ਸਚੈ ਊਪਰਿ ਅਵਰ ਨ ਦੀਸੈ ਸਾਚੇ ਕੀਮਤਿ ਪਾਈ ਹੇ ॥੮॥
सचै ऊपरि अवर न दीसै साचे कीमति पाई हे ॥८॥
उस परमसत्य से ऊँचा कोई नजर नहीं आता, उसने स्वयं ही सत्य की महिमा को जाना है ॥८॥
ਐਥੈ ਗੋਇਲੜਾ ਦਿਨ ਚਾਰੇ ॥
ऐथै गोइलड़ा दिन चारे ॥
यहाँ जीव चार दिन ही आता है,
ਖੇਲੁ ਤਮਾਸਾ ਧੁੰਧੂਕਾਰੇ ॥
खेलु तमासा धुंधूकारे ॥
यह जग खेल-तमाशा है और जीव अज्ञानता के घोर अँधेरे में रहता है।
ਬਾਜੀ ਖੇਲਿ ਗਏ ਬਾਜੀਗਰ ਜਿਉ ਨਿਸਿ ਸੁਪਨੈ ਭਖਲਾਈ ਹੇ ॥੯॥
बाजी खेलि गए बाजीगर जिउ निसि सुपनै भखलाई हे ॥९॥
जैसे कोई सपने में बड़बड़ाता है, वैसे ही जीव रूपी बाजीगर अपनी जीवन-बाजी खेलकर चले गए हैं॥ ६॥
ਤਿਨ ਕਉ ਤਖਤਿ ਮਿਲੀ ਵਡਿਆਈ ॥
तिन कउ तखति मिली वडिआई ॥
उन्हें ही सत्य के सिंहासन पर बड़ाई मिली है
ਨਿਰਭਉ ਮਨਿ ਵਸਿਆ ਲਿਵ ਲਾਈ ॥
निरभउ मनि वसिआ लिव लाई ॥
जिन्होंने परमात्मा को मन में बसाया है, उसमें लगन लगाई है, ।
ਖੰਡੀ ਬ੍ਰਹਮੰਡੀ ਪਾਤਾਲੀ ਪੁਰੀਈ ਤ੍ਰਿਭਵਣ ਤਾੜੀ ਲਾਈ ਹੇ ॥੧੦॥
खंडी ब्रहमंडी पाताली पुरीई त्रिभवण ताड़ी लाई हे ॥१०॥
खण्ड-ब्रह्माण्ड, पाताल, चौदह पुरियों एवं तीनों लोकों में रहने वाले जीवों ने सत्य में ही समाधि लगाई है॥ १०॥
ਸਾਚੀ ਨਗਰੀ ਤਖਤੁ ਸਚਾਵਾ ॥
साची नगरी तखतु सचावा ॥
निरंकार की सचखण्ड रूपी नगरी सत्य है, उसका सिंहासन सदा अटल है।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਾਚੁ ਮਿਲੈ ਸੁਖੁ ਪਾਵਾ ॥
गुरमुखि साचु मिलै सुखु पावा ॥
जो गुरुमुख सत्य को पा लेता है, उसे सुख हासिल हो जाता है।
ਸਾਚੇ ਸਾਚੈ ਤਖਤਿ ਵਡਾਈ ਹਉਮੈ ਗਣਤ ਗਵਾਈ ਹੇ ॥੧੧॥
साचे साचै तखति वडाई हउमै गणत गवाई हे ॥११॥
जिसे सत्य के सिंहासन पर बड़ाई मिली है, उसने अभिमान को मिटा दिया है॥ ११॥
ਗਣਤ ਗਣੀਐ ਸਹਸਾ ਜੀਐ ॥
गणत गणीऐ सहसा जीऐ ॥
गणना करने वाला संशय में ही जीता रहता है,
ਕਿਉ ਸੁਖੁ ਪਾਵੈ ਦੂਐ ਤੀਐ ॥
किउ सुखु पावै दूऐ तीऐ ॥
द्वैतभाव व भ्रम में सुख कैसे प्राप्त हो सकता है।
