ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਵੇਪਰਵਾਹੁ ਹੈ ਕਿਤੁ ਖਾਧੈ ਤਿਪਤਾਇ ॥
हरि प्रभु वेपरवाहु है कितु खाधै तिपताइ ॥
प्रभु बे-परवाह है, वह किस तरह तृप्त होता है।
ਸਤਿਗੁਰ ਕੈ ਭਾਣੈ ਜੋ ਚਲੈ ਤਿਪਤਾਸੈ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਇ ॥
सतिगुर कै भाणै जो चलै तिपतासै हरि गुण गाइ ॥
जो सतिगुरु की रज़ानुसार चलता है, गुणगान करता है तो ही प्रभु तृप्त होता है।
ਧਨੁ ਧਨੁ ਕਲਜੁਗਿ ਨਾਨਕਾ ਜਿ ਚਲੇ ਸਤਿਗੁਰ ਭਾਇ ॥੧੨॥
धनु धनु कलजुगि नानका जि चले सतिगुर भाइ ॥१२॥
गुरु नानक कथन करते हैं कि कलियुग में वही व्यक्ति प्रशंसा के पात्र हैं, जो सतिगुरु की रज़ा में चलते हैं।॥ १२ ॥
ਸਤਿਗੁਰੂ ਨ ਸੇਵਿਓ ਸਬਦੁ ਨ ਰਖਿਓ ਉਰ ਧਾਰਿ ॥
सतिगुरू न सेविओ सबदु न रखिओ उर धारि ॥
जो सतगुरु की सेवा नहीं करते, न ही शब्द-प्रभु को अपने दिल में बसाते हैं।
ਧਿਗੁ ਤਿਨਾ ਕਾ ਜੀਵਿਆ ਕਿਤੁ ਆਏ ਸੰਸਾਰਿ ॥
धिगु तिना का जीविआ कितु आए संसारि ॥
ऐसे लोगों का जीना धिक्कार योग्य है, वे संसार में क्योंकर आए हैं
ਗੁਰਮਤੀ ਭਉ ਮਨਿ ਪਵੈ ਤਾਂ ਹਰਿ ਰਸਿ ਲਗੈ ਪਿਆਰਿ ॥
गुरमती भउ मनि पवै तां हरि रसि लगै पिआरि ॥
गुरु की शिक्षा से मन में श्रद्धा उत्पन्न होती है तो हरि से प्रेम लगन लग जाती है।
ਨਾਉ ਮਿਲੈ ਧੁਰਿ ਲਿਖਿਆ ਜਨ ਨਾਨਕ ਪਾਰਿ ਉਤਾਰਿ ॥੧੩॥
नाउ मिलै धुरि लिखिआ जन नानक पारि उतारि ॥१३॥
नानक का कथन है केि जिसके भाग्य में प्रारम्भ से लिखा होता है, उसे ही हरिनाम प्राप्त होता है और वह संसार-सागर से मुक्त हो जाता है।॥ १३॥
ਮਾਇਆ ਮੋਹਿ ਜਗੁ ਭਰਮਿਆ ਘਰੁ ਮੁਸੈ ਖਬਰਿ ਨ ਹੋਇ ॥
माइआ मोहि जगु भरमिआ घरु मुसै खबरि न होइ ॥
दुनिया माया-मोह में भटक रही है, उसका घर लुट रहा है किन्तु उसे कोई खबर नहीं होती।
ਕਾਮ ਕ੍ਰੋਧਿ ਮਨੁ ਹਿਰਿ ਲਇਆ ਮਨਮੁਖ ਅੰਧਾ ਲੋਇ ॥
काम क्रोधि मनु हिरि लइआ मनमुख अंधा लोइ ॥
काम-क्रोध ने मन को चुरा लिया है और मन-मर्जी करने वाला अन्धा बना हुआ है।
ਗਿਆਨ ਖੜਗ ਪੰਚ ਦੂਤ ਸੰਘਾਰੇ ਗੁਰਮਤਿ ਜਾਗੈ ਸੋਇ ॥
गिआन खड़ग पंच दूत संघारे गुरमति जागै सोइ ॥
जो गुरु के उपदेश से सजग होता है, वह ज्ञान की तलवार से पाँच विकारों का अन्त कर देता है।
ਨਾਮ ਰਤਨੁ ਪਰਗਾਸਿਆ ਮਨੁ ਤਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਹੋਇ ॥
नाम रतनु परगासिआ मनु तनु निरमलु होइ ॥
हरिनाम रत्न से जीव के अन्तर्मन में उजाला होता है, इससे मन तन निर्मल हो जाता है।
ਨਾਮਹੀਨ ਨਕਟੇ ਫਿਰਹਿ ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਬਹਿ ਰੋਇ ॥
नामहीन नकटे फिरहि बिनु नावै बहि रोइ ॥
ईश्वर के नाम से विहीन रहने वाले तिरस्कार ही पाते हैं और नाम के बिना बैठकर पछताते हैं।
