Hindi Page 1316

ਸਭਿ ਧੰਨੁ ਕਹਹੁ ਗੁਰੁ ਸਤਿਗੁਰੂ ਗੁਰੁ ਸਤਿਗੁਰੂ ਜਿਤੁ ਮਿਲਿ ਹਰਿ ਪੜਦਾ ਕਜਿਆ ॥੭॥
सभि धंनु कहहु गुरु सतिगुरू गुरु सतिगुरू जितु मिलि हरि पड़दा कजिआ ॥७॥
सभी कहो, गुरु धन्य है, सतगुरु धन्य है, जिसे मिलकर हमारे अवगुणों पर पर्दा पड़ा है॥ ७॥

ਸਲੋਕੁ ਮਃ ੪ ॥
सलोकु मः ४ ॥
श्लोक महला ४॥

ਭਗਤਿ ਸਰੋਵਰੁ ਉਛਲੈ ਸੁਭਰ ਭਰੇ ਵਹੰਨਿ ॥
भगति सरोवरु उछलै सुभर भरे वहंनि ॥
भक्ति का सरोवर उछल रहा है और भरे सरोवर में भक्तगण बह रहे हैं।

ਜਿਨਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮੰਨਿਆ ਜਨ ਨਾਨਕ ਵਡ ਭਾਗ ਲਹੰਨਿ ॥੧॥
जिना सतिगुरु मंनिआ जन नानक वड भाग लहंनि ॥१॥
हे नानक ! जिन्होंने सतगुरु का मनन किया है, वे भाग्यशाली हैं।॥ १॥

ਮਃ ੪ ॥
मः ४ ॥
महला ४॥

ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮ ਅਸੰਖ ਹਰਿ ਹਰਿ ਕੇ ਗੁਨ ਕਥਨੁ ਨ ਜਾਹਿ ॥
हरि हरि नाम असंख हरि हरि के गुन कथनु न जाहि ॥
परमात्मा के नाम अनगिनत हैं, उसके गुणों का कथन भी नहीं किया जा सकता।

ਹਰਿ ਹਰਿ ਅਗਮੁ ਅਗਾਧਿ ਹਰਿ ਜਨ ਕਿਤੁ ਬਿਧਿ ਮਿਲਹਿ ਮਿਲਾਹਿ ॥
हरि हरि अगमु अगाधि हरि जन कितु बिधि मिलहि मिलाहि ॥
वह अपहुँच एवं असीम है और किस तरीके से प्रभु से मिलाप हो सकता है।

ਹਰਿ ਹਰਿ ਜਸੁ ਜਪਤ ਜਪੰਤ ਜਨ ਇਕੁ ਤਿਲੁ ਨਹੀ ਕੀਮਤਿ ਪਾਇ ॥
हरि हरि जसु जपत जपंत जन इकु तिलु नही कीमति पाइ ॥
जो ईश्वर का यशोगान करते हैं, वे उसकी महत्ता का थोड़ा-सा भी मूल्यांकन नहीं कर सकते।

ਜਨ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਅਗਮ ਪ੍ਰਭ ਹਰਿ ਮੇਲਿ ਲੈਹੁ ਲੜਿ ਲਾਇ ॥੨॥
जन नानक हरि अगम प्रभ हरि मेलि लैहु लड़ि लाइ ॥२॥
नानक का कथन है कि प्रभु स्वत: ही भक्तों को अपने चरणों में मिला लेता है॥ २॥

ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥

ਹਰਿ ਅਗਮੁ ਅਗੋਚਰੁ ਅਗਮੁ ਹਰਿ ਕਿਉ ਕਰਿ ਹਰਿ ਦਰਸਨੁ ਪਿਖਾ ॥
हरि अगमु अगोचरु अगमु हरि किउ करि हरि दरसनु पिखा ॥
ईश्वर अपहुँच, मन-वाणी से परे है, उसके दर्शन कैसे हो सकते हैं।

ਕਿਛੁ ਵਖਰੁ ਹੋਇ ਸੁ ਵਰਨੀਐ ਤਿਸੁ ਰੂਪੁ ਨ ਰਿਖਾ ॥
किछु वखरु होइ सु वरनीऐ तिसु रूपु न रिखा ॥
यदि कोई वस्तु हो तो उसका वर्णन किया जाए, उसका रूप एवं आकार नहीं।

ਜਿਸੁ ਬੁਝਾਏ ਆਪਿ ਬੁਝਾਇ ਦੇਇ ਸੋਈ ਜਨੁ ਦਿਖਾ ॥
जिसु बुझाए आपि बुझाइ देइ सोई जनु दिखा ॥
जिसे वह स्वयं समझाता है, वही व्यक्ति दर्शन करता है।

