ਗੁਰੁ ਸਿਮਰਤ ਸਭਿ ਕਿਲਵਿਖ ਨਾਸਹਿ ॥
गुरु सिमरत सभि किलविख नासहि ॥
गुरु के सिमरन से सभी पाप-दोष नाश हो जाते हैं,”
ਗੁਰੁ ਸਿਮਰਤ ਜਮ ਸੰਗਿ ਨ ਫਾਸਹਿ ॥
गुरु सिमरत जम संगि न फासहि ॥
गुरु स्मरण से जीव यम की फाँसी में नहीं फँसता।
ਗੁਰੁ ਸਿਮਰਤ ਮਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਹੋਵੈ ਗੁਰੁ ਕਾਟੇ ਅਪਮਾਨਾ ਹੇ ॥੨॥
गुरु सिमरत मनु निरमलु होवै गुरु काटे अपमाना हे ॥२॥
गुरु का सिमरन करने से मन निर्मल हो जाता है और वह जीव के अभिमान को मिटा देता है॥ २॥
ਗੁਰ ਕਾ ਸੇਵਕੁ ਨਰਕਿ ਨ ਜਾਏ ॥
गुर का सेवकु नरकि न जाए ॥
गुरु की सेवा करने वाला नरक में नहीं पड़ता और
ਗੁਰ ਕਾ ਸੇਵਕੁ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮੁ ਧਿਆਏ ॥
गुर का सेवकु पारब्रहमु धिआए ॥
वह परब्रह्म का ध्यान-मनन करने में लीन रहता है।
ਗੁਰ ਕਾ ਸੇਵਕੁ ਸਾਧਸੰਗੁ ਪਾਏ ਗੁਰੁ ਕਰਦਾ ਨਿਤ ਜੀਅ ਦਾਨਾ ਹੇ ॥੩॥
गुर का सेवकु साधसंगु पाए गुरु करदा नित जीअ दाना हे ॥३॥
गुरु का सेवक सुसंगति पा लेता है और गुरु नित्य ही सत्संगियों को नाम-दान देता रहता है॥ ३॥
ਗੁਰ ਦੁਆਰੈ ਹਰਿ ਕੀਰਤਨੁ ਸੁਣੀਐ ॥
गुर दुआरै हरि कीरतनु सुणीऐ ॥
गुरु के द्वार पर परमात्मा का भजन-कीर्तन सुनना चाहिए,”
ਸਤਿਗੁਰੁ ਭੇਟਿ ਹਰਿ ਜਸੁ ਮੁਖਿ ਭਣੀਐ ॥
सतिगुरु भेटि हरि जसु मुखि भणीऐ ॥
सतगुरु को मिलकर मुख से ईश्वर का यशोगान करना चाहिए।
ਕਲਿ ਕਲੇਸ ਮਿਟਾਏ ਸਤਿਗੁਰੁ ਹਰਿ ਦਰਗਹ ਦੇਵੈ ਮਾਨਾਂ ਹੇ ॥੪॥
कलि कलेस मिटाए सतिगुरु हरि दरगह देवै मानां हे ॥४॥
गुरु अपने सेवक के सभी कलह-कलेश मिटा देता है और प्रभु-दरबार में उसे शोभा दिलवाता है॥ ४॥
ਅਗਮੁ ਅਗੋਚਰੁ ਗੁਰੂ ਦਿਖਾਇਆ ॥
अगमु अगोचरु गुरू दिखाइआ ॥
गुरु ने ही अगम्य-अगोचर परमेश्वर के दर्शन करवाए हैं और
ਭੂਲਾ ਮਾਰਗਿ ਸਤਿਗੁਰਿ ਪਾਇਆ ॥
भूला मारगि सतिगुरि पाइआ ॥
सतगुरु ने भूले हुए जीव को सही मार्ग लगाया है।
ਗੁਰ ਸੇਵਕ ਕਉ ਬਿਘਨੁ ਨ ਭਗਤੀ ਹਰਿ ਪੂਰ ਦ੍ਰਿੜ੍ਹ੍ਹਾਇਆ ਗਿਆਨਾਂ ਹੇ ॥੫॥
गुर सेवक कउ बिघनु न भगती हरि पूर द्रिड़्हाइआ गिआनां हे ॥५॥
गुरु के सेवक को प्रभु-भक्ति के फलस्वरूप कोई विघ्न नहीं आता और गुरु ने उसे पूर्ण ज्ञान दृढ़ करवाया है ॥५॥
ਗੁਰਿ ਦ੍ਰਿਸਟਾਇਆ ਸਭਨੀ ਠਾਂਈ ॥
गुरि द्रिसटाइआ सभनी ठांई ॥
गुरु ने उसे सर्वव्यापी दिखा दिया है,”
ਜਲਿ ਥਲਿ ਪੂਰਿ ਰਹਿਆ ਗੋਸਾਈ ॥
जलि थलि पूरि रहिआ गोसाई ॥
परमात्मा तो समुद्र एवं पृथ्वी में भी व्याप्त है।
ਊਚ ਊਨ ਸਭ ਏਕ ਸਮਾਨਾਂ ਮਨਿ ਲਾਗਾ ਸਹਜਿ ਧਿਆਨਾ ਹੇ ॥੬॥