ਨਾਨਕ ਜੋ ਧੁਰਿ ਕਰਤੈ ਲਿਖਿਆ ਸੁ ਮੇਟਿ ਨ ਸਕੈ ਕੋਇ ॥੧੪॥
नानक जो धुरि करतै लिखिआ सु मेटि न सकै कोइ ॥१४॥
गुरु नानक फुरमाते हैं- विधाता ने जो तकदीर में लिख दिया है, उसे कोई बदल नहीं सकता ॥१४॥
ਗੁਰਮੁਖਾ ਹਰਿ ਧਨੁ ਖਟਿਆ ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਵੀਚਾਰਿ ॥
गुरमुखा हरि धनु खटिआ गुर कै सबदि वीचारि ॥
गुरु के उपदेश का मनन करके गुरुमुख हरिनाम धन का लाभ प्राप्त करते हैं।
ਨਾਮੁ ਪਦਾਰਥੁ ਪਾਇਆ ਅਤੁਟ ਭਰੇ ਭੰਡਾਰ ॥
नामु पदारथु पाइआ अतुट भरे भंडार ॥
नाम पदार्थ पाकर उनके भण्डार भर जाते हैं।
ਹਰਿ ਗੁਣ ਬਾਣੀ ਉਚਰਹਿ ਅੰਤੁ ਨ ਪਾਰਾਵਾਰੁ ॥
हरि गुण बाणी उचरहि अंतु न पारावारु ॥
वे वाणी से परमात्मा की सराहना करते हैं, जिसका कोई अन्त नहीं।
ਨਾਨਕ ਸਭ ਕਾਰਣ ਕਰਤਾ ਕਰੈ ਵੇਖੈ ਸਿਰਜਨਹਾਰੁ ॥੧੫॥
नानक सभ कारण करता करै वेखै सिरजनहारु ॥१५॥
हे नानक ! स्रष्टा प्रभु सब करने-करवाने वाला है, वही सब देखता है॥१५॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਅੰਤਰਿ ਸਹਜੁ ਹੈ ਮਨੁ ਚੜਿਆ ਦਸਵੈ ਆਕਾਸਿ ॥
गुरमुखि अंतरि सहजु है मनु चड़िआ दसवै आकासि ॥
गुरुमुख के अन्तर्मन में शान्ति बनी रहती है और उसका मन दसम द्वार में दाखिल हो जाता है,
ਤਿਥੈ ਊਂਘ ਨ ਭੁਖ ਹੈ ਹਰਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਮੁ ਸੁਖ ਵਾਸੁ ॥
तिथै ऊंघ न भुख है हरि अम्रित नामु सुख वासु ॥
वहाँ पर कोई निद्रा अथवा भूख नहीं और हरिनाम अमृत का सुख रहता है।
ਨਾਨਕ ਦੁਖੁ ਸੁਖੁ ਵਿਆਪਤ ਨਹੀ ਜਿਥੈ ਆਤਮ ਰਾਮ ਪ੍ਰਗਾਸੁ ॥੧੬॥
नानक दुखु सुखु विआपत नही जिथै आतम राम प्रगासु ॥१६॥
गुरु नानक फुरमान करते हैं कि जहाँ सर्वात्म है, वहाँ दुख-सुख का प्रभाव नहीं ॥१६॥
ਕਾਮ ਕ੍ਰੋਧ ਕਾ ਚੋਲੜਾ ਸਭ ਗਲਿ ਆਏ ਪਾਇ ॥
काम क्रोध का चोलड़ा सभ गलि आए पाइ ॥
सब लोग काम-क्रोध का पहनावा धारण करके आते हैं।
ਇਕਿ ਉਪਜਹਿ ਇਕਿ ਬਿਨਸਿ ਜਾਂਹਿ ਹੁਕਮੇ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥
इकि उपजहि इकि बिनसि जांहि हुकमे आवै जाइ ॥
कोई जन्म लेता है तो कोई मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, इस प्रकार ईश्वर के हुक्म से आवागमन बना रहता है।
ਜੰਮਣੁ ਮਰਣੁ ਨ ਚੁਕਈ ਰੰਗੁ ਲਗਾ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ॥
जमणु मरणु न चुकई रंगु लगा दूजै भाइ ॥
लोग द्वैतभाव में लीन रहते हैं, जिस कारण जन्म-मरण का चक्र दूर नहीं होता।
ਬੰਧਨਿ ਬੰਧਿ ਭਵਾਈਅਨੁ ਕਰਣਾ ਕਛੂ ਨ ਜਾਇ ॥੧੭॥
बंधनि बंधि भवाईअनु करणा कछू न जाइ ॥१७॥
जीव संसार के बन्धनों में पड़कर योनि-चक्र में भटकते रहते हैं और उनसे स्वयं कुछ भी किया नहीं जाता (सब परमात्मा की रज़ा में चल रहा है) ॥१७ ॥
