ਹੀਣੌ ਨੀਚੁ ਬੁਰੌ ਬੁਰਿਆਰੁ ॥
हीणौ नीचु बुरौ बुरिआरु ॥
हीन तथा नीच व्यक्ति बुरे से भी बुरा है।
ਨੀਧਨ ਕੌ ਧਨੁ ਨਾਮੁ ਪਿਆਰੁ ॥
नीधन कौ धनु नामु पिआरु ॥
निर्धन को हरिनाम धन ही प्यारा लगता है।
ਇਹੁ ਧਨੁ ਸਾਰੁ ਹੋਰੁ ਬਿਖਿਆ ਛਾਰੁ ॥੪॥
इहु धनु सारु होरु बिखिआ छारु ॥४॥
यह धन सार तत्व है, बाकी सब विकारों की धूल नात्र है॥ ४॥
ਉਸਤਤਿ ਨਿੰਦਾ ਸਬਦੁ ਵੀਚਾਰੁ ॥
उसतति निंदा सबदु वीचारु ॥
वह प्रभु किसी को प्रशंसा तो किसी को निंदा तथा किसी को शब्द-चिंतन की योग्यता प्रदान करता है।
ਜੋ ਦੇਵੈ ਤਿਸ ਕਉ ਜੈਕਾਰੁ ॥
जो देवै तिस कउ जैकारु ॥
उस देने वाले को हमारा वंदन है।
ਤੂ ਬਖਸਹਿ ਜਾਤਿ ਪਤਿ ਹੋਇ ॥
तू बखसहि जाति पति होइ ॥
जिस पर कृपा करता है, उसे ही मान-प्रतिष्ठा प्राप्त होती है
ਨਾਨਕੁ ਕਹੈ ਕਹਾਵੈ ਸੋਇ ॥੫॥੧੨॥
नानकु कहै कहावै सोइ ॥५॥१२॥
गुरु नानक का कथन है कि वह स्वयं ही सब करने वाला है ।॥ ५॥ १२॥
ਪ੍ਰਭਾਤੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥
प्रभाती महला १ ॥
प्रभाती महला १ ॥
ਖਾਇਆ ਮੈਲੁ ਵਧਾਇਆ ਪੈਧੈ ਘਰ ਕੀ ਹਾਣਿ ॥
खाइआ मैलु वधाइआ पैधै घर की हाणि ॥
जीव खा-पीकर शरीर में मैल बढ़ाता है और बढ़िया वस्त्र पहनकर घर की हानि करता है।
ਬਕਿ ਬਕਿ ਵਾਦੁ ਚਲਾਇਆ ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਬਿਖੁ ਜਾਣਿ ॥੧॥
बकि बकि वादु चलाइआ बिनु नावै बिखु जाणि ॥१॥
कड़वा बोलकर लड़ाई-झगड़ा उत्पन्न करता है, इस तरह प्रभु नाम बिना जहर ही है॥ १॥
ਬਾਬਾ ਐਸਾ ਬਿਖਮ ਜਾਲਿ ਮਨੁ ਵਾਸਿਆ ॥
बाबा ऐसा बिखम जालि मनु वासिआ ॥
हे बाबा ! कठिन जगत-जाल में फँसा हुआ मन
ਬਿਬਲੁ ਝਾਗਿ ਸਹਜਿ ਪਰਗਾਸਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
बिबलु झागि सहजि परगासिआ ॥१॥ रहाउ ॥
प्रभु-नाम के साबुन जल से धुलकर साफ हो जाता है॥ १॥रहाउ॥
ਬਿਖੁ ਖਾਣਾ ਬਿਖੁ ਬੋਲਣਾ ਬਿਖੁ ਕੀ ਕਾਰ ਕਮਾਇ ॥
बिखु खाणा बिखु बोलणा बिखु की कार कमाइ ॥
मनुष्य विष खाता है, जहर रूप कड़वा बोलता है और जहर रूप कुटिल कर्म करता है।
ਜਮ ਦਰਿ ਬਾਧੇ ਮਾਰੀਅਹਿ ਛੂਟਸਿ ਸਾਚੈ ਨਾਇ ॥੨॥
