧਿਕ ਸਿਧ ਲਖੈ ਜਉ ਭੇਉ ॥
साधिक सिध लखै जउ भेउ ॥
साधक एवं सिद्ध जब प्रभु के रहस्य को समझ लेते हैं,

ਆਪੇ ਕਰਤਾ ਆਪੇ ਦੇਉ ॥੧॥
आपे करता आपे देउ ॥१॥
वह स्वयं सृजनहार-स्वरूप एवं स्वयं ही प्रभु रूप हो जाते हैं।॥ १॥

ਥਿਤੀਂ ॥
थितीं ॥
तिथि ॥

ਅੰਮਾਵਸ ਮਹਿ ਆਸ ਨਿਵਾਰਹੁ ॥
अमावस महि आस निवारहु ॥
अमावस्या के दिन अपनी अभिलाषाएँ त्याग कर

ਅੰਤਰਜਾਮੀ ਰਾਮੁ ਸਮਾਰਹੁ ॥
अंतरजामी रामु समारहु ॥
अन्तर्यामी राम को (अपने हृदय में) स्मरण करो।

ਜੀਵਤ ਪਾਵਹੁ ਮੋਖ ਦੁਆਰ ॥
जीवत पावहु मोख दुआर ॥
इस प्रकार इसी जन्म में मोक्ष द्वार प्राप्त कर लोगे।

ਅਨਭਉ ਸਬਦੁ ਤਤੁ ਨਿਜੁ ਸਾਰ ॥੧॥
अनभउ सबदु ततु निजु सार ॥१॥
“(इस स्मरण के प्रभाव से) तुम्हारा यथार्थ तत्व जाग जाएगा, गुरु का शब्द अनुभवी रूप में संचरित होगा।॥ १॥

ਚਰਨ ਕਮਲ ਗੋਬਿੰਦ ਰੰਗੁ ਲਾਗਾ ॥
चरन कमल गोबिंद रंगु लागा ॥
जिस प्राणी का प्रेम गोविन्द के सुन्दर चरणों के साथ बन जाता है और

ਸੰਤ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਭਏ ਮਨ ਨਿਰਮਲ ਹਰਿ ਕੀਰਤਨ ਮਹਿ ਅਨਦਿਨੁ ਜਾਗਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
संत प्रसादि भए मन निरमल हरि कीरतन महि अनदिनु जागा ॥१॥ रहाउ ॥
संतों की कृपा से जिसका मन पवित्र हो जाता है, वह रात-दिन हरि का भजन करने में जागता रहता है॥ १॥ रहाउ ॥

ਪਰਿਵਾ ਪ੍ਰੀਤਮ ਕਰਹੁ ਬੀਚਾਰ ॥
परिवा प्रीतम करहु बीचार ॥
एकम तिथि के दिन हे भाई ! प्रियतम प्रभु का चिन्तन करो।

ਘਟ ਮਹਿ ਖੇਲੈ ਅਘਟ ਅਪਾਰ ॥
घट महि खेलै अघट अपार ॥
अनन्त प्रभु हरेक ह्रदय में खेल रहा है।

ਕਾਲ ਕਲਪਨਾ ਕਦੇ ਨ ਖਾਇ ॥
काल कलपना कदे न खाइ ॥
मृत्यु का भय उसे कभी स्पर्श नहीं कर सकता

ਆਦਿ ਪੁਰਖ ਮਹਿ ਰਹੈ ਸਮਾਇ ॥੨॥
आदि पुरख महि रहै समाइ ॥२॥
जो मनुष्य आदिपुरुष परमात्मा में लीन रहता है ॥ २॥

ਦੁਤੀਆ ਦੁਹ ਕਰਿ ਜਾਨੈ ਅੰਗ ॥
दुतीआ दुह करि जानै अंग ॥
द्वितीय-हे भाई ! समझ ले कि शरीर के अंग में (माया और ब्रह्म) दोनों खेल रहे हैं।