ऊच ऊन सभ एक समानां मनि लागा सहजि धिआना हे ॥६॥
बड़ा और छोटा (ऊँच-नीच) सब उसके लिए एक समान हैं, अतः सहज ही मन उसके ध्यान में लग गया है॥ ६॥
ਗੁਰਿ ਮਿਲਿਐ ਸਭ ਤ੍ਰਿਸਨ ਬੁਝਾਈ ॥
गुरि मिलिऐ सभ त्रिसन बुझाई ॥
गुरु से मिलकर सारी तृष्णा बुझ जाती है,”
ਗੁਰਿ ਮਿਲਿਐ ਨਹ ਜੋਹੈ ਮਾਈ ॥
गुरि मिलिऐ नह जोहै माई ॥
गुरु से भेंटवार्ता होने के कारण माया भी प्रभावित नहीं करती।
ਸਤੁ ਸੰਤੋਖੁ ਦੀਆ ਗੁਰਿ ਪੂਰੈ ਨਾਮੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀ ਪਾਨਾਂ ਹੇ ॥੭॥
सतु संतोखु दीआ गुरि पूरै नामु अम्रितु पी पानां हे ॥७॥
पूर्ण गुरु ने सत्य-संतोष प्रदान किया है और गुरु के सान्निध्य में नामामृत का ही पान किया है॥ ७॥
ਗੁਰ ਕੀ ਬਾਣੀ ਸਭ ਮਾਹਿ ਸਮਾਣੀ ॥
गुर की बाणी सभ माहि समाणी ॥
गुरु की वाणी सभी के दिल में समा गई है।
ਆਪਿ ਸੁਣੀ ਤੈ ਆਪਿ ਵਖਾਣੀ ॥
आपि सुणी तै आपि वखाणी ॥
उसने स्वयं ही इसका यश सुना है और स्वयं ही इसका वर्णन किया है।
ਜਿਨਿ ਜਿਨਿ ਜਪੀ ਤੇਈ ਸਭਿ ਨਿਸਤ੍ਰੇ ਤਿਨ ਪਾਇਆ ਨਿਹਚਲ ਥਾਨਾਂ ਹੇ ॥੮॥
जिनि जिनि जपी तेई सभि निसत्रे तिन पाइआ निहचल थानां हे ॥८॥
जिस-जिस जिज्ञासु ने वाणी को जपा है, वे सभी संसार-सागर से पार हो गए हैं और उन्होंने अटल स्थान पा लिया है॥ ८॥
ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਮਹਿਮਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਜਾਣੈ ॥
सतिगुर की महिमा सतिगुरु जाणै ॥
सतगुरु की महिमा को गुरु स्वयं ही जानता है।
ਜੋ ਕਿਛੁ ਕਰੇ ਸੁ ਆਪਣ ਭਾਣੈ ॥
जो किछु करे सु आपण भाणै ॥
जो कुछ वह करता है, अपनी मर्जी से ही करता है।
ਸਾਧੂ ਧੂਰਿ ਜਾਚਹਿ ਜਨ ਤੇਰੇ ਨਾਨਕ ਸਦ ਕੁਰਬਾਨਾਂ ਹੇ ॥੯॥੧॥੪॥
साधू धूरि जाचहि जन तेरे नानक सद कुरबानां हे ॥९॥१॥४॥
नानक प्रार्थना करता है कि हे ईश्वर ! तेरे भक्तजन तो साधु-महापुरुषों की चरण-धूलि ही चाहते हैं और सदैव तुझ पर कुर्बान हैं॥ ९॥ १॥ ४॥
ਮਾਰੂ ਸੋਲਹੇ ਮਹਲਾ ੫
मारू सोलहे महला ५
मारू सोलहे महला ५
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि॥
ਆਦਿ ਨਿਰੰਜਨੁ ਪ੍ਰਭੁ ਨਿਰੰਕਾਰਾ ॥
आदि निरंजनु प्रभु निरंकारा ॥
सृष्टि का आदि, मायातीत, निर्गुण प्रभु सब में कार्यशील होकर भी स्वयं निर्लिप्त रहता है।
ਸਭ ਮਹਿ ਵਰਤੈ ਆਪਿ ਨਿਰਾਰਾ ॥
सभ महि वरतै आपि निरारा ॥
उसका कोई वर्ण, जाति एवं चिन्ह नहीं,”
ਵਰਨੁ ਜਾਤਿ ਚਿਹਨੁ ਨਹੀ ਕੋਈ ਸਭ ਹੁਕਮੇ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਉਪਾਇਦਾ ॥੧॥
वरनु जाति चिहनु नही कोई सभ हुकमे स्रिसटि उपाइदा ॥१॥
वह तो अपने हुक्म से ही समस्त सृष्टि को उत्पन्न करता है॥ १॥
ਲਖ ਚਉਰਾਸੀਹ ਜੋਨਿ ਸਬਾਈ ॥
लख चउरासीह जोनि सबाई ॥
चौरासी लाख योनियों में से
ਮਾਣਸ ਕਉ ਪ੍ਰਭਿ ਦੀਈ ਵਡਿਆਈ ॥
माणस कउ प्रभि दीई वडिआई ॥
प्रभु ने मनुष्य को ही गौरव प्रदान किया है,”
ਇਸੁ ਪਉੜੀ ਤੇ ਜੋ ਨਰੁ ਚੂਕੈ ਸੋ ਆਇ ਜਾਇ ਦੁਖੁ ਪਾਇਦਾ ॥੨॥
इसु पउड़ी ते जो नरु चूकै सो आइ जाइ दुखु पाइदा ॥२॥
किन्तु जो आदमी इस सुअवसर को पाकर भी (भक्ति-सिमरन से) चूक जाता है, वह जीवन-मृत्यु के बन्धन में पड़कर दुख ही पाता है॥ २॥
ਕੀਤਾ ਹੋਵੈ ਤਿਸੁ ਕਿਆ ਕਹੀਐ ॥
कीता होवै तिसु किआ कहीऐ ॥
जो ईश्वर का बनाया हुआ है, उसकी क्या तारीफ की जाए।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਪਦਾਰਥੁ ਲਹੀਐ ॥
गुरमुखि नामु पदारथु लहीऐ ॥
नाम रूपी पदार्थ तो गुरु के माध्यम से प्राप्त होता है।
ਜਿਸੁ ਆਪਿ ਭੁਲਾਏ ਸੋਈ ਭੂਲੈ ਸੋ ਬੂਝੈ ਜਿਸਹਿ ਬੁਝਾਇਦਾ ॥੩॥
जिसु आपि भुलाए सोई भूलै सो बूझै जिसहि बुझाइदा ॥३॥
वही मनुष्य भूलता है, जिसे वह स्वयं भुलाता है और वही सत्य को बूझता है, जिसे वह स्वयं ज्ञान प्रदान करता है॥ ३॥
ਹਰਖ ਸੋਗ ਕਾ ਨਗਰੁ ਇਹੁ ਕੀਆ ॥
हरख सोग का नगरु इहु कीआ ॥
परब्रह्म ने खुशी एवं गम का यह शरीर रूपी नगर बनाया है,”
ਸੇ ਉਬਰੇ ਜੋ ਸਤਿਗੁਰ ਸਰਣੀਆ ॥
से उबरे जो सतिगुर सरणीआ ॥
जो सतगुरु की शरण में आ गया है, उसका उद्धार हो गया है।
ਤ੍ਰਿਹਾ ਗੁਣਾ ਤੇ ਰਹੈ ਨਿਰਾਰਾ ਸੋ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸੋਭਾ ਪਾਇਦਾ ॥੪॥
त्रिहा गुणा ते रहै निरारा सो गुरमुखि सोभा पाइदा ॥४॥
जो माया के तीन गुणों से निर्लिप्त रहता है, वह गुरुमुख शोभा का पात्र बनता है॥ ४॥
ਅਨਿਕ ਕਰਮ ਕੀਏ ਬਹੁਤੇਰੇ ॥
अनिक करम कीए बहुतेरे ॥
मनुष्य ने अनेक प्रकार के कर्म किए हैं,”
ਜੋ ਕੀਜੈ ਸੋ ਬੰਧਨੁ ਪੈਰੇ ॥
जो कीजै सो बंधनु पैरे ॥
लेकिन जो कर्म केिए हैं, उसके पैरों में बन्घन पड़ गए हैं।
ਕੁਰੁਤਾ ਬੀਜੁ ਬੀਜੇ ਨਹੀ ਜੰਮੈ ਸਭੁ ਲਾਹਾ ਮੂਲੁ ਗਵਾਇਦਾ ॥੫॥
कुरुता बीजु बीजे नही जमै सभु लाहा मूलु गवाइदा ॥५॥
यदि कोई बिन मौसम बीज बोता है तो वह जमता नहीं और वह अपना मूल लाभ सब गंवा देता है॥ ५॥
ਕਲਜੁਗ ਮਹਿ ਕੀਰਤਨੁ ਪਰਧਾਨਾ ॥
कलजुग महि कीरतनु परधाना ॥
कलियुग में परमात्मा का भजन-कीर्तन ही प्रधान कर्म है,”
ਗੁਰਮੁਖਿ ਜਪੀਐ ਲਾਇ ਧਿਆਨਾ ॥
गुरमुखि जपीऐ लाइ धिआना ॥
अतः गुरु के सान्निध्य में ध्यान लगाकर उसका नाम जपना चाहिए।