ਨਿਰਮਲੁ ਏਕੁ ਨਿਰੰਜਨੁ ਦਾਤਾ ਗੁਰ ਪੂਰੇ ਤੇ ਪਤਿ ਪਾਈ ਹੇ ॥੧੨॥
निरमलु एकु निरंजनु दाता गुर पूरे ते पति पाई हे ॥१२॥
देने वाला मायातीत एक परमात्मा ही निर्मल है और पूर्ण गुरु की सेवा से ही शोमा हासिल होती है॥ १२॥
ਜੁਗਿ ਜੁਗਿ ਵਿਰਲੀ ਗੁਰਮੁਖਿ ਜਾਤਾ ॥
जुगि जुगि विरली गुरमुखि जाता ॥
युग-युगान्तर किसी विरले गुरुमुख ने ही सत्य का रहस्य जाना है और
ਸਾਚਾ ਰਵਿ ਰਹਿਆ ਮਨੁ ਰਾਤਾ ॥
साचा रवि रहिआ मनु राता ॥
यह मन भी उस परम-सत्य में लीन है।
ਤਿਸ ਕੀ ਓਟ ਗਹੀ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ਮਨਿ ਤਨਿ ਮੈਲੁ ਨ ਕਾਈ ਹੇ ॥੧੩॥
तिस की ओट गही सुखु पाइआ मनि तनि मैलु न काई हे ॥१३॥
उसकी ओट लेकर सुख हासिल हो गया है, अब मन-तन शुद्ध हो गया है॥ १३॥
ਜੀਭ ਰਸਾਇਣਿ ਸਾਚੈ ਰਾਤੀ ॥
जीभ रसाइणि साचै राती ॥
यह जीभ सत्य के रस में ही लीन रहती है।
ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਸੰਗੀ ਭਉ ਨ ਭਰਾਤੀ ॥
हरि प्रभु संगी भउ न भराती ॥
यदि प्रभु साथी है तो कोई भय एवं अहं नहीं।
ਸ੍ਰਵਣ ਸ੍ਰੋਤ ਰਜੇ ਗੁਰਬਾਣੀ ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਮਿਲਾਈ ਹੇ ॥੧੪॥
स्रवण स्रोत रजे गुरबाणी जोती जोति मिलाई हे ॥१४॥
गुरु की वाणी सुनकर कान तृप्त हो गए हैं और यह ज्योति-परमज्योति में विलीन हो गई है॥ १४॥
ਰਖਿ ਰਖਿ ਪੈਰ ਧਰੇ ਪਉ ਧਰਣਾ ॥
रखि रखि पैर धरे पउ धरणा ॥
मैं सोच-समझकर पैर धरती पर रखकर चलता हूँ।
ਜਤ ਕਤ ਦੇਖਉ ਤੇਰੀ ਸਰਣਾ ॥
जत कत देखउ तेरी सरणा ॥
हे ईश्वर ! जहाँ कहीं तेरी ही शरण चाहता हूँ।
ਦੁਖੁ ਸੁਖੁ ਦੇਹਿ ਤੂਹੈ ਮਨਿ ਭਾਵਹਿ ਤੁਝ ਹੀ ਸਿਉ ਬਣਿ ਆਈ ਹੇ ॥੧੫॥
दुखु सुखु देहि तूहै मनि भावहि तुझ ही सिउ बणि आई हे ॥१५॥
चाहे तू दुख अथवा सुख दे, तू ही मन को प्यारा लगता है और मेरी तुझ से ही प्रीति बनी हुई है॥ १५॥
ਅੰਤ ਕਾਲਿ ਕੋ ਬੇਲੀ ਨਾਹੀ ॥
अंत कालि को बेली नाही ॥
अन्तिम समय कोई किसी का साथी नहीं और
ਗੁਰਮੁਖਿ ਜਾਤਾ ਤੁਧੁ ਸਾਲਾਹੀ ॥
गुरमुखि जाता तुधु सालाही ॥
