ਸਚ ਬਿਨੁ ਭਵਜਲੁ ਜਾਇ ਨ ਤਰਿਆ ॥
सच बिनु भवजलु जाइ न तरिआ ॥
सत्य के बिना जगत्-सागर से पार नहीं हुआ जा सकता,
ਏਹੁ ਸਮੁੰਦੁ ਅਥਾਹੁ ਮਹਾ ਬਿਖੁ ਭਰਿਆ ॥
एहु समुंदु अथाहु महा बिखु भरिआ ॥
यह अथाह समुद्र है, जो महा विष से भरा हुआ है।
ਰਹੈ ਅਤੀਤੁ ਗੁਰਮਤਿ ਲੇ ਊਪਰਿ ਹਰਿ ਨਿਰਭਉ ਕੈ ਘਰਿ ਪਾਇਆ ॥੬॥
रहै अतीतु गुरमति ले ऊपरि हरि निरभउ कै घरि पाइआ ॥६॥
जो गुरु की शिक्षा लेकर वासनाओं से अलिप्त रहता है, वह निर्भय प्रभु के घर में स्थान पा लेता है। ६॥
ਝੂਠੀ ਜਗ ਹਿਤ ਕੀ ਚਤੁਰਾਈ ॥
झूठी जग हित की चतुराई ॥
दुनिया के मोह की चतुराई झूठी है,
ਬਿਲਮ ਨ ਲਾਗੈ ਆਵੈ ਜਾਈ ॥
बिलम न लागै आवै जाई ॥
इससे जन्म-मरण में कोई देरी नहीं लगती।
ਨਾਮੁ ਵਿਸਾਰਿ ਚਲਹਿ ਅਭਿਮਾਨੀ ਉਪਜੈ ਬਿਨਸਿ ਖਪਾਇਆ ॥੭॥
नामु विसारि चलहि अभिमानी उपजै बिनसि खपाइआ ॥७॥
अभिमानी आदमी नाम को विस्मृत करके जग से चल देते हैं, जिसके कारण जन्म-मरण के चक्र में दुखी होते हैं।७॥
ਉਪਜਹਿ ਬਿਨਸਹਿ ਬੰਧਨ ਬੰਧੇ ॥
उपजहि बिनसहि बंधन बंधे ॥
वे जन्मते-मरते हैं और बन्धनों में ही फंसे रहते हैं।
ਹਉਮੈ ਮਾਇਆ ਕੇ ਗਲਿ ਫੰਧੇ ॥
हउमै माइआ के गलि फंधे ॥
उनके गले में अहम् और मोह-माया का फंदा पड़ा रहता है।
ਜਿਸੁ ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਨਾਹੀ ਮਤਿ ਗੁਰਮਤਿ ਸੋ ਜਮ ਪੁਰਿ ਬੰਧਿ ਚਲਾਇਆ ॥੮॥
जिसु राम नामु नाही मति गुरमति सो जम पुरि बंधि चलाइआ ॥८॥
जिसने गुरु मतानुसार राम नाम को नहीं बसाया, उसे बाँधकर यमपुरी में भेज दिया गया है॥ ८॥
ਗੁਰ ਬਿਨੁ ਮੋਖ ਮੁਕਤਿ ਕਿਉ ਪਾਈਐ ॥
गुर बिनु मोख मुकति किउ पाईऐ ॥
गुरु के बिना मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकता है और
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਕਿਉ ਧਿਆਈਐ ॥
बिनु गुर राम नामु किउ धिआईऐ ॥
गुरु बिन राम नाम का मनन कैसे किया जा सकता है।
ਗੁਰਮਤਿ ਲੇਹੁ ਤਰਹੁ ਭਵ ਦੁਤਰੁ ਮੁਕਤਿ ਭਏ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ॥੯॥
गुरमति लेहु तरहु भव दुतरु मुकति भए सुखु पाइआ ॥९॥
गुरुमत को ग्रहण करके दुस्तर भवसागर से पार हो जाओ, जो मुक्ति प्राप्त कर गए हैं, उन्होंने सुख पा लिया है॥ ९॥
ਗੁਰਮਤਿ ਕ੍ਰਿਸਨਿ ਗੋਵਰਧਨ ਧਾਰੇ ॥
गुरमति क्रिसनि गोवरधन धारे ॥
गुरु-मतानुसार श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को ऊँगली पर धारण कर लिया था और
ਗੁਰਮਤਿ ਸਾਇਰਿ ਪਾਹਣ ਤਾਰੇ ॥
गुरमति साइरि पाहण तारे ॥
श्रीराम ने समुद्र पर पत्थर तैरा दिए थे।
ਗੁਰਮਤਿ ਲੇਹੁ ਪਰਮ ਪਦੁ ਪਾਈਐ ਨਾਨਕ ਗੁਰਿ ਭਰਮੁ ਚੁਕਾਇਆ ॥੧੦॥
गुरमति लेहु परम पदु पाईऐ नानक गुरि भरमु चुकाइआ ॥१०॥
