ਹਰਿ ਚੇਤਹੁ ਅੰਤਿ ਹੋਇ ਸਖਾਈ ॥
हरि चेतहु अंति होइ सखाई ॥
भगवान का भजन करो, जो अंतिमकाल तेरा सहायक बनेगा।
ਹਰਿ ਅਗਮੁ ਅਗੋਚਰੁ ਅਨਾਥੁ ਅਜੋਨੀ ਸਤਿਗੁਰ ਕੈ ਭਾਇ ਪਾਵਣਿਆ ॥੧॥
हरि अगमु अगोचरु अनाथु अजोनी सतिगुर कै भाइ पावणिआ ॥१॥
भगवान अगम्य, अगोचर एवं अयोनि है, जिसका कोई भी स्वामी नहीं। ऐसे प्रभु को सतिगुरु के प्रेम द्वारा ही पाया जाता है ॥१॥
ਹਉ ਵਾਰੀ ਜੀਉ ਵਾਰੀ ਆਪੁ ਨਿਵਾਰਣਿਆ ॥
हउ वारी जीउ वारी आपु निवारणिआ ॥
मैं उन पर तन-मन से न्यौछावर हूँ, जो अपने अहंत्व को दूर कर देते हैं।
ਆਪੁ ਗਵਾਏ ਤਾ ਹਰਿ ਪਾਏ ਹਰਿ ਸਿਉ ਸਹਜਿ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
आपु गवाए ता हरि पाए हरि सिउ सहजि समावणिआ ॥१॥ रहाउ ॥
जो व्यक्ति अपने अहंत्व को छोड़ देता है, वह भगवान को पा लेता है और सहज ही भगवान में समा जाता है ॥१॥ रहाउ ॥
ਪੂਰਬਿ ਲਿਖਿਆ ਸੁ ਕਰਮੁ ਕਮਾਇਆ ॥
पूरबि लिखिआ सु करमु कमाइआ ॥
जीव वही कर्म करता है, जो उसकी किस्मत में पूर्व-जन्म के कर्मों द्वारा लिखा होता है।
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸੇਵਿ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ॥
सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाइआ ॥
सतगुरु की सेवा से वह सदा सुख प्राप्त करता है।
ਬਿਨੁ ਭਾਗਾ ਗੁਰੁ ਪਾਈਐ ਨਾਹੀ ਸਬਦੈ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਵਣਿਆ ॥੨॥
बिनु भागा गुरु पाईऐ नाही सबदै मेलि मिलावणिआ ॥२॥
भाग्य के बिना मनुष्य को गुरु नहीं मिलता। गुरु नाम द्वारा ही जीव को परमेश्वर से मिलाता है॥२॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਅਲਿਪਤੁ ਰਹੈ ਸੰਸਾਰੇ ॥
गुरमुखि अलिपतु रहै संसारे ॥
गुरमुख इस संसार में निर्लिप्त होकर रहता है।
ਗੁਰ ਕੈ ਤਕੀਐ ਨਾਮਿ ਅਧਾਰੇ ॥
गुर कै तकीऐ नामि अधारे ॥
उसको गुरु का आश्रय एवं नाम का सहारा है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਜੋਰੁ ਕਰੇ ਕਿਆ ਤਿਸ ਨੋ ਆਪੇ ਖਪਿ ਦੁਖੁ ਪਾਵਣਿਆ ॥੩॥
गुरमुखि जोरु करे किआ तिस नो आपे खपि दुखु पावणिआ ॥३॥
जो गुरमुख है उसके साथ कौन अन्याय कर सकता है? दुष्ट अपने आप ही मर मिटता है और कष्ट झेलता है॥३॥
ਮਨਮੁਖਿ ਅੰਧੇ ਸੁਧਿ ਨ ਕਾਈ ॥
मनमुखि अंधे सुधि न काई ॥
ज्ञानहीन मनमुख को कोई ज्ञान नहीं होता।
ਆਤਮ ਘਾਤੀ ਹੈ ਜਗਤ ਕਸਾਈ ॥
आतम घाती है जगत कसाई ॥
वह आत्मघाती और संसार का जल्लाद है।
ਨਿੰਦਾ ਕਰਿ ਕਰਿ ਬਹੁ ਭਾਰੁ ਉਠਾਵੈ ਬਿਨੁ ਮਜੂਰੀ ਭਾਰੁ ਪਹੁਚਾਵਣਿਆ ॥੪॥
निंदा करि करि बहु भारु उठावै बिनु मजूरी भारु पहुचावणिआ ॥४॥
दूसरों की निंदा करके वह पापों का बोझ उठाता है। वह उस मजदूर जैसा है जो बिना मजदूरी लिए दूसरों का भार उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाता है॥४॥
ਇਹੁ ਜਗੁ ਵਾੜੀ ਮੇਰਾ ਪ੍ਰਭੁ ਮਾਲੀ ॥
इहु जगु वाड़ी मेरा प्रभु माली ॥
यह संसार एक उपवन है और मेरा प्रभु इसका बागबां है।
ਸਦਾ ਸਮਾਲੇ ਕੋ ਨਾਹੀ ਖਾਲੀ ॥
सदा समाले कोनाही खाली ॥
वह सदा ही इसकी रक्षा करता है। इसका कोई भाग उसकी देखरेख से अधूरा नहीं हुआ।
ਜੇਹੀ ਵਾਸਨਾ ਪਾਏ ਤੇਹੀ ਵਰਤੈ ਵਾਸੂ ਵਾਸੁ ਜਣਾਵਣਿਆ ॥੫॥
