ਸਬਦਿ ਮਨੁ ਰੰਗਿਆ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥
सबदि मनु रंगिआ लिव लाइ ॥
उसका मन नाम में मग्न रहता है और वह प्रभु में सुरति लगाकर रखता है।
ਨਿਜ ਘਰਿ ਵਸਿਆ ਪ੍ਰਭ ਕੀ ਰਜਾਇ ॥੧॥
निज घरि वसिआ प्रभ की रजाइ ॥१॥
प्रभु की इच्छा से वह अपने आत्मस्वरूप में ही रहता है।॥ १॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਿਐ ਜਾਇ ਅਭਿਮਾਨੁ ॥
सतिगुरु सेविऐ जाइ अभिमानु ॥
सतिगुरु की सेवा करने से अभिमान दूर हो जाता है एवं
ਗੋਵਿਦੁ ਪਾਈਐ ਗੁਣੀ ਨਿਧਾਨੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गोविदु पाईऐ गुणी निधानु ॥१॥ रहाउ ॥
गुणों का भण्डार गोविन्द प्राप्त हो जाता है॥ १॥ रहाउ ॥
ਮਨੁ ਬੈਰਾਗੀ ਜਾ ਸਬਦਿ ਭਉ ਖਾਇ ॥
मनु बैरागी जा सबदि भउ खाइ ॥
ब मनुष्य का मन प्रभु का भय धारण कर लेता है तो वह इच्छा रहित हो जाता है।
ਮੇਰਾ ਪ੍ਰਭੁ ਨਿਰਮਲਾ ਸਭ ਤੈ ਰਹਿਆ ਸਮਾਇ ॥
मेरा प्रभु निरमला सभ तै रहिआ समाइ ॥
मेरा निर्मल प्रभु सर्वत्र व्यापक हो रहा है।
ਗੁਰ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਮਿਲੈ ਮਿਲਾਇ ॥੨॥
गुर किरपा ते मिलै मिलाइ ॥२॥
गुरु की कृपा से प्राणी प्रभु मिलन में मिल जाता है॥ २॥
ਹਰਿ ਦਾਸਨ ਕੋ ਦਾਸੁ ਸੁਖੁ ਪਾਏ ॥
हरि दासन को दासु सुखु पाए ॥
ईश्वर के सेवकों का सेवक आत्मिक सुख प्राप्त करता है।
ਮੇਰਾ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਇਨ ਬਿਧਿ ਪਾਇਆ ਜਾਏ ॥
मेरा हरि प्रभु इन बिधि पाइआ जाए ॥
मेरा प्रभु-परमेश्वर इस विधि से प्राप्त होता है।
ਹਰਿ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਰਾਮ ਗੁਣ ਗਾਏ ॥੩॥
हरि किरपा ते राम गुण गाए ॥३॥
परमेश्वर की कृपा से मनुष्य राम की गुणस्तुति करता है॥ ३॥
ਧ੍ਰਿਗੁ ਬਹੁ ਜੀਵਣੁ ਜਿਤੁ ਹਰਿ ਨਾਮਿ ਨ ਲਗੈ ਪਿਆਰੁ ॥
ध्रिगु बहु जीवणु जितु हरि नामि न लगै पिआरु ॥
ऐसे लम्बे जीवन पर धिक्कार है जिसमें प्रभु के नाम से प्रेम नहीं होता।
ਧ੍ਰਿਗੁ ਸੇਜ ਸੁਖਾਲੀ ਕਾਮਣਿ ਮੋਹ ਗੁਬਾਰੁ ॥
ध्रिगु सेज सुखाली कामणि मोह गुबारु ॥
सुन्दर स्त्री की सुखदायक सेज भी धिक्कार योग्य है जिससे मोह का अन्धेरा बना रहता है।
ਤਿਨ ਸਫਲੁ ਜਨਮੁ ਜਿਨ ਨਾਮੁ ਅਧਾਰੁ ॥੪॥
तिन सफलु जनमु जिन नामु अधारु ॥४॥
उनका जीवन ही फलदायक है, जिन्हें नाम का सहारा प्राप्त है ॥४॥
ਧ੍ਰਿਗੁ ਧ੍ਰਿਗੁ ਗ੍ਰਿਹੁ ਕੁਟੰਬੁ ਜਿਤੁ ਹਰਿ ਪ੍ਰੀਤਿ ਨ ਹੋਇ ॥
ध्रिगु ध्रिगु ग्रिहु कुट्मबु जितु हरि प्रीति न होइ ॥
ऐसा गृहस्थ-जीवन एवं परिवार भी धिक्कार योग्य है, जिसके कारण प्रभु से प्रेम नहीं होता।
ਸੋਈ ਹਮਾਰਾ ਮੀਤੁ ਜੋ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਵੈ ਸੋਇ ॥
सोई हमारा मीतु जो हरि गुण गावै सोइ ॥
केवल वही मेरा मित्र है, जो उस ईश्वर का यश गायन करता है।
