Hindi Page 851

ਮਨਮੁਖ ਅਗਿਆਨੀ ਅੰਧੁਲੇ ਜਨਮਿ ਮਰਹਿ ਫਿਰਿ ਆਵੈ ਜਾਏ ॥
मनमुख अगिआनी अंधुले जनमि मरहि फिरि आवै जाए ॥
मनमुख अज्ञानी जीव अन्धा ही है, वह जन्मता-मरता रहता है और बार-बार दुनिया में आता जाता रहता है।

ਕਾਰਜ ਸਿਧਿ ਨ ਹੋਵਨੀ ਅੰਤਿ ਗਇਆ ਪਛੁਤਾਏ ॥
कारज सिधि न होवनी अंति गइआ पछुताए ॥
उसका कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता और अन्त में पछताता हुआ चल देता है।

ਜਿਸੁ ਕਰਮੁ ਹੋਵੈ ਤਿਸੁ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲੈ ਸੋ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਏ ॥
जिसु करमु होवै तिसु सतिगुरु मिलै सो हरि हरि नामु धिआए ॥
जिस पर प्रभु-कृपा होती है, उसे सतगुरु मिल जाता है और फिर वह प्रभु-नाम का ही ध्यान करता रहता है।

ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਜਨ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਇਨੑਿ ਜਨ ਨਾਨਕ ਤਿਨ ਬਲਿ ਜਾਏ ॥੧॥
नामि रते जन सदा सुखु पाइन्हि जन नानक तिन बलि जाए ॥१॥
नाम में लीन रहने वाला उपासक सदैव सुख हासिल करता है और नानक तो उस पर ही बलिहारी जाता है ॥ १ ॥

ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥

ਆਸਾ ਮਨਸਾ ਜਗਿ ਮੋਹਣੀ ਜਿਨਿ ਮੋਹਿਆ ਸੰਸਾਰੁ ॥
आसा मनसा जगि मोहणी जिनि मोहिआ संसारु ॥
आशा एवं अभिलाषा जगत् को मोह लेने वाली है, जिन्होंने पूरा संसार मोह लिया है।

ਸਭੁ ਕੋ ਜਮ ਕੇ ਚੀਰੇ ਵਿਚਿ ਹੈ ਜੇਤਾ ਸਭੁ ਆਕਾਰੁ ॥
सभु को जम के चीरे विचि है जेता सभु आकारु ॥
जितना भी यह जगत्-आकार है, हर कोई मृत्यु के वश में है।

ਹੁਕਮੀ ਹੀ ਜਮੁ ਲਗਦਾ ਸੋ ਉਬਰੈ ਜਿਸੁ ਬਖਸੈ ਕਰਤਾਰੁ ॥
हुकमी ही जमु लगदा सो उबरै जिसु बखसै करतारु ॥
परमात्मा के हुक्म से ही मृत्यु आती है, वही बचता है, जिसे करतार क्षमा कर देता है।

ਨਾਨਕ ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਏਹੁ ਮਨੁ ਤਾਂ ਤਰੈ ਜਾ ਛੋਡੈ ਅਹੰਕਾਰੁ ॥
नानक गुर परसादी एहु मनु तां तरै जा छोडै अहंकारु ॥
हे नानक ! गुरु की कृपा से यह मन तो ही भवसागर से पार होता है, जब अहंकार छोड़ देता है।

ਆਸਾ ਮਨਸਾ ਮਾਰੇ ਨਿਰਾਸੁ ਹੋਇ ਗੁਰ ਸਬਦੀ ਵੀਚਾਰੁ ॥੨॥
आसा मनसा मारे निरासु होइ गुर सबदी वीचारु ॥२॥
गुरु-शब्द का चिंतन करके जीव अपनी आशा-अभिलाषा को मिटा कर वैरागी हो जाता है।॥ २ ॥

ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी ॥

ਜਿਥੈ ਜਾਈਐ ਜਗਤ ਮਹਿ ਤਿਥੈ ਹਰਿ ਸਾਈ ॥
जिथै जाईऐ जगत महि तिथै हरि साई ॥
इस जगत् में जिधर भी जाएँ, उधर ही प्रभु स्थित है।

ਅਗੈ ਸਭੁ ਆਪੇ ਵਰਤਦਾ ਹਰਿ ਸਚਾ ਨਿਆਈ ॥
अगै सभु आपे वरतदा हरि सचा निआई ॥
सच्चा न्याय करने वाला परमात्मा आगे परलोक में भी सर्वत्र स्वयं ही कार्य चला रहा जिसने सत्य की है।

ਕੂੜਿਆਰਾ ਕੇ ਮੁਹ ਫਿਟਕੀਅਹਿ ਸਚੁ ਭਗਤਿ ਵਡਿਆਈ ॥
कूड़िआरा के मुह फिटकीअहि सचु भगति वडिआई ॥
वहाँ झूठे लोगों का ही तिरस्कार होता है, लेकिन सच्चे प्रभु की भक्ति करने वाले को शोभा प्राप्त होती है।