ਜਿਨ ਕਉ ਕਿਰਪਾ ਧਾਰੀਅਨੁ ਤਿਨਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮਿਲਿਆ ਆਇ ॥
जिन कउ किरपा धारीअनु तिना सतिगुरु मिलिआ आइ ॥
जिन पर ईश्वर कृपा करता है, उनका सतिगुरु से मिलन हो जाता है।
ਸਤਿਗੁਰਿ ਮਿਲੇ ਉਲਟੀ ਭਈ ਮਰਿ ਜੀਵਿਆ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ॥
सतिगुरि मिले उलटी भई मरि जीविआ सहजि सुभाइ ॥
सतिगुरु को मिलकर उनका जीवन बदल जाता है और सहज स्वाभाविक ही मरजीवा हो जाते हैं।
ਨਾਨਕ ਭਗਤੀ ਰਤਿਆ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮਿ ਸਮਾਇ ॥੧੮॥
नानक भगती रतिआ हरि हरि नामि समाइ ॥१८॥
हे नानक ! वे भक्ति में लीन रहकर प्रभु में समा जाते हैं।॥१८॥
ਮਨਮੁਖ ਚੰਚਲ ਮਤਿ ਹੈ ਅੰਤਰਿ ਬਹੁਤੁ ਚਤੁਰਾਈ ॥
मनमुख चंचल मति है अंतरि बहुतु चतुराई ॥
स्वेच्छाचारी की बुद्धि चंचल है, वह मन में बहुत चतुराई करता है।
ਕੀਤਾ ਕਰਤਿਆ ਬਿਰਥਾ ਗਇਆ ਇਕੁ ਤਿਲੁ ਥਾਇ ਨ ਪਾਈ ॥
कीता करतिआ बिरथा गइआ इकु तिलु थाइ न पाई ॥
उसका किया-कराया सब व्यर्थ हो जाता है और कुछ भी साकार नहीं होता।
ਪੁੰਨ ਦਾਨੁ ਜੋ ਬੀਜਦੇ ਸਭ ਧਰਮ ਰਾਇ ਕੈ ਜਾਈ ॥
पुंन दानु जो बीजदे सभ धरम राइ कै जाई ॥
जो दान पुण्य करते हैं, यमराज के समक्ष पड़ताल होती है।
ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰੂ ਜਮਕਾਲੁ ਨ ਛੋਡਈ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਖੁਆਈ ॥
बिनु सतिगुरू जमकालु न छोडई दूजै भाइ खुआई ॥
सतिगुरु के बिना यमराज नहीं छोड़ता और वह द्वैतभाव में दुखी होता है।
ਜੋਬਨੁ ਜਾਂਦਾ ਨਦਰਿ ਨ ਆਵਈ ਜਰੁ ਪਹੁਚੈ ਮਰਿ ਜਾਈ ॥
जोबनु जांदा नदरि न आवई जरु पहुचै मरि जाई ॥
यौवन गुजरते मालूम नहीं होता, बुढ़ापा आ जाता है और मौत को प्यारा हो जाता है।
ਪੁਤੁ ਕਲਤੁ ਮੋਹੁ ਹੇਤੁ ਹੈ ਅੰਤਿ ਬੇਲੀ ਕੋ ਨ ਸਖਾਈ ॥
पुतु कलतु मोहु हेतु है अंति बेली को न सखाई ॥
पुत्र-पत्नी से मोह प्रेम बना हुआ था लेकिन अंतकाल कोई साथी नहीं बनता।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵੇ ਸੋ ਸੁਖੁ ਪਾਏ ਨਾਉ ਵਸੈ ਮਨਿ ਆਈ ॥
सतिगुरु सेवे सो सुखु पाए नाउ वसै मनि आई ॥
सतिगुरु की सेवा से ही सुख प्राप्त होता है और मन में हरिनाम अवस्थित हो जाता है।
ਨਾਨਕ ਸੇ ਵਡੇ ਵਡਭਾਗੀ ਜਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮਿ ਸਮਾਈ ॥੧੯॥
नानक से वडे वडभागी जि गुरमुखि नामि समाई ॥१९॥
हे नानक ! वे लोग बहुत भाग्यशाली हैं, जो गुरु के द्वारा नाम में लीन रहते हैं।॥१६॥
ਮਨਮੁਖ ਨਾਮੁ ਨ ਚੇਤਨੀ ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਦੁਖ ਰੋਇ ॥
मनमुख नामु न चेतनी बिनु नावै दुख रोइ ॥
स्वेच्छाचारी परमात्मा के नाम को याद नहीं करता और नाम से वंचित होकर दुखी होता है।