जम दरि बाधे मारीअहि छूटसि साचै नाइ ॥२॥
जिस कारण यमराज के द्वार पर दण्ड भोगता है, लेकिन परमात्मा का नाम जपने से मुक्ति पा सकता है॥ २॥
ਜਿਵ ਆਇਆ ਤਿਵ ਜਾਇਸੀ ਕੀਆ ਲਿਖਿ ਲੈ ਜਾਇ ॥
जिव आइआ तिव जाइसी कीआ लिखि लै जाइ ॥
मनुष्य जैसे खाली हाथ आता है, वैसे ही चला जाता है तथा कृत कर्मो का हिसाब साथ ले जाता है।
ਮਨਮੁਖਿ ਮੂਲੁ ਗਵਾਇਆ ਦਰਗਹ ਮਿਲੈ ਸਜਾਇ ॥੩॥
मनमुखि मूलु गवाइआ दरगह मिलै सजाइ ॥३॥
स्वेच्छाचारी गुणों की राशि गवां कर प्रभु के दरबार में दण्ड प्राप्त करता है॥ ३॥
ਜਗੁ ਖੋਟੌ ਸਚੁ ਨਿਰਮਲੌ ਗੁਰ ਸਬਦੀਂ ਵੀਚਾਰਿ ॥
जगु खोटौ सचु निरमलौ गुर सबदीं वीचारि ॥
शब्द-गुरु के चिंतन द्वारा बोध हुआ है कि संसार दोषयुक्त है, केवल सत्यस्वरूप ईश्वर ही पावन है।
ਤੇ ਨਰ ਵਿਰਲੇ ਜਾਣੀਅਹਿ ਜਿਨ ਅੰਤਰਿ ਗਿਆਨੁ ਮੁਰਾਰਿ ॥੪॥
ते नर विरले जाणीअहि जिन अंतरि गिआनु मुरारि ॥४॥
ऐसे व्यक्ति विरले ही माने जाते हैं, जिनके मन में ईश्वर का ज्ञान है॥ ४॥
ਅਜਰੁ ਜਰੈ ਨੀਝਰੁ ਝਰੈ ਅਮਰ ਅਨੰਦ ਸਰੂਪ ॥
अजरु जरै नीझरु झरै अमर अनंद सरूप ॥
अगर असह्य को सहन किया जाए तो अमर आनंद की धारा चलने लगती है।
ਨਾਨਕੁ ਜਲ ਕੌ ਮੀਨੁ ਸੈ ਥੇ ਭਾਵੈ ਰਾਖਹੁ ਪ੍ਰੀਤਿ ॥੫॥੧੩॥
नानकु जल कौ मीनु सै थे भावै राखहु प्रीति ॥५॥१३॥
गुरु नानक विनय करते हैं कि हे प्रभु ! जैसे मछली जल को चाहती है, वैसे ही हमारी तुमसे प्रीति बनी हुई है॥ ५॥ १३॥
ਪ੍ਰਭਾਤੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥
प्रभाती महला १ ॥
प्रभाती महला १ ॥
ਗੀਤ ਨਾਦ ਹਰਖ ਚਤੁਰਾਈ ॥
गीत नाद हरख चतुराई ॥
गीत, संगीत, ख़ुशी, चतुराई,
ਰਹਸ ਰੰਗ ਫੁਰਮਾਇਸਿ ਕਾਈ ॥
रहस रंग फुरमाइसि काई ॥
रंगरलियां, फरमाइशें,
ਪੈਨੑਣੁ ਖਾਣਾ ਚੀਤਿ ਨ ਪਾਈ ॥
पैन्हणु खाणा चीति न पाई ॥
खाना-पहनना कुछ भी मन को पसंद नहीं आता।
ਸਾਚੁ ਸਹਜੁ ਸੁਖੁ ਨਾਮਿ ਵਸਾਈ ॥੧॥
साचु सहजु सुखु नामि वसाई ॥१॥
दरअसल परमात्मा के नाम में ही स्वाभाविक परम सुख मिलता है।॥ १॥
ਕਿਆ ਜਾਨਾਂ ਕਿਆ ਕਰੈ ਕਰਾਵੈ ॥
किआ जानां किआ करै करावै ॥
मैं नहीं जानता कि ईश्वर क्या करता है और क्या करवाता है।