ਸਚੁ ਸਾਹਿਬੁ ਸਚਾ ਨਿਆਉ ਹੈ ਸਿਰਿ ਨਿੰਦਕ ਛਾਈ ॥
सचु साहिबु सचा निआउ है सिरि निंदक छाई ॥
सबका मालिक एक ईश्वर सत्य है, उसका न्याय भी सत्य है, निन्दकों के सिर पर धूल ही पड़ती है।

ਜਨ ਨਾਨਕ ਸਚੁ ਅਰਾਧਿਆ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸੁਖੁ ਪਾਈ ॥੫॥
जन नानक सचु अराधिआ गुरमुखि सुखु पाई ॥५॥
हे नानक ! गुरु के माध्यम से आराधना की है, उसने ही सुख पाया है ॥५॥

ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥
सलोक मः ३ ॥
श्लोक महला ३ ॥

ਪੂਰੈ ਭਾਗਿ ਸਤਿਗੁਰੁ ਪਾਈਐ ਜੇ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਬਖਸ ਕਰੇਇ ॥
पूरै भागि सतिगुरु पाईऐ जे हरि प्रभु बखस करेइ ॥
यदि प्रभु अनुकम्पा कर दे तो ही पूर्ण भाग्य से सतगुरु प्राप्त होता है।

ਓਪਾਵਾ ਸਿਰਿ ਓਪਾਉ ਹੈ ਨਾਉ ਪਰਾਪਤਿ ਹੋਇ ॥
ओपावा सिरि ओपाउ है नाउ परापति होइ ॥
जीवन में सब उपायों से उत्तम उपाय यही है कि जीव को नाम प्राप्त हो जाए।

ਅੰਦਰੁ ਸੀਤਲੁ ਸਾਂਤਿ ਹੈ ਹਿਰਦੈ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥
अंदरु सीतलु सांति है हिरदै सदा सुखु होइ ॥
इससे मन को बड़ी शान्ति मिलती है और हृदय सदैव सुखी रहता है।

ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਖਾਣਾ ਪੈਨੑਣਾ ਨਾਨਕ ਨਾਇ ਵਡਿਆਈ ਹੋਇ ॥੧॥
अम्रितु खाणा पैन्हणा नानक नाइ वडिआई होइ ॥१॥
हे नानक ! नामामृत ही उस जीव का खाना-पहनना अर्थात् जीवन-आचरण बन जाता है और नाम से ही लोक-परलोक में बड़ाई मिलती है। १॥

ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥

ਏ ਮਨ ਗੁਰ ਕੀ ਸਿਖ ਸੁਣਿ ਪਾਇਹਿ ਗੁਣੀ ਨਿਧਾਨੁ ॥
ए मन गुर की सिख सुणि पाइहि गुणी निधानु ॥
हे मन ! गुरु की सीख सुन, इस प्रकार तुझे गुणों का भण्डार (परमात्मा) प्राप्त हो जाएगा।

ਸੁਖਦਾਤਾ ਤੇਰੈ ਮਨਿ ਵਸੈ ਹਉਮੈ ਜਾਇ ਅਭਿਮਾਨੁ ॥
सुखदाता तेरै मनि वसै हउमै जाइ अभिमानु ॥
सुख देने वाला ईश्वर तेरे मन में स्थित हो जाएगा और तेरा अहंत्व एवं अभिमान दूर हो जाएगा।

ਨਾਨਕ ਨਦਰੀ ਪਾਈਐ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਗੁਣੀ ਨਿਧਾਨੁ ॥੨॥
नानक नदरी पाईऐ अम्रितु गुणी निधानु ॥२॥
हे नानक ! नामामृत एवं गुणों का कोष उसकी कृपा-दृष्टि से ही पाया जाता है।॥ २॥

ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥

ਜਿਤਨੇ ਪਾਤਿਸਾਹ ਸਾਹ ਰਾਜੇ ਖਾਨ ਉਮਰਾਵ ਸਿਕਦਾਰ ਹਹਿ ਤਿਤਨੇ ਸਭਿ ਹਰਿ ਕੇ ਕੀਏ ॥
जितने पातिसाह साह राजे खान उमराव सिकदार हहि तितने सभि हरि के कीए ॥
दुनिया में जितने भी बादशाह, शाह, राजा, खान, उमराव एवं सरदार हैं, वे सभी ईश्वर के ही पैदा किए हुए हैं।

ਜੋ ਕਿਛੁ ਹਰਿ ਕਰਾਵੈ ਸੁ ਓਇ ਕਰਹਿ ਸਭਿ ਹਰਿ ਕੇ ਅਰਥੀਏ ॥
जो किछु हरि करावै सु ओइ करहि सभि हरि के अरथीए ॥
जो कुछ ईश्वर अपनी मर्जी से उनसे करवाता है, वे वही कार्य करते हैं। वास्तव में वे सभी प्रभु के सन्मुख भिखारी हैं।