गुरु की मत ग्रहण करने से परमपद प्राप्त होता है। हे नानक ! गुरु ही भ्रम मिटाने वाला है॥ १०॥
ਗੁਰਮਤਿ ਲੇਹੁ ਤਰਹੁ ਸਚੁ ਤਾਰੀ ॥
गुरमति लेहु तरहु सचु तारी ॥
गुरु की शिक्षा प्राप्त करो और सत्य द्वारा भवसागर से पार हो जाओ।
ਆਤਮ ਚੀਨਹੁ ਰਿਦੈ ਮੁਰਾਰੀ ॥
आतम चीनहु रिदै मुरारी ॥
आत्मा एवं हृदय में ईश्वर को पहचान लो।
ਜਮ ਕੇ ਫਾਹੇ ਕਾਟਹਿ ਹਰਿ ਜਪਿ ਅਕੁਲ ਨਿਰੰਜਨੁ ਪਾਇਆ ॥੧੧॥
जम के फाहे काटहि हरि जपि अकुल निरंजनु पाइआ ॥११॥
परमात्मा का जाप करने से यम के फंदे कट जाते हैं और मायातीत की प्राप्ति हो जाती है॥ ११॥
ਗੁਰਮਤਿ ਪੰਚ ਸਖੇ ਗੁਰ ਭਾਈ ॥
गुरमति पंच सखे गुर भाई ॥
गुरुमत द्वारा ही संत-मित्र एवं गुरुभाई का परस्पर संबंध होता है।
ਗੁਰਮਤਿ ਅਗਨਿ ਨਿਵਾਰਿ ਸਮਾਈ ॥
गुरमति अगनि निवारि समाई ॥
गुरु की मति तृष्णाग्नि को निवृत कर देती है।
ਮਨਿ ਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਜਪਹੁ ਜਗਜੀਵਨ ਰਿਦ ਅੰਤਰਿ ਅਲਖੁ ਲਖਾਇਆ ॥੧੨॥
मनि मुखि नामु जपहु जगजीवन रिद अंतरि अलखु लखाइआ ॥१२॥
अपने मन एवं मुख से जीवनदाता ईश्वर का नाम जपो; इस तरह ह्रदय में ही अदृष्ट प्रभु के दर्शन हो जाते हैं। १२॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੂਝੈ ਸਬਦਿ ਪਤੀਜੈ ॥
गुरमुखि बूझै सबदि पतीजै ॥
गुरुमुख इस तथ्य को बूझ लेता है और नाम द्वारा संतुष्ट हो जाता है,
ਉਸਤਤਿ ਨਿੰਦਾ ਕਿਸ ਕੀ ਕੀਜੈ ॥
उसतति निंदा किस की कीजै ॥
फिर किसकी प्रशंसा एवं निंदा की जाए।
ਚੀਨਹੁ ਆਪੁ ਜਪਹੁ ਜਗਦੀਸਰੁ ਹਰਿ ਜਗੰਨਾਥੁ ਮਨਿ ਭਾਇਆ ॥੧੩॥
चीनहु आपु जपहु जगदीसरु हरि जगंनाथु मनि भाइआ ॥१३॥
अपना आप पहचानो, जगदीश्वर का नाम जपो, संसार का स्वामी हरि ही मन को माया है॥ १३॥
ਜੋ ਬ੍ਰਹਮੰਡਿ ਖੰਡਿ ਸੋ ਜਾਣਹੁ ॥
जो ब्रहमंडि खंडि सो जाणहु ॥
जो खण्ड-ब्रह्माण्ड में समाया हुआ है, उसे जानो।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਬੂਝਹੁ ਸਬਦਿ ਪਛਾਣਹੁ ॥
गुरमुखि बूझहु सबदि पछाणहु ॥
गुरु के सान्निध्य में सत्य को बूझो, शब्द की पहचान करो।
ਘਟਿ ਘਟਿ ਭੋਗੇ ਭੋਗਣਹਾਰਾ ਰਹੈ ਅਤੀਤੁ ਸਬਾਇਆ ॥੧੪॥
घटि घटि भोगे भोगणहारा रहै अतीतु सबाइआ ॥१४॥
वह भोगनेवाला ईश्वर घट-घट (प्रत्येक शरीर) में व्याप्त होकर सब पदार्थ भोग रहा है, लेकिन फिर भी सबसे अलिप्त रहता है॥ १४॥
ਗੁਰਮਤਿ ਬੋਲਹੁ ਹਰਿ ਜਸੁ ਸੂਚਾ ॥
गुरमति बोलहु हरि जसु सूचा ॥
गुरु-मतानुसार पावन हरि-यश बोलो,
ਗੁਰਮਤਿ ਆਖੀ ਦੇਖਹੁ ਊਚਾ ॥
गुरमति आखी देखहु ऊचा ॥
गुरु-मतानुसार आँखों से प्रभु को देखो।
ਸ੍ਰਵਣੀ ਨਾਮੁ ਸੁਣੈ ਹਰਿ ਬਾਣੀ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਰੰਗਿ ਰੰਗਾਇਆ ॥੧੫॥੩॥੨੦॥