ਮਾਇਆ ਬ੍ਰਹਮ ਰਮੈ ਸਭ ਸੰਗ ॥
माइआ ब्रहम रमै सभ संग ॥
माया एवं ब्रह्म कण-कण से अभेद हुए हैं।

ਨਾ ਓਹੁ ਬਢੈ ਨ ਘਟਤਾ ਜਾਇ ॥
ना ओहु बढै न घटता जाइ ॥
प्रभु न बढ़ता है और न ही घटता है

ਅਕੁਲ ਨਿਰੰਜਨ ਏਕੈ ਭਾਇ ॥੩॥
अकुल निरंजन एकै भाइ ॥३॥
वह अकुल, निरंजन एक ही है ॥ ३॥

ਤ੍ਰਿਤੀਆ ਤੀਨੇ ਸਮ ਕਰਿ ਲਿਆਵੈ ॥
त्रितीआ तीने सम करि लिआवै ॥
तृतीय-यदि प्रभु की स्तुति करने वाला मनुष्य माया के तीनों गुणों को सहज अवस्था में समान रखता है,

ਆਨਦ ਮੂਲ ਪਰਮ ਪਦੁ ਪਾਵੈ ॥
आनद मूल परम पदु पावै ॥
वह मनुष्य परम पद प्राप्त कर लेता है, जो आनंद का स्रोत है।

ਸਾਧਸੰਗਤਿ ਉਪਜੈ ਬਿਸ੍ਵਾਸ ॥
साधसंगति उपजै बिस्वास ॥
सत्संगति में रहकर मनुष्य के भीतर यह विश्वास पैदा होता है कि

ਬਾਹਰਿ ਭੀਤਰਿ ਸਦਾ ਪ੍ਰਗਾਸ ॥੪॥
बाहरि भीतरि सदा प्रगास ॥४॥
भीतर-बाहर सर्वत्र उस प्रभु का ही प्रकाश है॥ ४॥

ਚਉਥਹਿ ਚੰਚਲ ਮਨ ਕਉ ਗਹਹੁ ॥
चउथहि चंचल मन कउ गहहु ॥
चतुर्थीं-हे प्राणी ! अपने चंचल मन को वश में करके रख और

ਕਾਮ ਕ੍ਰੋਧ ਸੰਗਿ ਕਬਹੁ ਨ ਬਹਹੁ ॥
काम क्रोध संगि कबहु न बहहु ॥
काम, क्रोध की संगति में मत बैठ ।

ਜਲ ਥਲ ਮਾਹੇ ਆਪਹਿ ਆਪ ॥
जल थल माहे आपहि आप ॥
जो ईश्वर समुद, पृथ्वी में सर्वत्र आप ही मौजूद है,

ਆਪੈ ਜਪਹੁ ਆਪਨਾ ਜਾਪ ॥੫॥
आपै जपहु आपना जाप ॥५॥
वह स्वयं ही अपना जाप करता है॥ ५॥

ਪਾਂਚੈ ਪੰਚ ਤਤ ਬਿਸਥਾਰ ॥
पांचै पंच तत बिसथार ॥
पंचमी-यह संसार पाँच मूल अंशों का विस्तार है।

ਕਨਿਕ ਕਾਮਿਨੀ ਜੁਗ ਬਿਉਹਾਰ ॥
कनिक कामिनी जुग बिउहार ॥
स्वर्ण (धन) एवं स्त्री की तलाश इसके दो धन्धे हैं।

ਪ੍ਰੇਮ ਸੁਧਾ ਰਸੁ ਪੀਵੈ ਕੋਇ ॥
प्रेम सुधा रसु पीवै कोइ ॥
कोई विरला पुरुष ही प्रभु-प्रेम का सुधारस पान करता है।

ਜਰਾ ਮਰਣ ਦੁਖੁ ਫੇਰਿ ਨ ਹੋਇ ॥੬॥
जरा मरण दुखु फेरि न होइ ॥६॥
वह दोबारा बुढ़ापा एवं मृत्यु का दु:ख सहन नहीं करता॥ ॥