गुरु के माध्यम से इस सत्य को समझकर तेरी ही प्रशंसा करता हूँ।
ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਬੈਰਾਗੀ ਨਿਜ ਘਰਿ ਤਾੜੀ ਲਾਈ ਹੇ ॥੧੬॥੩॥
नानक नामि रते बैरागी निज घरि ताड़ी लाई हे ॥१६॥३॥
हे नानक ! सत्य-नाम में लीन रहने वाले ही वास्तव में वैरागी हैं और उन्होंने सच्चे घर में ही समाधि लगाई हुई है॥ १६॥ ३॥
ਮਾਰੂ ਮਹਲਾ ੧ ॥
मारू महला १ ॥
मारू महला १॥
ਆਦਿ ਜੁਗਾਦੀ ਅਪਰ ਅਪਾਰੇ ॥
आदि जुगादी अपर अपारे ॥
जग के प्रारम्भ व युगों-युगान्तरों से अपरंपार ईश्वर ही व्याप्त है।
ਆਦਿ ਨਿਰੰਜਨ ਖਸਮ ਹਮਾਰੇ ॥
आदि निरंजन खसम हमारे ॥
मायातीत है, सृष्टि का आदि है और वही हमारा मालिक है।
ਸਾਚੇ ਜੋਗ ਜੁਗਤਿ ਵੀਚਾਰੀ ਸਾਚੇ ਤਾੜੀ ਲਾਈ ਹੇ ॥੧॥
साचे जोग जुगति वीचारी साचे ताड़ी लाई हे ॥१॥
उस परम-सत्य ने योग-युक्ति का विचार किया और निर्गुण रूप में समाधि लगा ली॥ १॥
ਕੇਤੜਿਆ ਜੁਗ ਧੁੰਧੂਕਾਰੈ ॥ ਤਾੜੀ ਲਾਈ ਸਿਰਜਣਹਾਰੈ ॥
केतड़िआ जुग धुंधूकारै ॥ ताड़ी लाई सिरजणहारै ॥
सृष्टि-रचना से पूर्व कितने ही युग घोर अंधकार बना रहा सृष्टा ने तब समाधि लगाई थी
ਸਚੁ ਨਾਮੁ ਸਚੀ ਵਡਿਆਈ ਸਾਚੈ ਤਖਤਿ ਵਡਾਈ ਹੇ ॥੨॥
सचु नामु सची वडिआई साचै तखति वडाई हे ॥२॥
उसका नाम सदैव सत्य है, उसकी बड़ाई सदा शाश्वत है, जिसका कर रहा हूँ, वह सत्य के सिंहासन पर विराजमान है॥ २॥
ਸਤਜੁਗਿ ਸਤੁ ਸੰਤੋਖੁ ਸਰੀਰਾ ॥
सतजुगि सतु संतोखु सरीरा ॥
जब सत्ययुग आया तो तब लोगों में सत्य एवं संतोष था।
ਸਤਿ ਸਤਿ ਵਰਤੈ ਗਹਿਰ ਗੰਭੀਰਾ ॥
सति सति वरतै गहिर ग्मभीरा ॥
चारों ओर सत्य का प्रसार था।
ਸਚਾ ਸਾਹਿਬੁ ਸਚੁ ਪਰਖੈ ਸਾਚੈ ਹੁਕਮਿ ਚਲਾਈ ਹੇ ॥੩॥
सचा साहिबु सचु परखै साचै हुकमि चलाई हे ॥३॥
सच्चा परमेश्वर सत्य की ही परख करता है और उसके हुक्म से दुनिया चल रही है॥ ३॥
ਸਤ ਸੰਤੋਖੀ ਸਤਿਗੁਰੁ ਪੂਰਾ ॥
सत संतोखी सतिगुरु पूरा ॥
पूर्ण सतगुरु संतोषी एवं सत्यनिष्ठ है।
ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਮਨੇ ਸੋ ਸੂਰਾ ॥