स्रवणी नामु सुणै हरि बाणी नानक हरि रंगि रंगाइआ ॥१५॥३॥२०॥
हे नानक ! जो कानों से हरि-नाम एवं वाणी सुनता है, वह उसके प्रेम-रंग में ही रंग गया है॥ १५॥ ३॥ २०॥
ਮਾਰੂ ਮਹਲਾ ੧ ॥
मारू महला १ ॥
मारू महला १॥
ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਪਰਹਰੁ ਪਰ ਨਿੰਦਾ ॥
कामु क्रोधु परहरु पर निंदा ॥
हे मानव जीवो ! काम, क्रोध एवं पराई निंदा को छोड़ दो;
ਲਬੁ ਲੋਭੁ ਤਜਿ ਹੋਹੁ ਨਿਚਿੰਦਾ ॥
लबु लोभु तजि होहु निचिंदा ॥
लालच, लोभ को तज कर निश्चिन्त हो जाओ।
ਭ੍ਰਮ ਕਾ ਸੰਗਲੁ ਤੋੜਿ ਨਿਰਾਲਾ ਹਰਿ ਅੰਤਰਿ ਹਰਿ ਰਸੁ ਪਾਇਆ ॥੧॥
भ्रम का संगलु तोड़ि निराला हरि अंतरि हरि रसु पाइआ ॥१॥
जो भ्रम की जंजीर तोड़कर निर्लिप्त हो गया है, उसने अन्तर्मन में ही हरि-रस पा लिया है॥ १॥
ਨਿਸਿ ਦਾਮਨਿ ਜਿਉ ਚਮਕਿ ਚੰਦਾਇਣੁ ਦੇਖੈ ॥
निसि दामनि जिउ चमकि चंदाइणु देखै ॥
जैसे रात्रिकाल कोई बिजली की चमक जैसा प्रकाश देखता है,
ਅਹਿਨਿਸਿ ਜੋਤਿ ਨਿਰੰਤਰਿ ਪੇਖੈ ॥
अहिनिसि जोति निरंतरि पेखै ॥
वैसे ही में निशदिन प्रभु-ज्योति को निरंतर देखता हूँ।
ਆਨੰਦ ਰੂਪੁ ਅਨੂਪੁ ਸਰੂਪਾ ਗੁਰਿ ਪੂਰੈ ਦੇਖਾਇਆ ॥੨॥
आनंद रूपु अनूपु सरूपा गुरि पूरै देखाइआ ॥२॥
पूर्ण गुरु ने आनंद-स्वरूप एवं अनुपम स्वरूप प्रभु के दर्शन करवाए हैं।॥ २॥
ਸਤਿਗੁਰ ਮਿਲਹੁ ਆਪੇ ਪ੍ਰਭੁ ਤਾਰੇ ॥
सतिगुर मिलहु आपे प्रभु तारे ॥
सतगुरु से साक्षात्कार होने पर प्रभु स्वयं ही जगत्-सागर से पार उतार देता है।
ਸਸਿ ਘਰਿ ਸੂਰੁ ਦੀਪਕੁ ਗੈਣਾਰੇ ॥
ससि घरि सूरु दीपकु गैणारे ॥
हृदय रूपी घर में यूं आलोक हो जाता है, जैसे आकाश में दीपक रूपी सूर्योदय होता है।
ਦੇਖਿ ਅਦਿਸਟੁ ਰਹਹੁ ਲਿਵ ਲਾਗੀ ਸਭੁ ਤ੍ਰਿਭਵਣਿ ਬ੍ਰਹਮੁ ਸਬਾਇਆ ॥੩॥
देखि अदिसटु रहहु लिव लागी सभु त्रिभवणि ब्रहमु सबाइआ ॥३॥
उस अदृष्ट ईश्वर को सर्वत्र देखकर उसमें लगन लगाओ, तीनों लोकों में ब्रह्म का ही प्रसार है॥ ३॥
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਰਸੁ ਪਾਏ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਭਉ ਜਾਏ ॥
अम्रित रसु पाए त्रिसना भउ जाए ॥
हरि-नाम रूपी अमृत-रस को पाने से तृष्णा एवं भय का निवारण हो जाता है।
ਅਨਭਉ ਪਦੁ ਪਾਵੈ ਆਪੁ ਗਵਾਏ ॥
अनभउ पदु पावै आपु गवाए ॥
जो अहम् को मिटा देता है, उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है।
ਊਚੀ ਪਦਵੀ ਊਚੋ ਊਚਾ ਨਿਰਮਲ ਸਬਦੁ ਕਮਾਇਆ ॥੪॥
ऊची पदवी ऊचो ऊचा निरमल सबदु कमाइआ ॥४॥
जिसने निर्मल शब्द की साधना की है, उसने सर्वोच्च पदवी पा ली है और वह सर्वश्रेष्ठ बन गया है॥ ४॥
ਅਦ੍ਰਿਸਟ ਅਗੋਚਰੁ ਨਾਮੁ ਅਪਾਰਾ ॥
अद्रिसट अगोचरु नामु अपारा ॥
ईश्वर का नाम अदृष्ट एवं इन्द्रियातीत है और