ਛਠਿ ਖਟੁ ਚਕ੍ਰ ਛਹੂੰ ਦਿਸ ਧਾਇ ॥
छठि खटु चक्र छहूं दिस धाइ ॥
षष्ठी-मनुष्य की पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ एवं छठा मन-यह सारा साथ संसार (के पदार्थों की लालसा) में भटकता फिरता है,

ਬਿਨੁ ਪਰਚੈ ਨਹੀ ਥਿਰਾ ਰਹਾਇ ॥
बिनु परचै नही थिरा रहाइ ॥
जब तक प्राणी ईश्वर के स्मरण में नहीं लगता, तब तक यह साथ (इन भटकावों में से) हटता नहीं।

ਦੁਬਿਧਾ ਮੇਟਿ ਖਿਮਾ ਗਹਿ ਰਹਹੁ ॥
दुबिधा मेटि खिमा गहि रहहु ॥
हे बन्धु ! दुविधा मिटाकर सहनशीलता धारण करो और

ਕਰਮ ਧਰਮ ਕੀ ਸੂਲ ਨ ਸਹਹੁ ॥੭॥
करम धरम की सूल न सहहु ॥७॥
धर्म-कर्म का यह लम्बा विवाद त्याग दे ॥ ७ ॥

ਸਾਤੈਂ ਸਤਿ ਕਰਿ ਬਾਚਾ ਜਾਣਿ ॥
सातैं सति करि बाचा जाणि ॥
सप्तमी-हे भाई ! गुरु की वाणी में श्रद्धा धारण करो और

ਆਤਮ ਰਾਮੁ ਲੇਹੁ ਪਰਵਾਣਿ ॥
आतम रामु लेहु परवाणि ॥
इसके द्वारा प्रभु (के नाम) को अपने हृदय में पिरो लो।

ਛੂਟੈ ਸੰਸਾ ਮਿਟਿ ਜਾਹਿ ਦੁਖ ॥
छूटै संसा मिटि जाहि दुख ॥
इस प्रकार दुविधा दूर हो जाएगी और दुःख-क्लेश मिट जाएँगे और

ਸੁੰਨ ਸਰੋਵਰਿ ਪਾਵਹੁ ਸੁਖ ॥੮॥
सुंन सरोवरि पावहु सुख ॥८॥
वैकुंठी सरोवर का सुख प्राप्त करोगे॥ ८ ॥

ਅਸਟਮੀ ਅਸਟ ਧਾਤੁ ਕੀ ਕਾਇਆ ॥
असटमी असट धातु की काइआ ॥
अष्टमी-यह शरीर आठ धातुओं का बना हुआ है।

ਤਾ ਮਹਿ ਅਕੁਲ ਮਹਾ ਨਿਧਿ ਰਾਇਆ ॥
ता महि अकुल महा निधि राइआ ॥
इसमें महानिधि अगाध प्रभु बस रहा है।

ਗੁਰ ਗਮ ਗਿਆਨ ਬਤਾਵੈ ਭੇਦ ॥
गुर गम गिआन बतावै भेद ॥
ज्ञान को जानने वाला गुरु यह रहस्य बतलाता है।

ਉਲਟਾ ਰਹੈ ਅਭੰਗ ਅਛੇਦ ॥੯॥
उलटा रहै अभंग अछेद ॥९॥
सांसारिक मोह से हटकर मनुष्य अमर प्रभु में बसता है॥ ९॥

ਨਉਮੀ ਨਵੈ ਦੁਆਰ ਕਉ ਸਾਧਿ ॥
नउमी नवै दुआर कउ साधि ॥
नवमी-हे भाई ! शारीरिक इन्द्रियों को वश में रखो,

ਬਹਤੀ ਮਨਸਾ ਰਾਖਹੁ ਬਾਂਧਿ ॥
बहती मनसा राखहु बांधि ॥
इनसे उठती हुई तृष्णाओं पर अंकुश लगाओ।

ਲੋਭ ਮੋਹ ਸਭ ਬੀਸਰਿ ਜਾਹੁ ॥
लोभ मोह सभ बीसरि जाहु ॥
लोभ तथा मोह इत्यादि विकार भुला दो।

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