ਹਰਿ ਨਾਮ ਬਿਨਾ ਮੈ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਇ ॥੫॥
हरि नाम बिना मै अवरु न कोइ ॥५॥
प्रभु के नाम बिना मेरा दूसरा कोई नहीं ॥ ५॥
ਸਤਿਗੁਰ ਤੇ ਹਮ ਗਤਿ ਪਤਿ ਪਾਈ ॥
सतिगुर ते हम गति पति पाई ॥
सतिगुरु से मैंने मुक्ति एवं शोभा प्राप्त की है।
ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇਆ ਦੂਖੁ ਸਗਲ ਮਿਟਾਈ ॥
हरि नामु धिआइआ दूखु सगल मिटाई ॥
भगवान के नाम का ध्यान करने से सभी दुःख मिट गए हैं।
ਸਦਾ ਅਨੰਦੁ ਹਰਿ ਨਾਮਿ ਲਿਵ ਲਾਈ ॥੬॥
सदा अनंदु हरि नामि लिव लाई ॥६॥
भगवान के नाम में वृति लगाने से सदैव आनंद प्राप्त हो गया है ॥६॥
ਗੁਰਿ ਮਿਲਿਐ ਹਮ ਕਉ ਸਰੀਰ ਸੁਧਿ ਭਈ ॥
गुरि मिलिऐ हम कउ सरीर सुधि भई ॥
गुरु को मिलने से हमारा शरीर शुद्ध हो गया है।
ਹਉਮੈ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਸਭ ਅਗਨਿ ਬੁਝਈ ॥
हउमै त्रिसना सभ अगनि बुझई ॥
जिससे अहंकार एवं तृष्णा की अग्नि समस्त बुझ गए हैं।
ਬਿਨਸੇ ਕ੍ਰੋਧ ਖਿਮਾ ਗਹਿ ਲਈ ॥੭॥
बिनसे क्रोध खिमा गहि लई ॥७॥
मेरा क्रोध मिट गया है और मैंने सहनशीलता धारण कर ली है॥ ७॥
ਹਰਿ ਆਪੇ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰੇ ਨਾਮੁ ਦੇਵੈ ॥
हरि आपे क्रिपा करे नामु देवै ॥
भगवान स्वयं ही कृपा करके अपना नाम प्रदान करता है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਰਤਨੁ ਕੋ ਵਿਰਲਾ ਲੇਵੈ ॥
गुरमुखि रतनु को विरला लेवै ॥
कोई विरला गुरमुख ही नाम-रत्न को प्राप्त करता है।
ਨਾਨਕੁ ਗੁਣ ਗਾਵੈ ਹਰਿ ਅਲਖ ਅਭੇਵੈ ॥੮॥੮॥
नानकु गुण गावै हरि अलख अभेवै ॥८॥८॥
हे नानक ! वह तो अलक्ष्य तथा अभेद परमेश्वर की ही गुणस्तुति करता है ॥८॥८॥
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
ਰਾਗੁ ਗਉੜੀ ਬੈਰਾਗਣਿ ਮਹਲਾ ੩ ॥
रागु गउड़ी बैरागणि महला ३ ॥
रागु गउड़ी बैरागणि महला ३ ॥
ਸਤਿਗੁਰ ਤੇ ਜੋ ਮੁਹ ਫੇਰੇ ਤੇ ਵੇਮੁਖ ਬੁਰੇ ਦਿਸੰਨਿ ॥
सतिगुर ते जो मुह फेरे ते वेमुख बुरे दिसंनि ॥
जो इन्सान गुरु से मुँह फेर लेते हैं, ऐसे विमुख इन्सान बड़े बुरे दिखाई देते हैं।
ਅਨਦਿਨੁ ਬਧੇ ਮਾਰੀਅਨਿ ਫਿਰਿ ਵੇਲਾ ਨਾ ਲਹੰਨਿ ॥੧॥
अनदिनु बधे मारीअनि फिरि वेला ना लहंनि ॥१॥
ऐसे व्यक्ति बन्धनों में फँसकर दिन-रात दुख भोगते रहते हैं और फिर उन्हें बन्धनों से बचने का अवसर प्राप्त नहीं होता ॥ १॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਰਾਖਹੁ ਕ੍ਰਿਪਾ ਧਾਰਿ ॥
हरि हरि राखहु क्रिपा धारि ॥
हे प्रभु-परमेश्वर ! कृपा धारण करके हमारी रक्षा करें।
ਸਤਸੰਗਤਿ ਮੇਲਾਇ ਪ੍ਰਭ ਹਰਿ ਹਿਰਦੈ ਹਰਿ ਗੁਣ ਸਾਰਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
सतसंगति मेलाइ प्रभ हरि हिरदै हरि गुण सारि ॥१॥ रहाउ ॥