ਨਾਮ ਬਿਨਾ ਤਨਿ ਕਿਛੁ ਨ ਸੁਖਾਵੈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
नाम बिना तनि किछु न सुखावै ॥१॥ रहाउ ॥
हरिनामोच्चारण बिना शरीर को कुछ भी सुखकारी नहीं लगता॥ १॥रहाउ॥
ਜੋਗ ਬਿਨੋਦ ਸ੍ਵਾਦ ਆਨੰਦਾ ॥
जोग बिनोद स्वाद आनंदा ॥
इसी से योग की खुशी एवं आनंद है की
ਮਤਿ ਸਤ ਭਾਇ ਭਗਤਿ ਗੋਬਿੰਦਾ ॥
मति सत भाइ भगति गोबिंदा ॥
सच्चे प्रेम के फलस्वरूप ईश्वर की भक्ति मन में स्थित रहे ।
ਕੀਰਤਿ ਕਰਮ ਕਾਰ ਨਿਜ ਸੰਦਾ ॥
कीरति करम कार निज संदा ॥
परमात्मा का कीर्तिगान ही मेरा कर्म है।
ਅੰਤਰਿ ਰਵਤੌ ਰਾਜ ਰਵਿੰਦਾ ॥੨॥
अंतरि रवतौ राज रविंदा ॥२॥
अन्तर्मन में सूर्य-चांद की तरह प्रभु रमण कर रहा है।॥ २॥
ਪ੍ਰਿਉ ਪ੍ਰਿਉ ਪ੍ਰੀਤਿ ਪ੍ਰੇਮਿ ਉਰ ਧਾਰੀ ॥
प्रिउ प्रिउ प्रीति प्रेमि उर धारी ॥
प्रियतम प्रभु का प्रेम मन में धारण कर लिया है,
ਦੀਨਾ ਨਾਥੁ ਪੀਉ ਬਨਵਾਰੀ ॥
दीना नाथु पीउ बनवारी ॥
वह दीन-दुखियों का हमदर्द है।
ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਮੁ ਦਾਨੁ ਬ੍ਰਤਕਾਰੀ ॥
अनदिनु नामु दानु ब्रतकारी ॥
मैं प्रतिदिन उसके नाम का व्रत रखता हूँ।
ਤ੍ਰਿਪਤਿ ਤਰੰਗ ਤਤੁ ਬੀਚਾਰੀ ॥੩॥
त्रिपति तरंग ततु बीचारी ॥३॥
परमतत्व का चिंतन करने से मन को तृप्ति प्राप्त हुई है॥ ३॥
ਅਕਥੌ ਕਥਉ ਕਿਆ ਮੈ ਜੋਰੁ ॥
अकथौ कथउ किआ मै जोरु ॥
मुझ में इतनी योग्यता नहीं केि मैं अकथनीय प्रभु के गुण कथन कर सकूं।
ਭਗਤਿ ਕਰੀ ਕਰਾਇਹਿ ਮੋਰ ॥
भगति करी कराइहि मोर ॥
यदि वह करवाए तो ही उसकी भक्ति कर सकता हूँ।
ਅੰਤਰਿ ਵਸੈ ਚੂਕੈ ਮੈ ਮੋਰ ॥
अंतरि वसै चूकै मै मोर ॥
अहम्-भाव दूर होने पर ही वह मन में बसता है।
ਕਿਸੁ ਸੇਵੀ ਦੂਜਾ ਨਹੀ ਹੋਰੁ ॥੪॥
किसु सेवी दूजा नही होरु ॥४॥
हे विधाता ! तुझ बिन मैं किसकी उपासना करूं, क्योंकि तेरे सिवा कोई बड़ा नहीं॥ ४॥
ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਮਹਾ ਰਸੁ ਮੀਠਾ ॥
गुर का सबदु महा रसु मीठा ॥
गुरु का उपदेश मीठा महारस है,
ਐਸਾ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਅੰਤਰਿ ਡੀਠਾ ॥