ਸੋ ਐਸਾ ਹਰਿ ਸਭਨਾ ਕਾ ਪ੍ਰਭੁ ਸਤਿਗੁਰ ਕੈ ਵਲਿ ਹੈ ਤਿਨਿ ਸਭਿ ਵਰਨ ਚਾਰੇ ਖਾਣੀ ਸਭ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਗੋਲੇ ਕਰਿ ਸਤਿਗੁਰ ਅਗੈ ਕਾਰ ਕਮਾਵਣ ਕਉ ਦੀਏ ॥
सो ऐसा हरि सभना का प्रभु सतिगुर कै वलि है तिनि सभि वरन चारे खाणी सभ स्रिसटि गोले करि सतिगुर अगै कार कमावण कउ दीए ॥
सो ऐसा परमात्मा सबका मालिक है, जो सतगुरु के पक्ष में है। उसने सभी वर्णो, चारों स्रोतों एवं सारी सृष्टि के जीव सतगुरु के आगे सेवा करने के लिए उसके सेवक बना दिए हैं।

ਹਰਿ ਸੇਵੇ ਕੀ ਐਸੀ ਵਡਿਆਈ ਦੇਖਹੁ ਹਰਿ ਸੰਤਹੁ ਜਿਨਿ ਵਿਚਹੁ ਕਾਇਆ ਨਗਰੀ ਦੁਸਮਨ ਦੂਤ ਸਭਿ ਮਾਰਿ ਕਢੀਏ ॥
हरि सेवे की ऐसी वडिआई देखहु हरि संतहु जिनि विचहु काइआ नगरी दुसमन दूत सभि मारि कढीए ॥
हे संतजनो ! देखो, ईश्वर-उपासना की इतनी महिमा है कि उसने काया रूपी नगरी में से सभी दुश्मन दूतों-काम, क्रोध, मोह, लोभ एवं अहंकार को नष्ट करके बाहर निकाल दिया है।

ਹਰਿ ਹਰਿ ਕਿਰਪਾਲੁ ਹੋਆ ਭਗਤ ਜਨਾ ਉਪਰਿ ਹਰਿ ਆਪਣੀ ਕਿਰਪਾ ਕਰਿ ਹਰਿ ਆਪਿ ਰਖਿ ਲੀਏ ॥੬॥
हरि हरि किरपालु होआ भगत जना उपरि हरि आपणी किरपा करि हरि आपि रखि लीए ॥६॥
हरि भक्तजनों पर कृपालु हो गया है और कृपा करके उसने स्वयं ही बचा लिया है॥ ६ ॥

ਸਲੋਕ ਮਃ ੩ ॥
सलोक मः ३ ॥
श्लोक महला ३ ॥

ਅੰਦਰਿ ਕਪਟੁ ਸਦਾ ਦੁਖੁ ਹੈ ਮਨਮੁਖ ਧਿਆਨੁ ਨ ਲਾਗੈ ॥
अंदरि कपटु सदा दुखु है मनमुख धिआनु न लागै ॥
मनमुख का ध्यान नहीं लगता, मन में कपट होने के कारण सदैव दुख भोगता रहता है।

ਦੁਖ ਵਿਚਿ ਕਾਰ ਕਮਾਵਣੀ ਦੁਖੁ ਵਰਤੈ ਦੁਖੁ ਆਗੈ ॥
दुख विचि कार कमावणी दुखु वरतै दुखु आगै ॥
वह दुख में ही कार्य करता है और हर वक्त दुख में ही ग्रस्त रहता है और आगे परलोक में भी दुखी रहता है।

ਕਰਮੀ ਸਤਿਗੁਰੁ ਭੇਟੀਐ ਤਾ ਸਚਿ ਨਾਮਿ ਲਿਵ ਲਾਗੈ ॥
करमी सतिगुरु भेटीऐ ता सचि नामि लिव लागै ॥
यदि प्रभु-कृपा हो जाए तो सतगुरु से भेंट हो जाती है और सत्य-नाम में लगन लग जाती है।

ਨਾਨਕ ਸਹਜੇ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ਅੰਦਰਹੁ ਭ੍ਰਮੁ ਭਉ ਭਾਗੈ ॥੧॥
नानक सहजे सुखु होइ अंदरहु भ्रमु भउ भागै ॥१॥
हे नानक ! फिर सहज ही सुख प्राप्त हो जाता है, जिससे मन में से भ्रम एवं मृत्यु का भय दूर हो जाता है ॥ १॥

ਮਃ ੩ ॥
मः ३ ॥
महला ३॥

ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਦਾ ਹਰਿ ਰੰਗੁ ਹੈ ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਉ ਮਨਿ ਭਾਇਆ ॥
गुरमुखि सदा हरि रंगु है हरि का नाउ मनि भाइआ ॥
गुरुमुख सदैव हरि-रंग में लीन रहता है और हरि का नाम ही उसे भाता है।

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