हे ईश्वर ! मुझे सत्संग में मिला दो, चूंकि मैं अपने मन में प्रभु-परमेश्वर के गुणों को स्मरण करता रहूँ॥ १॥ रहाउ॥
ਸੇ ਭਗਤ ਹਰਿ ਭਾਵਦੇ ਜੋ ਗੁਰਮੁਖਿ ਭਾਇ ਚਲੰਨਿ ॥
से भगत हरि भावदे जो गुरमुखि भाइ चलंनि ॥
भगवान को वही भक्त अच्छे लगते हैं, जो गुरु की इच्छानुसार चलते हैं।
ਆਪੁ ਛੋਡਿ ਸੇਵਾ ਕਰਨਿ ਜੀਵਤ ਮੁਏ ਰਹੰਨਿ ॥੨॥
आपु छोडि सेवा करनि जीवत मुए रहंनि ॥२॥
वे अपना अहंकार त्यागकर प्रभु की सेवा-भक्ति करते हैं और संसार का कर्म करते हुए भी माया के मोह से मृत रहते हैं।॥ २॥
ਜਿਸ ਦਾ ਪਿੰਡੁ ਪਰਾਣ ਹੈ ਤਿਸ ਕੀ ਸਿਰਿ ਕਾਰ ॥
जिस दा पिंडु पराण है तिस की सिरि कार ॥
जिस प्रभु का दिया हुआ यह शरीर और यह प्राण है, उसकी ही सरकार है अर्थात् उसका हुकम सब पर सक्रिय है।
ਓਹੁ ਕਿਉ ਮਨਹੁ ਵਿਸਾਰੀਐ ਹਰਿ ਰਖੀਐ ਹਿਰਦੈ ਧਾਰਿ ॥੩॥
ओहु किउ मनहु विसारीऐ हरि रखीऐ हिरदै धारि ॥३॥
उसको अपने हृदय से किसी भी अवस्था में क्यों विस्मृत करें ? हमें ईश्वर को अपने हृदय से लगाकर रखना चाहिए॥ ३॥
ਨਾਮਿ ਮਿਲਿਐ ਪਤਿ ਪਾਈਐ ਨਾਮਿ ਮੰਨਿਐ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥
नामि मिलिऐ पति पाईऐ नामि मंनिऐ सुखु होइ ॥
यदि नाम प्राप्त हो जाए तो ही मनुष्य को मान-सम्मान मिलता है और नाम में आस्था रखने से उसको आत्मिक सुख मिलता है।
ਸਤਿਗੁਰ ਤੇ ਨਾਮੁ ਪਾਈਐ ਕਰਮਿ ਮਿਲੈ ਪ੍ਰਭੁ ਸੋਇ ॥੪॥
सतिगुर ते नामु पाईऐ करमि मिलै प्रभु सोइ ॥४॥
सतिगुरु से ही नाम प्राप्त होता है। उसकी अपनी कृपा से ही वह प्रभु पाया जाता है॥
ਸਤਿਗੁਰ ਤੇ ਜੋ ਮੁਹੁ ਫੇਰੇ ਓਇ ਭ੍ਰਮਦੇ ਨਾ ਟਿਕੰਨਿ ॥
सतिगुर ते जो मुहु फेरे ओइ भ्रमदे ना टिकंनि ॥
जो व्यक्ति सतिगुरु से मुँह फेर लेते हैं, वह (संसार में) भटकते ही रहते है और उन्हें शांति नहीं मिलती।
ਧਰਤਿ ਅਸਮਾਨੁ ਨ ਝਲਈ ਵਿਚਿ ਵਿਸਟਾ ਪਏ ਪਚੰਨਿ ॥੫॥
धरति असमानु न झलई विचि विसटा पए पचंनि ॥५॥
गुरु से विमुख होने वाले लोगों को धरती एवं गगन भी सहारा नहीं देते। विष्टा में गिरे हुए वह वहाँ गल-सड़ जाते हैं।॥ ५॥
ਇਹੁ ਜਗੁ ਭਰਮਿ ਭੁਲਾਇਆ ਮੋਹ ਠਗਉਲੀ ਪਾਇ ॥
इहु जगु भरमि भुलाइआ मोह ठगउली पाइ ॥
माया ने इस संसार को दुविधा में डालकर मोह की बूटी खिलाकर कुमार्गगामी बना दिया है
ਜਿਨਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਭੇਟਿਆ ਤਿਨ ਨੇੜਿ ਨ ਭਿਟੈ ਮਾਇ ॥੬॥
जिना सतिगुरु भेटिआ तिन नेड़ि न भिटै माइ ॥६॥
लेकिन जिन्हें सतिगुरु जी मिल जाते हैं, माया उनके निकट नहीं आती॥ ६ ॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਨਿ ਸੋ ਸੋਹਣੇ ਹਉਮੈ ਮੈਲੁ ਗਵਾਇ ॥
सतिगुरु सेवनि सो सोहणे हउमै मैलु गवाइ ॥
जो व्यक्ति सतिगुरु की श्रद्धापूर्वक सेवा करते हैं, वह अति सुन्दर हैं। वह अपने अहंकार की मलिनता को दूर फेंक देते हैं।