ਸਤਸੰਗਤਿ ਸਤਿਗੁਰ ਚਟਸਾਲ ਹੈ ਜਿਤੁ ਹਰਿ ਗੁਣ ਸਿਖਾ ॥
सतसंगति सतिगुर चटसाल है जितु हरि गुण सिखा ॥
सत्संगति गुरु की पाठशाला है, जहां गुणों की शिक्षा दी जाती है।

ਧਨੁ ਧੰਨੁ ਸੁ ਰਸਨਾ ਧੰਨੁ ਕਰ ਧੰਨੁ ਸੁ ਪਾਧਾ ਸਤਿਗੁਰੂ ਜਿਤੁ ਮਿਲਿ ਹਰਿ ਲੇਖਾ ਲਿਖਾ ॥੮॥
धनु धंनु सु रसना धंनु कर धंनु सु पाधा सतिगुरू जितु मिलि हरि लेखा लिखा ॥८॥
वह जिव्हा धन्य है, वे हाथ धन्य हैं, वह गुरु अध्यापक भी धन्य है, जहाँ मिलकर प्रभु के गुणों को लिखा जाता है॥ ८॥

ਸਲੋਕ ਮਃ ੪ ॥
सलोक मः ४ ॥
श्लोक महला ४॥

ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਹੈ ਹਰਿ ਜਪੀਐ ਸਤਿਗੁਰ ਭਾਇ ॥
हरि हरि नामु अम्रितु है हरि जपीऐ सतिगुर भाइ ॥
परमात्मा का नाम अमृत का सागर है, गुरु के प्रेम में उसी का जाप करो।

ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਪਵਿਤੁ ਹੈ ਹਰਿ ਜਪਤ ਸੁਨਤ ਦੁਖੁ ਜਾਇ ॥
हरि हरि नामु पवितु है हरि जपत सुनत दुखु जाइ ॥
हरिनाम पवित्र है, उसका जाप करने एवं यश सुनने से दुख दर्द सब दूर हो जाते हैं।

ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਤਿਨੀ ਆਰਾਧਿਆ ਜਿਨ ਮਸਤਕਿ ਲਿਖਿਆ ਧੁਰਿ ਪਾਇ ॥
हरि नामु तिनी आराधिआ जिन मसतकि लिखिआ धुरि पाइ ॥
परमात्मा के नाम की उन लोगों ने ही आराधना की है, जिनके माथे पर प्रारम्भ से भाग्य लिखा हुआ था।

ਹਰਿ ਦਰਗਹ ਜਨ ਪੈਨਾਈਅਨਿ ਜਿਨ ਹਰਿ ਮਨਿ ਵਸਿਆ ਆਇ ॥
हरि दरगह जन पैनाईअनि जिन हरि मनि वसिआ आइ ॥
जिनके मन में वह बस जाता है, वही भक्त प्रभु दरबार में शोभा पाते हैं।

ਜਨ ਨਾਨਕ ਤੇ ਮੁਖ ਉਜਲੇ ਜਿਨ ਹਰਿ ਸੁਣਿਆ ਮਨਿ ਭਾਇ ॥੧॥
जन नानक ते मुख उजले जिन हरि सुणिआ मनि भाइ ॥१॥
हे नानक ! उन्हीं के मुख उज्ज्वल होते हैं, जो मन लगाकर परमात्मा का भजन सुनते हैं।॥ १॥

ਮਃ ੪ ॥
मः ४ ॥
महला ४॥

ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਹੈ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਇਆ ਜਾਇ ॥
हरि हरि नामु निधानु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥
परमात्मा का नाम सुखों का घर है, जो गुरु द्वारा ही प्राप्त होता है।

ਜਿਨ ਧੁਰਿ ਮਸਤਕਿ ਲਿਖਿਆ ਤਿਨ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲਿਆ ਆਇ ॥
जिन धुरि मसतकि लिखिआ तिन सतिगुरु मिलिआ आइ ॥
जिनके मस्तक पर पूर्व से ही लिखा होता है, उनको ही सतिगुरु मिलता है।

ਤਨੁ ਮਨੁ ਸੀਤਲੁ ਹੋਇਆ ਸਾਂਤਿ ਵਸੀ ਮਨਿ ਆਇ ॥
तनु मनु सीतलु होइआ सांति वसी मनि आइ ॥
मन तन शीतल हो जाता है और मन में शान्ति बस जाती है।

ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਹਰਿ ਚਉਦਿਆ ਸਭੁ ਦਾਲਦੁ ਦੁਖੁ ਲਹਿ ਜਾਇ ॥੨॥
नानक हरि हरि चउदिआ सभु दालदु दुखु लहि जाइ ॥२॥
हे नानक ! परमात्मा का यशोगान करने से दुख-दारिद्रय सब दूर हो जाते हैं॥ २॥

ਪਉੜੀ ॥
पउड़ी ॥
पउड़ी॥

ਹਉ ਵਾਰਿਆ ਤਿਨ ਕਉ ਸਦਾ ਸਦਾ ਜਿਨਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮੇਰਾ ਪਿਆਰਾ ਦੇਖਿਆ ॥
हउ वारिआ तिन कउ सदा सदा जिना सतिगुरु मेरा पिआरा देखिआ ॥
हे भाई! मैं सदके जाता हूँ सदा ही उन (मनुष्यों) पर से, जिन्होंने मेरे प्यारे गुरु का दर्शन (सदा) किया है

ਤਿਨ ਕਉ ਮਿਲਿਆ ਮੇਰਾ ਸਤਿਗੁਰੂ ਜਿਨ ਕਉ ਧੁਰਿ ਮਸਤਕਿ ਲੇਖਿਆ ॥
तिन कउ मिलिआ मेरा सतिगुरू जिन कउ धुरि मसतकि लेखिआ ॥
मेरा सतिगुरु उनको ही मिला है, जिनके ललाट पर भाग्य लिखा हुआ है।

ਹਰਿ ਅਗਮੁ ਧਿਆਇਆ ਗੁਰਮਤੀ ਤਿਸੁ ਰੂਪੁ ਨਹੀ ਪ੍ਰਭ ਰੇਖਿਆ ॥
हरि अगमु धिआइआ गुरमती तिसु रूपु नही प्रभ रेखिआ ॥
गुरु की शिक्षा से परमात्मा का ध्यान किया है, उसका कोई रूप अथवा आकार चिन्ह नहीं।

ਗੁਰ ਬਚਨਿ ਧਿਆਇਆ ਜਿਨਾ ਅਗਮੁ ਹਰਿ ਤੇ ਠਾਕੁਰ ਸੇਵਕ ਰਲਿ ਏਕਿਆ ॥
गुर बचनि धिआइआ जिना अगमु हरि ते ठाकुर सेवक रलि एकिआ ॥
जिन्होंने गुरु के वचनों से परमात्मा का ध्यान किया है, वे सेवक एवं मालिक एक रूप ही हो गए हैं।

ਸਭਿ ਕਹਹੁ ਮੁਖਹੁ ਨਰ ਨਰਹਰੇ ਨਰ ਨਰਹਰੇ ਨਰ ਨਰਹਰੇ ਹਰਿ ਲਾਹਾ ਹਰਿ ਭਗਤਿ ਵਿਸੇਖਿਆ ॥੯॥
सभि कहहु मुखहु नर नरहरे नर नरहरे नर नरहरे हरि लाहा हरि भगति विसेखिआ ॥९॥
सभी मुख से नारायण का नाम जपो, हरि की भक्ति से ही विशेष लाभ प्राप्त होता है।॥९॥

ਸਲੋਕ ਮਃ ੪ ॥
सलोक मः ४ ॥
शलोक महला ४॥

ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਰਮੁ ਰਵਿ ਰਹੇ ਰਮੁ ਰਾਮੋ ਰਾਮੁ ਰਮੀਤਿ ॥
राम नामु रमु रवि रहे रमु रामो रामु रमीति ॥
परमात्मा का नाम सर्वव्याप्त है, उसी का भजन करो,

ਘਟਿ ਘਟਿ ਆਤਮ ਰਾਮੁ ਹੈ ਪ੍ਰਭਿ ਖੇਲੁ ਕੀਓ ਰੰਗਿ ਰੀਤਿ ॥
घटि घटि आतम रामु है प्रभि खेलु कीओ रंगि रीति ॥
वह घट घट में अवस्थित है, यह जगत-लीला उस प्रभु ने रची है।

ਹਰਿ ਨਿਕਟਿ ਵਸੈ ਜਗਜੀਵਨਾ ਪਰਗਾਸੁ ਕੀਓ ਗੁਰ ਮੀਤਿ ॥
हरि निकटि वसै जगजीवना परगासु कीओ गुर मीति ॥
वह हमारे निकट ही बसता है, वह संसार का जीवन है, गुरु के उपदेश से यही ज्ञान प्रदान किया है।

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