ऐसा अम्रितु अंतरि डीठा ॥
इस अमृत को मन में देख लिया है।
ਜਿਨਿ ਚਾਖਿਆ ਪੂਰਾ ਪਦੁ ਹੋਇ ॥
जिनि चाखिआ पूरा पदु होइ ॥
जिसने भी इसे चखा है, उसे ही पूर्ण अवस्था प्राप्त हुई है।
ਨਾਨਕ ਧ੍ਰਾਪਿਓ ਤਨਿ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥੫॥੧੪॥
नानक ध्रापिओ तनि सुखु होइ ॥५॥१४॥
हे नानक ! वह तृप्त हो गया है और उसके तन को सुख उपलब्ध हुआ।॥५॥१४॥
ਪ੍ਰਭਾਤੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥
प्रभाती महला १ ॥
प्रभाती महला १ ॥
ਅੰਤਰਿ ਦੇਖਿ ਸਬਦਿ ਮਨੁ ਮਾਨਿਆ ਅਵਰੁ ਨ ਰਾਂਗਨਹਾਰਾ ॥
अंतरि देखि सबदि मनु मानिआ अवरु न रांगनहारा ॥
अन्तर्मन में प्रभु-शब्द को देखकर मन प्रसन्न हो गया है, मन में यही निष्ठा है कि उस दाता के सिवा अन्य कोई प्रेम,भक्ति में रंगने वाला नहीं।
ਅਹਿਨਿਸਿ ਜੀਆ ਦੇਖਿ ਸਮਾਲੇ ਤਿਸ ਹੀ ਕੀ ਸਰਕਾਰਾ ॥੧॥
अहिनिसि जीआ देखि समाले तिस ही की सरकारा ॥१॥
वह नित्य जीवों का पालन-पोषण करता है, केवल उसी की सार्वभौमिकता है॥ १॥
ਮੇਰਾ ਪ੍ਰਭੁ ਰਾਂਗਿ ਘਣੌ ਅਤਿ ਰੂੜੌ ॥
मेरा प्रभु रांगि घणौ अति रूड़ौ ॥
मेरे प्रभु का प्रेम-रंग अत्यंत गहरा है, वह अत्यंन्त सुन्दर है।
ਦੀਨ ਦਇਆਲੁ ਪ੍ਰੀਤਮ ਮਨਮੋਹਨੁ ਅਤਿ ਰਸ ਲਾਲ ਸਗੂੜੌ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
दीन दइआलु प्रीतम मनमोहनु अति रस लाल सगूड़ौ ॥१॥ रहाउ ॥
वह दीन-दुखियों पर सदैव दयालु है, मन को मोहित करने वाला प्रियतम है, उसका प्रेम अत्यंत गहरा है॥ १॥रहाउ॥
ਊਪਰਿ ਕੂਪੁ ਗਗਨ ਪਨਿਹਾਰੀ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਵਣਹਾਰਾ ॥
ऊपरि कूपु गगन पनिहारी अम्रितु पीवणहारा ॥
ऊपर आकाश (दसम द्वार) में कुआँ है, बुद्धि पानी भरने वाली है और मन उस कुएँ का नामामृत पीता है।
ਜਿਸ ਕੀ ਰਚਨਾ ਸੋ ਬਿਧਿ ਜਾਣੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਗਿਆਨੁ ਵੀਚਾਰਾ ॥੨॥
जिस की रचना सो बिधि जाणै गुरमुखि गिआनु वीचारा ॥२॥
गुरु के ज्ञान द्वारा चिंतन करके पाया है कि जिसकी रचना है, वही विधि जानता है॥ २॥