जेही वासना पाए तेही वरतै वासू वासु जणावणिआ ॥५॥
जिस तरह की महक ईश्वर पुष्प में डालता है, वह वैसी ही उसमें प्रबल होती है। सुगंधित पुष्प अपनी सुगंध से जाना जाता है॥५॥
ਮਨਮੁਖੁ ਰੋਗੀ ਹੈ ਸੰਸਾਰਾ ॥
मनमुखु रोगी है संसारा ॥
मनमुख प्राणी इस संसार में रोगग्रस्त रोगी है।
ਸੁਖਦਾਤਾ ਵਿਸਰਿਆ ਅਗਮ ਅਪਾਰਾ ॥
सुखदाता विसरिआ अगम अपारा ॥
उसने सुखदाता अगम्य व अनन्त प्रभु को विस्मृत कर दिया है।
ਦੁਖੀਏ ਨਿਤਿ ਫਿਰਹਿ ਬਿਲਲਾਦੇ ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਸਾਂਤਿ ਨ ਪਾਵਣਿਆ ॥੬॥
दुखीए निति फिरहि बिललादे बिनु गुर सांति न पावणिआ ॥६॥
मनमुख हमेशा ही दुखी होकर रोते-चिल्लाते रहते हैं। गुरु के बिना उनको शांति प्राप्त नहीं होती।॥६॥
ਜਿਨਿ ਕੀਤੇ ਸੋਈ ਬਿਧਿ ਜਾਣੈ ॥
जिनि कीते सोई बिधि जाणै ॥
जिस प्रभु ने उनकी सृजना की है, वह उनकी दशा को समझता है।
ਆਪਿ ਕਰੇ ਤਾ ਹੁਕਮਿ ਪਛਾਣੈ ॥
आपि करे ता हुकमि पछाणै ॥
यदि प्रभु स्वयं दया करे, तब मनुष्य उसके हुक्म की पहचान करता है।
ਜੇਹਾ ਅੰਦਰਿ ਪਾਏ ਤੇਹਾ ਵਰਤੈ ਆਪੇ ਬਾਹਰਿ ਪਾਵਣਿਆ ॥੭॥
जेहा अंदरि पाए तेहा वरतै आपे बाहरि पावणिआ ॥७॥
जिस तरह की बुद्धि ईश्वर प्राणी में डालता है, वैसे ही प्राणी कार्यरत होता है। परमात्मा स्वयं ही प्राणी को बाहर जगत् में जीवन-मार्ग पर लगाता है ॥७॥
ਤਿਸੁ ਬਾਝਹੁ ਸਚੇ ਮੈ ਹੋਰੁ ਨ ਕੋਈ ॥
तिसु बाझहु सचे मै होरु न कोई ॥
उस सत्यस्वरूप परमेश्वर के अलावा मैं अन्य किसी को भी नहीं जानता।
ਜਿਸੁ ਲਾਇ ਲਏ ਸੋ ਨਿਰਮਲੁ ਹੋਈ ॥
जिसु लाइ लए सो निरमलु होई ॥
जिसको प्रभु अपनी भक्ति में लगाता है वह पवित्र हो जाता है।
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਵਸੈ ਘਟ ਅੰਤਰਿ ਜਿਸੁ ਦੇਵੈ ਸੋ ਪਾਵਣਿਆ ॥੮॥੧੪॥੧੫॥
नानक नामु वसै घट अंतरि जिसु देवै सो पावणिआ ॥८॥१४॥१५॥
हे नानक ! परमेश्वर का नाम मनुष्य के हृदय में निवास करता है। लेकिन जिसे प्रभु अपना नाम देता हैं, वही इसको प्राप्त करता है ॥८॥१४॥१५॥
ਮਾਝ ਮਹਲਾ ੩ ॥
माझ महला ३ ॥
माझ महला ३ ॥
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਮੁ ਮੰਨਿ ਵਸਾਏ ॥
अम्रित नामु मंनि वसाए ॥
जो व्यक्ति अमृत-नाम को अपने हृदय में बसा लेता है,
ਹਉਮੈ ਮੇਰਾ ਸਭੁ ਦੁਖੁ ਗਵਾਏ ॥
हउमै मेरा सभु दुखु गवाए ॥
वह ‘मैं’ मेरा कहने वाले अहंत्व एवं समस्त दुःखों को नाश कर देता है।
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਬਾਣੀ ਸਦਾ ਸਲਾਹੇ ਅੰਮ੍ਰਿਤਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪਾਵਣਿਆ ॥੧॥
अम्रित बाणी सदा सलाहे अम्रिति अम्रितु पावणिआ ॥१॥
वह अमृत-वाणी द्वारा सदैव ही भगवान की महिमा-स्तुति करता रहता है और अमृत-वाणी द्वारा अमृत-नाम को पा लेता है॥१॥
ਹਉ ਵਾਰੀ ਜੀਉ ਵਾਰੀ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਬਾਣੀ ਮੰਨਿ ਵਸਾਵਣਿਆ ॥
हउ वारी जीउ वारी अम्रित बाणी मंनि वसावणिआ ॥
मैं उन पर तन-मन से न्यौछावर हूँ, जो अमृत वाणी को अपने हृदय में बसा लेते हैं।