गुर का सबदु मने सो सूरा ॥
जो गुरु के शब्द में आस्था रखता है, यही शूरवीर है।
ਸਾਚੀ ਦਰਗਹ ਸਾਚੁ ਨਿਵਾਸਾ ਮਾਨੈ ਹੁਕਮੁ ਰਜਾਈ ਹੇ ॥੪॥
साची दरगह साचु निवासा मानै हुकमु रजाई हे ॥४॥
जो परमात्मा के हुक्म एवं रज़ा को मानता है, उसका सत्य के दरबार में निवास होता है॥ ४॥
ਸਤਜੁਗਿ ਸਾਚੁ ਕਹੈ ਸਭੁ ਕੋਈ ॥
सतजुगि साचु कहै सभु कोई ॥
सत्ययुग में प्रत्येक आदमी सत्य बोलता था और
ਸਚਿ ਵਰਤੈ ਸਾਚਾ ਸੋਈ ॥
सचि वरतै साचा सोई ॥
जो सत्य में विचरण करता था, वही सत्यवादी था।
ਮਨਿ ਮੁਖਿ ਸਾਚੁ ਭਰਮ ਭਉ ਭੰਜਨੁ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਾਚੁ ਸਖਾਈ ਹੇ ॥੫॥
मनि मुखि साचु भरम भउ भंजनु गुरमुखि साचु सखाई हे ॥५॥
मन एवं मुख में सत्य के कारण भ्रम-भय मिट जाता था और गुरु के माध्यम से सत्य ही साथी था॥ ५॥
ਤ੍ਰੇਤੈ ਧਰਮ ਕਲਾ ਇਕ ਚੂਕੀ ॥
त्रेतै धरम कला इक चूकी ॥
त्रैता युग में धर्म (रूपी वैल) की एक कला नाश हो गई,
ਤੀਨਿ ਚਰਣ ਇਕ ਦੁਬਿਧਾ ਸੂਕੀ ॥
तीनि चरण इक दुबिधा सूकी ॥
धर्म के तीन पैर रह गए और जीवों के मन में दुविधा प्रगट हो गई।
ਗੁਰਮੁਖਿ ਹੋਵੈ ਸੁ ਸਾਚੁ ਵਖਾਣੈ ਮਨਮੁਖਿ ਪਚੈ ਅਵਾਈ ਹੇ ॥੬॥
गुरमुखि होवै सु साचु वखाणै मनमुखि पचै अवाई हे ॥६॥
इस युग में गुरुमुख ही सत्य बोलता था पर स्वेच्छाचारी दुविधा में चिंताग्रस्त रहता था॥ ६॥
ਮਨਮੁਖਿ ਕਦੇ ਨ ਦਰਗਹ ਸੀਝੈ ॥
मनमुखि कदे न दरगह सीझै ॥
स्वेच्छाचारी प्रभु दरबार में कभी मान्य नहीं होता।
ਬਿਨੁ ਸਬਦੈ ਕਿਉ ਅੰਤਰੁ ਰੀਝੈ ॥
बिनु सबदै किउ अंतरु रीझै ॥
ब्रह्म-शब्द के बिना उसका अन्तर्मन कैसे संतुष्ट हो सकता है?
ਬਾਧੇ ਆਵਹਿ ਬਾਧੇ ਜਾਵਹਿ ਸੋਝੀ ਬੂਝ ਨ ਕਾਈ ਹੇ ॥੭॥
बाधे आवहि बाधे जावहि सोझी बूझ न काई हे ॥७॥
इसलिए स्वेच्छाचारी कर्म-बन्धन के कारण आवागमन में पड़े रहते थे और उन्हें सत्य का ज्ञान नहीं होता था॥ ७॥
ਦਇਆ ਦੁਆਪੁਰਿ ਅਧੀ ਹੋਈ ॥
दइआ दुआपुरि अधी होई ॥
द्वापर युग में दया की भावना आधी हो गई और