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਬਾਣੀ ਮੰਨਿ ਵਸਾਏ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਨਾਮੁ ਧਿਆਵਣਿਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
अम्रित बाणी मंनि वसाए अम्रितु नामु धिआवणिआ ॥१॥ रहाउ ॥
वह अमृत वाणी को अपने हृदय में बसाकर अमृत नाम का ध्यान करता रहता है।॥१॥ रहाउ ॥
ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਬੋਲੈ ਸਦਾ ਮੁਖਿ ਵੈਣੀ ॥
अम्रितु बोलै सदा मुखि वैणी ॥
वह अपने मुँह से वचनों द्वारा हमेशा ही अमृत-नाम बोलता रहता है
ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਵੇਖੈ ਪਰਖੈ ਸਦਾ ਨੈਣੀ ॥
अम्रितु वेखै परखै सदा नैणी ॥
और अपनी आँखों से अमृत रूप परमात्मा को सर्वव्यापक देखता है एवं सत्य की परख करता रहता है।
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਕਥਾ ਕਹੈ ਸਦਾ ਦਿਨੁ ਰਾਤੀ ਅਵਰਾ ਆਖਿ ਸੁਨਾਵਣਿਆ ॥੨॥
अम्रित कथा कहै सदा दिनु राती अवरा आखि सुनावणिआ ॥२॥
वह सदैव ही दिन-रात हरि की अमृत कथा करता है तथा दूसरों को भी यह कथा बोलकर सुनाता है॥२॥
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਰੰਗਿ ਰਤਾ ਲਿਵ ਲਾਏ ॥
अम्रित रंगि रता लिव लाए ॥
अमृत-नाम के प्रेम में मग्न हुआ व्यक्ति भगवान में सुरति लगाता है
ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਪਾਏ ॥
अम्रितु गुर परसादी पाए ॥
और यह अमृत-नाम उसे गुरु की कृपा से ही मिलता है।
ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਰਸਨਾ ਬੋਲੈ ਦਿਨੁ ਰਾਤੀ ਮਨਿ ਤਨਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਆਵਣਿਆ ॥੩॥
अम्रितु रसना बोलै दिनु राती मनि तनि अम्रितु पीआवणिआ ॥३॥
वह दिन-रात नाम-अमृत को अपनी रसना से बोलता रहता है और भगवान उसे मन एवं तन द्वारा नाम-अमृत ही पान करवाता है॥३॥
ਸੋ ਕਿਛੁ ਕਰੈ ਜੁ ਚਿਤਿ ਨ ਹੋਈ ॥
सो किछु करै जु चिति न होई ॥
भगवान वही कुछ करता है, जो मनुष्य की कल्पना में भी नहीं होता।
ਤਿਸ ਦਾ ਹੁਕਮੁ ਮੇਟਿ ਨ ਸਕੈ ਕੋਈ ॥
तिस दा हुकमु मेटि न सकै कोई ॥
उसके हुक्म को कोई भी मिटा नहीं सकता।
ਹੁਕਮੇ ਵਰਤੈ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਬਾਣੀ ਹੁਕਮੇ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਆਵਣਿਆ ॥੪॥
हुकमे वरतै अम्रित बाणी हुकमे अम्रितु पीआवणिआ ॥४॥
भगवान के हुक्म से ही गुरु के माध्यम से जीवों को अमृत वाणी का पान करवाया जाता है। भगवान अपने हुक्म से ही मनुष्य को नाम-अमृत का पान करवाता है॥४॥
ਅਜਬ ਕੰਮ ਕਰਤੇ ਹਰਿ ਕੇਰੇ ॥
अजब कम करते हरि केरे ॥
हे सृजनहार परमेश्वर ! तेरे कौतुक बड़े अदभुत हैं।
ਇਹੁ ਮਨੁ ਭੂਲਾ ਜਾਂਦਾ ਫੇਰੇ ॥
इहु मनु भूला जांदा फेरे ॥
जब यह मन भटक जाता है तो तू ही उसे सदमार्ग लगाता है।
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਬਾਣੀ ਸਿਉ ਚਿਤੁ ਲਾਏ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਸਬਦਿ ਵਜਾਵਣਿਆ ॥੫॥
अम्रित बाणी सिउ चितु लाए अम्रित सबदि वजावणिआ ॥५॥
जब मनुष्य अमृत-वाणी में अपना चित्त लगाता है तो तू उसके अन्तर्मन में अमृत अनहद शब्द बजा देता है॥५॥